ओशो - कल मैंने मेलाराम असरानी को कहा था कि अब कब तक मेलाराम बने रहोगे, अरे मेला में तो बहुत झमेला है, अब राम ही रह जाओ ।
तो उन्होंने क्या लिखा ?
उन्होंने लिखा कि भगवान, आप मुझे मेलाराम से शुद्धराम बना देगे । और संन्यास के लिये आपने आमंत्रण भी दिया, मैंने वर्षों पहले दादा लेखराज द्वारा स्थापित ईश्वरी विश्वविद्यालय में ब्रह्मा कुमार के रूप में दीक्षा ली थी, और तबसे मैं ‘सहज राजयोग’ की साधना करता हूँ, और अगर अब आपसे सन्यास ले के ये साधना छोड़ता हूँ, तो ब्रह्मा-कुमारियों के अनुसार आने वाली प्रलय में नष्ट हो जाऊँगा । आने वाले पाँच-दस वर्षों में प्रलय सुनिश्चित है । इसमें जो लोग ईश्वरी विश्वविद्यालय में दीक्षित होकर पवित्र जीवन जियेंगे । उनकी आत्मा का परम-ब्रह्म से संगम होगा, और वे परमधाम बैकुण्ठ में परमपद पायेंगे ।
मुझे आपके विचार बहुत क्रान्तिकारी लगते हैं और आप भी भगवत स्वरूप लगते हैं, लेकिन आपके संन्यासियों का जीवन मुझे पवित्र नहीं लगता, इसलिये आपसे संन्यास लेने में मैं आश्वस्त नहीं हो सकता कि आने वाली प्रलय में बच कर बैकुण्ठ में परमपद पा सकूँ ।
अब मेलाराम असरानी कैसे लोभ में पड़े हैं । कैसा डराया उन्हें, और मजा ये है कि हमारी मूढ़ता का कोई अंत नही है । ये पाँच-दस वर्ष में प्रलय सुनिश्चित है, ये बीस वर्ष तो मुझे सुनते हो गया, ये पाँच-दस वर्ष आगे ही बढ़ते चले जा रहे हैं तुम्हें भी सुनते हो गये होंगे, दादा लेखराज भी खत्म हो गये, पर पाँच-दस वर्ष खत्म नहीं होते ।
मगर सिंधी गुरु, क्या तरकीब लगा गये, दादा लेखराज सिंधियों को फँसा गये, और सिंधी हैं पक्के दुकानदार, उनको डरा गये कि देखो ख्याल रखना प्रलय सुनिश्चित है, पाँच-दस वर्षों में आने वाली है । क्योंकि ज्यादा देर की बात है, तब तक तो समय बहुत है, तब तक और कमाई कर लूँ, पाँच दस वर्ष का मामला है घबरा दिया, और ये कोई नई तरकीब नही है बहुत पुरानी तरकीब है, पुराने से पुराने ग्रन्थ में इस बात का उल्लेख है कि थोङे ही दिन में प्रलय होने वाली है ।
जो ईसा के शिष्य थे, जो उनके प्रथम संवाद वाहक बने, वो लोगों को कहा करते थे कि अब देर नहीं है, 2000 साल पहले यही बात, यही दादा लेखराज की बात कि अब ज्यादा समय देर नही है, प्रलय होने वाली है, क़यामत का दिन आने वाला है, जो जीसस के साथ नहीं होंगे, वो अनन्तकाल तक नर्क में सजेंगे, अभी समय है सावधान ! जीसस के साथ हो लो ।
क्यों ?
क्योंकि क़यामत के दिन जब प्रलय होगी, तो ईश्वर जीसस को लेकर खङा होगा और कहेगा कि चुन लो, अपनी भेङें चुन लो, जो तुम्हारे मानने वाले हैं उनको बचा लो, बाकी को तो नरक में जाना है । उस वक्त तुम बहुत मुश्किल में पड़ोगे कि जीसस को नहीं माना, और जीसस अपनी भेङों को चुन लेंगे और अपनी भेड़ों को बचा लेंगे, और बाकी गये, गिरे अनन्तकाल के लिये नरक में, जहाँ से फिर कोई छुटकारा नहीं है । अनन्तकाल, ख्याल रखना, ऐसा भी नहीं एक साल, दो साल, तीन साल, पाँच साल, दस साल छूटेंगे, कभी तो छूट जायेंगे ।
नहीं ! अनन्तकाल तक फिर छुटकारा है ही नहीं ।
कैसा घबरा दिया होगा लोगों को, 2000 साल पहले ?
और दो हजार साल बीत गये, क़यामत अभी तक नहीं आई, और बातें वे ऐसी कर रहे थे कि अब आई कि तब आई, आई ही रखी है, अब ज्यादा देर नही है ।
और ये बहुत पुरानी तरकीब है, सदियों से इसका उपयोग किया जा रहा है, और फिर भी अजीब आदमी है कि इन्हीं बातों को, इन्हीं जालसाजियों को फिर स्वीकार करने को राजी हो जाता है । कैसे कैसे लोग हैं ?
आदिवासियों के एक गाँव में मैं ठहरा था, बस्तर के आदिवासियों को ईसाई बनाया जाता है, काफ़ी ईसाई बना लिये गये हैं । मुझे कुछ ऐतराज़ नहीं, क्योंकि वे हिन्दू थे तो मूढ़ थे, ईसाई हैं तो मूढ़ हैं, मूढ़ता तो कुछ बदली नहीं, मूढ़ता तो कुछ मिटती नहीं है कि मूढ़ भीङ में इस भेङों के साथ रहें कि मूढ़ भीङ में उस भेड़ों के साथ रहें, क्या फर्क पङता है, मूढ़ता तो वही की वही है ।
मगर किस तरकीब से उन ग़रीब आदिवासियों को ईसाई बनाया जा रहा है !
एक पादरी उनको समझा रहा था । उसने राम की और जीसस की एक जैसी प्रतिमा बना रखी थी, और उनको समझा रहा था कि देखो यह बाल्टी भरी रखी है इसमें मैं दोनों को डालता हूँ । तुम देख लो, जो डूब जायेगा, उसके साथ रहे तो तुम भी डूबोगे, और जो तैरेगा, वही तुमको भी तिरायेगा । और बात बिलकुल साफ थी, सारे आदिवासी बिलकुल उत्सुक होकर बैठ गये ।
भाई ! देखने वाली बात है सिद्ध हुआ जा रहा है ।
तो सबके सामने उस पादरी ने दोनों मूर्तियों को छोङ दिया बाल्टी के भरे पानी में, रामजी तो एकदम डुबकी मार गये, जैसे रास्ते ही देख रहे थे, गोता मारा और निकले ही नहीं, और जीसस तैरने लगे ।
जीसस की मूर्ति बनाई थी लकड़ी की, और राम की मूर्ति बनाई थी लोहे की, उसमें रंग-रोगन एक सा कर दिया था । जिससे वे मूर्तियाँ एक जैसा लगने लगी थी ।
एक शिकारी, जो बस्तर शिकार करने जाता था, मेरा परिचित व्यक्ति था, मैं जिस विश्वविद्यालय में प्रोफेसर था, वहीं वो भी प्रोफेसर था, और उसका एक ही शौक़ था शिकार ।
उसने ये हरकत देखी और समझ गया फ़ौरन कि - ये जालसाज़ी है ।
उसने कहा - ठहरो ! इससे कुछ तय नहीं होता, क्योंकि हमारे शास्त्रों में तो अग्नि परीक्षा लिखी है, जल परीक्षा तो लिखी ही नहीं है ।
आदिवासियों ने कहा - ये बात भी सच है, अरे सीता मइया, जब आयीं थी तो कोई जल परीक्षा तो हुई नहीं थी, उनकी तो अग्नि परीक्षा हुई थी ।
पादरी तो घबरा गया कि - ये तो गड़बड़ हो गया, ये दुष्ट कहाँ से आ गया ।
भागने की कोशिश उस पादरी ने की ।
लेकिन आदिवासियों ने कहा - भइया, अब ठहरो, अग्नि परीक्षा और हो जाय, ये बिचारा ठीक ही कह रहा है, क्योंकि हमारे शास्त्रों में अग्नि परीक्षा का उल्लेख है ।
आग जलाई गई, पादरी बैठा है उदास कि अब फँसे, अब भाग भी नहीं सकता ।
जीसस और रामजी अग्नि में उतार दिये गये ।
अग्नि में रामचंद्र जी तो बाहर आ गये, और जीसस खाक हो गये ।
सो आदिवासियों ने कहा - भइया, अच्छा बचा लिया हमें, अगर आज अग्नि परीक्षा न होती तो हम सब तो ईसाई हुऐ जा रहे थे ।
मगर इन आदिवासियों में और मेलाराम तुममें फर्क है, तुम पढ़े लिखे आदमी हो, मगर कुछ भेद है ।
वही बुद्धि, वही जङ बुद्धि, पाँच-दस साल तुम कहते हो, और तुम कह रहे हो कि मैंने वर्षों पहले दादा लेखराज द्वारा स्थापित ईश्वरी विश्वविद्यालय से दीक्षा ली है ।
दादा लेखराज को मरे कितने साल हुये ये बताओ ?
ये पाँच-दस साल तो तुम ही कह रहे हो कई सालों से । ये पाँच-दस साल कब खत्म होंगे ?
ये कभी खत्म होने वाले नहीं, मगर डर, और सिंधी हो तुम, और सिंधी को तो यही दो बातें प्रभावित करती हैं, एक तो डर, और डर से भी ज्यादा लोभ ।
अब तुम कह रहे हो कि ब्रह्माकुमारी के अनुसार आने वाली प्रलय में अगर साधना छोङ दूँगा तो नष्ट हो जाऊँगा । आने वाले पाँच-दस वर्षों में प्रलय सुनिश्चित है ।
क्या तुम खाक साधना कर रहे हो, राजयोग की, सहज राजयोग की, सहज राजयोग की साधना करो, और इस तरह की मूढ़तापूर्ण बातों में भरोसा करो, ये दोनों बातें एक साथ चल सकती हैं ?
सहज राजयोगी तो समाधिष्ट हो जाता है । उसकी तो प्रलय हो गई । और जहाँ मन गया, वहाँ बैकुण्ठ है । बैकुण्ठ अभी है ।
कोई सारा संसार मिटेगा, तब तुम मेलाराम असरानी बैकुण्ठ जाओगे, तुम्हारे संसार के लिये सारे संसार को मिटाओगे ? जरा सोचो तो बडा महँगा सौदा करवा रहे हो । मतलब जिनको अभी बैकुण्ठ नहीं जाना है उनको भी ।
अरे बाल-बच्चों से, पत्नी से पूछा कि अगले पाँच-दस वर्षों में बैकुण्ठ चलना है ?
किसी को बैकुण्ठ नहीं जाना है । अरे मजबूरी में जाना पड़े बात अलग, मगर जाना कौन चाहता है तुम भी नहीं जाना चाहते । इसीलिये ब्रह्माकुमारी तारीख तय नही करती । उनसे तारीख तय करवा लो, एक दफ़ा निपटारा हो जाय, पाँच-दस साल का मामला है, तारीख तय कर लो, किस तारीख, किस माह में, किस साल में ।
और ऐसे मूढ़ लोग हैं कि ये भी तय करवाया गया, और मूढ़ता ऐसी है कि फिर भी नहीं जाती ।
ईसाइयों में एक सम्प्रदाय है - जिहोबा के साक्षी !
इन्होंने, कई दफ़ा घोषणा कर चुके हैं तारीख तक की । इन्होंने 1880 में एक जनवरी को प्रलय हो जायेगी 100 साल पहले, अभी एक जनवरी आती है, 100 साल पूरे हो जायेंगे । तो घोषणा की थी कि 1 जनवरी 1880 में प्रलय होने वाली है ।
तो उनके मानने वाले लोगों ने देखा कि महाप्रलय होने वाली है तो लोगों ने मकान बेच दिये, ज़मीनें बेच दी, अरे लोगों ने कहा कि गुलछर्रे कर लो, जो भी करना है कर लो, 1 जनवरी आ ही रही है इसके आगे कुछ तो बचना नहीं है । जिसको जो करना था, कर लिया ।
जिहोबा के मानने वाले पर्वत पर इकठ्ठे हुये, क्योंकि सारा जगत तो डूब जायेगा, इसलिये पर्वत पर, पवित्र पर्वत पर जो रहेंगे, उनको परमात्मा बैकुण्ठ ले जायेगा ।
एक तारीख भी आ गई, सुबह भी हो गया, लोग इधर-उधर देख रहे हैं, प्रलय कहीं दिखाई नहीं पङ रही है, लाखों लोग इकठ्ठे पर्वत पर, आखिर धीरे-धीरे खुस-फुस हुई कि बात क्या है अभी तक ! दोपहर भी हो गई, शाम भी होने लगी, दो तारीख भी आ गई, फिर लोगों में सनमनी हुई कि अब फँसे, सब बर्बाद करके आ गये । फिर लौट आये, फिर उसी दुनियाँ में, फिर कमाई-धमाई शुरु कर दी ।
मगर मजा ये है कि आदमी की मूढ़ता की कोई सीमा नही है ।
वही पंडित-पुजारी, जो उनको पहाङ पर ले गये थे, जिन्होंने उनसे सब दान करवा दिया था..दान क्या, खुदी को करवा लिया था ।
इन्होंने ये भी न सोचा कि एक जनवरी को जब सब नष्ट ही होने वाला है, तो ये दान किसलिये इकठ्ठा कर रहे हैं कि एक जनवरी को सब नष्ट ही हो जायेगा, अब दे ही दो, अब भगवान के नाम पर दान कर दो, जो दान कर देगा, उसे अनन्त गुना मिलेगा ।
तो ये पंडित पुजारी क्या करेंगे दान ले के ? ये तक किसी ने न सोचा ।
और वे पंडित पुजारी फिर से समझाने लगे कि थोड़ी तारीख में हमारी भूल हो गई फिर दस साल बाद से होगा ।
फिर दस साल बाद लोग इकठ्ठे हो गये !
आदमी की प्रतिभा ऐसी क्षीण हुई, ऐसी जंग खा गई है ।
अब तुम अगर सहज राजयोग की साधना करते हो, यहाँ कैसे आये ?
अगर सहजयोग से तुम्हें कुछ मिल रहा है, तो यहाँ किसलिये आये हो ?
अपना बैकुण्ठ गंवाना है, क्योंकि वहाँ, अगर पता भी चल गया कि तुम यहाँ आये थे, तो कोई दादा लेखराज वग़ैरह साथ न दे पायेंगे, क्योंकि मैं कहूँगा कि ये मेरी भेड़ है, न रही हो संन्यासी, मगर आधी मेरी है, आधी को बैकुण्ठ जाने दो, आधी को तो मैं नरक ले जाऊँगा ।
मेलाराम असरानी आधे-आधे कटोगे, रामजी को तो मैं ले जाऊँगा, मेला को वही छोङ जाऊँगा, वैसे तुम्हारी मर्ज़ी, रामजी वाले हिस्से को मैं छोड़ने वाला नहीं, वो तो, उस पर क़ब्ज़ा मेरा है ।
इस दरवाज़े के जो भीतर आया एक दफ़ा, उसको पहचान लिया कि भेड़ अपनी है, फिर कोई दादा लेखराज वग़ैरह काम नहीं आने वाले, तुमसे कहे देता हूँ । आधे तो वैसे ही गये, अब पूरे ही फँस जाओ, क्या झंझट ।
और तुम कहते हो, जो ईश्वरी विश्वविद्यालय में दीक्षित होकर पवित्र नहीं होगा, उनकी बङी मुश्किल होगी, और जो पवित्र होंगे, उनकी आत्मा का परमब्रह्म से संगम होगा, और वो परमधाम बैकुण्ठ में परमपद पायेंगे ।
देखते हो, परम-परम चल रहा है, धन्न-धन्न हो रहा है । कैसा लोभ चढ़ा हुआ है छाती पर । जरा परम-ब्रह्म से संगम हो गया, इतने से तृप्ति नही है । परमधाम, उससे भी मन राजी नही मानता; सिंधी मन, बैकुण्ठ ! उससे भी राजी नही, फिर परमपद ।
तो दादा लेखराज कहाँ बैठेंगे ?
परम-पद पर तुम बैठ जाओगे, तो दादा लेखराज धक्का नही देंगे कि - क्यों रे मेलाराम असरानी, कमबख़्त मैंने दीक्षा दी, और परमपद पर तू बैठ रहा है, ब-मुश्किल तो हम बैठ पाये किसी तरह, परमात्मा को सरकाया, और अब तू आ गया ।
अरे परमपद पर कितने आदमी चढ़ोगे ?
परमपद पर तो एक ही बैठ सकेगा कि कई लोग बैठेंगे, पूरा मेला, पूरा झमेला ।
मगर सिंधी हो, तुम भी क्या करो !
दादा सांई बुद्धरमल को सिनेमाघर के बाहर पेशाब करने के आरोप में पकङ कर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया, मजिस्ट्रेट भी था सिंधी, पहुँचा हुआ सिंधी ।
सांई बुद्धरमल पर एक सौ रुपये का जुर्माना किया गया ।
बुद्धरमल बोले - माई-बाप, यह तो अन्याय हो जायेगा, इतनी सी गलती के लिये इतना भारी जुर्माना !
मजिस्ट्रेट बोले - बडी सांई, ऐ कोई ऐरे गैरे का पिशाब नहीं है, सेठ बुद्धरमल का पेशाब था ।
इतना सुनते ही बुद्धरमल ने जल्दी से जुर्माना भर दिया ।
अरे, अब परमपद का मामला आया, सेठ बुद्धरमल का पेशाब ।
तुम भी कैसी कैसी बातों में पड़े हो । जब कोई आदमी किसी स्त्री के साथ बलात्कार करता है, तो साधारण में कहा जाता है कि - उस स्त्री की इज़्ज़त लूटी गई ।
मारवाड़ियों में मामला अलग ही है, यदि स्त्री के साथ कोई बलात्कार कर ले, और उसके पैसे और ज़ेवरात आदि नहीं छीने, तो मारवाड़ी लोग कहते हैं, चलो कोई बात नहीं, बलात्कार किया सो किया, अरे अपना क्या गया, कम से कम इज़्ज़त तो नहीं लूटी, इज़्ज़त बच गई, यही क्या कम है ।
सिंधी लोग और भी पहुँचे हुये लोग हैं ।
एक दिन झामनदास ने आकर बताया कि - कल रात एक अजनबी महिला ने उसकी इज़्ज़त लूट ली । मैंने पूछा - झामनदास क्या कहते हो, कभी ऐसी बात न कानों सुनी, न आँखों देखा कि किसी स्त्री ने तुम्हारी इज़्ज़त लूट ली, क्या कहते हो ?
झामनदास बोले - मैं तो उसके साथ बलात्कार करने में लगा था, और उस दुष्ट ने मेरी पॉकेट मार ली । हद हो गई कलियुग की भी, अब तो मनुष्य जाति पर से तो मेरा बिलकुल भरोसा उठ गया ।
अब ये मेलाराम असरानी परमपद पाने के पीछे पड़े हैं, और इस डर से कि कही परमपद न चूक जाये, सन्यास लेने में घबरा रहे हैं ।
और भी एक डर है कि मुझे आपके विचार बहुत क्रान्तिकारी लगते और आप भी भगवतस्वरूप लगते हैं ।
ये नहीं कि डर के मारे कह रहे है कि कौन झंझट ले, विचार तो क्रान्तिकारी लग रहे, ख़तरनाक मालूम होते हैं, मान लेना ठीक है भगवत-स्वरूप को, पता नहीं आखिर में कौन जीतेगा, दादा लेखराज या ये, आदमी भी उपद्रवी मालूम होता है, कहीं दादा लेखराज को चारों खाने चित्त कर दिया तो फिर..तो फिर होशियार आदमी सभी को सम्भाल कर रखता है कि आप भी भगवत-स्वरूप हैं, यदि मौका आ गया ऐसा, तो कह दूँगा कि याद रखो, मैंने कहा था कि आप भी भगवत-स्वरूप हो, और दादा लेखराज जीते, तो कह दूँगा कि मैंने पहले ही कह दिया था कि इनके विचार क्रान्तिकारी हैं पर अपने को जँचे नहीं ।
लेकिन कहते हैं कि आपके संन्यासियों का जीवन हमें पवित्र नहीं लगता ।
अरे, मेरे सन्यासियों के जीवन से तुम्हें क्या फ़िकर, इनको कोई बैकुण्ठ थोङे ही जाना है, ये तो यही बैकुण्ठ में हैं ।
तुम जब बैकुण्ठ जाओगे, और पाओगे कि दादा लेखराज के आसपास उर्वशी और मेनकायें नाच रही हैं, तो तुम्हें उनका जीवन भी पवित्र नहीं लगेगा कि अरे, ये दादा लेखराज क्या कर रहे हैं ?
अरे रे सांई ये क्या कर रहे हैं, ये उर्वशी बाई को गोद में बिठाये बैठे हैं, ये कोई कन्या, कोई ब्रह्माकुमारी की भी नही हैं, ये कर क्या रहे हो, दादा हो के ये क्या कर रहे हो ?
मेरे सन्यासी तो बैकुण्ठ में हैं । इनको कहीं जाना नहीं, ये तो परमपद में विराजमान हैं ।
इनको मैं कोई प्रलोभन नहीं दे रहा हूँ । और इनको मैंने साफ कह दिया है कि यदि मेरे साथ रहे, तो नरक की तैयारी रखो ।
करोगे क्या खाक स्वर्ग में जाकर, धूल उड़ रही है वहाँ, मरे मुर्दा साधू संत वहाँ पहुँच गये हैं बहुत पहले से, कोई धूनी कमाये बैठा है, कोई झाड़ पर उल्टा लटका है । जटा-जूट तो देखो उनके, यदि तुम उन्हें खोजने जाओ तो मिले ही ना, अनंतकाल में भी न मिले, कोई भूखा ही मर रहा है । इस सर्कस में कहाँ मेरे संन्यासियों को ले जाना है । इन सबको तो मैंने नरक लेकर चलने का विचार किया है ।
नरक में कुछ करने को है । और इतने लोग तो विचारे नरक ही गये होंगे, उन सबका भी तो उद्धार करना है कि नहीं, शैतान को भी सन्यास देना है कि नही ? तो इनको तो कोई चिन्ता नहीं है । मेरे साथ जो हैं, वो मेरे साथ नरक को भी जाने को तैयार है ।
परमपद वद की तो मैं बात ही नहीं करता ।
क्योंकि मैं उन्हीं को ध्यानी मानता हूँ जो कि नरक में भी हो, तो उसके आसपास स्वर्ग घटित हो । और तुम्हारे तथाकथित साधू और संत ये कहीं स्वर्ग में भी होंगे तो उसे कभी का नरक बना दिया होगा । इनकी शक्लें तो देखो, इनके ढंग ठौर तो देखो, ये जहाँ इकठ्ठे हो जायेगे, वहाँ मातम छा जायेगा ।
स्वर्ग में तो बिलकुल मातमी हालत होगी - कोई महात्मा चरख़ा चला रहा है, अब ये मोरार जी भाई भी बैकुण्ठ में रहेंगे, वे वहाँ ‘जीवन जल’ ही पी रहे हैं । इन सबको इनकी तपश्चर्या का फल तो मिलेगा, ज़िन्दगी भर जीवन जल (स्वमूत्र) पिया, तो किसलिये पिया ? काहे को पिया ?
अमृत की आशा में पिया, कि परमात्मा अमृत में मिलेगा । मेरे संन्यासियों को स्वर्ग से कुछ लेना देना नहीं । क्योंकि मैं कहता हूँ कि स्वर्ग कोई भूगोल नही है, और स्वर्ग कोई स्थान नहीं है, बल्कि चैतन्य की अवस्था है, तुम चाहो तो अभी और यहीं स्वर्ग में हो सकते हो, तो फिर कल पर क्यों टाल रहे हो ?
मेलाराम असरानी मेरा संन्यास लो, और प्रलय हुई ।
प्रलय का मतलब क्या होता है ? कि तुम खत्म, कि तुम गये, तुम मिटे, तुम समाप्त हुये ।
और उसी मिटने से, उसी राख से, उसी मृत्यु से, उसी शूली से एक नये जीवन का आविर्भाव होता है । एक नया अंकुरण होता है ।
मैं किसी को नैतिकता नहीं सिखा रहा हूँ, मैं सिर्फ आनन्द सिखा रहा हूँ, मेरे लिये आनन्द ही एकमात्र पवित्रता है, और इसलिये तुम्हें अड़चन लगती होगी कि आपके संन्यासियों का जीवन मुझे पवित्र नहीं लगता ।
तुम्हारी पवित्रता की परिभाषा क्या है ? तुम पवित्रता से क्या अर्थ लेते हो ?
तुमने पवित्रता की कोई धारणा बना ली होगी, अपनी-अपनी धारणायें हैं, और उन्हीं धारणाओं के आधार पर आदमी पवित्रता मानता है ।
तुम व्यर्थ की धारणायें छोङो, और तनिक विवेक से काम लो मेलाराम असरानी, तुम्हारी प्रलय हो ही जायेगी । गलती से ही सही, पर ठीक जगह पर आ गये हो, थोङा हिम्मत करो, थोङा साहस करो ।
(ओशो और ब्रह्माकुमारी)
टंकण एवं प्रेषण - ओशो अनुयायी स्वामी अंतरप्रकाश जी द्वारा ।
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और अन्त में -
अब (नीचे) इससे ज्यादा क्या बतायें ?
नैनों में निरखत रहे । अविगत नाम कबीर ?
बैडा पार लगावहिं । सुरत सरोवर तीर ।
तो उन्होंने क्या लिखा ?
उन्होंने लिखा कि भगवान, आप मुझे मेलाराम से शुद्धराम बना देगे । और संन्यास के लिये आपने आमंत्रण भी दिया, मैंने वर्षों पहले दादा लेखराज द्वारा स्थापित ईश्वरी विश्वविद्यालय में ब्रह्मा कुमार के रूप में दीक्षा ली थी, और तबसे मैं ‘सहज राजयोग’ की साधना करता हूँ, और अगर अब आपसे सन्यास ले के ये साधना छोड़ता हूँ, तो ब्रह्मा-कुमारियों के अनुसार आने वाली प्रलय में नष्ट हो जाऊँगा । आने वाले पाँच-दस वर्षों में प्रलय सुनिश्चित है । इसमें जो लोग ईश्वरी विश्वविद्यालय में दीक्षित होकर पवित्र जीवन जियेंगे । उनकी आत्मा का परम-ब्रह्म से संगम होगा, और वे परमधाम बैकुण्ठ में परमपद पायेंगे ।
मुझे आपके विचार बहुत क्रान्तिकारी लगते हैं और आप भी भगवत स्वरूप लगते हैं, लेकिन आपके संन्यासियों का जीवन मुझे पवित्र नहीं लगता, इसलिये आपसे संन्यास लेने में मैं आश्वस्त नहीं हो सकता कि आने वाली प्रलय में बच कर बैकुण्ठ में परमपद पा सकूँ ।
अब मेलाराम असरानी कैसे लोभ में पड़े हैं । कैसा डराया उन्हें, और मजा ये है कि हमारी मूढ़ता का कोई अंत नही है । ये पाँच-दस वर्ष में प्रलय सुनिश्चित है, ये बीस वर्ष तो मुझे सुनते हो गया, ये पाँच-दस वर्ष आगे ही बढ़ते चले जा रहे हैं तुम्हें भी सुनते हो गये होंगे, दादा लेखराज भी खत्म हो गये, पर पाँच-दस वर्ष खत्म नहीं होते ।
मगर सिंधी गुरु, क्या तरकीब लगा गये, दादा लेखराज सिंधियों को फँसा गये, और सिंधी हैं पक्के दुकानदार, उनको डरा गये कि देखो ख्याल रखना प्रलय सुनिश्चित है, पाँच-दस वर्षों में आने वाली है । क्योंकि ज्यादा देर की बात है, तब तक तो समय बहुत है, तब तक और कमाई कर लूँ, पाँच दस वर्ष का मामला है घबरा दिया, और ये कोई नई तरकीब नही है बहुत पुरानी तरकीब है, पुराने से पुराने ग्रन्थ में इस बात का उल्लेख है कि थोङे ही दिन में प्रलय होने वाली है ।
जो ईसा के शिष्य थे, जो उनके प्रथम संवाद वाहक बने, वो लोगों को कहा करते थे कि अब देर नहीं है, 2000 साल पहले यही बात, यही दादा लेखराज की बात कि अब ज्यादा समय देर नही है, प्रलय होने वाली है, क़यामत का दिन आने वाला है, जो जीसस के साथ नहीं होंगे, वो अनन्तकाल तक नर्क में सजेंगे, अभी समय है सावधान ! जीसस के साथ हो लो ।
क्यों ?
क्योंकि क़यामत के दिन जब प्रलय होगी, तो ईश्वर जीसस को लेकर खङा होगा और कहेगा कि चुन लो, अपनी भेङें चुन लो, जो तुम्हारे मानने वाले हैं उनको बचा लो, बाकी को तो नरक में जाना है । उस वक्त तुम बहुत मुश्किल में पड़ोगे कि जीसस को नहीं माना, और जीसस अपनी भेङों को चुन लेंगे और अपनी भेड़ों को बचा लेंगे, और बाकी गये, गिरे अनन्तकाल के लिये नरक में, जहाँ से फिर कोई छुटकारा नहीं है । अनन्तकाल, ख्याल रखना, ऐसा भी नहीं एक साल, दो साल, तीन साल, पाँच साल, दस साल छूटेंगे, कभी तो छूट जायेंगे ।
नहीं ! अनन्तकाल तक फिर छुटकारा है ही नहीं ।
कैसा घबरा दिया होगा लोगों को, 2000 साल पहले ?
और दो हजार साल बीत गये, क़यामत अभी तक नहीं आई, और बातें वे ऐसी कर रहे थे कि अब आई कि तब आई, आई ही रखी है, अब ज्यादा देर नही है ।
और ये बहुत पुरानी तरकीब है, सदियों से इसका उपयोग किया जा रहा है, और फिर भी अजीब आदमी है कि इन्हीं बातों को, इन्हीं जालसाजियों को फिर स्वीकार करने को राजी हो जाता है । कैसे कैसे लोग हैं ?
आदिवासियों के एक गाँव में मैं ठहरा था, बस्तर के आदिवासियों को ईसाई बनाया जाता है, काफ़ी ईसाई बना लिये गये हैं । मुझे कुछ ऐतराज़ नहीं, क्योंकि वे हिन्दू थे तो मूढ़ थे, ईसाई हैं तो मूढ़ हैं, मूढ़ता तो कुछ बदली नहीं, मूढ़ता तो कुछ मिटती नहीं है कि मूढ़ भीङ में इस भेङों के साथ रहें कि मूढ़ भीङ में उस भेड़ों के साथ रहें, क्या फर्क पङता है, मूढ़ता तो वही की वही है ।
मगर किस तरकीब से उन ग़रीब आदिवासियों को ईसाई बनाया जा रहा है !
एक पादरी उनको समझा रहा था । उसने राम की और जीसस की एक जैसी प्रतिमा बना रखी थी, और उनको समझा रहा था कि देखो यह बाल्टी भरी रखी है इसमें मैं दोनों को डालता हूँ । तुम देख लो, जो डूब जायेगा, उसके साथ रहे तो तुम भी डूबोगे, और जो तैरेगा, वही तुमको भी तिरायेगा । और बात बिलकुल साफ थी, सारे आदिवासी बिलकुल उत्सुक होकर बैठ गये ।
भाई ! देखने वाली बात है सिद्ध हुआ जा रहा है ।
तो सबके सामने उस पादरी ने दोनों मूर्तियों को छोङ दिया बाल्टी के भरे पानी में, रामजी तो एकदम डुबकी मार गये, जैसे रास्ते ही देख रहे थे, गोता मारा और निकले ही नहीं, और जीसस तैरने लगे ।
जीसस की मूर्ति बनाई थी लकड़ी की, और राम की मूर्ति बनाई थी लोहे की, उसमें रंग-रोगन एक सा कर दिया था । जिससे वे मूर्तियाँ एक जैसा लगने लगी थी ।
एक शिकारी, जो बस्तर शिकार करने जाता था, मेरा परिचित व्यक्ति था, मैं जिस विश्वविद्यालय में प्रोफेसर था, वहीं वो भी प्रोफेसर था, और उसका एक ही शौक़ था शिकार ।
उसने ये हरकत देखी और समझ गया फ़ौरन कि - ये जालसाज़ी है ।
उसने कहा - ठहरो ! इससे कुछ तय नहीं होता, क्योंकि हमारे शास्त्रों में तो अग्नि परीक्षा लिखी है, जल परीक्षा तो लिखी ही नहीं है ।
आदिवासियों ने कहा - ये बात भी सच है, अरे सीता मइया, जब आयीं थी तो कोई जल परीक्षा तो हुई नहीं थी, उनकी तो अग्नि परीक्षा हुई थी ।
पादरी तो घबरा गया कि - ये तो गड़बड़ हो गया, ये दुष्ट कहाँ से आ गया ।
भागने की कोशिश उस पादरी ने की ।
लेकिन आदिवासियों ने कहा - भइया, अब ठहरो, अग्नि परीक्षा और हो जाय, ये बिचारा ठीक ही कह रहा है, क्योंकि हमारे शास्त्रों में अग्नि परीक्षा का उल्लेख है ।
आग जलाई गई, पादरी बैठा है उदास कि अब फँसे, अब भाग भी नहीं सकता ।
जीसस और रामजी अग्नि में उतार दिये गये ।
अग्नि में रामचंद्र जी तो बाहर आ गये, और जीसस खाक हो गये ।
सो आदिवासियों ने कहा - भइया, अच्छा बचा लिया हमें, अगर आज अग्नि परीक्षा न होती तो हम सब तो ईसाई हुऐ जा रहे थे ।
मगर इन आदिवासियों में और मेलाराम तुममें फर्क है, तुम पढ़े लिखे आदमी हो, मगर कुछ भेद है ।
वही बुद्धि, वही जङ बुद्धि, पाँच-दस साल तुम कहते हो, और तुम कह रहे हो कि मैंने वर्षों पहले दादा लेखराज द्वारा स्थापित ईश्वरी विश्वविद्यालय से दीक्षा ली है ।
दादा लेखराज को मरे कितने साल हुये ये बताओ ?
ये पाँच-दस साल तो तुम ही कह रहे हो कई सालों से । ये पाँच-दस साल कब खत्म होंगे ?
ये कभी खत्म होने वाले नहीं, मगर डर, और सिंधी हो तुम, और सिंधी को तो यही दो बातें प्रभावित करती हैं, एक तो डर, और डर से भी ज्यादा लोभ ।
अब तुम कह रहे हो कि ब्रह्माकुमारी के अनुसार आने वाली प्रलय में अगर साधना छोङ दूँगा तो नष्ट हो जाऊँगा । आने वाले पाँच-दस वर्षों में प्रलय सुनिश्चित है ।
क्या तुम खाक साधना कर रहे हो, राजयोग की, सहज राजयोग की, सहज राजयोग की साधना करो, और इस तरह की मूढ़तापूर्ण बातों में भरोसा करो, ये दोनों बातें एक साथ चल सकती हैं ?
सहज राजयोगी तो समाधिष्ट हो जाता है । उसकी तो प्रलय हो गई । और जहाँ मन गया, वहाँ बैकुण्ठ है । बैकुण्ठ अभी है ।
कोई सारा संसार मिटेगा, तब तुम मेलाराम असरानी बैकुण्ठ जाओगे, तुम्हारे संसार के लिये सारे संसार को मिटाओगे ? जरा सोचो तो बडा महँगा सौदा करवा रहे हो । मतलब जिनको अभी बैकुण्ठ नहीं जाना है उनको भी ।
अरे बाल-बच्चों से, पत्नी से पूछा कि अगले पाँच-दस वर्षों में बैकुण्ठ चलना है ?
किसी को बैकुण्ठ नहीं जाना है । अरे मजबूरी में जाना पड़े बात अलग, मगर जाना कौन चाहता है तुम भी नहीं जाना चाहते । इसीलिये ब्रह्माकुमारी तारीख तय नही करती । उनसे तारीख तय करवा लो, एक दफ़ा निपटारा हो जाय, पाँच-दस साल का मामला है, तारीख तय कर लो, किस तारीख, किस माह में, किस साल में ।
और ऐसे मूढ़ लोग हैं कि ये भी तय करवाया गया, और मूढ़ता ऐसी है कि फिर भी नहीं जाती ।
ईसाइयों में एक सम्प्रदाय है - जिहोबा के साक्षी !
इन्होंने, कई दफ़ा घोषणा कर चुके हैं तारीख तक की । इन्होंने 1880 में एक जनवरी को प्रलय हो जायेगी 100 साल पहले, अभी एक जनवरी आती है, 100 साल पूरे हो जायेंगे । तो घोषणा की थी कि 1 जनवरी 1880 में प्रलय होने वाली है ।
तो उनके मानने वाले लोगों ने देखा कि महाप्रलय होने वाली है तो लोगों ने मकान बेच दिये, ज़मीनें बेच दी, अरे लोगों ने कहा कि गुलछर्रे कर लो, जो भी करना है कर लो, 1 जनवरी आ ही रही है इसके आगे कुछ तो बचना नहीं है । जिसको जो करना था, कर लिया ।
जिहोबा के मानने वाले पर्वत पर इकठ्ठे हुये, क्योंकि सारा जगत तो डूब जायेगा, इसलिये पर्वत पर, पवित्र पर्वत पर जो रहेंगे, उनको परमात्मा बैकुण्ठ ले जायेगा ।
एक तारीख भी आ गई, सुबह भी हो गया, लोग इधर-उधर देख रहे हैं, प्रलय कहीं दिखाई नहीं पङ रही है, लाखों लोग इकठ्ठे पर्वत पर, आखिर धीरे-धीरे खुस-फुस हुई कि बात क्या है अभी तक ! दोपहर भी हो गई, शाम भी होने लगी, दो तारीख भी आ गई, फिर लोगों में सनमनी हुई कि अब फँसे, सब बर्बाद करके आ गये । फिर लौट आये, फिर उसी दुनियाँ में, फिर कमाई-धमाई शुरु कर दी ।
मगर मजा ये है कि आदमी की मूढ़ता की कोई सीमा नही है ।
वही पंडित-पुजारी, जो उनको पहाङ पर ले गये थे, जिन्होंने उनसे सब दान करवा दिया था..दान क्या, खुदी को करवा लिया था ।
इन्होंने ये भी न सोचा कि एक जनवरी को जब सब नष्ट ही होने वाला है, तो ये दान किसलिये इकठ्ठा कर रहे हैं कि एक जनवरी को सब नष्ट ही हो जायेगा, अब दे ही दो, अब भगवान के नाम पर दान कर दो, जो दान कर देगा, उसे अनन्त गुना मिलेगा ।
तो ये पंडित पुजारी क्या करेंगे दान ले के ? ये तक किसी ने न सोचा ।
और वे पंडित पुजारी फिर से समझाने लगे कि थोड़ी तारीख में हमारी भूल हो गई फिर दस साल बाद से होगा ।
फिर दस साल बाद लोग इकठ्ठे हो गये !
आदमी की प्रतिभा ऐसी क्षीण हुई, ऐसी जंग खा गई है ।
अब तुम अगर सहज राजयोग की साधना करते हो, यहाँ कैसे आये ?
अगर सहजयोग से तुम्हें कुछ मिल रहा है, तो यहाँ किसलिये आये हो ?
अपना बैकुण्ठ गंवाना है, क्योंकि वहाँ, अगर पता भी चल गया कि तुम यहाँ आये थे, तो कोई दादा लेखराज वग़ैरह साथ न दे पायेंगे, क्योंकि मैं कहूँगा कि ये मेरी भेड़ है, न रही हो संन्यासी, मगर आधी मेरी है, आधी को बैकुण्ठ जाने दो, आधी को तो मैं नरक ले जाऊँगा ।
मेलाराम असरानी आधे-आधे कटोगे, रामजी को तो मैं ले जाऊँगा, मेला को वही छोङ जाऊँगा, वैसे तुम्हारी मर्ज़ी, रामजी वाले हिस्से को मैं छोड़ने वाला नहीं, वो तो, उस पर क़ब्ज़ा मेरा है ।
इस दरवाज़े के जो भीतर आया एक दफ़ा, उसको पहचान लिया कि भेड़ अपनी है, फिर कोई दादा लेखराज वग़ैरह काम नहीं आने वाले, तुमसे कहे देता हूँ । आधे तो वैसे ही गये, अब पूरे ही फँस जाओ, क्या झंझट ।
और तुम कहते हो, जो ईश्वरी विश्वविद्यालय में दीक्षित होकर पवित्र नहीं होगा, उनकी बङी मुश्किल होगी, और जो पवित्र होंगे, उनकी आत्मा का परमब्रह्म से संगम होगा, और वो परमधाम बैकुण्ठ में परमपद पायेंगे ।
देखते हो, परम-परम चल रहा है, धन्न-धन्न हो रहा है । कैसा लोभ चढ़ा हुआ है छाती पर । जरा परम-ब्रह्म से संगम हो गया, इतने से तृप्ति नही है । परमधाम, उससे भी मन राजी नही मानता; सिंधी मन, बैकुण्ठ ! उससे भी राजी नही, फिर परमपद ।
तो दादा लेखराज कहाँ बैठेंगे ?
परम-पद पर तुम बैठ जाओगे, तो दादा लेखराज धक्का नही देंगे कि - क्यों रे मेलाराम असरानी, कमबख़्त मैंने दीक्षा दी, और परमपद पर तू बैठ रहा है, ब-मुश्किल तो हम बैठ पाये किसी तरह, परमात्मा को सरकाया, और अब तू आ गया ।
अरे परमपद पर कितने आदमी चढ़ोगे ?
परमपद पर तो एक ही बैठ सकेगा कि कई लोग बैठेंगे, पूरा मेला, पूरा झमेला ।
मगर सिंधी हो, तुम भी क्या करो !
दादा सांई बुद्धरमल को सिनेमाघर के बाहर पेशाब करने के आरोप में पकङ कर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया, मजिस्ट्रेट भी था सिंधी, पहुँचा हुआ सिंधी ।
सांई बुद्धरमल पर एक सौ रुपये का जुर्माना किया गया ।
बुद्धरमल बोले - माई-बाप, यह तो अन्याय हो जायेगा, इतनी सी गलती के लिये इतना भारी जुर्माना !
मजिस्ट्रेट बोले - बडी सांई, ऐ कोई ऐरे गैरे का पिशाब नहीं है, सेठ बुद्धरमल का पेशाब था ।
इतना सुनते ही बुद्धरमल ने जल्दी से जुर्माना भर दिया ।
अरे, अब परमपद का मामला आया, सेठ बुद्धरमल का पेशाब ।
तुम भी कैसी कैसी बातों में पड़े हो । जब कोई आदमी किसी स्त्री के साथ बलात्कार करता है, तो साधारण में कहा जाता है कि - उस स्त्री की इज़्ज़त लूटी गई ।
मारवाड़ियों में मामला अलग ही है, यदि स्त्री के साथ कोई बलात्कार कर ले, और उसके पैसे और ज़ेवरात आदि नहीं छीने, तो मारवाड़ी लोग कहते हैं, चलो कोई बात नहीं, बलात्कार किया सो किया, अरे अपना क्या गया, कम से कम इज़्ज़त तो नहीं लूटी, इज़्ज़त बच गई, यही क्या कम है ।
सिंधी लोग और भी पहुँचे हुये लोग हैं ।
एक दिन झामनदास ने आकर बताया कि - कल रात एक अजनबी महिला ने उसकी इज़्ज़त लूट ली । मैंने पूछा - झामनदास क्या कहते हो, कभी ऐसी बात न कानों सुनी, न आँखों देखा कि किसी स्त्री ने तुम्हारी इज़्ज़त लूट ली, क्या कहते हो ?
झामनदास बोले - मैं तो उसके साथ बलात्कार करने में लगा था, और उस दुष्ट ने मेरी पॉकेट मार ली । हद हो गई कलियुग की भी, अब तो मनुष्य जाति पर से तो मेरा बिलकुल भरोसा उठ गया ।
अब ये मेलाराम असरानी परमपद पाने के पीछे पड़े हैं, और इस डर से कि कही परमपद न चूक जाये, सन्यास लेने में घबरा रहे हैं ।
और भी एक डर है कि मुझे आपके विचार बहुत क्रान्तिकारी लगते और आप भी भगवतस्वरूप लगते हैं ।
ये नहीं कि डर के मारे कह रहे है कि कौन झंझट ले, विचार तो क्रान्तिकारी लग रहे, ख़तरनाक मालूम होते हैं, मान लेना ठीक है भगवत-स्वरूप को, पता नहीं आखिर में कौन जीतेगा, दादा लेखराज या ये, आदमी भी उपद्रवी मालूम होता है, कहीं दादा लेखराज को चारों खाने चित्त कर दिया तो फिर..तो फिर होशियार आदमी सभी को सम्भाल कर रखता है कि आप भी भगवत-स्वरूप हैं, यदि मौका आ गया ऐसा, तो कह दूँगा कि याद रखो, मैंने कहा था कि आप भी भगवत-स्वरूप हो, और दादा लेखराज जीते, तो कह दूँगा कि मैंने पहले ही कह दिया था कि इनके विचार क्रान्तिकारी हैं पर अपने को जँचे नहीं ।
लेकिन कहते हैं कि आपके संन्यासियों का जीवन हमें पवित्र नहीं लगता ।
अरे, मेरे सन्यासियों के जीवन से तुम्हें क्या फ़िकर, इनको कोई बैकुण्ठ थोङे ही जाना है, ये तो यही बैकुण्ठ में हैं ।
तुम जब बैकुण्ठ जाओगे, और पाओगे कि दादा लेखराज के आसपास उर्वशी और मेनकायें नाच रही हैं, तो तुम्हें उनका जीवन भी पवित्र नहीं लगेगा कि अरे, ये दादा लेखराज क्या कर रहे हैं ?
अरे रे सांई ये क्या कर रहे हैं, ये उर्वशी बाई को गोद में बिठाये बैठे हैं, ये कोई कन्या, कोई ब्रह्माकुमारी की भी नही हैं, ये कर क्या रहे हो, दादा हो के ये क्या कर रहे हो ?
मेरे सन्यासी तो बैकुण्ठ में हैं । इनको कहीं जाना नहीं, ये तो परमपद में विराजमान हैं ।
इनको मैं कोई प्रलोभन नहीं दे रहा हूँ । और इनको मैंने साफ कह दिया है कि यदि मेरे साथ रहे, तो नरक की तैयारी रखो ।
करोगे क्या खाक स्वर्ग में जाकर, धूल उड़ रही है वहाँ, मरे मुर्दा साधू संत वहाँ पहुँच गये हैं बहुत पहले से, कोई धूनी कमाये बैठा है, कोई झाड़ पर उल्टा लटका है । जटा-जूट तो देखो उनके, यदि तुम उन्हें खोजने जाओ तो मिले ही ना, अनंतकाल में भी न मिले, कोई भूखा ही मर रहा है । इस सर्कस में कहाँ मेरे संन्यासियों को ले जाना है । इन सबको तो मैंने नरक लेकर चलने का विचार किया है ।
नरक में कुछ करने को है । और इतने लोग तो विचारे नरक ही गये होंगे, उन सबका भी तो उद्धार करना है कि नहीं, शैतान को भी सन्यास देना है कि नही ? तो इनको तो कोई चिन्ता नहीं है । मेरे साथ जो हैं, वो मेरे साथ नरक को भी जाने को तैयार है ।
परमपद वद की तो मैं बात ही नहीं करता ।
क्योंकि मैं उन्हीं को ध्यानी मानता हूँ जो कि नरक में भी हो, तो उसके आसपास स्वर्ग घटित हो । और तुम्हारे तथाकथित साधू और संत ये कहीं स्वर्ग में भी होंगे तो उसे कभी का नरक बना दिया होगा । इनकी शक्लें तो देखो, इनके ढंग ठौर तो देखो, ये जहाँ इकठ्ठे हो जायेगे, वहाँ मातम छा जायेगा ।
स्वर्ग में तो बिलकुल मातमी हालत होगी - कोई महात्मा चरख़ा चला रहा है, अब ये मोरार जी भाई भी बैकुण्ठ में रहेंगे, वे वहाँ ‘जीवन जल’ ही पी रहे हैं । इन सबको इनकी तपश्चर्या का फल तो मिलेगा, ज़िन्दगी भर जीवन जल (स्वमूत्र) पिया, तो किसलिये पिया ? काहे को पिया ?
अमृत की आशा में पिया, कि परमात्मा अमृत में मिलेगा । मेरे संन्यासियों को स्वर्ग से कुछ लेना देना नहीं । क्योंकि मैं कहता हूँ कि स्वर्ग कोई भूगोल नही है, और स्वर्ग कोई स्थान नहीं है, बल्कि चैतन्य की अवस्था है, तुम चाहो तो अभी और यहीं स्वर्ग में हो सकते हो, तो फिर कल पर क्यों टाल रहे हो ?
मेलाराम असरानी मेरा संन्यास लो, और प्रलय हुई ।
प्रलय का मतलब क्या होता है ? कि तुम खत्म, कि तुम गये, तुम मिटे, तुम समाप्त हुये ।
और उसी मिटने से, उसी राख से, उसी मृत्यु से, उसी शूली से एक नये जीवन का आविर्भाव होता है । एक नया अंकुरण होता है ।
मैं किसी को नैतिकता नहीं सिखा रहा हूँ, मैं सिर्फ आनन्द सिखा रहा हूँ, मेरे लिये आनन्द ही एकमात्र पवित्रता है, और इसलिये तुम्हें अड़चन लगती होगी कि आपके संन्यासियों का जीवन मुझे पवित्र नहीं लगता ।
तुम्हारी पवित्रता की परिभाषा क्या है ? तुम पवित्रता से क्या अर्थ लेते हो ?
तुमने पवित्रता की कोई धारणा बना ली होगी, अपनी-अपनी धारणायें हैं, और उन्हीं धारणाओं के आधार पर आदमी पवित्रता मानता है ।
तुम व्यर्थ की धारणायें छोङो, और तनिक विवेक से काम लो मेलाराम असरानी, तुम्हारी प्रलय हो ही जायेगी । गलती से ही सही, पर ठीक जगह पर आ गये हो, थोङा हिम्मत करो, थोङा साहस करो ।
(ओशो और ब्रह्माकुमारी)
टंकण एवं प्रेषण - ओशो अनुयायी स्वामी अंतरप्रकाश जी द्वारा ।
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ओशो के इस प्रवचन को वीडियो में देखें ।
https://www.youtube.com/watch?v=MXzEDr-7Ags
ओशो के इस प्रवचन को वीडियो में देखें ।
https://www.youtube.com/watch?v=MXzEDr-7Ags
और अन्त में -
अब (नीचे) इससे ज्यादा क्या बतायें ?
नैनों में निरखत रहे । अविगत नाम कबीर ?
बैडा पार लगावहिं । सुरत सरोवर तीर ।
1 टिप्पणी:
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