तुम कहते हो कि एक परमेश्वरता या एक सर्वात्मा जो परमेश्वर है । वह ये सब काम कर रहा है । और मुझे अपने मित्रों पर हेतु व कारणों का आरोपण नहीं करना चाहिये ।
इससे एक प्रकार की भ्रान्ति, बाहरी भ्रान्ति परास्त हुयी । तुम्हारी उन्नति में यह एक पग है ।
किन्तु वेदान्त इससे आगे है और तुमसे कहता है - यदि तुम कहते हो कि परमेश्वर इन सबमें हैं तो यह पूर्ण सत्य नही है, इससे आगे बढ़ो ।
ये सब रूप और ये सब प्रतिमायें और भेद या प्रभेद स्वयं परमेश्वर को धारण करते हैं । किन्तु साथ ही यह सब विभिन्न भ्रान्तियां और रूप मिथ्या हैं और रस्सी में साँप के तुल्य हैं । इससे आगे बढ़ो ! और तुम उस अवस्था को प्राप्त होते हो कि जो इन सब (बातों) से परे है । जो सम्पूर्ण कल्पना से परे है । और सब शब्दों से परे है । यह असत्य भी है ।
इस प्रकार तुम देखते हो कि वेदान्त सब धर्मों का परिपूरक है । यह संसार के किसी धर्म का खण्डन नही करता । यह कहना अनावश्यक है कि यह संसार इस परमेश्वर ने या उस परमेश्वर ने अवश्य रचा होगा । सिद्ध करें कि ये रूप और शक्लें, ये विभिन्न आकृतियां और स्थितियां ही दुनियाँ है और दूसरी कोई वस्तु नही है ।
दो त्रिकोण (triangles) और एक समकोण (rectangle) है । ये दोनों त्रिकोण समद्विभुज (isosceles) हैं । दो भुजायें बराबर हैं । दोनों समान भुजायें अंक 3 से चिह्नित हैं और तीसरी भुजायें 4 से । समकोण में छोटे पार्श्व (sides) 3 से चिह्नित हैं और लम्बे पार्श्व 4 से ।
अब इनको इस तरह रखो कि एक संयुक्त आकृति हो जाये या त्रिकोण की जङ (व तल) का और समकोण की एक तरफ़ का संग हो जाये । तब वह क्या हो जायेगा ?
तब एक षटकोण (hexagon) हम पाते हैं, जिसके सभी पार्श्व 3 हैं । 4 अंकित पार्श्व आकृति के भीतर आ गये और अब वे पार्श्व नही रह गये ।
यह षटकोण हम कैसे पाते हैं ?
त्रिकोण और समकोण की भिन्न प्रकार की स्थिति या भिन्न प्रकार के संयोग से हमें इसकी प्राप्ति होती है । इन आकृतियों और इनसे बनने वाली आकृति के गुणों का क्या हाल है ?
परिणामभूत आकृति के गुण उसमें शामिल आकृतियों के गुणों से बिलकुल भिन्न हैं । अंशाकृतियों में
तीक्ष्ण कोण (acute angles) हैं । परिणामभूत आकृति में तीक्ष्ण कोण बिलकुल है ही नही । एक अंशाकृति में ऋजु कोण (right angles) है और परिणामभूत आकृति में कोई ऋजु कोण नही है ।
अंशाकृतियों में 4 से चिह्नित लम्बे पार्श्व (sides) थे ।
परिणामभूत आकृति में उतनी लम्बाई की कोई दिशा (तर्फ़) नही है । अंशाकृतियां कोई भी समपार्श्व (equilateral) नही थीं । उनके संयोग से बनने वाली आकृति समपार्श्व है । उसके सब कोण बहिर्लम्ब (obtuse) हैं । किसी भी आंशिक भाग के कोण बहिर्लम्ब नही थे ।
यहाँ हम एक ऐसी सृष्टि देख रहे हैं । जिसके सब गुण पहले अज्ञात थे । ये बिलकुल नये गुण कहाँ से आ गये ?
ध्यान दें इस निरानिर नये गुणों की सृष्टि किसी सृष्टिकर्ता ने नही की । ये बिलकुल नये गुण घतकावयय (components parts) से नही आये है । वे एक नवीन रूप का नतीजा हैं ।
वे एक नवीन स्थिति, नवीन आकार का, जिसे वेदान्त ‘माया’ कहता है, परिणाम हैं ।
माया का अर्थ है - नाम और रूप । वे (गुण) नामों और रूपों के परिणाम हैं ।
यह कल्पना करो फ़िर देखो । इस त्रिकोण को ज (h) जलजनकवायु (hydrogen) होने दो । इस दूसरे को 2 और तीसरे को ओ (oxygen) होने दो । इससे तुमको ज2ओ (h2o) जल की प्राप्ति होती है ।
इन दो मूल तत्वों हाइड्रोजेन और आक्सीजेन (एक प्रकार की वायु) में अपने अपने निजी गुण थे और परिणामभूत योग एक निरानिर नवीन वस्तु है । हाइड्रोजेन और आक्सीजेन हमें जल देता है । हाइड्रोजेन भभक उठने वाला पदार्थ है, किन्तु जल ऐसा नही है ।
जल में एक ऐसा गुण है, जिससे हाइड्रोजेन बिलकुल अनभिज्ञ है । आक्सीजेन ज्वलन का सहायक है, किन्तु पानी ऐसी सहायता नही करता । उसमें अपना निजी एक गुण है, बिलकुल नया ।
फ़िर हाइड्रोजेन बहुत हल्का है, किन्तु आक्सीजेन में वैसा हल्कापन नही है । गुब्बारों में भरा हाइड्रोजेन आकाश में उङा ले जाता है किन्तु जल परिणामभूत योग ऐसा नही करता । अवयव रूप तत्वों के गुण परिणामभूत योग से बिलकुल विभिन्न हैं ।
परिणामभूत योग को अपने गुणों की प्राप्ति कहाँ से हुयी ? उसको ये गुण अपने रचियता से मिले या अवयवों से ?
नही, वे रूप से, नये रूप से, नवीन स्थिति से, आकार से आये ।
यह है जो हमें वेदान्त बताता है । वह बताता है कि जो कुछ तुम संसार में देखते हो, वह ‘नाम और रूप’ का परिणाम मात्र है । इसके और उसके लिये, जो नाम और रूप का परिणाम हैं । तुम्हें एक सृष्टिकर्ता की स्थापना करने की जरूरत नही है ।
विज्ञान सिद्ध है कि कोयला और हीरा एक ही पदार्थ हैं । लेकिन कोयले के गुणों से बिलकुल भिन्न गुण हीरे में है । कठोर हीरा लोहे को काट सकता है । कोमल कोयला कागज पर घिसने से क्षरित होता है । हीरा अमूल्य, बहुमूल्य, प्रभापूर्ण है । कोयला सस्ता, कुरूप, काला है । दोनों के भेद पर ध्यान दो । तथापि वास्तव में वे दोनों एक ओर वही वस्तु हैं ।
वेदान्त कहता है कि यह एक अच्छी वस्तु है और यह एक बुरी वस्तु है । हीरा अच्छा है और कोयला खराब है । एक वस्तु है जिसे तुम अच्छा कहते हो और यह एक वस्तु है जिसे तुम खराब कहते हो । एक वस्तु जिसे तुम मित्र और एक वस्तु जिसे तुम शत्रु कहते हो ।
किन्तु वास्तव में उनके नीचे एक और वही वस्तु स्थित है ।
ठीक जैसे कि वही कार्बन (carbon) कोयले के रूप में प्रगट होता है और वही हीरे में ।
सो वास्तव में एक और वही ईश्वरता है जो दोनों स्थानों में प्रकट होती हैं । नाम और रूप में भेद है और किसी बात में नही । वैज्ञानिक बताते हैं कि कार्बन के कण कोयले की अपेक्षा हीरे में भिन्न प्रकार से स्थित हैं । हीरे के अणुओं के बनाने में भिन्न रूप के होते हैं ।
हीरे और कोयले में भेद नाम और रूप के कारण से है या उस कारण से है, जिसे हिन्दू माया कहते हैं । ये सब भेद नाम और रूप के कारण से हैं ।
इसी तरह अच्छे और बुरे के भेद का कारण माया, नाम और रूप है और कुछ नही । और ये नाम और रूप सत्य नही हैं क्योंकि वे अनित्य हैं । वे मिथ्या हैं क्योंकि हम उन्हें एक समय देखते हैं, दूसरे समय नही देखते हैं ।
प्रथ्वी का यह अदभुत व्यापार नामों और रूपों के अतिरिक्त कुछ नही है । विभेदों, परिवर्तनों और संयोगों के सिवाय और कुछ नही है । और इन विभिन्न परिवर्तनों तथा संयोगों का कारण क्या है ?
उनका कारण है - आन्तरिक भ्रान्ति !
आन्तरिक भ्रान्तिमूलक इन नाम रूपों में, एक ब्रह्म अपने को प्रकट करता है । संसार के नामों और रूपों में, जो माया कहलाते हैं । परमेश्वर आप स्वयं आविर्भूत होता है । इसका कारण है, भीतरी भ्रान्ति ।
उसके पार जाओ और तुम सब कुछ हो जाते हो । वही वास्तव में देखता है । जो सबमें समान देखता है । उसी मनुष्य की आँखें खुली हुयी हैं जो सबमें एकसां एक परमेश्वर को देखता है ।
इससे एक प्रकार की भ्रान्ति, बाहरी भ्रान्ति परास्त हुयी । तुम्हारी उन्नति में यह एक पग है ।
किन्तु वेदान्त इससे आगे है और तुमसे कहता है - यदि तुम कहते हो कि परमेश्वर इन सबमें हैं तो यह पूर्ण सत्य नही है, इससे आगे बढ़ो ।
ये सब रूप और ये सब प्रतिमायें और भेद या प्रभेद स्वयं परमेश्वर को धारण करते हैं । किन्तु साथ ही यह सब विभिन्न भ्रान्तियां और रूप मिथ्या हैं और रस्सी में साँप के तुल्य हैं । इससे आगे बढ़ो ! और तुम उस अवस्था को प्राप्त होते हो कि जो इन सब (बातों) से परे है । जो सम्पूर्ण कल्पना से परे है । और सब शब्दों से परे है । यह असत्य भी है ।
इस प्रकार तुम देखते हो कि वेदान्त सब धर्मों का परिपूरक है । यह संसार के किसी धर्म का खण्डन नही करता । यह कहना अनावश्यक है कि यह संसार इस परमेश्वर ने या उस परमेश्वर ने अवश्य रचा होगा । सिद्ध करें कि ये रूप और शक्लें, ये विभिन्न आकृतियां और स्थितियां ही दुनियाँ है और दूसरी कोई वस्तु नही है ।
दो त्रिकोण (triangles) और एक समकोण (rectangle) है । ये दोनों त्रिकोण समद्विभुज (isosceles) हैं । दो भुजायें बराबर हैं । दोनों समान भुजायें अंक 3 से चिह्नित हैं और तीसरी भुजायें 4 से । समकोण में छोटे पार्श्व (sides) 3 से चिह्नित हैं और लम्बे पार्श्व 4 से ।
अब इनको इस तरह रखो कि एक संयुक्त आकृति हो जाये या त्रिकोण की जङ (व तल) का और समकोण की एक तरफ़ का संग हो जाये । तब वह क्या हो जायेगा ?
तब एक षटकोण (hexagon) हम पाते हैं, जिसके सभी पार्श्व 3 हैं । 4 अंकित पार्श्व आकृति के भीतर आ गये और अब वे पार्श्व नही रह गये ।
यह षटकोण हम कैसे पाते हैं ?
त्रिकोण और समकोण की भिन्न प्रकार की स्थिति या भिन्न प्रकार के संयोग से हमें इसकी प्राप्ति होती है । इन आकृतियों और इनसे बनने वाली आकृति के गुणों का क्या हाल है ?
परिणामभूत आकृति के गुण उसमें शामिल आकृतियों के गुणों से बिलकुल भिन्न हैं । अंशाकृतियों में
तीक्ष्ण कोण (acute angles) हैं । परिणामभूत आकृति में तीक्ष्ण कोण बिलकुल है ही नही । एक अंशाकृति में ऋजु कोण (right angles) है और परिणामभूत आकृति में कोई ऋजु कोण नही है ।
अंशाकृतियों में 4 से चिह्नित लम्बे पार्श्व (sides) थे ।
परिणामभूत आकृति में उतनी लम्बाई की कोई दिशा (तर्फ़) नही है । अंशाकृतियां कोई भी समपार्श्व (equilateral) नही थीं । उनके संयोग से बनने वाली आकृति समपार्श्व है । उसके सब कोण बहिर्लम्ब (obtuse) हैं । किसी भी आंशिक भाग के कोण बहिर्लम्ब नही थे ।
यहाँ हम एक ऐसी सृष्टि देख रहे हैं । जिसके सब गुण पहले अज्ञात थे । ये बिलकुल नये गुण कहाँ से आ गये ?
ध्यान दें इस निरानिर नये गुणों की सृष्टि किसी सृष्टिकर्ता ने नही की । ये बिलकुल नये गुण घतकावयय (components parts) से नही आये है । वे एक नवीन रूप का नतीजा हैं ।
वे एक नवीन स्थिति, नवीन आकार का, जिसे वेदान्त ‘माया’ कहता है, परिणाम हैं ।
माया का अर्थ है - नाम और रूप । वे (गुण) नामों और रूपों के परिणाम हैं ।
यह कल्पना करो फ़िर देखो । इस त्रिकोण को ज (h) जलजनकवायु (hydrogen) होने दो । इस दूसरे को 2 और तीसरे को ओ (oxygen) होने दो । इससे तुमको ज2ओ (h2o) जल की प्राप्ति होती है ।
इन दो मूल तत्वों हाइड्रोजेन और आक्सीजेन (एक प्रकार की वायु) में अपने अपने निजी गुण थे और परिणामभूत योग एक निरानिर नवीन वस्तु है । हाइड्रोजेन और आक्सीजेन हमें जल देता है । हाइड्रोजेन भभक उठने वाला पदार्थ है, किन्तु जल ऐसा नही है ।
जल में एक ऐसा गुण है, जिससे हाइड्रोजेन बिलकुल अनभिज्ञ है । आक्सीजेन ज्वलन का सहायक है, किन्तु पानी ऐसी सहायता नही करता । उसमें अपना निजी एक गुण है, बिलकुल नया ।
फ़िर हाइड्रोजेन बहुत हल्का है, किन्तु आक्सीजेन में वैसा हल्कापन नही है । गुब्बारों में भरा हाइड्रोजेन आकाश में उङा ले जाता है किन्तु जल परिणामभूत योग ऐसा नही करता । अवयव रूप तत्वों के गुण परिणामभूत योग से बिलकुल विभिन्न हैं ।
परिणामभूत योग को अपने गुणों की प्राप्ति कहाँ से हुयी ? उसको ये गुण अपने रचियता से मिले या अवयवों से ?
नही, वे रूप से, नये रूप से, नवीन स्थिति से, आकार से आये ।
यह है जो हमें वेदान्त बताता है । वह बताता है कि जो कुछ तुम संसार में देखते हो, वह ‘नाम और रूप’ का परिणाम मात्र है । इसके और उसके लिये, जो नाम और रूप का परिणाम हैं । तुम्हें एक सृष्टिकर्ता की स्थापना करने की जरूरत नही है ।
विज्ञान सिद्ध है कि कोयला और हीरा एक ही पदार्थ हैं । लेकिन कोयले के गुणों से बिलकुल भिन्न गुण हीरे में है । कठोर हीरा लोहे को काट सकता है । कोमल कोयला कागज पर घिसने से क्षरित होता है । हीरा अमूल्य, बहुमूल्य, प्रभापूर्ण है । कोयला सस्ता, कुरूप, काला है । दोनों के भेद पर ध्यान दो । तथापि वास्तव में वे दोनों एक ओर वही वस्तु हैं ।
वेदान्त कहता है कि यह एक अच्छी वस्तु है और यह एक बुरी वस्तु है । हीरा अच्छा है और कोयला खराब है । एक वस्तु है जिसे तुम अच्छा कहते हो और यह एक वस्तु है जिसे तुम खराब कहते हो । एक वस्तु जिसे तुम मित्र और एक वस्तु जिसे तुम शत्रु कहते हो ।
किन्तु वास्तव में उनके नीचे एक और वही वस्तु स्थित है ।
ठीक जैसे कि वही कार्बन (carbon) कोयले के रूप में प्रगट होता है और वही हीरे में ।
सो वास्तव में एक और वही ईश्वरता है जो दोनों स्थानों में प्रकट होती हैं । नाम और रूप में भेद है और किसी बात में नही । वैज्ञानिक बताते हैं कि कार्बन के कण कोयले की अपेक्षा हीरे में भिन्न प्रकार से स्थित हैं । हीरे के अणुओं के बनाने में भिन्न रूप के होते हैं ।
हीरे और कोयले में भेद नाम और रूप के कारण से है या उस कारण से है, जिसे हिन्दू माया कहते हैं । ये सब भेद नाम और रूप के कारण से हैं ।
इसी तरह अच्छे और बुरे के भेद का कारण माया, नाम और रूप है और कुछ नही । और ये नाम और रूप सत्य नही हैं क्योंकि वे अनित्य हैं । वे मिथ्या हैं क्योंकि हम उन्हें एक समय देखते हैं, दूसरे समय नही देखते हैं ।
प्रथ्वी का यह अदभुत व्यापार नामों और रूपों के अतिरिक्त कुछ नही है । विभेदों, परिवर्तनों और संयोगों के सिवाय और कुछ नही है । और इन विभिन्न परिवर्तनों तथा संयोगों का कारण क्या है ?
उनका कारण है - आन्तरिक भ्रान्ति !
आन्तरिक भ्रान्तिमूलक इन नाम रूपों में, एक ब्रह्म अपने को प्रकट करता है । संसार के नामों और रूपों में, जो माया कहलाते हैं । परमेश्वर आप स्वयं आविर्भूत होता है । इसका कारण है, भीतरी भ्रान्ति ।
उसके पार जाओ और तुम सब कुछ हो जाते हो । वही वास्तव में देखता है । जो सबमें समान देखता है । उसी मनुष्य की आँखें खुली हुयी हैं जो सबमें एकसां एक परमेश्वर को देखता है ।
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