सुनि शिष्य अबहिं समाधि लक्षण, मुक्त योगी वर्तते ।
तहं साध्य साधक एक होई, क्रिया कर्म निवर्तते ।
निरुपाधि नित्य उपाधि रहितं, इहै निश्चय आनिये ।
कछु भिन्न भाव रहै न कोऊ, सो समाधि बखांनिये । (गीतक)
- जहाँ योगी जीवन्मुक्त अवस्था में पहुँच जाता है । साध्य साधक में कोई भेद नहीं रहता और सभी क्रिया, कर्म, अकर्तव्य अवस्था में पहुँच जाते हैं अर्थात योगी का कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता । उस समाधि-अवस्था में आत्मा निरुपाधिक अथ च नित्य उपाधि रहित हो जाता है यह निश्चित समझ लो । जिसमें आत्मा से भिन्न कोई भाव नहीं रह जाता, उसे समाधि अवस्था कहते हैं ।
नहिं शीत उष्ण सुधा तृषा, नहिं मूरछा आलस रहै ।
नहिं जागरं नहि सुप्न सुषुपति, तत्पदं योगी लहै ।
इम नीर महिं गरि जाइ लवनं, एकमेकहि जांनिये ।
कछु भिन्न भाव रहै न कोऊ, सो समाधि वखांनिये ।
- (उस स्थिति में) योगी को न सर्दी, गर्मी सताती है, न भूख प्यास । न मूर्च्छा होती है, न आलस्य । योगी जिस पद को प्राप्त करता है वहाँ न जागरण है, न स्वप्न, न सुषुप्ति । जैसे पानी में नमक गिर जाने पर वह पानी के साथ एकमेक हो जाता है, और पानी नमक में कोई भेदभाव नहीं रहता इसी तरह समाधि अवस्था में भी जीव और ब्रह्म का ऐकात्म्य हो जाता है ।
नहिं हर्ष शोक न सुखं दुःखं, नहीं मान अमानयो ।
पुनि मनौं इन्द्रिय कृत्य नष्टं, गतं ज्ञान अज्ञानयो ।
नहिं जाति कुल नहिं वर्ण आश्रम, जीव ब्रह्म न जानिये ।
कछु भिन्न भाव रहै न कोऊ, सा समाधि वखांनिये ।
- योगी को कुछ प्राप्त होने पर न हर्ष होता है, न शोक, न सुख, न दुःख, न मान-अपमान का भाव होता है । मानों इन्द्रियों की वृत्तियां ही नष्ट हो जाती हैं (इन्द्रियां विषय की ओर नहीं जातीं) उनका विषय सम्बन्धी ज्ञान-अज्ञान सब नष्ट हो जाता है । उस समय उसे न जाति का, न कुल का, न वर्ण का, न आश्रम का कुछ भी अभिमान रह जाता है । यहाँ तक कि जीव और ब्रह्म का भी भेद बोध नहीं रहता । इसे समाधि-अवस्था कहते हैं ।
1 गीतक वा गीतिका छन्द है । इसमें ‘सज जभ रस लाग’ होते है 20 वर्ण का । परन्तु यहाँ यह ‘हरि गीतिका’ छन्द मातृक छन्द है । 16+12 मात्रा का । अन्त में लघु + गुरु हैं या रगण (‘।‘) ।
नहिं शब्द सपरश रूप रस, नहिं गंध जानय रंचहूं ।
नहिं काल कर्म स्वभाव है नहिं, उदय अस्त प्रपंचहूं ।
इम क्षीर क्षीरे आज्य आज्ये, जले जलहिं मिलानिये ।
कछु भिन्न भाव रहै न कोऊ, सा समाधि बखांनिये ।
- योगी को शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध (आदि किसी भी इन्द्रिय के विषयों का) ज्ञान नहीं रहता । न काल, कर्म का स्वभाव उस अवस्था में रहता है, न सूर्य के उदय-अस्त के समय किये जाने वाले कर्म-काण्डों का प्रपञ्च ही । जैसे दूध में कुछ और दूध मिला दिया जाय, घी में कुछ और घी मिला दिया जाय, जल में कुछ और जल मिला दिया जाय तो भी पहले वाले से दूसरे में कोई भेद प्रकट नहीं होता । इसी को समाधि-अवस्था कहा जाता है ।
नहिं देव दैत्य पिशाच राक्षस, भूत प्रेत न संचरै ।
नहिं पवन पानी अग्नि भय पुनि, सर्प सिंहहिं ना डरै ।
नहि यंत्र मंत्र न शस्त्र लागहिं, यह अवस्था गानिये ।
कछु भिन्न भाव रहै न कोऊ, सा समाधि बखांनिये ।
- योगी को देव, दैत्य, पिशाच, राक्षस, भूत, प्रेत का कोई भय नहीं रहता । न उसे वायु, जल, अग्नि, सर्प, सिंह का डर रहता है । न उसे किसी यन्त्र, मन्त्र, शस्त्र की चोट लग सकती है । न उनका असर पड सकता है क्योंकि वह योग ब्रह्म से तादात्म्य सम्बन्ध कर चुका होता है और योग शास्त्रोक्त काय सम्पत्ति को पूर्णतः प्राप्त कर चुका होता है । इस काय सम्पत्ति युक्त अवस्था को ही समाधि कहते हैं ।
1 आज्य = घृत । ‘दुग्धे क्षीरं घृते सर्पि’ गोरक्ष 2, 97
2 योग की एक सिद्वि ऐसी भी वर्णन की गयी है जिसमें शरीर पर शस्त्र आदि का आघात या किसी मन्त्र आदि का प्रभाव नहीं हो सकता ।
जैसे
भेद्यः सर्वशस्त्राणामवध्यः सर्वदेहिनाम ।
अग्राह्यो मन्त्रयन्त्राणा योगी मुक्तः समाधिना ।
(गोरक्ष 2।8190 तथा
‘रूपलावण्यबलवज्रसंहननत्वानि कायसम्पत’ (योगसूत्र 3।46)
(उल्लास 1 ज्ञानसमुद्र 73)
योग सिद्धांत सुनाइयौ, अष्ट अंग संयुक्त ।
या साधन ब्रह्महि मिलै, तेू कहिये, मुक्त । (दोहा)
- मैंने तुझे आठ अंगों से युक्त योग का सिद्धान्त रूप वर्णन कर दिया । इस अष्टाङ्ग योग युक्त साधन के अभ्यास से जीव ब्रह्म से मिल सकता है । उस जीवब्रह्मैक्य अवस्था को ही मुक्त अवस्था कहते हैं ।
तहं साध्य साधक एक होई, क्रिया कर्म निवर्तते ।
निरुपाधि नित्य उपाधि रहितं, इहै निश्चय आनिये ।
कछु भिन्न भाव रहै न कोऊ, सो समाधि बखांनिये । (गीतक)
- जहाँ योगी जीवन्मुक्त अवस्था में पहुँच जाता है । साध्य साधक में कोई भेद नहीं रहता और सभी क्रिया, कर्म, अकर्तव्य अवस्था में पहुँच जाते हैं अर्थात योगी का कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता । उस समाधि-अवस्था में आत्मा निरुपाधिक अथ च नित्य उपाधि रहित हो जाता है यह निश्चित समझ लो । जिसमें आत्मा से भिन्न कोई भाव नहीं रह जाता, उसे समाधि अवस्था कहते हैं ।
नहिं शीत उष्ण सुधा तृषा, नहिं मूरछा आलस रहै ।
नहिं जागरं नहि सुप्न सुषुपति, तत्पदं योगी लहै ।
इम नीर महिं गरि जाइ लवनं, एकमेकहि जांनिये ।
कछु भिन्न भाव रहै न कोऊ, सो समाधि वखांनिये ।
- (उस स्थिति में) योगी को न सर्दी, गर्मी सताती है, न भूख प्यास । न मूर्च्छा होती है, न आलस्य । योगी जिस पद को प्राप्त करता है वहाँ न जागरण है, न स्वप्न, न सुषुप्ति । जैसे पानी में नमक गिर जाने पर वह पानी के साथ एकमेक हो जाता है, और पानी नमक में कोई भेदभाव नहीं रहता इसी तरह समाधि अवस्था में भी जीव और ब्रह्म का ऐकात्म्य हो जाता है ।
नहिं हर्ष शोक न सुखं दुःखं, नहीं मान अमानयो ।
पुनि मनौं इन्द्रिय कृत्य नष्टं, गतं ज्ञान अज्ञानयो ।
नहिं जाति कुल नहिं वर्ण आश्रम, जीव ब्रह्म न जानिये ।
कछु भिन्न भाव रहै न कोऊ, सा समाधि वखांनिये ।
- योगी को कुछ प्राप्त होने पर न हर्ष होता है, न शोक, न सुख, न दुःख, न मान-अपमान का भाव होता है । मानों इन्द्रियों की वृत्तियां ही नष्ट हो जाती हैं (इन्द्रियां विषय की ओर नहीं जातीं) उनका विषय सम्बन्धी ज्ञान-अज्ञान सब नष्ट हो जाता है । उस समय उसे न जाति का, न कुल का, न वर्ण का, न आश्रम का कुछ भी अभिमान रह जाता है । यहाँ तक कि जीव और ब्रह्म का भी भेद बोध नहीं रहता । इसे समाधि-अवस्था कहते हैं ।
1 गीतक वा गीतिका छन्द है । इसमें ‘सज जभ रस लाग’ होते है 20 वर्ण का । परन्तु यहाँ यह ‘हरि गीतिका’ छन्द मातृक छन्द है । 16+12 मात्रा का । अन्त में लघु + गुरु हैं या रगण (‘।‘) ।
नहिं शब्द सपरश रूप रस, नहिं गंध जानय रंचहूं ।
नहिं काल कर्म स्वभाव है नहिं, उदय अस्त प्रपंचहूं ।
इम क्षीर क्षीरे आज्य आज्ये, जले जलहिं मिलानिये ।
कछु भिन्न भाव रहै न कोऊ, सा समाधि बखांनिये ।
- योगी को शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध (आदि किसी भी इन्द्रिय के विषयों का) ज्ञान नहीं रहता । न काल, कर्म का स्वभाव उस अवस्था में रहता है, न सूर्य के उदय-अस्त के समय किये जाने वाले कर्म-काण्डों का प्रपञ्च ही । जैसे दूध में कुछ और दूध मिला दिया जाय, घी में कुछ और घी मिला दिया जाय, जल में कुछ और जल मिला दिया जाय तो भी पहले वाले से दूसरे में कोई भेद प्रकट नहीं होता । इसी को समाधि-अवस्था कहा जाता है ।
नहिं देव दैत्य पिशाच राक्षस, भूत प्रेत न संचरै ।
नहिं पवन पानी अग्नि भय पुनि, सर्प सिंहहिं ना डरै ।
नहि यंत्र मंत्र न शस्त्र लागहिं, यह अवस्था गानिये ।
कछु भिन्न भाव रहै न कोऊ, सा समाधि बखांनिये ।
- योगी को देव, दैत्य, पिशाच, राक्षस, भूत, प्रेत का कोई भय नहीं रहता । न उसे वायु, जल, अग्नि, सर्प, सिंह का डर रहता है । न उसे किसी यन्त्र, मन्त्र, शस्त्र की चोट लग सकती है । न उनका असर पड सकता है क्योंकि वह योग ब्रह्म से तादात्म्य सम्बन्ध कर चुका होता है और योग शास्त्रोक्त काय सम्पत्ति को पूर्णतः प्राप्त कर चुका होता है । इस काय सम्पत्ति युक्त अवस्था को ही समाधि कहते हैं ।
1 आज्य = घृत । ‘दुग्धे क्षीरं घृते सर्पि’ गोरक्ष 2, 97
2 योग की एक सिद्वि ऐसी भी वर्णन की गयी है जिसमें शरीर पर शस्त्र आदि का आघात या किसी मन्त्र आदि का प्रभाव नहीं हो सकता ।
जैसे
भेद्यः सर्वशस्त्राणामवध्यः सर्वदेहिनाम ।
अग्राह्यो मन्त्रयन्त्राणा योगी मुक्तः समाधिना ।
(गोरक्ष 2।8190 तथा
‘रूपलावण्यबलवज्रसंहननत्वानि कायसम्पत’ (योगसूत्र 3।46)
(उल्लास 1 ज्ञानसमुद्र 73)
योग सिद्धांत सुनाइयौ, अष्ट अंग संयुक्त ।
या साधन ब्रह्महि मिलै, तेू कहिये, मुक्त । (दोहा)
- मैंने तुझे आठ अंगों से युक्त योग का सिद्धान्त रूप वर्णन कर दिया । इस अष्टाङ्ग योग युक्त साधन के अभ्यास से जीव ब्रह्म से मिल सकता है । उस जीवब्रह्मैक्य अवस्था को ही मुक्त अवस्था कहते हैं ।
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