04 मार्च 2017

अक्षर खण्ड रमैनी 3


सदा अस्ति भासे निज भास, सोई कहिये परम प्रकाश ।
परम प्रकाश ले झांईं होय, महद अकाश होय बरते सोय ।
बरते बर्त मान परचंड, भासक तुरीयातीत अखंड ।
काल संधि होये उश्वास, आगे पीछे अनवनि भास ।
विविध भावना कल्पित रूप, परकाशी सो साक्षि अनूप ।
शून्य अज्ञान सुषुप्ति होय, अकुलाहट ते नादै सोय ।
(शून्य ज्ञान सुषुप्ति होय, अकुलाहट ते नादी सोय)
नाद वेद अकर्षण जान, तेज नीर प्रगटे तेहि आन ।
पानी पवन गांठि परि जाय, देही देह धरे जग आय ।
सो कौआर शब्द परचंड, बहु व्यवहार खंड ब्रह्मंड ।
जतन भये निज अर्थ को, जेहि छूटे दुख भूरि ।
धूरि परी जब आँख में, सूझे किमि निज मूर ।23
पांजी परख जबै फ़रि आवै, तुरतहि सबै विकार नसावै ।
शब्द सुधार के रहे अकरम, स्वाति भक्ति के खोटे भरम ।
काल जाल जो लखि नहि आवै, तौलौ निज पद नहीं पावै ।
झाईं सन्धि काल पहिचान, सार शब्द बिन गुरु नहि जान ।
परखे रूप अवस्था जाए, आन विचार न ताहि समाए ।
झांईं सन्धि शब्द ले परखे जोय, संशय वाके रहि न कोय ।
धन्य धन्य तरण तरण, जिन परखा संसार ।
बन्दीछोर कबीर सों, परगट गुरु विचार ।24
शब्द सन्धि ले ज्ञानी मूढ़, देह करम जगत आरूढ़ ।
नाद संधि लै सपना होय, झांई शून्य सुषोपित सोय ।
ज्ञान प्रकाशक साक्षी संधि, तुरीयातीत अभास अवंधि ।
झांई ले वरते वर्तमान, सो जो तहाँ परे पहिचान ।
काल अस्थिति के भास नसाए, परख प्रकाश लक्ष बिलगाए ।
बिलगै लक्ष अपन पौ जान, आपु अपन पौ भेद न आन ।
आप अपुन पौ भेद बिनु, उलटि पलटि अरुझाय ।
गुरु बिन मिटे न दुगदुगी, अनवनि यतन नसाय ।25 
निज प्रकाश झांई जो जान, महा संधि माकाश बखान ।
सोई पांजी ल बुद्धि विशेष, प्रकाशक तुरीयातीत अरु शेष ।
विविध भावना बुद्धि अनुरूप, विद्या माया सोई स्वरूप ।
सो संकल्प बसे जिव आप, फ़ुरी अविद्या बहु संताप ।
त्रीगुण पाँच तत्व विस्तार, तीन लोक तेहि के मंझार ।
अदबुद कला बरनि नहि जाई, उपजे खपे तेहि माहि समाई ।
निज झांई जो जानी जाए, सोच मोह सन्देह नसाए ।
अनजाने को ऐही रीत, नाना भांति करे परतीत ।
सकल जगत जाल अरुझान, बिरला और कियो अनुमान ।
कर्ता ब्रह्म भजे दुख जाये, कोई आपै आप कहाये ।
पूरण सम्भव दूसर नाहि, बंधन मोक्ष न एको आहि ।
फ़ल आश्रित स्वर्गहि के भोग, कर्म सुकर्म लहै संयोग ।
करम हीन वाना भगवान, सूत कुसूत लियो पहिचान ।
भांतिन भांतिन पहिरे चीर, युग युग नाचे दास कबीर ।



भासे जीव रूप सो एक, तेही भास के रूप अनेक ।
कोई मगन रूप लौ लीन, कोइ अरूप ईश्वर मन दीन ।
कोई कहै कर्म रूप है सोय, शब्द निरूपन करे पुनि कोइ ।
समय रूप कोई भगवान, कर्ता न्यारा कोई अनुमान ।
कोई कहै ईश्वर ज्योतिहि जान, आतम को कोई स्वतः बखान ।
कई कहि सब पुनि सब तै न्यारा, आपै राम विश्व विस्तारा ।
शब्द भाव कोई अनुमान, अद्वै रूप भई पहिचान ।
दुगदुग रही को बोले बात, बोलत ही सब तत्व नसात ।
बोल अबोल लखे पुनि कोय, भास जीव नहि परखै सोय ।
निज अध्यास झांई अहै, सो संधिक भौ भास ।
प्रथम अनुहारी कल्पना, सदा करे परकास ।
लख चौरासी योनी जेते, देही बुद्धि जानिये तेते ।
जहँ जेहि भास सोई सोइ रूप, निश्चै किया परा भवकूप ।
नाना भांति विषय रसलीन, अरुझि अरुझि जिव मिथ्या दीन ।
दावा विषय जरै सब लोय, बांचा चहै गहै पुनि सोय ।
दृढ़ विश्वास भरोसा राम, कबहू तो वे आवैं काम ।
विषय विकार मांझ संग्राम, राम खटोला किया अराम ।
घायल बिना तीर तरवार, सोइ अभरण जेहि रीझै भरतार ।
कामिनी पहिर पिया सो राची, कहैं कबीर भव बूढ़त बांची ।
भव बूढ़त बेङा भगवान, चढ़े धाय लागी लौ ज्ञान ।
थाह न पावे कहे अथाह, डोलत करत तराहि तराह ।
सूझ परे नहि वार न पार, कहै अपार रहै मझधार ।
मांझधार में किया विवेक, कहाँ के दूजा कहाँ के एक ?
बेरा आपु आपु भवधार, आपै उतरन चाहे पार ।
बिन जाने जाने है और, आपे राम रमै सब ठौर ।
वार पार ना जाने जोर, कहै कबीर पार है ठौर ।
अक्षर खानी अक्षर वानी, अक्षर ते अक्षर उतपानी ।
अक्षर करता आदि प्रकास, ताते अक्षर जगत विलास ।
अक्षर ब्रह्मा विष्णु महेश, अक्षर सत रज तम उपदेश ।
छिति जल पावक मरुत अकास, ये सब अक्षर मो परकास ।
दश औतार सो अक्षर माया, अक्षर निर्गुण ब्रह्म निकाया ।
अक्षर काल संधि अरु झांई, अक्षर दहिने अक्षर बांई ।
अक्षर आगे करे पुकार, अटके नर नहि उतरे पार ।
गुरुकृपा निज उदय विचार, जानि परी तब गुरु मतसार ।
जहाँ ओस को लेस नही, बूङे सकल  जहान ।
गुरुकृपा निज परख बल, तब ताको पहिचान ।
अक्षर काया अक्षर माया, अक्षर सतगुरु भेद बताया ।
अक्षर यन्त्र मन्त्र अरु पूजा, अक्षर ध्यान धरावत दूजा ।
अक्षर पढ़ि पढ़ि जगत भुलान, अक्षर बिनु नहि पावै ज्ञान ।
बिन अक्षर नहि पावै गती, अक्षर बिन नहि पावै रती ।
अक्षर भये अनेक उपाय, अक्षर सुनि सुनि शून्य समाय ।
अक्षर से भव आवै जाय, अक्षर काल सबन को खाय ।
अक्षर सबका भाखे लेखा, अक्षर उत्पति प्रलय विशेखा ।
अक्षर की पावै सहिदानी, कहैं कबीर तब उतरे प्रानी ।
परखावै गुरु कृपा करि, अक्षर की सहिदानि ।
निज बल उदथ विचारते, तब होवे भ्रम हानि ।
बाबन के बहु बने तरंग, ताते भासत नाना रंग ।
उपजे औ पाले अनुसरै, बाबन अक्षर आखिर करे ।
राम कृष्ण दोऊ लहर अपार, जेहि पद गहि नर उतरे पार ।
महादेव लोमश नहि बांचे, अक्षर त्रास सबै मुनि नाचे ।
ब्रह्मा विष्णु नाचे अधिकाई, जाको धर्म जगत सब गाई ।
नांचै गण गंधर्व मुनि देवा, नाचे सनकादिक बहु भेवा ।
अक्षर त्रास सबन को होई, साधक सिद्ध बचे नही कोई ।
अक्षर त्रास लखे नही कोई, आदि भूल बंछे सब लोई ।
अक्षर सागर अक्षर नाव, करणधार अक्षर समुदाव ।
अक्षर सबका भेद बखान, बिन अक्षर अक्षर नहि जान ।
अक्षर आस ते फ़ंदा परे, अक्षर लखे ते फ़ंदा टरे ।
गुरु सिष अक्षर लखे लखावे, चौरासी फ़ंदा मुक्तावै ।
बिनु गुरु अक्षर कौन छुङावै, अक्षर जाल ते कौन बचावै ।
संचित क्रिया उदय जब होय, मानुष जन्म पावे तब सोय ।
गुरु पारख बल उदय विचार, परख लेहु जगत गुरु मुख सार ।
अस्ति हंस प्रकास अपार, गुरुमुख सुख निज अति दातार ।
अक्षर है तिहु भर्म का, बिनु अक्षर नहिं जान ।
गुरु कृपा निज बुद्धि बल, तब होवै पहिचान ।
जहंवा से सब प्रगटे, सो हम समझत नाहिं ।
यह अज्ञान है मानुषा, सो गुरु ब्रह्म कहि ताहि ।
ब्रह्म विचारे ब्रह्म को, पारख गुरु परसाद ।
रहित रहै पद परखि कै, जिव से होय अवाद ।

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