कबीर सागर के इस (निम्न) दोहे का अर्थ स्पष्ट नही होता ।
रामचन्द्र जी रावण का वध करके सभी के साथ अयोध्या लौट आये हैं और लंका से ‘अयोध्या कोट’ उठा लाये हैं तथा उसको अयोध्यापुरी में स्थापित करना चाहते हैं ।
साखी -
राज करै रघुवंश मणि, तब अस कीन्ह प्रमान ।
थाप्यौ कोट अयोध्यहि, सुनो मन्त्र हनुमान ।
जबहि राम लंका से आये, अयोध्या कोट उठावन लाये ।
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कोट का अर्थ किला है । इससे लगता है कि राम के लंका प्रवास के दौरान ऐसा कुछ अस्थायी रूप से बनाया गया होगा । जिसको वे स्मृति बतौर या अन्य कारणवश ले आये होंगे ।
(यदि अमेरिका जैसे देशों में घरों को अन्य स्थान पर स्थापित करने का उदाहरण हमारे सामने न होता, तो यह बात अजीब सी लगती)
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इसी ‘कोट’ को स्थापित करने हेतु नीव खोदी जा रही थी । तब खोदने की क्रिया में कुछ ‘पोले स्थान’ जैसी आवाज हुयी ।
फ़िर नीचे किसी द्रव्य (खजाने) आदि की आशंका के साथ ‘पोले स्थान’ की तरफ़ खोदा गया तो एक समाधिस्थ तपस्वी नजर आये, जो माथे पर लुहिङा(?) दिये तप कर रहे थे । और उनकी भौंहो के बाल लम्बे होकर उनका चेहरा छिप गया था । वे प्रथ्वी तल पर बैठे थे ।
फ़िर उनकी समाधि हटी । राम ने उनके चारो ओर परिक्रमा कर दण्डवत किया ।
ऋषि बोले - आप कौन हैं, वेषभूषा आदि से राजपुरुष लगते हैं ।
राम बोले - मैं दशरथ पुत्र राम हूँ । पास ही अवधपुरी में रहता हूँ ।
ऋषि बोले - राम अवतार हुआ, यह कब हुआ ?
राम बोले - संसार में यश और नाम रहे, इसलिये यह करता हूँ ।
ऋषि बोले - यह जीवन अल्पायु है, इसलिये ‘कोट’ स्थापन आदि झंझट को छोङकर सुनो ।
राम ने उनसे अपने ह्रदय की बातें कहीं और पूछा - आप कबसे तपस्यारत हैं ?
वह ऋषि बोले - मेरा नाम लोमस है । मनुष्यों के आठ पहर का रात दिन होता है । जिसे सब अहोरात (एक दिवस) कहते हैं । ऐसे मनुष्य दिवसों के (शुक्ल-कृष्ण) दो पक्ष (यानी एक महीना) को मिलाकर पितरों का एक दिवस होता है । फ़िर पितरों के एक वर्ष के बराबर देवताओं का एक दिन होता है ।
तब ऐसे देवताओं के बारह वर्ष बीत जाने पर मनु का एक दिवस होता है, ऐसे चौदह हजार वर्ष
एक मनु की आयु है ।
(यहाँ दोहे का अर्थ स्पष्ट नही है)
बारह वर्ष दिवस जब जाना, चौदह सहस्र इक मनु जो बखाना ।
ऐसे सात मनु जब समाप्त हो जाते हैं । तब एक इन्द्र की आयु पूर्ण होती है ।
फ़िर ऐसे सात इन्द्रों का नाश होने पर एक ब्रह्मा समाप्त होता है ।
सात ब्रह्मा नाश होने पर एक विष्णु समाप्त हो जाता है ।
और सात विष्णु (ओं) के नाश होने पर एक रुद्र का नाश होता है ।
ऐसे सोलह रुद्रों के नष्ट हो जाने पर मेरा (सिर्फ़) एक रोम गिरता है ।
इसीलिये मेरा नाम लोमस (बालों से पूर्णरूपेण भरे शरीर वाला) है ।
यह सुनकर राम को विश्वास न हुआ ।
तब लोमस ने उनके मन भाव जानकर कहा - तुम्हारी तरह ही प्रत्येक (अवतारी) राम ने मुझे भेंट के समय अंगूंठी दी । जो इस कमण्डल में हैं, उन्हें गिनो । इतने (उनचास करोङ) बार राम रावण हो चुके हैं ।
राम ने गिना, वे उनचास करोङ थीं ।
इतनी तो वे उस प्रकार की ही थी, फ़िर कमण्डल का लेखा कैसे कहा जाये ?
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‘यहाँ उल्लेखनीय है कि कबीर गोरखनाथ प्रसंग में गोरखनाथ द्वारा कबीर की आयु पूछने पर भी इतने (उनचास करोङ) ही राम, कृष्ण अवतार हो चुकने की बात कही थी । इससे सिद्ध होता है कि कबीर के अभी वाले जन्म तक इतना सब हुआ है । और फ़िर इसी सूत्र से आदिसृष्टि का समय निकाला जा सकता है ।’
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यहाँ राम जिस ‘निराकार निरंजन’ के अंश से उत्पन्न थे । स्वयं उसका मर्म न जान सके ।
जान्यो जन्महि अल्प जब, चले स्वर्ग अस्थान ।
निराकार निरंजन, तासु मर्म नहि जान ।
इस घटना से राम को ऐसी विरक्ति हुयी कि राजपाट, बन्धु आदि को त्यागकर स्वर्ग चले गये । फ़िर अपनी इच्छा से कृष्ण अवतार के रूप में जन्म लिया ।
इसके बाद कबीर ने ‘निरंजन’ के छल कपट और देवी, देवता, अवतारों को धोखे में रखकर ठगने, मारने का वर्णन किया है ।
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विशेष - इसके बाद जो साखी है । उसी से ‘कबीर सागर’ विश्वसनीय और कबीर की वाणी लगता है ।
नाम अदल जो पावै, कहै कबीर विचार ।
होय अटल जो निश्चय, जम राजा रहे हार ।
- ये जो ‘नाम अदल’ और ‘अष्टम कमल’ के बारे में कबीर वाणी में कई स्थानों पर आया है । यही अन्तिम स्थिति है । ‘सार शब्द’ ‘निःअक्षर’ के बारे में बहुत बोला जाता है । पर इसके बारे में कोई गुरु नही बोलता (क्योंकि वे खुद नही जानते)
- आठवाँ कमल और अदली नाम शरीर से बाहर है । कोई गुरु इसका ध्यान, सुमिरन आदि बताता है ?
काया से बाहर लखे, हँस कहावै सोय ?
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इसके बाद कबीर द्वारा कृष्ण चरित्र आदि का वर्णन करने के बाद, धर्मदास कल्पों और उत्पत्ति प्रलय के बारे में प्रश्न करते हैं ।
कबीर कहते हैं - यह चारो युग रहट की भांति चक्राकार घूमते रहते हैं । चारो युग के अन्त में निरंजन अग्नि में रहता है । वह प्रथ्वी को जलाकर जल में लीन कर देता है । और सातों स्वर्ग के नाके पर रहता है । फ़िर तप के बल पर स्थित रहे तैतीस करोङ देवता, चन्द्र, सूर्य, तारे...चतुर्मुख ब्रह्मा के पतित होते ही पतित हो जाते हैं (अर्थात इनके स्थान पर नये आ जाते हैं)
फ़िर दस अवतारों का कार्य समाप्त कर विष्णु समाप्त हो जाते हैं ।
लेकिन योगस्थ रहस्य को जानने और सेवन करने के कारण शंकर तब तक बचे रहते हैं ।
इस तरह सतपुरुष की सेवा के फ़ल का परिणाम (और सतपुरुष द्वारा उसे दिये वचन) के कारण यह अन्यायी निरंजन ‘बहत्तर चतुर्युगी’ तक यही मारने, जन्माने का खेल करता हुआ ‘भवसागर’ को बनाये रखता है ।
लेकिन ‘महाप्रलय’ के समय निरंजन अग्नि से हट जाता है । इसी समय लोमस ऋषि का भी अन्त हो जाता है । और चन्द्रमा, सूर्य, जल (ये 5 तत्वों वाला नही है) सब पूर्णतः खत्म हो जाते हैं (यानी पूर्व की खण्ड प्रलय की भांति उनके स्थान पर नये देवता आदि नियुक्त नही होते)
तब पाँच तत्व, तीनों गुण, इसके बनाये 14 यम, आकाश (ये 5 तत्वों वाला नही है) ये भी नही रहते । इसी समय यह (पूर्व की ही भांति) आदिकन्या महादेवी को भी खा जाता है ।
सब भक्षै निरंजन राय, आदि अन्त कछु ना रहै ।
शिव, कन्या, नाम बिहाय, सब जीव राखे आप में ।
रामचन्द्र जी रावण का वध करके सभी के साथ अयोध्या लौट आये हैं और लंका से ‘अयोध्या कोट’ उठा लाये हैं तथा उसको अयोध्यापुरी में स्थापित करना चाहते हैं ।
साखी -
राज करै रघुवंश मणि, तब अस कीन्ह प्रमान ।
थाप्यौ कोट अयोध्यहि, सुनो मन्त्र हनुमान ।
जबहि राम लंका से आये, अयोध्या कोट उठावन लाये ।
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कोट का अर्थ किला है । इससे लगता है कि राम के लंका प्रवास के दौरान ऐसा कुछ अस्थायी रूप से बनाया गया होगा । जिसको वे स्मृति बतौर या अन्य कारणवश ले आये होंगे ।
(यदि अमेरिका जैसे देशों में घरों को अन्य स्थान पर स्थापित करने का उदाहरण हमारे सामने न होता, तो यह बात अजीब सी लगती)
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इसी ‘कोट’ को स्थापित करने हेतु नीव खोदी जा रही थी । तब खोदने की क्रिया में कुछ ‘पोले स्थान’ जैसी आवाज हुयी ।
फ़िर नीचे किसी द्रव्य (खजाने) आदि की आशंका के साथ ‘पोले स्थान’ की तरफ़ खोदा गया तो एक समाधिस्थ तपस्वी नजर आये, जो माथे पर लुहिङा(?) दिये तप कर रहे थे । और उनकी भौंहो के बाल लम्बे होकर उनका चेहरा छिप गया था । वे प्रथ्वी तल पर बैठे थे ।
फ़िर उनकी समाधि हटी । राम ने उनके चारो ओर परिक्रमा कर दण्डवत किया ।
ऋषि बोले - आप कौन हैं, वेषभूषा आदि से राजपुरुष लगते हैं ।
राम बोले - मैं दशरथ पुत्र राम हूँ । पास ही अवधपुरी में रहता हूँ ।
ऋषि बोले - राम अवतार हुआ, यह कब हुआ ?
राम बोले - संसार में यश और नाम रहे, इसलिये यह करता हूँ ।
ऋषि बोले - यह जीवन अल्पायु है, इसलिये ‘कोट’ स्थापन आदि झंझट को छोङकर सुनो ।
राम ने उनसे अपने ह्रदय की बातें कहीं और पूछा - आप कबसे तपस्यारत हैं ?
वह ऋषि बोले - मेरा नाम लोमस है । मनुष्यों के आठ पहर का रात दिन होता है । जिसे सब अहोरात (एक दिवस) कहते हैं । ऐसे मनुष्य दिवसों के (शुक्ल-कृष्ण) दो पक्ष (यानी एक महीना) को मिलाकर पितरों का एक दिवस होता है । फ़िर पितरों के एक वर्ष के बराबर देवताओं का एक दिन होता है ।
तब ऐसे देवताओं के बारह वर्ष बीत जाने पर मनु का एक दिवस होता है, ऐसे चौदह हजार वर्ष
एक मनु की आयु है ।
(यहाँ दोहे का अर्थ स्पष्ट नही है)
बारह वर्ष दिवस जब जाना, चौदह सहस्र इक मनु जो बखाना ।
ऐसे सात मनु जब समाप्त हो जाते हैं । तब एक इन्द्र की आयु पूर्ण होती है ।
फ़िर ऐसे सात इन्द्रों का नाश होने पर एक ब्रह्मा समाप्त होता है ।
सात ब्रह्मा नाश होने पर एक विष्णु समाप्त हो जाता है ।
और सात विष्णु (ओं) के नाश होने पर एक रुद्र का नाश होता है ।
ऐसे सोलह रुद्रों के नष्ट हो जाने पर मेरा (सिर्फ़) एक रोम गिरता है ।
इसीलिये मेरा नाम लोमस (बालों से पूर्णरूपेण भरे शरीर वाला) है ।
यह सुनकर राम को विश्वास न हुआ ।
तब लोमस ने उनके मन भाव जानकर कहा - तुम्हारी तरह ही प्रत्येक (अवतारी) राम ने मुझे भेंट के समय अंगूंठी दी । जो इस कमण्डल में हैं, उन्हें गिनो । इतने (उनचास करोङ) बार राम रावण हो चुके हैं ।
राम ने गिना, वे उनचास करोङ थीं ।
इतनी तो वे उस प्रकार की ही थी, फ़िर कमण्डल का लेखा कैसे कहा जाये ?
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‘यहाँ उल्लेखनीय है कि कबीर गोरखनाथ प्रसंग में गोरखनाथ द्वारा कबीर की आयु पूछने पर भी इतने (उनचास करोङ) ही राम, कृष्ण अवतार हो चुकने की बात कही थी । इससे सिद्ध होता है कि कबीर के अभी वाले जन्म तक इतना सब हुआ है । और फ़िर इसी सूत्र से आदिसृष्टि का समय निकाला जा सकता है ।’
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यहाँ राम जिस ‘निराकार निरंजन’ के अंश से उत्पन्न थे । स्वयं उसका मर्म न जान सके ।
जान्यो जन्महि अल्प जब, चले स्वर्ग अस्थान ।
निराकार निरंजन, तासु मर्म नहि जान ।
इस घटना से राम को ऐसी विरक्ति हुयी कि राजपाट, बन्धु आदि को त्यागकर स्वर्ग चले गये । फ़िर अपनी इच्छा से कृष्ण अवतार के रूप में जन्म लिया ।
इसके बाद कबीर ने ‘निरंजन’ के छल कपट और देवी, देवता, अवतारों को धोखे में रखकर ठगने, मारने का वर्णन किया है ।
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विशेष - इसके बाद जो साखी है । उसी से ‘कबीर सागर’ विश्वसनीय और कबीर की वाणी लगता है ।
नाम अदल जो पावै, कहै कबीर विचार ।
होय अटल जो निश्चय, जम राजा रहे हार ।
- ये जो ‘नाम अदल’ और ‘अष्टम कमल’ के बारे में कबीर वाणी में कई स्थानों पर आया है । यही अन्तिम स्थिति है । ‘सार शब्द’ ‘निःअक्षर’ के बारे में बहुत बोला जाता है । पर इसके बारे में कोई गुरु नही बोलता (क्योंकि वे खुद नही जानते)
- आठवाँ कमल और अदली नाम शरीर से बाहर है । कोई गुरु इसका ध्यान, सुमिरन आदि बताता है ?
काया से बाहर लखे, हँस कहावै सोय ?
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इसके बाद कबीर द्वारा कृष्ण चरित्र आदि का वर्णन करने के बाद, धर्मदास कल्पों और उत्पत्ति प्रलय के बारे में प्रश्न करते हैं ।
कबीर कहते हैं - यह चारो युग रहट की भांति चक्राकार घूमते रहते हैं । चारो युग के अन्त में निरंजन अग्नि में रहता है । वह प्रथ्वी को जलाकर जल में लीन कर देता है । और सातों स्वर्ग के नाके पर रहता है । फ़िर तप के बल पर स्थित रहे तैतीस करोङ देवता, चन्द्र, सूर्य, तारे...चतुर्मुख ब्रह्मा के पतित होते ही पतित हो जाते हैं (अर्थात इनके स्थान पर नये आ जाते हैं)
फ़िर दस अवतारों का कार्य समाप्त कर विष्णु समाप्त हो जाते हैं ।
लेकिन योगस्थ रहस्य को जानने और सेवन करने के कारण शंकर तब तक बचे रहते हैं ।
इस तरह सतपुरुष की सेवा के फ़ल का परिणाम (और सतपुरुष द्वारा उसे दिये वचन) के कारण यह अन्यायी निरंजन ‘बहत्तर चतुर्युगी’ तक यही मारने, जन्माने का खेल करता हुआ ‘भवसागर’ को बनाये रखता है ।
लेकिन ‘महाप्रलय’ के समय निरंजन अग्नि से हट जाता है । इसी समय लोमस ऋषि का भी अन्त हो जाता है । और चन्द्रमा, सूर्य, जल (ये 5 तत्वों वाला नही है) सब पूर्णतः खत्म हो जाते हैं (यानी पूर्व की खण्ड प्रलय की भांति उनके स्थान पर नये देवता आदि नियुक्त नही होते)
तब पाँच तत्व, तीनों गुण, इसके बनाये 14 यम, आकाश (ये 5 तत्वों वाला नही है) ये भी नही रहते । इसी समय यह (पूर्व की ही भांति) आदिकन्या महादेवी को भी खा जाता है ।
सब भक्षै निरंजन राय, आदि अन्त कछु ना रहै ।
शिव, कन्या, नाम बिहाय, सब जीव राखे आप में ।
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