12 मार्च 2018

भक्ति को अंग



भक्ति को अंग


भक्ति द्राविङ ऊपजी, लाये रामानंद।
परगट करी कबीर ने, सात दीप नवखंड॥

भक्ति भाव भादौं नदी, सबहि चली घहराय।
सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय॥

भक्ति पान सों होत है, मन दे कीजै भाव।
परमारथ परतीति में, यह तन जाये जाव॥

भक्ति बीज बिनसै नहीं, आय पङै जो झोल।
कंचन जो विष्ठा पङै, घटै न ताको मोल॥

भक्ति बीज पलटै नहीं, जो जुग जाय अनंत।
ऊंच नीच घर औतरै, होय संत का संत॥

भक्ति कठिन आती दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय।
भक्ति जु न्यारी भेष सें, यह जानै सब कोय॥

भक्ति भेष बहु अंतरा, जैसे धरनि अकास।
भक्त लीन गुरू चरन में, भेष जगत की आस॥

भक्ति रूप भगवंत का, भेष आहि कछु और।
भक्त रूप भगवंत है, भेष जु मन की दौर॥

भक्ति पदारथ तब मिलै, जब गुरू होय सहाय।
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरन भाग मिलाय॥

भक्ति दुहीली गुरुन की, नहि कायर का काम।
सीस उतारैं हाथ सों, ताहि मिलै सतनाम॥

भक्ति दुहीली राम की, नहि कायर का काम।
निस्प्रेही निरधार को, आठ पहर संग्राम॥

भक्ति दुहीली नाम की, जस खांडे की धार।
जो डोलै सो कटि पङै, निहचल उतरै पार॥

भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय।
और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझौ आय॥

भक्ति निसैनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय।
जिन जिन मन आलस किया, जनम जनम पछिताय॥
 
भक्ति बिना नहि निसतरै, लाख करै जो कोय।
सब्द सनेही ह्वै रहै, घर को पहुँचै सोय॥

भक्ति दुवारा सांकरा, राई दसवैं भाय।
मन तो मैंगल ह्वै रहा, कैसे आवै जाय

भक्ति दुवारा मोकला, सुमिरी सुमिरि समाय।
मन को तो मैदा किया, निरभय आवै जाय॥

भक्ति सोइ जो भाव सों, इक मन चित को राख।
सांच सील सों खोलिये, मैं तैं दोऊ नाख॥

भक्ति गेंद चौगान की, भावै कोइ ले जाय।
कहैं कबीर कछु भेद नहीं, कहा रंक कहा राय॥

भक्ति सरब ही ऊपरै, भागिन पावै सोय।
कहै पुकारै संतजन, सत सुमिरत सब कोय॥

भक्ति बिनावै नाम बिन, भेष बिना ये होय।
भक्ति भेष बहु अन्तरा, जानै बिरला कोय॥

कबीर गुरू की भक्ति करु, तज विषया रस चौज।
बार बार नहि पाइये, मनुष जनम की मौज॥

कबीर गुरू की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार।
धुंवा का धौराहरा, बिनसत लगे न वार॥

कबीर गुरू की भक्ति का, मन में बहुत हुलास।
मन मनसा मांजै नही, होन चहत है दास॥

कबीर गुरू की भक्ति से, संसै डारा धोय।
भक्ति बिना जो दिन गया, सो दिन सालै मोय॥

जब लग नाता जाति का, तब लग भक्ति न होय।
नाता तोङै गुरू भजै, भक्त कहावै सोय॥

छिमा खेत भल जोतिये, सुमिरन बीज जमाय।
खंड ब्रह्मांड सूखा पङै, भक्ति बीज नहि जाय॥

जल ज्यौं प्यारा माछरी, लोभी प्यारा दाम।
माता प्यारा बालका, भक्ति प्यारी राम॥

प्रेम बिना जो भक्ति है, सो निज दंभ विचार।
उदर भरन कै कारनै, जनम गंवायो सार॥

भाग बिना नहिं पाइये, प्रेम प्रीति का भक्त।
बिना प्रेम नहि भक्ति कछु, भक्त भर्यो सब जक्त॥

जहाँ भक्त तहाँ भेष नहि, वरनाश्रम तहाँ नाहि।
नाम भक्ति जो प्रेम सों, सो दुरलभ जग मांहि॥

भाव बिना नहि भक्ति जग, भक्ति बिना नहि भाव।
भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव॥

गुरू भक्ति अति कठिन है, ज्यौं खांडे की धार।
बिना सांच पहुँचै नहीं, महा कठिन व्यवहार॥

कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय।
भक्ति करै कोइ सूरमा, जाति बरन कुल खोय॥

जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चित लाय।
कहैं कबीर सतगुरू मिलै, आवागवन नसाय॥

जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निस्फ़ल सेव।
कहै कबीर वह क्यौं मिलै, निहकामी निज देव॥

जान भक्त का नित मरन, अनजाने का राज।
सर औसर समझै नहीं, पेट भरन सों काज॥

मन की मनसा मिटि गई, दुरमति भइ सब दूर।
जन मन प्यारा राम का, नगर बसै भरपूर॥

मेवासा मोहै किया, दुरिजन काढ़ै दूर।
राज पियारे राम का, नगर बसै भरपूर॥

आरत ह्वै गुरू भक्ति करु, सब कारज सिध होय।
करम जाल भौजाल में, भक्त फ़ंसे नहि कोय॥

आरत सों गुरूभक्ति करु, सब सिध कारज होय।
कूपा मांग्या राछ है, सदा न फ़वसी कोय॥

सबसों कहूं पुकार कै, क्या पंडित क्या सेख।
भक्ति ठानि सब्दै गहै, बहुरि न काछै भेष॥

देखा देखी भक्ति का, कबहु न चढ़सी रंग।
विपति पङै यौं छांङसी, केंचुली तजत भुजंग॥

देखा देखी पकङिया, गई छिनक में छूट।
कोइ बिरला जन बाहुरै, जाकी गहरी मूठ॥

तोटै में भक्ति करै, ताका नाम सपूत।
मायाधारी मसखरै, केते गये अऊत॥

ज्ञान संपूरन ना भिदा, हिरदा नांहि जुङाय।
देखा देखी भक्ति का, रंग नहीं ठहराय॥

खेत बिगार्यो खरतुआ, सभा बिगारी कूर।
भक्ति बिगारी लालची, ज्यौं केसर में धूर॥

तिमिर गया रवि देखते, कुमति गई गुरूज्ञान।
सुमति गई अति लोभ से, भक्ति गई अभिमान॥

निर्पक्षी की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान।
निरदुंदी की मुक्ति है, निर्लोभी निरबान॥

विषय त्याग वैराग है, समता कहिये ज्ञान।
सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान॥

विषय त्याग वैराग रत, समता हिये समाय।
मित्र सत्रु एकौ नहीं, मन में राम बसाय॥

जब लग आसा देह की, तब लग भक्ति न होय।
आसा त्यागी हरि भजै, भक्त कहावै सोय॥

चार चिह्न हरि भक्ति के, प्रगट दिखाई देत।
दया धर्म आधीनता, परदुख को हरि लेत॥

और कर्म सब कर्म हैं, भक्ति कर्म निहकर्म।
कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म॥

भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न आई काज।
जिहिको कियो भरोसवा, तिहिते भाई गाज॥

इन्द्र राजसुख भोगकर, फ़िर भौसागर मांहि।
यह सरगुन की भक्ति है, निर्भय कबहूं नांहि॥

भक्त आप भगवान है, जानत नाहि अयान।
सीस नबावै साधु कूं, बूझि करै अभिमान॥

सत्त भक्ति तरवार है, बांधे बिरला कोय।
कोइ एक बांधे सूरमा, तन मन डारै खोय॥

भक्ति महल बहु ऊंच है, दूरहि ते दरसाय।
जो कोई जन भक्ति करै, सोभा बरनि न जाय॥

भक्तन की यह रीत है, बँधे करै जो भाव।
परमारथ के कारनै, या तन रहै कि जाव॥

भक्ति भक्ति बहु कठिन है, रती न चाले खोट।
निराधार का खेल है, अधर धार की चोट॥

भक्ति निसैनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय।
नीचै बाघिन लुकि रही, कुचल पङे कूं खाय॥

भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जानै भेव।
पूरन भक्ति जब मिलै, कृपा करै गुरूदेव॥

सदगुरू की किरपा बिना, सत की भक्ति न होय।
मनसा वाचा कर्मना, सुनि लीजो सब कोय॥

दुख खंडन भव मेटना, भक्ति मुक्ति बिसराम।
वा घर राचे साथ री, यही भक्ति को नाम॥

भक्ति बीज है प्रेम का, परगट पृथ्वी मांहि।
कहै कबीर बोया घना, निपजै कोइक ठांहि॥

भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति भक्ति में फ़ेर।
एक भक्ति तो अजब है, इक है दमङी सेर॥

भक्त उलटि पीछै फ़िरे, संत धरै नहि पांव।
परतछ दीसै जीवताँ, मुआ मांहिला भाव॥

दया गरीबी दीनता, सुमता सील करार।
ये लच्छन हैं भक्ति के, कहै कबीर विचार॥

सलिल भक्त कहुं ना तरै, जावै नरक अघोर।
सतगुरू सें सनमुख नहीं, धर्मराय के चोर॥

संत सुहागी सूरमा, सब्दै उठे जाग।
सलिल सब्द मानै नहीं, जरि बरि लागे आग॥

सदगुरू सब्द उथापही, अपनी महिमा लाय।
कहैं कबीर वा जीव कूं, काल घसीटै जाय॥

सांच सब्द खाली करै, आपन होय सयान।
सो जीव मनमुखी भये, कलियुग के व्रतमान॥

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