सुमिरन को अंग
नाम रतन धन पाय कर, गांठी बांध न खोल।
नहि पाटन नहि पारखी, नहि गाहक नहि मोल॥
नाम रतन धन संत पहँ, खान खुली घट मांहि।
सेंत मेंत ही देत हूं, गाहक कोई नांहि॥
नाम नाम सब कोइ कहै, नाम न चीन्है कोय।
नाम चीन्हि सतगुरू मिलै, नाम कहावै सोय॥
नाम बिना बेकाम है, छप्पन भोग विलास।
क्या इन्द्रासन बैठना, क्या बैकुंठ निवास॥
नाम रतन सो पाइहिं, ज्ञान दृष्टि जेहि होय।
ज्ञान बिना नहिं पावई, कोटि करै जो कोय॥
नाम जो रती एक है, पाप जु रती हजार।
आध रती घट संचरै, जारि करै सब छार॥
नाम जपत कुष्ठी भला, चुइ चुइ परै जु चाम।
कंचन देह किस काम की, जा मुख नाहीं नाम॥
नाम जपत कन्या भली, साकट भला न पूत।
छेरी के गल गलथना, जामें दूध न मूत॥
नाम जपत दरिद्री भला, टूटी घर की छानि।
कंचन मंदिर जारि दे, जहाँ न सदगुरू नाम॥
नाम लिया जिन सब लिया, सब सास्त्रन को भेद।
बिना नाम नरके गये, पढ़ि गुनि चारों वेद॥
नाम पियू का छोङि के, करै आन का जाप।
वेस्या केरा पूत ज्यौं, कहै कौन को बाप॥
आदिनाम वीरा अहै, जीव सकल ल्यौ बूझ।
अमरावै सतलोक ले, जम नहि पावै सूझ॥
आदिनाम पारस अहै, मन है मैला लोह।
परसत ही कंचन भया, छूटा बंधन मोह॥
आदिनाम निज सार है, बूझि लेहु सो हंस।
जिन जान्यो निज नाम को, अमर भयो सो बंस॥
आदिनाम निज मूल है, और मंत्र सब डार।
कहै कबीर निज नाम बिनु, बूङि मुवा संसार॥
कोटि नाम संसार में, ताते मुक्ति न होय।
आदिनाम जो गुप्त जप, बिरला जाने कोय॥
सत्तनाम निज औषधि, कोटिक कटै विकार।
विष वारी विरकत रहै, काया कंचन सार॥
यह औषधि अंग ही लगि, अनेक उघरी देह।
कोऊ फ़ेर कूपथ करै, नहि तो औषधि येह॥
सत्तनाम निज औषधि, सदगुरू दई बताय।
औषधि खाय रु पथ रहै, ताकी वेदन जाय॥
सतनाम विस्वास, करम भरम सब परिहरै।
सदगुरू पुरवै आस, जो निरास आसा करै॥
राम नाम को सुमिरतां, उधरे पतित अनेक।
कहैं कबीर नहि छांङिये, राम नाम की टेक॥
राम नाम को सुमिरता, हँसि कर भावै खीझ।
उलटा सुलटा नीपजै, ज्यौं खेतन में बीज॥
राम नाम जाना नहीं, लागी मोटी खोर।
काया हांठी काठ की, ना वह चढ़े बहोर॥
ॐकार निश्चै भया, सो कर्ता मति जान।
सांचा सब्द कबीर का, परदे मांहि पिछान॥
जो जन होइ है जौहरी, रतन लेहि बिलगाय।
सोहंग सोहंग जपि मुआ, मिथ्या जनम गंवाय॥
सबहि रसायन हम करि, नहीं, नाम सम कोय।
रंचक घट में संचरै, सब तन कंचन होय॥
जबहि नाम हिरदै धरा, भया पाप का नास।
मानो चिनगी आग की, परी पुरानी घास॥
कोई न जम सें बांचिया, नाम बिना धरि खाय।
जे जन विरही नाम के, ताको देखि डराय॥
पूंजि मेरी नाम है, जाते सदा निहाल।
कबीर गरजे पुरुष बल, चोरी करै न काल॥
कबीर हमरे नाम बल, सात दीप नव खंड।
जम डरपै सब भय करै, गाजि रहा ब्रह्मांड॥
कबीर हरि के नाम में, सुरति रहै करतार।
ता मुख सें मोती झरे, हीरा अनंत अपार॥
कबीर हरि के नाम में, बात चलावै और।
तिस अपराधी जीव को, तीन लोक कित ठौर॥
कबीर सब जग निरधना, धनवंता नहि कोय।
धनवंता सो जानिये, राम नाम धन होय॥
साहेब नाम संभारता, कोटि विघन टरि जाय।
राई मार वसंदरा, केता काठ जराय॥
कबीर परगट राम कहू, छानै राम न गाय।
फ़ूसक जोङा दूरि करू, बहुरि न लागे लाय॥
कबीर आपन राम कहि, औरन राम कहाय।
जा मुख राम न नीसरै, ता मुख राम कहाय॥
कबीर मुख सोई भला, जा मुख निकसै राम।
जा मुख राम न नीकसै, सो मुख है किस काम॥
कबीर हरि के मिलन की, बात सुनी हम दोय।
कै कछु हार को नाम ले, कै कर ऊंचा होय॥
कबीर राम रिझाय ले, जिह्वा सों कर प्रीत।
हरि सागर जनि बीसरै, छीलर देखि अनीत॥
कबीर राम रिझाय ले, मुख अमृत गुन गाय।
फ़ूटा नग ज्यौं जोरि मन, संधै संधि मिलाय॥
कबीर नैन झर लाइये, रहट वहै निस जाम।
पपिहा यौं पी पी करै, कबीर मिलेंगे राम॥
कबीर कठिनाई खरी, सुमिरत हरि को नाम।
सूली ऊपर नट विधा, गिरै तो नांहि ठाम॥
लंबा मारग दूर घर, विकट पंथ बहु मार।
कहो संत क्यौं पाइये, दुर्लभ गुरू दीदार॥
सूंन सिखर चढ़ि घर किया, सहज समाधि लगाय।
नाम रतन धन तहँ मिला, सतगुरू भये सहाय॥
घटहि नाम की आस करू, दूजी आस निरास।
बसै जु नीर गंभीर में, क्यौं वह मरै पियास॥
जा घट प्रीत न प्रेम रस, पुनि रसना नहि नाम।
ते नर पसु संसार में, उपजि मरे बेकाम॥
जैसे माया मन रमै, तैसा राम रमाय।
तारामंडल बेधि के, तब अमरापुर जाय॥
ज्ञान दीप परकास करि, भीतर भवन जराय।
तहाँ सुमिर सतनाम को, सहज समाधि लगाय॥
एक नाम को जानि के, मेटु करम का अंक।
तबही सो सुचि पाइ है, जब जिव होय निसंक॥
एक नाम को जानि करि, दूजा देइ बहाय।
तीरथ व्रत जप तप नहीं, सतगुरू चरन समाय॥50
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