साधु को अंग 2
सुख देवै दुख को हरै, दूर करै अपराध।
कहै कबिर वह कब मिलै, परम सनेही साध॥
जाति न पूछो साधु की पूछि लीजिये ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पङा रहन दो म्यान॥
हरि दरबारी साधु हैं, इनते सब कुछ होय।
वेगि मिलावें राम को, इन्हें मिले जु कोय॥
कह अकास को फ़ेर है, कह धरती का तोल।
कहा साधु की जाति है, कह पारस का मोल॥
हरि सों तू मति हेत करु, कर हरिजन सों हेत।
माल मुल्क हरि देत हैं, हरिजन हरि ही देत॥
साधू खोजा राम के, धसै जु महलन मांहि।
औरन को परदा लगे, इनको परदा नांहि॥
जा घर साधु न सेवहीं, पारब्रह्म पति नांहि।
ते घर मरघट सारिखा, भूत बसें ता ठांहि॥
साधुन की झुपङी भली, ना साकट को गाँव।
चंदन की कुटकी भली, ना बाबुल वनराव॥
पुर पट्टन सूबस बसै, आनन्द ठांवै ठांव।
राम सनेही बाहिरा, ऊजङ मेरे भाव॥
हयबर गयबर सघन घन, छत्रपति की नारि।
तासु पटतर ना तुलै, हरिजन की पनिहारि॥
क्यौं नृपनारी निन्दिये, पनिहारी को मान।
माँग संवारे पीव कूं, नित वह सुमरै राम॥
साधुन की कुतिया भली, बुरी साकट की माय।
वह बैठी हरिजस सुनै, निन्दा करनै जाय॥
तीरथ न्हाये एक फ़ल, साधु मिले फ़ल चार।
सदगुरू मिलें अनेक फ़ल, कहैं कबीर विचार॥
साधु सिद्ध बहु अन्तरा, साधु मता परचंड।
सिद्ध जु तारे आपको, साधु तारि नौ खंड॥
यही बङाई सन्त की, करनी देखो आय।
रज हूं ते झीना रहै, लौलीन ह्वै गुन गाय॥
परमेश्वर ते सन्त बङ, ताका कहँ उनमान।
हरि माया आगै धरै, सन्त रहै निरवान॥
नीलकंठ कीङा भखै, मुख वाके हैं राम।
औगुन वाकै नहि लगै, दरसन ही से काम॥
अन वैस्नव कोई नहीं, सब ही वैस्नव जानि।
जेता हरि को ना भजै, तेता ताको हानि॥
आप साधु करि देखिये, देख असाधु न कोय।
जाके हिरदे हरि नही, हानी उसकी होय॥
जा सुख को मुनिवर रटैं, सुर नर करैं विलाप।
सो सुख सहजै पाइया, सन्तों संगति आप॥
मेरा मन पंछी भया, उङि के चढ़ा अकास।
बैकुंठहि खाली पङा, साहिब सन्तों पास॥
परवत परवत मैं फ़िरा, कारन अपने राम।
राम सरीखे जन मिले, तिन सारै सब काम॥
कबीर सीतल जल नहि, हिम न सीतल होय।
कबीर सीतल संतजन, नाम सनेही होय॥
भली भई हरिजन मिले, कहने आयो राम।
सुरति दसौं दिस जाय थी, अपने अपने काम॥
संत मिले जनि बीछुरौ, बिछुरौ यह मम प्रान।
सब्द सनेही ना मिले, प्रान देह में आन॥
कोटि कोटि तीरथ करै, कोटि कोटि करु धाम।
जब लग साधु न सेवई, तब लग काचा काम॥
आसा वासा सन्त का, ब्रह्मा लखै न वेद।
षट दरसन खटपट करैं, बिरला पावै भेद॥
वेद थके ब्रह्मा थके, थाके सेस महेस।
गीता हूं की गम नही, संत किया परवेस॥
धन सो माता सुन्दरी, जाया साधू पूत।
नाम सुमिरि निर्भय भया, अरु सब गया अबूत॥
साधू ऐसा चाहिये, दुखै दुखावै नांहि।
पान फ़ूल छैङै नहीं, बसै बगीचा मांहि॥
साधू जन सब में रमें, दुख न काहू देहि।
अपने मत गाढ़ा रहै, साधन का मत येहि॥
साध हजारी कापङा, तामें मल न समाय।
साकट काली कामली, भावै तहाँ बिछाय॥
साधु भौंरा जग कली, निस दिन फ़िरै उदास॥
टुकि टुकि तहाँ बिलंबिया, सीतल सब्द निवास॥
साधु सिद्ध बङ अन्तरा, जैसे आम बबूल।
बाकी डारी अमी फ़ल, बाकी डारी सूल॥
साधु कहावन कठिन है, ज्यौं खांडे की धार।
डगमगाय तो गिरि पङे, निहचल उतरे पार॥
साधु कहावन कठिन है, लम्बी पेङ खजूर।
चढ़ूं तो चाखै प्रेमरस, गिरूं तो चकनाचूर॥
साधु चाल जु चालई, साधु कहावै सोय।
बिन साधन तो सुधि नही, साधु कहाँ ते होय॥
साधू सोई जानिये, चलै साधु की चाल।
परमारथ राता रहै, बोले वचन रसाल॥
साधु सती औ सूरमा, दई न मोङै मूंह।
ये तीनों भागा बुरा, साहिब जाकी सूंह॥
साधु सती औ सूरमा, राखा रहै न ओट।
माथा बांधि पताक सों, नेजा घालैं चोट॥
साधु सती औ सिंघ को, ज्यौं लंघन त्यौं सोभ।
सिंघ न मारै मेंढका, साधु न बांधे लोभ॥
साधु सिंघ का इक मता, जीवत ही को खाय।
भावहीन मिरतक दसा, ताके निकट न जाय।
साधु साधु सब एक है, जस अफ़ीम का खेत।
कोई विवेकी लाल हैं, और सेत का सेत॥
साधू तो हीरा भया, ना फ़ूटै घन खाय।
ना वह बिनसै कुंभ ज्यौं, ना वह आवै जाय॥
साधु साधु सबही बङे, अपनी अपनी ठौर।
सब्द विवेकी पारखी, ते माथे की मौर॥
साधू ऐसा चाहिये, जाके ज्ञान विवेक।
बाहर मिलते सों मिलै, अन्तर सब सों एक॥
सदकृपाल दुख परिहरन, वैर भाव नहि दोय।
छिमा ज्ञान सत भाखही, हिंसा रहित जु होय॥
दुख सुख एक समान है, हरष सोक नहि व्याप।
उपकारी निहकामता, उपजै छोह न ताप॥
सदा रहै सन्तोष में, धरम आप दृढ़ धार।
आस एक गुरूदेव की, और न चित्त विचार॥
सावधान औ सीलता, सदा प्रफ़ुल्लित गात।
निर्विकार गंभीर मत, धीरज दया बसात॥
निर्वैरी निहकामता, स्वामी सती नेह।
विषया सों न्यारा रहै, साधुन का मत येह॥
मान अमान न चित्त धरै, औरन को सनमान।
जो कोई आसा करै, उपदेसै तेहि ज्ञान॥
सीलवंत दृढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय।
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय॥
दयावंत धरमक ध्वजा, धीरजवान प्रमान।
सन्तोषी सुखदायका, साधु परम सुजान॥
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