05 मार्च 2018

साधु को अंग 1



साधु को अंग

कबीर दरसन साधु के, साहिब आवै याद।
लेखे में सोई घङी, बाकी के दिन बाद॥

कबीर दरसन साधु का, करत न कीजै कानि।
ज्यौं उद्यम से लक्ष्मी, आलस से मन हानि॥

कबीर सोइ दिन भला, जा दिन साधु मिलाय।
अंक भरै भरी भेटिये, पाप सरीरा जाय॥

कबीर दरसन साधु के, बङे भाग दरसाय।
जो होवै सूली सजा, कांटै ई टरि जाय॥

दरसन कीजै साधु का, दिन में कई कई बार।
आसोजा का मेह ज्यौं, बहुत करै उपकार॥

कई बार नहि करि सकै, दोय बखत करि लेय।
कबीर साधू दरस ते, काल दगा नहि देय॥

दोय बखत नहि करि सकै, दिन में करु इक बार।
कबीर साधू दरस ते, उतरे भौजल पार॥

एक दिना नहि करि सकै, दूजै दिन करि लेह।
कबीर साधू दरस ते, पावै उत्तम देह॥

दूजै दिन नहि करि सकै, तीजै दिन करु जाय।
कबीर साधु दरस ते, मोक्ष मुक्ति फ़ल पाय॥

तीजै चौथै नहि करै, बार बार करु जाय।
यामें बिलंब न कीजिये, कहै कबीर समुझाय॥

बार बार नहि करि सकै, पाख पाख करि लेय।
कहै कबीर सो भक्त जन, जनम सुफ़ल करि लेय॥

पाख पाख नहि करि सकै, मास मास करु जाय।
यामें देर न लाइये, कहैं कबीर समुझाय॥

मास मास नहि करि सकै, छठै मास अलबत्त।
यामें ढील न कीजिये, कहैं कबीर अविगत्त॥

छठै मास नहि करि सकै, बरस दिना करि लेय।
कहै कबीर सो भक्तजन, जमहि चुनौती देय॥

बरस बरस नहि करि सकै, ताको लागे दोष।
कहै कबीरा जीव सो, कबहु न पावै मोष॥

मात पिता सुत इस्तरी, आलस वधू कानि।
साधु दरस को जब चलै, ये अटकावै आनि॥

इन अटकाया  ना रहै, साधु दरस को जाय।
कहैं कबीर सोई संतजन, मोक्ष मुक्ति फ़ल पाय॥

साधु चलत रो दीजिये, कीजै अति सनमान।
कहै कबीर कछु भेंट धरु, अपने बित अनुमान॥

खाली साधु न विदा करु, सुनि लीजो सब कोय।
कहै कबीर कछु भेंट धरु, जो तेरे घर होय॥

मोहर रुपैया पैसा, छाजन भोजन देय।
कह कबीर सो जगत में, जनम सफ़ल करि लेय॥

हाथी घोङा गाय भैंस, रथ अरु गाङी भवन।
कबीर दीजै साधु को, कीया चाहै गवन॥

बेटा बेटी इस्तरी, साधु चहै सो देय।
सिर साधु के अरपही, जनम सुफ़ल करि लेय॥

कबीर दरसन साधु के, खाली हाथ न जाय।
यही सीख बुधि लीजिये, कहैं कबीर समुझाय॥

सुनिये पार जु पाइया, छाजन भोजन आनि।
कहैं कबीरा साधु को, देत न कीजै कानि॥

कबीर लौंग इलायची, दातुन माटी पानि।
कहैं कबीरा साधु को, देत न कीजै कानि॥

टूका माहीं टूक दे, चीर मांहि सों चीर।
साधू देत न सकुचिये, यौं कहैं सत्त कबीर॥

कंचन दीया करन ने, द्रौपदी दीया चीर।
जो दीया सो पाइया, ऐसे कहैं कबीर॥

निराकार निजरूप है, प्रेम प्रीत सों सेव।
जो चाहै आकार को, साधू परतछ देव॥

साधू आवत देखि के, चरनौं लागौ धाय।
क्या जानौ इस भेष में, हरि आपै मिल जाय॥

साधू आवत देख करि, हँसी हमारी देह।
माथा का ग्रह उतरा, नैनन बढ़ा सनेह॥

साधू आवत देखि के, मन में करै मरोर।
सो तो होसी चूहरा, बसै गांव की ओर॥

साधु आया पाहुना, माँगै चार रतन।
घुनी पानी साथरा, सरधा सेती अंन॥

साधु दया साहिब मिले, उपजा परमानंद।
कोटि विघन पल में टलै, मिटै सकल दुख दंद॥

साधू सब्द समुद्र है, जामें रतन भराय।
मंद भाग मुठ्ठी भरे, कंकर हाथ लगाय॥

साधु मिलै यह सब टलै, काल जाल जम चोट।
सीस नवावत ढहि पङै, अघ पापन के पोट॥

साधु सेव जा घर नहि, सदगुरू पूजा नाहि।
सो घर मरघट जानिये, भूत बसै तेहि मांहि॥

साधु सीप साहिब समुंद, निपजत मोती मांहि।
वस्तु ठिकानै पाइये, नाल खाल में नांहि॥

साधु बङे संसार में, हरि ते अधिका सोय।
बिन इच्छा पूरन करै, साहिब हरि नहि दोय॥

साधु बिरछ सतनाम फ़ल, सीतल सब्द विचार।
जग में होते साधु नहि, जरि मरता संसार॥

साधु हमारी आतमा, हम साधुन की देह।
साधुन में हम यौं रहैं, ज्यौं बादल में मेह॥

साधु हमारी आतमा, हम साधुन की सांस।
साधुन में हम यौं रहै, ज्यौं फ़ूलन में बास॥

साधु हमारी आतमा, हम साधुन के जीव।
साधुन में हम यौं रहैं, ज्यौं पय मध्ये घीव॥

ज्यौं पय मद्धे घीव है, रमी रहा सब ठौर।
वक्ता स्रोता बहु मिले, मथि काढ़ै ते और॥

साधु नदी जल प्रेम रस, तहाँ प्रछालो अंग।
कहैं कबिर निरमल भया, हरि भक्तन के संग॥

साधु मिले साहिब मिले, अन्तर रही न रेख।
मनसा वाचा करमना, साधू साहिब एक॥

साधू को उठि भेटिये, मुख ते कहिये राम।
नातो साधु सरूप को, करनी सो नहि काम॥

साधुन के मैं संग हूं, अन्त कहूं नहि जाँव।
जु मोहि अरपै प्रीति सो, साधुन मुख ह्वै खाँव॥

साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नांहि।
धन का भूखा जो फ़िरै, सो तो साधु नांहि॥

साधु बङे परमारथी, घन ज्यौं बरसै आय।
तपन बुझावै और की, अपनो पारस लाय॥

साधु बङे परमारथी, सीतल जिनके अंग।
तपन बुझावै और की, दे दे अपनो रंग॥

आवत साधु न हरषिया, जात न दीया रोय।
कहैं कबिर वा दास की, मुक्ति कहाँ ते होय॥

छाजन भोजन प्रीति सों, दीजै साधु बुलाय।
जीवत जस है जगत में, अन्त परम पद पाय॥

सरवर तरुवर संतजन, चौथा बरसै मेह।
परमारथ के कारनै, चारौं धारी देह॥

बिरछा कबहु न फ़ल भखै, नदी न अँचवै नीर।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा सरीर॥

अलख पुरुष की आरसी, साधु ही की देह।
लखा जु चाहै अलख को, इनही में लखि लेह॥

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