1 - पृथ्वी तत्व धारणा
यह चारो कोण ‘लकार’ हि युक्तं, जांनहुं पृथ्वी रूपं ।
पुनि पीत वर्ण हृदि मंडल कहिये, बिधि अंकित सु अनूपं ।
तहं घटिका पंच प्रांण करि लीनं, चित्त स्थम्भन होई ।
सुनि शिष्य अवनि जय करै नित्य ही, भूमि धारणा सोई । (चौपइ)
- पृथ्वी आदि तत्वों को ध्यानस्थ बीज मन्त्र (ॐकार या गुरु उपदिष्ट मन्त्र) से ध्यान कर तत्वों पर अधिकार करना ‘धारणा’ है । धारणा के तत्व भेद से पाँच प्रकार हैं । पृथ्वी तत्व धारणा के लिये साधक को हृदय मण्डल में पृथ्वी रूप की परिकल्पना करना चाहिये । वहाँ चारों कोणों में ‘ल’ अक्षर का संयोजन करना चाहिये, भूमि पीले वर्ण की तथा वर्तुलाकार समझनी चाहिये । उस पर ब्रह्मा के अनुपम विग्रह की कल्पना करनी चाहिये । वहाँ पांच घङी तक प्रायाणाम विधि से चित्त निरोध का अभ्यास करे । पृथ्वी तत्व की धारणा से योगी पृथ्वी तत्व पर विजय पाता है ।
2 - जल तत्व धारणा
अक्षर ‘वकार’ संयुक्त जानि, जल चन्द्र खण्ड निद्धरिं ।
पुनि ऋषीकेश अङ्कित अति शोभित, कंठ पारदाकार ।
तहं घटिका पंच प्राण करि लीनं, चित्त धारि कैं रहिये ।
विष कालकूट ब्यापै नहिं कबहू, वारि धारणा कहिये ।
- जल तत्व की कण्ठ में अर्धचन्द्राकार शुभ्र पारद के समान श्वेत मण्डल युक्त परिकल्पना करनी चाहिये । उसमें ‘व’ अक्षर तथा विष्णु के विग्रह की परिकल्पना करें । वहाँ पांच घङी तक प्राणायाम द्वारा चित्त निरोध का अभ्यास करे । जल तत्व की धारणा से योगी पर कालकूट आदि विषों का कोई प्रभाव नहीं होता । (उल्लास 1 ज्ञानसमुद्र 65)
ब्रह्मा विरुणुश्च रुद्रश्च, ईश्वरश्च सदाशिवः ।
एतास्तु देवताः प्रोक्ताः धारणाना क्रमेण तु ।
(तुलना) गोरक्ष पद्धति
3 - तेज तत्व धारणा
यह अग्नि त्रिकोण ‘रेफ’ संयुक्तं, पद्यराग आभास ।
पुनि इन्द्र गोपु दुति मध्य तालुका, कहिये रुद्र निवासं ।
तहं घटिका पंच प्राण करि लीनं, ग्रन्थहि उक्त वषांनं ।
सुनि शिष्य अग्नि भयहन्ता कहिये, तेज धारणा जांनं ।
- तेज (अग्नि) तत्व की धारणा के लिये योगी अपने तालु प्रदेश में त्रिकोण पद्मराग मणि सदृश रक्तमण्डल की परिकल्पना कर उन तीनों कोणों में ‘र’ अक्षर को रखे । फिर इन्द्रगोप (बीरबहूटी) के रंग वाले रुद्र के वास की कल्पना करे । यहाँ योगी पांच घङी तक प्राणायाम से चित्तवृत्ति रोकने का अभ्यास करे ऐसा योग ग्रन्थों में है । अग्नि तत्व धारणा से योगी के सभी प्रकार के भय दूर हो जाते हैं ।
र्धेन्दुप्रतिमं च कुन्दधवलं कण्ठे‘म्बुतत्वं स्थितम,
तत् पीयूषवकारबीजसहितं युक्तं सदा विष्णुना ।
प्राणं तत्र विलीय पत्र घटिकाश्चित्तान्वितं धारयेद,
एषा दुःसहकालकूटजरणी स्यादाम्बवी धारणा ।
(तुलना) गोरक्ष पद्धति 2. 55
यत् तालुस्थितमिन्द्रगोपसदृश तत्व त्रिकोणं ज्वलत,
तेजोरेफयुतं प्रवालरुचिरं रुद्रेण यत सङ्गम ।
प्राणं तत्र विलीय पञ्च घटिकाश्चित्तान्वित धारयेद,
एषा वह्निजयं सदा विदधती वैश्वानरी धारणा ।
(तुलना) गोरक्ष पद्धति 2. 56 सु. 2, 5
4 - वायु तत्व धारणा
भ्रुव मध्य ‘यकार’ सहित षटकोणं, ऐसो लक्ष विचारं ।
पुनि मेघ वर्ण ईश्वर करि अङ्कित, बारम्बार निहारं ।
तहं घटिका पंच प्राण करि लीनं, खेचर सिद्धि हि पावै ।
सुनि शिष्य धारणा वायुतत्व की, जो नींकैं करि आवै ।
- भ्रुवों के मध्य भाग में मेघ वर्ण वाले छह कोणों युक्त वायुमण्डल की कल्पना करे तथा उसमें ‘यकार’ वर्ण का संयोजन कर वहाँ ईश्वर विग्रह की परिकल्पना करे । उस विग्रह को बारम्बार देखते हुये योगी को पांच घङी तक प्राणायाम विधि से मन का निरोध करने का अभ्यास करना चाहिये ।
इस प्रकार वायु तत्व धारणा से, यदि यह सिद्ध हो जाय, योगी को खेचरी सिद्धि प्राप्त होती है ।
5 - आकाश तत्व धारणा
अब ब्रह्मरंध्र आकाश तत्व है, शुभ्र वर्तुलाकार ।
जहं निश्चय जांनि सदाशिव तिष्ठति, अक्षर सहित ‘हकारं’ ।
तहं घटिका पंच प्राण करि लीनं, परम मुक्ति की दाता ।
सुनि शिष्य धारणा व्योम तत्व की, योग ग्रन्थ विख्याता ।
- आकाश तत्व का स्थान है ब्रह्मरन्ध्र । वह गोल, सफेद चमकदार रंग वाला है । वहाँ सदाशिव का मनोहारी विग्रह है, ‘हकार’ अक्षर है । वहाँ यदि योगी पांच घडी तक प्राण अवरोध कर चित्तवृत्ति रोकने का अभ्यास करे तो आकाश तत्व का धारणा अभ्यास परमपद मोक्ष के द्वार को खोलता है । योग ग्रन्थों में इस तत्व धारणा का यही माहात्म्य है । (उल्लास 1 ज्ञानसमुद्र 67)
यद् भिन्नाञ्जनपुञ्जसन्निभमिदं वृत्तं भ्रुवोरन्तरे,
तत्व वायुमयं यकारसहित तत्रेश्वरो देवता ।
प्राणं तत्र विलीय पञ्च घटिकाश्चित्तान्वित धारयेद,
एषा खे गमनं करोति यमिनां वै वायवी धारणा ।
(तुलना) गोरक्ष पद्धति (2. 57)
आकाशं सुविशुद्धवारिसदृशं यद ब्रह्मरन्ध्रे स्थितम,
यन्नाथेन सदाशिवेन सहितं सान्तं हकाराक्षरम ।
प्राणं तत्र विलीय पञ्च घटिकाश्चित्तान्वितं धारयेद,
एषा मोक्षकपाटपाटनपटुः प्रोक्ता नभोधारणा ।
(तुलना) गोरक्ष पद्धति 2. 58)
यह येक थंभिनी एक द्राविणी, एक सु दहनी कहिये ।
पुनि येक भ्रामिणी येक शोषणी, सदगुरु बिना न लहिये ।
ये पंच तत्व की पंच धारणा, तिन के भेद सुनाये ।
अब आगै ध्यान कहौं बहु बिधि करि, जो ग्रन्थनि महिं गाये ।
- उपर्युक्त पांच तत्वों की धारणाओं में प्रथम पृथ्वी तत्व की धारणा ‘स्तम्भिनी’ कहलाती है ।
- जल तत्व की धारणा ‘द्राविणी’ कहलाती है ।
- अग्नि तत्व की धारणा ‘दहनी’ तथा वायु तत्व की धारणा ‘भ्रामिणी’ कहलाती है ।
- आकाश तत्व की धारणा ‘शोषिणी’ कहलाती है ।
- ये सभी धारणाएं बिना सदगुरु के सिद्ध नहीं होतीं ।
इस तरह पांच तत्वों की पांच धारणाओं का भेद सहित वर्णन कर अब योग शास्त्र (प्रमाणिक ग्रन्थों) में कही ध्यान की बहुत सी विधि बताऊंगा ।
यह चारो कोण ‘लकार’ हि युक्तं, जांनहुं पृथ्वी रूपं ।
पुनि पीत वर्ण हृदि मंडल कहिये, बिधि अंकित सु अनूपं ।
तहं घटिका पंच प्रांण करि लीनं, चित्त स्थम्भन होई ।
सुनि शिष्य अवनि जय करै नित्य ही, भूमि धारणा सोई । (चौपइ)
- पृथ्वी आदि तत्वों को ध्यानस्थ बीज मन्त्र (ॐकार या गुरु उपदिष्ट मन्त्र) से ध्यान कर तत्वों पर अधिकार करना ‘धारणा’ है । धारणा के तत्व भेद से पाँच प्रकार हैं । पृथ्वी तत्व धारणा के लिये साधक को हृदय मण्डल में पृथ्वी रूप की परिकल्पना करना चाहिये । वहाँ चारों कोणों में ‘ल’ अक्षर का संयोजन करना चाहिये, भूमि पीले वर्ण की तथा वर्तुलाकार समझनी चाहिये । उस पर ब्रह्मा के अनुपम विग्रह की कल्पना करनी चाहिये । वहाँ पांच घङी तक प्रायाणाम विधि से चित्त निरोध का अभ्यास करे । पृथ्वी तत्व की धारणा से योगी पृथ्वी तत्व पर विजय पाता है ।
2 - जल तत्व धारणा
अक्षर ‘वकार’ संयुक्त जानि, जल चन्द्र खण्ड निद्धरिं ।
पुनि ऋषीकेश अङ्कित अति शोभित, कंठ पारदाकार ।
तहं घटिका पंच प्राण करि लीनं, चित्त धारि कैं रहिये ।
विष कालकूट ब्यापै नहिं कबहू, वारि धारणा कहिये ।
- जल तत्व की कण्ठ में अर्धचन्द्राकार शुभ्र पारद के समान श्वेत मण्डल युक्त परिकल्पना करनी चाहिये । उसमें ‘व’ अक्षर तथा विष्णु के विग्रह की परिकल्पना करें । वहाँ पांच घङी तक प्राणायाम द्वारा चित्त निरोध का अभ्यास करे । जल तत्व की धारणा से योगी पर कालकूट आदि विषों का कोई प्रभाव नहीं होता । (उल्लास 1 ज्ञानसमुद्र 65)
ब्रह्मा विरुणुश्च रुद्रश्च, ईश्वरश्च सदाशिवः ।
एतास्तु देवताः प्रोक्ताः धारणाना क्रमेण तु ।
(तुलना) गोरक्ष पद्धति
3 - तेज तत्व धारणा
यह अग्नि त्रिकोण ‘रेफ’ संयुक्तं, पद्यराग आभास ।
पुनि इन्द्र गोपु दुति मध्य तालुका, कहिये रुद्र निवासं ।
तहं घटिका पंच प्राण करि लीनं, ग्रन्थहि उक्त वषांनं ।
सुनि शिष्य अग्नि भयहन्ता कहिये, तेज धारणा जांनं ।
- तेज (अग्नि) तत्व की धारणा के लिये योगी अपने तालु प्रदेश में त्रिकोण पद्मराग मणि सदृश रक्तमण्डल की परिकल्पना कर उन तीनों कोणों में ‘र’ अक्षर को रखे । फिर इन्द्रगोप (बीरबहूटी) के रंग वाले रुद्र के वास की कल्पना करे । यहाँ योगी पांच घङी तक प्राणायाम से चित्तवृत्ति रोकने का अभ्यास करे ऐसा योग ग्रन्थों में है । अग्नि तत्व धारणा से योगी के सभी प्रकार के भय दूर हो जाते हैं ।
र्धेन्दुप्रतिमं च कुन्दधवलं कण्ठे‘म्बुतत्वं स्थितम,
तत् पीयूषवकारबीजसहितं युक्तं सदा विष्णुना ।
प्राणं तत्र विलीय पत्र घटिकाश्चित्तान्वितं धारयेद,
एषा दुःसहकालकूटजरणी स्यादाम्बवी धारणा ।
(तुलना) गोरक्ष पद्धति 2. 55
यत् तालुस्थितमिन्द्रगोपसदृश तत्व त्रिकोणं ज्वलत,
तेजोरेफयुतं प्रवालरुचिरं रुद्रेण यत सङ्गम ।
प्राणं तत्र विलीय पञ्च घटिकाश्चित्तान्वित धारयेद,
एषा वह्निजयं सदा विदधती वैश्वानरी धारणा ।
(तुलना) गोरक्ष पद्धति 2. 56 सु. 2, 5
4 - वायु तत्व धारणा
भ्रुव मध्य ‘यकार’ सहित षटकोणं, ऐसो लक्ष विचारं ।
पुनि मेघ वर्ण ईश्वर करि अङ्कित, बारम्बार निहारं ।
तहं घटिका पंच प्राण करि लीनं, खेचर सिद्धि हि पावै ।
सुनि शिष्य धारणा वायुतत्व की, जो नींकैं करि आवै ।
- भ्रुवों के मध्य भाग में मेघ वर्ण वाले छह कोणों युक्त वायुमण्डल की कल्पना करे तथा उसमें ‘यकार’ वर्ण का संयोजन कर वहाँ ईश्वर विग्रह की परिकल्पना करे । उस विग्रह को बारम्बार देखते हुये योगी को पांच घङी तक प्राणायाम विधि से मन का निरोध करने का अभ्यास करना चाहिये ।
इस प्रकार वायु तत्व धारणा से, यदि यह सिद्ध हो जाय, योगी को खेचरी सिद्धि प्राप्त होती है ।
5 - आकाश तत्व धारणा
अब ब्रह्मरंध्र आकाश तत्व है, शुभ्र वर्तुलाकार ।
जहं निश्चय जांनि सदाशिव तिष्ठति, अक्षर सहित ‘हकारं’ ।
तहं घटिका पंच प्राण करि लीनं, परम मुक्ति की दाता ।
सुनि शिष्य धारणा व्योम तत्व की, योग ग्रन्थ विख्याता ।
- आकाश तत्व का स्थान है ब्रह्मरन्ध्र । वह गोल, सफेद चमकदार रंग वाला है । वहाँ सदाशिव का मनोहारी विग्रह है, ‘हकार’ अक्षर है । वहाँ यदि योगी पांच घडी तक प्राण अवरोध कर चित्तवृत्ति रोकने का अभ्यास करे तो आकाश तत्व का धारणा अभ्यास परमपद मोक्ष के द्वार को खोलता है । योग ग्रन्थों में इस तत्व धारणा का यही माहात्म्य है । (उल्लास 1 ज्ञानसमुद्र 67)
यद् भिन्नाञ्जनपुञ्जसन्निभमिदं वृत्तं भ्रुवोरन्तरे,
तत्व वायुमयं यकारसहित तत्रेश्वरो देवता ।
प्राणं तत्र विलीय पञ्च घटिकाश्चित्तान्वित धारयेद,
एषा खे गमनं करोति यमिनां वै वायवी धारणा ।
(तुलना) गोरक्ष पद्धति (2. 57)
आकाशं सुविशुद्धवारिसदृशं यद ब्रह्मरन्ध्रे स्थितम,
यन्नाथेन सदाशिवेन सहितं सान्तं हकाराक्षरम ।
प्राणं तत्र विलीय पञ्च घटिकाश्चित्तान्वितं धारयेद,
एषा मोक्षकपाटपाटनपटुः प्रोक्ता नभोधारणा ।
(तुलना) गोरक्ष पद्धति 2. 58)
यह येक थंभिनी एक द्राविणी, एक सु दहनी कहिये ।
पुनि येक भ्रामिणी येक शोषणी, सदगुरु बिना न लहिये ।
ये पंच तत्व की पंच धारणा, तिन के भेद सुनाये ।
अब आगै ध्यान कहौं बहु बिधि करि, जो ग्रन्थनि महिं गाये ।
- उपर्युक्त पांच तत्वों की धारणाओं में प्रथम पृथ्वी तत्व की धारणा ‘स्तम्भिनी’ कहलाती है ।
- जल तत्व की धारणा ‘द्राविणी’ कहलाती है ।
- अग्नि तत्व की धारणा ‘दहनी’ तथा वायु तत्व की धारणा ‘भ्रामिणी’ कहलाती है ।
- आकाश तत्व की धारणा ‘शोषिणी’ कहलाती है ।
- ये सभी धारणाएं बिना सदगुरु के सिद्ध नहीं होतीं ।
इस तरह पांच तत्वों की पांच धारणाओं का भेद सहित वर्णन कर अब योग शास्त्र (प्रमाणिक ग्रन्थों) में कही ध्यान की बहुत सी विधि बताऊंगा ।
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