गुरू पारख को अंग
दोनों बूङे बापुरे, चढ़ि पाथर की नाव॥
गुरू मिला नहि सिष मिला, लालच खेला दाव।
दोनों बूङे धार में, चढ़ि पाथर की नाव॥
जाका गुरू है आंधरा, चेला खरा निरंध।
अंधे को अंधा मिला, पङा काल के फ़ंद॥
जानीता बूझा नही, बूझि किया नहि गौन।
अंधे को अंधा मिला, पंथ बतावै कौन॥
जानीता जब बूझिया, पैंडा दिया बताय।
चलता चलता तहँ गया, जहाँ निरंजन राय॥
अंधा गुरू अंधा जगत, अंधे हैं सब दीन।
गगन मंडल में बज रही, अनहद बानी बीन॥
सो गुरू निसदिन बन्दिये, जासों पाया नाम।
नाम बिना घट अंध है, ज्यौं दीपक बिन धाम॥
आगे अंधा कूप में, दूजा लिया बुलाय।
दोनों डूबे बापुरे, निकसै कौन उपाय॥
रात अंधेरी रैन में, अंधे अंधा साथ।
वो बहिरा वो गूंगिया, क्यौं करि पूछै बात॥
अगम पंथ को चालताँ, अंधा मिलिया आय।
औघाट घाट सूझै नहीं, कौन पंथ ह्वै जाय॥
जाका गुरू है लालची, दया नही सिष मांहि।
उन दोनों कू भेजिये, ऊजङ कूआ मांहि॥
जिसका गुरू है लालची, पीतल देखि भुलाय।
सिष पीछै लागा फ़िरै, (ज्यों) बछुआ पीछै गाय॥
कलि के गुरूआ लालची, लालच लोभै जाय।
सिष पीछै धाया फ़िरै, (ज्यों) बछुआ पीछै गाय॥
जाके हिय साहिब नही, सिष साखों की भूख।
ते जन ऊभा सूखसी, दाहै दाझा रूख॥
सिष साखा चीना भया, गुरू कूं आगम नांहि।
जेता पेटै प्रीति सूं, तेता डूबै मांहि॥
माई मूंड गुरू की, जाते भरम न जाय।
आपन बूङा धार में, चेला दिया बहाय॥
गुरू गुरू में भेद है, गुरू गुरू में भाव।
सोई गुरू नित बंदिये, सब्द बतावै दाव॥
पूरे सदगुरू के बिना, पूरा सीष न होय।
गुरू लोभी सिष लालची, दूनी दाझन सोय॥
पूरा सतगुरू ना मिला, सुनी अधूरी सीख।
निकसा था हरि मिलन को, बीचहि खाया वीख॥
वीख - विष
पूरा सदगुरू ना मिला, सुनी अधूरी सीख।
मूंड मुंडावे मुक्ति कूं, चालि न सकई वीक॥
वीक - विस्वा
कबीर गुरू हैं घाट के, हाटूं बैठा चेल।
मूंड मुंडाया सांझ कूं, गुरू सबेरे खेल॥
पूरा सहजे गुन करै, गुन नहि आवै छेह।
सायर पोपै सर भरै, दान न मांगे मेह॥
गुरू किया है देह का, सदगुरू चीन्हा नांहि।
भौसागर की जाल में, फ़िर फ़िर गोता खांहि॥
जा गुरू ते भ्रम ना मिटैं, भ्रांति न जिव की जाय।
सो गुरू झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय॥
झूठे गुरू के पक्ष को, तजत न कीजै बार।
द्वार न पावै सब्द का, भटके बारं बार॥
सांचे गुरू के पक्ष में, मन को दे ठहराय।
चंचल ते निश्चल भया, नहि आवै नहि जाय॥
कनफ़ूका गुरू हद्द का, बेहद का गुरू और।
बेहद का गुरू जब मिलै, लहै ठिकाना ठौर॥
जा गुरू को तो गम नही, पाहन दिया बताय।
सिष सोधै बिन सेइया, पार न पहुँचा जाय॥
सदगुरू ने तो गम कही, भेद दिया अरथाय।
सुरति कमल के अंतरे, निराधार पद पाय॥
सतगुरू का सारा नही, सब्द न लागा अंग।
कोरा रहिगा सीदरा, सदा तेल के संग॥
सदगुरू मिले तो क्या भया, जो मन परिगा भोल।
कपास बिनाया कापङा, करै बिचारी चोल॥
सदगुरू ऐसा कीजिये, ज्यौं भृंगी मत होय।
पल पल दाव बतावही, हंस न जाय बिगोय॥
सतगुरू ऐसा कीजिये, लोभ मोह भ्रम नांहि।
दरिया सों न्यारा रहै, दीसै दरिया मांहि॥
सतगुरू ऐसा कीजिये, जाका पूरन मन।
अनतोले ही देत है, नाम सरीखा धन॥
गुरू तो ऐसा कीजिये, वस्तू लायक होय।
यहाँ दिखावै शब्द में, वहाँ पहुँचावै लोय॥
गुरू तो ऐसा कीजिये, तत्व दिखावै सार।
पार उतारे पलक में, दरषन दे दातार॥
गुरू की सूनी आतमा, चेल चहै निज नाम।
कहै कबीर कैसे बसै, धनी बिहूना गाम॥
काचे गुरू के मिलन से, अगली भी बिगङी।
चाले थे हरि मिलन को, दूनी विपति पङी॥
कबीर बेङा सार का, ऊपर लादा सार।
पापी का पापी गुरू, यौं बूङा संसार॥
ऐसा गुरू न कीजिये, जैसी लटलटी राव।
माखी जामें फ़ँसि रहै, वा गुरू कैसें खाव।
गुरू नाम है गम्य का, सीष सीख ले सोय।
बिनु पद बिनु मरजाद नर, गुरू सीष नहि कोय॥
गु अंधियारी जानिये, रू कहिये परकास।
मिटे अज्ञान तम ज्ञान ते, गुरू नाम है तास॥
भेरैं चढ़िया झांझरै, भौसागर के मांहि।
जो छांङै तो बाचि है, नातर बूङै मांहि॥
जाका गुरू है गीरही, गिरही चेला होय।
कीच कीच के धोवते, दाग न छूटे कोय॥
गुरुवा तो सस्ता भया, पैसा केर पचास।
राम नाम धन बेचि के, करै सीष की आस॥
गुरुवा तो घर घर फ़िरे, दीक्षा हमरी लेह।
कै बूङौ कै ऊबरौ, टका पर्दनी देहु॥
घर में घर दिखलाय दे, सो गुरू चतुर सुजान।
पांच सब्द धुनकार धुन, बाजै सब्द निसान॥
छिपा रँगे सुरंग रँग, नीरस रस करि लेय।
ऐसा गुरू पै जो मिलै, सीष मोक्ष पुनि देय॥
मैं उपकारी ठेठ का, सदगुरू दिया सुहाग।
दिल दरपन दिखलाय के, दूर किया सब दाग॥
ऐसा कोई ना मिला, जासों रहिये लाग।
सब जग जलता देखिया, अपनी अपनी आग॥
ऐसे तो सदगुरू मिले, जिनसों रहिये लाग।
सबही जग सीतल भया, मिटी आपनी आग॥
यह तन विष की बेलरी, गुरू अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरू मिले, तो भी सस्ता जान॥
गुरू बतावै साध को, साध कहै गुरू पूज।
अरस परस के खेल में, भई अगम की सूझ॥
नादी बिंदी बहु मिले, करत कलेजे छेद।
तख्त तले का ना मिला, जासों पूछूं भेद॥
तख्त तले की सो कहै, तख्त तले का होय।
मांझ महल की को कहै, पङदा गाढ़ा सोय॥
मांझ महल की गुरू कहै, देखा जिन घर बार।
कुंजी दीन्ही हाथ कर, पङदा दिया उघार॥
वस्तु कहीं ढ़ूंढ़ै कहीं, किहि विधि आवै हाथ।
कहैं कबीर तब पाइये, भेदी लीजै साथ॥
भेदी लीया साथ करि, दीन्हा वस्तु लखाय।
कोटि जनम का पंथ था, पल में पहुँचा जाय॥
घट का परदा खोलि करि, सनमुख ले दीदार।
बाल सनेही सांइया, आदि अंत का यार॥
गुरू मिला तब जानिये, मिटे मोह तन ताप।
हरष सोक व्यापै नही, तब गुरू आपै आप॥
सिष साखा बहुते किया, सतगुरू किया न मीत।
चाले थे सतलोक को, बीचहि अटका चीत।
बंधे को बंधा मिला, छूटै कौन उपाय।
कर सेवा निरबंध की, पल में लेत छुङाय॥
गुरू बेचारा क्या करै, हिरदा भया कठोर।
नौ नेजा पानी चढ़ा, पथर न भीजी कोर॥
गुरू बेचारा क्या करै, सब्द न लागा अंग।
कहै कबीर मैली गजी, कैसे लागै रंग॥
गुरू है पूरा सिष है सूरा, बाग मोरि रन पैठ।
सत सुकृत को चीन्हि के, एक तख्त चढ़ि बैठ॥
कहता हूँ कहि जात हूं, देता हूं हेला।
गुरू की करनी गुरू जानै, चेला की चेला॥
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