सतगुरू को अंग
कबीर रामानन्द को, सतगुरू भये सहाय।
जग में युक्ति अनूप है, सो सब दई बताय॥
सतगुरू के परताप तें, मिटि गयो सब दुंद।
कहै कबीर दुबिधा मिटी, मिलियो रामानन्द॥
सतगुरू सम को है सगा, साधु सम को दात।
हरि समान को है हितु, हरिजन सम को जात॥
सतगुरू सम कोई नही, सात दीप नव खंड।
तीन लोक न पाइये, और इक्कीस ब्रह्मंड॥
सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघारिया, अनंत दिखावनहार॥
दिल ही में दीदार है, वादि झखै संसार।
सदगुरू शब्दहि मसकला, मुझे दिखावनहार॥
सतगुरू सांचा सूरमा, नख सिख मारा पूर।
बाहिर घाव न दीसई, अन्तर चकनाचूर॥
सतगुरू सांचा सूरमा, शब्द जु बाह्या एक।
लागत ही भय मिट गया, पङा कलेजे छेक॥
सदगुरू मेरा सूरमा, बेधा सकल शरीर।
शब्द बान से मरि रहा, जीये दास कबीर॥
सदगुरू मेरा सूरमा, तकि तकि मारै तीर।
लागे पन भागे नही, ऐसा दास कबीर॥
सतगुरू मारा बान भरि, निरखि निरखि निज ठौर।
नाम अकेला रहि गया, चित्त न आवै और॥
सतगुरू मारा बान भरि, धरि करि धीरी मूठ।
अंग उघाङे लागिया, गया दुवाँ सों फ़ूट॥
सतगुरू मारा बान भरि, टूटि गयी सब जेब।
कहुँ आपा कहुँ आपदा, तसबी कहूँ कितेब॥
सतगुरू मारा बान भरि, डोला नाहिं शरीर।
कहु चुम्बक क्या करि सके, सुख लागै वहि तीर॥
सतगुरू मारा बान भरि, रहा कलेजे भाल।
राठी काढ़ी तल रहै, आज मरै की काल॥
गोसा ज्ञान कमान का, खैंचा किनहू न जाय।
सतगुरू मारा बान भरि, रोमहि रहा समाय॥
सतगुरू मारा तान करि, शब्द सुरंगी बान।
मेरा मारा फ़िर जिये, हाथ न गहौ कमान॥
सदगुरू मारी प्रेम की, रही कटारी टूट।
वैसी अनी न सालई, जैसी सालै मूठ॥
सदगुरू शब्द कमान करि, बाहन लागे तीर।
एकहि बाहा प्रेम सों, भीतर बिधा शरीर॥
सतगुरू सत का शब्द है, सत्त दिया बतलाय।
जो सत को पकङे रहै, सत्तहि माहिं समाय॥
सदगुरू शब्द सब घट बसै, कोई कोई पावै भेद।
समुद्र बूंद एकै भया, काहे करहु निखे(षे)द॥
सदगुरू दाता जीव के, जीव ब्रह्म करि लेह।
सरवन शब्द सुनाय के, और रंग करि देह॥
सतगुरू से सूधा भया, शब्द जु लागा अंग।
उठी लहरि समुंद की, भीजि गया सब अंग॥
शब्दै मारा खैंचि करि, तब हम पाया ज्ञान।
लगी चोट जो शब्द की, रही कलेजे छान॥
सतगुरू बङे सराफ़ है, परखे खरा रु खोट।
भौसागर ते काढ़ि के, राखै अपनी ओट॥
सदगुरू बङे जहाज हैं, जो कोई बैठे आय।
पार उतारै और को, अपनो पारस लाय॥
सदगुरू बङे सुनार हैं, परखे वस्तु भंडार।
सुरतिहि निरति मिलाय के, मेटि डारे खुटकार॥
सतगुरू के सदके किया, दिल अपने को सांच।
कलियुग हमसों लङि पङा, मुहकम मेरा बांच॥
सतगुरू मिलि निर्भय भया, रही न दूजी आस।
जाय समाना शब्द में, सत्त नाम विश्वास॥
सदगुरू मोहि निवाजिया, दीन्हा अंमर बोल।
सीतल छाया सुगम फ़ल, हंसा करैं किलोल॥
सदगुरू पारस के सिला, देखो सोचि विचार।
आइ परोसिन ले चली, दीयो दिया सम्हार॥
सदगुरू सरन न आवही, फ़िरि फ़िरि होय अकाज।
जीव खोय सब जायेंगे, काल तिहूपुर राज॥
सतगुरू तो सतभाव है, जो अस भेद बताय।
धन्य सीष धन्य भाग तिहि, जो ऐसी सुधि पाय॥
सदगुरू हमसों रीझि कै, कह्यो एक परसंग।
बरषै बादल प्रेम को, भीजि गया सब अंग॥
हरी भई सब आतमा, सब्द उठै गहराय।
डोरी लागी सब्द की, ले निज घर कूं जाय॥
हरी भई सब आतमा, सतगुरू सेव्या मूल।
चहुंदिस फ़ूटी वासना, भया कली सों फ़ूल॥
सदगुरू के भुज दोय हैं, गोविंद के भुज चार।
गोविंद से कछु ना सरै, गुरू उतारै पार॥
सदगुरू की दाया भई, उपजा सहज सुभाव।
ब्रह्म अगनि परजालिया, अब कछु कहा न जाय॥
सदगुरू हमसों भल कही, ऐसी करै न कोय।
तीन लोक जम फ़ंद में, पला न पकङे कोय॥
सदगुरू मिले जु सब मिले, ना तो मिला न कोय।
मातु पिता सुत बंधुवा, ये तो घर घर होय॥
सदगुरू मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय।
भ्रम का भांडा तोङि करि, रहै निराला होय॥
सतगुरू आतम दृष्टि है, इन्द्री टिकै न कोय।
सदगुरू बिन सूझै नहीं, खरा दुहेला होय॥
सदगुरू किरपा फ़ेरिया, मन का औरहि रूप।
कबीर पांचौं पलटिया, मेले किया अनूप॥
सदगुरू की मानै नही, अपनी कहै बनाय।
कहै कबीर क्या कीजिये, और मता मन मांय॥
सदगुरू अम्रित बोइया, सिष खारा ह्वै आय।
नाम रसायन छांङि कर, आक धतूरा खाय॥
सदगुरू महल बनाईया, प्रेम गिलावा दीन्ह।
साहिब दरसन कारनै, सब्द झरोखा कीन्ह॥
सदगुरू तो ऐसा मिला, ताते लोह लुहार।
कसनी दे कंचन किया, ताय लिया ततसार॥
सदगुरू के उपदेस का, सुनिया एक विचार।
जो सदगुरू मिलता नही, जाता जम के द्वार॥
जमद्वारे में दूत सब, करते ऐंचातान।
उनते कबहू न छूटता, फ़िरता चारौं खान॥
चारि खानि में भरमता, कबहू न लगता पार।
सो फ़ेरा सब मिटि गया, सतगुरू के उपकार॥
पाछे लागा जाय था, लोक वेद के साथ।
पैंडे में सदगुरू मिले, दीपक दीन्हा हाथ॥
दीपक दीन्हा तेल भरि, बाती दई अघट्ट।
पूरा किया बिसाहना, बहुरि न आवै हट्ट॥
पूरा सदगुरू सेवता, अंतर प्रगटे आप।
मनसा वाचा कर्मना, मिटे जनम के ताप॥
पूरा सदगुरू सेव तूं, धोखा सब दे डार।
साहिब भक्ति कहँ पाईये, अब मानुष औतार॥
पूरा सतगुरू सेवता, सरन पायो नाम।
मनसा वाचा कर्मना, सेवक सारा काम॥
मनहि दिया जिन सब दिया, मन के संग शरीर।
अब देवे को क्या रहा, यौं कथि कहैं कबीर॥
तन मन दिया जु क्या हुआ, निज मन दिया न जाय।
कहैं कबीर ता दास सौं, कैसे मन पतियाय॥
तन मन दिया जु आपना, निज मन ताके संग।
कहैं कबीर सदके किया, सुनि सदगुरू परसंग॥
पारस लोहा परस तें, पलटि गया सब अंग।
संशय सबही मिटि गया, सतगुरू के परसंग॥
सब जग भरमा यौं फ़िरै, ज्यौं रामा का रोज।
सदगुरू सों सुधि जब भई, पाया हरि का खोज॥
थापन पाई थिर भया, सतगुरू दीन्ही धीर।
कबीर हीरा बनिजिया, मान सरोवर तीर॥
कबीर हीरा बनिजिया, हिरदै प्रगटी खान।
पारब्रह्म किरपा करी, सदगुरू मिले सुजान॥
निश्चय निधी मिलाय तत, सदगुरू साहस धीर।
निपजी में साझी घना, बाँटनहार कबीर॥
थिति पाई मन थिर भया, सदगुरू करी सहाय।
अनन्य कथा जिव संचरी, हिरदै रही समाय॥
कर कामन सर साधि के, खैंचि जु मारा मांहि।
भीतर बींधे सो मरै, जिय पै जीवै नांहि॥
चेतन चौकी बैठि के, सदगुरू दीन्ही धीर।
निर्भय होय निःसंक भजु, केवल कहैं कबीर॥
जब ही मारा खैंचि के, तब मैं मुआ जानि।
लागी चोट जु सब्द की, गयी कलेजे छानि॥
हँसै न बोलै उनमुनी, चंचल मेल्या मार।
कह कबीर अंतर बिंध्या, सतगुरू का हथियार॥
गूंगा हुआ बाबरा, बहरा हुआ कान।
पांवन ते पंगुला भया, सदगुरू मारा बान॥
ज्ञान कमान रु लौ गुना, तन तरकस मन तीर।
भलक बहै ततसार का, मारा हदफ़ कबीर॥
जो दीसै सो बिनसिहै, नाम धरा सो जाय।
कबीर सोई तत गह्यौ, सतगुरू दीन्ह बताय॥
कुदरत पाई खबर सों, सदगुरू दिया बताय।
भंवर बिलंवा कमल रस, अब उङि अन्त न जाय॥
सत्त नाम छाङौं नहीं, सदगुरू सीख दई।
अविनासी सों परसि के, आतम अमर भई॥
चित चोखा मन निरमला, बुधि उत्तम मति धीर।
सो धोखा नहि विरहही, सदगुरू मिले कबीर॥
बिन सतगुरू बाचै नही, फ़िर बूङे भव मांहि।
भौसागर की त्रास में, सदगुरू पकङे बांहि॥
जीव अधम अति कुटिल है, काहू नही पतियाय।
ताका औगुन मेटि कर, सदगुरू होत सहाय॥
जेहि खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव।
कहै कबीर सुन साधवा, करू सदगुरू की सेव॥
काल के माथे पाँव दे, सतगुरू के उपदेस।
साहिब अंक पसारिया, ले चल अपने देस॥
जाय मिल्यौ परिवार में, सुख सागर के तीर।
बरन पलटि हंसा किया, सतगुरू सत्त कबीर॥
जग मुआ विषघर धरै, कहै कबीर पुकार।
जो सतगुरू को पाइया, सो जन उतरै पार॥
अन्धा ऊवट जात है, दोनों लोचन नांहि।
उपकारी सतगुरू मिले, डारै बस्ती मांहि॥
दौङ आय सो दौङसी, पहुँचेगा उन देस।
जाय मिले वा पुरुष कूं, सदगुरू के उपदेस॥
जग में युक्ति अनूप है, साध संग गुरू ज्ञान।
तामें निपट अनूप है, सतगुरू लागा कान॥
सीष हरिन गुरू पारधी, सत्तनाम के बान।
लागा तबही भय मिटा, तबही निकसे प्रान॥
सब जग तो भरमत फ़िरै, ज्यौं जंगल का रोज।
सतगुरू सों सूधि भई, जब देखा कछु मौज॥
तीन लोक है देह में, रोम रोम में धाम।
सतगुरू बिन नहि पाइये, सत्त सार निज नाम॥
सकल जगत जनै नही, सो गुरू प्रगटे आय।
जिन आँखों देखा नहीं, सो गुरू दीन्ह लखाय॥
चलते चलते युग गया, को न बतावै धाम।
पैडे में सतगुरू मिले, पाव कोस पर गाम॥
खेल मचा खेलाङि सों, आनन्द जीतै जाय।
सदगुरू के संग खेलता, जीव ब्रह्म ह्वै जाय॥
सीप जु तब लग उतरती, जब लग खाली पेट।
उलटि सीप पैडे गई, भई स्वाति सों भेंट॥
सीप समुंदर में बसै, रटत पियास पियास।
सकल समुंद तिनखा गिनै, स्वांति बूंद की आस॥
कबीर समझा कहत है, पानी थाह बताय।
तांकूं सदगुरू कह करै, औघट डूबै जाय॥
डूबा औघट ना तरै, मोहि अंदेसा होय।
लोभ नदी की धार में, कहा पङौ नर सोय॥
सचु पाया सुख ऊपजा, दिल दरिया भरपूर।
सकल पाप सहजे गया, सदगुरू मिले हजूर॥
बिन सदगुरू उपदेस, सुर नर मुनि नहि निस्तरे।
ब्रह्मा विष्नु महेस, और सकल जीव को गिनै॥
केते पढ़ि गुनि पचि मुआ, योग यज्ञ तप लाय।
बिन सदगुरू पावै नही, कोटिन करै उपाय॥
करहु छोङ कुल लाज, जो सदगुरू उपदेस है।
होय तब जिव काज, निश्चय करि परतीत करु॥
अक्षर आदि जगत में, जाका सब विस्तार।
सदगुरू दाया पाईये, सत्तनाम निज सार॥
सदगुरू खोजो संत, जीव काज जो चाहहु।
मेटो भव को अंक, आवागवन निवारहु॥
सत्तनाम निज सोय, जो सदगुरू दाया करै।
और झूठ सब होय, काहे को भरमत फ़िरै॥
जो सत्तनाम समाय, सतगुरू की परतीति कर।
जम के मल मिटाय, हँस जाय सतलोक कहँ॥
ततदरसी जो होय, सो ततसार विचारई।
पावै तत्त बिलोय, सदगुरू के चेला सई॥
जग भौसागर माहिं, कहु कैसे बूङत तरै।
गहु सदगुरू की बांहि, जो जल थल रक्षा करै॥
निजमत सदगुरू पास, जाहि पाय सब सुधि मिले।
जग ते रहै उदास, ताकहँ क्यौं नहि खोजिये॥
यह सदगुरू उपदेस है, जो मानै परतीत।
करम भरम सब त्यागि के, चलै सो भवजल जीत॥
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