दासातन को अंग
गुरू समरथ सिर पर खङे, कहा कमी तोहि दास।
रिद्धि सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न छांङै पास॥
दुख सुख सिर ऊपर सहै, कबहू न छाङै संग।
रंग न लागै और का, व्यापै सदगुरू रंग॥
धूम धाम सहता रहै, कबहू न छाङै संग।
पाहा बिन लागे नही, कपङा के बहु रंग॥
कबीर गुरू सबको चहै, गुरू को चहै न कोय।
जब लग आस सरीर की, तब लग दास न होय॥
कबीर गुरू के भावते, दूरहि ते दीसन्त।
तन छीना मन अनमना, जग ते रूठि फ़िरन्त॥
कबीर खालिक जागिया, और न जगै कोय।
कै जागै विषया भरा, दास बंदगी जोय॥
कबीर पांचौ बलधिया, ऊजङ ऊजङ जांहि।
बलिहारी वा दास की, पकङि जु राखै बांहि॥
काजर केरी कोठरी, ऐसो यह संसार।
बलिहारी वा दास की, पैठी निकसनहार॥
काजर केरी कोठरी, काजर ही का कोट।
बलिहारी वा दास की, रहै नाम की ओट॥
निरबंधन बंधा रहै, बंधा निरबंध होय।
करम करै करता नहीं, दास कहावै सोय॥
दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास।
पानी के पीये बिना, कैसे मिटै पियास॥
दासातन हिरदे बसै, साधुन सों आधीन।
कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लौ लीन॥
नाम धराया दास का, मन में नाहीं दीन।
कहैं कबीर सो स्वान गति, औरहि के लौलीन॥
नाम धरावै दास को, दासातन में लीन।
कहैं कबीर लौलीन बिन, स्वान बुद्धि कहि दीन॥
स्वामी होना सोहरा, दुहरा होना दास।
गाडर आनी ऊन को, बांधी चरै कपास॥
दास दुखी तो हरि दुखी, आदि अन्त तिहूंकाल।
पलक एक में प्रगट ह्वै, छिन में करूं निहाल॥
दास दुखी तो मैं दुखी, आदि अन्त तिहुंकाल।
पलक एक में प्रगटि के, छिन में करै निहाल॥
कबीर कुल सो ही भला, जा कुल उपजै दास।
जा कुल दास न ऊपजै, सो कुल आक पलास॥
भली भई जो भय मिटा, टूटी कुल की लाज।
बेपरवाही ह्वै रहा, बैठा नाम जहाज॥
कबीर भये हैं केतकी, भंवर भये सब दास।
जहँ जहँ भक्ति कबीर की, तहँ तहँ मुक्ति निवास॥
दास कहावन कठिन हैं, मैं दासन का दास।
अब तो ऐसा ह्वै रहूं, पांव तले की घास॥
काहूं को न संतापिये, जो सिर हंता सोय।
फ़िर फ़िर वाकूं बंदिये, दास लच्छ है सोय॥
लगा रहै सतनाम सों, सबही बंधन तोङ।
कहै कबीर वा दास सों काल रहै हथ जोङ॥
दास कहावन कठिन है, जब लग दूजी आन।
हांसी साहिब जो मिलै, कौन सहै खुरसान॥
डग डग पै जो डर करै, नित सुमिरैं गुरूदेव।
कहैं कबीर वा दास की, साहिब मानै सेव॥
निहकामी निरमल दसा, नित चरनों की आस।
तीरथ इच्छा ता करै, कब आवै वा दास॥
चंदन डरपि सरप सों, मति रे बिगाङै बास।
सरगुन डरपै निगुन सों, जग सें डरपै दास॥
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