साधु को अंग 3
निहचल मत अरु दृढ़ मता, ये सब लच्छन जान।
साधू सोई जगत में, जो यह लच्छनवान॥
मन रंजन पर दुखहरन, वैर भाव बिसराय।
छिपा ज्ञान हिंसा रहित, सो नर साधु कहाय॥
इन्द्रिय मन निग्रह करन, हिरदा कोमल होय।
सदा शुद्ध आचार में, रह विचार में सोय॥
और देव नहि चित बसै, मन गुरूचरन बसाय।
स्वल्पाहार भोजन करु, तृस्ना दूर पराय॥
और देव नहि चित बसै, बिन प्रतीत भगवान।
मिला (अ)हार भोजन करै, तृस्ना चलै न जान॥
षङ विकार यह देह के, तिनको चित्त न लाय।
सोक मोह प्यासहि छुधा, जरा मृत्यु नसि जाय॥
कपट कुटिलता छांङि के, सबसों मित्रहि भाव।
कृणवान सम ज्ञानवत, वैर भाव नहि काव॥
कपट कुटिलता दुरवचन, त्यागी सबसों हेत।
कृपाबन्त आसारहित, गुरूभक्ति सिख देत॥
रवि को तेज घटै नहीं, जो घन जुरै घमंड।
साधु वचन पलटै नहीं, पलटि जाय ब्रह्मंड॥
जौन चाल संसार की, तौन साधु की नांहि।
डिंभ चाल करनी करै, साधु कहो मति ताहि॥
गांठी दाम न बांधई, नहि नारी सों नेह।
कहैं कबीर ता साधु की, हम चरनन की खेह॥
कोई आवै भाव ले, को अभाव ले आव।
साधु दोऊ को पोषते, भाव न गिनै अभाव॥
रक्त छांङि पय को गहै, ज्यौं रे गउ का बच्छ।
औगुन छाङै गुन गहै, ऐसा साधु लच्छ॥
संत न छाङै संतता, कोटिक मिले असन्त।
मलय भुवंगम बेधिया, सीतलता न तजन्त॥
साकट ब्राह्मन मति मिलो, साधु मिलो चंडाल।
जाहि मिलै सुख ऊपजै, मानो मिले दयाल॥
कमल पत्र है साधुजन, बसै जगत के मांहि।
बालक केरी धाय ज्यौं, अपना जानत नांहि॥
हरि दरिया सूभर भरा, साधू का घट सीप।
तामें मोती नीपजै, चढ़ै देसावर दीप॥
बहता पानी निरमला, बंधा गन्दा होय।
साधू जन रमता भला, दाग न लागे कोय॥
बंधा पानी निरमला, जो टुक गहिरा होय।
साधूजन बैठा भला, जो कछु साधन होय॥
ढोल दमामा गङगङी, सहनाई औ तूर।
तीनों निकसि न बाहुरै, साधु सती औ सूर।
तूटै बरत अकास सों, कौन सकत है झेल।
साधु सती औ सूर का, अनी उपर का खेल॥
हांसी खेल हराम है, जो जन राते नाम।
माया मंदिर इस्तरी, नहि साधु का काम॥
उडगन और सुधाकरा, बसत नीर की संध।
यौं साधू संसार में, कबीर पङत न फ़ंद॥
जौन भाव ऊपर रहै, भितर बसावै सोय।
भीतर औ न बसावई, ऊपर और न होय॥
तन में सीतल सब्द है, बोलै वचन रसाल।
कहैं कबीर ता साधु को, गंजि सकै नहि काल॥
तीन लोक उनमान में, चौथा अगम अगाध।
पंचम दसा है अलख की, जानैगा कोई साध॥
सब वन तो चंदन नहीं, सूरा के दल नांहि।
सब समुद्र मोती नहि, यौं साधू जग मांहि॥
सिंघन के लेहङा नहीं, हँसों की नहि पांत।
लालन की नहि बोरियां, साधु न चले जमात॥
स्वांगी सब संसार है, साधू समज अपार।
अलल पंछि कोइ एक है, पंछी कोटि हजार॥
ऐसा साधू खोजि के, रहिये चरनों लाग।
मिटै जनम की कलपना, जाके पूरन भाग॥
ऊंडा चित अरु सम दसा, साधू गुन गंभीर।
जो धोखा बिचलै नहीं, सोई संत सुधीर॥
चित चैन में गरकि रहा, जागि न देख्यौ मित्त।
कहाँ कहाँ सल पारि हो, गल बल सहर अनित्त॥
कबीर हमरा कोइ नहि, हम काहू के नांहि।
पारै पहुँची नाव ज्यौं, मिलि के बिछुरी जांहि॥
आज काल के लोग हैं, मिलि के बिछुरी जांहि।
लाहा कारन आपने, सौगंद राम की खांहि॥
कबीर सब जग हेरिया, मेल्यौ कंध चढ़ाय।
हरि बिन अपना कोइ नहि, देखा ठोकि बजाय॥
निसरा पै बिसरा नहीं, तो निसरा ना काहि।
पहिली खाद उखालिया, सो फ़िर खाना नाहिं॥
जो विभूति साधुन तजी, मूढ़ ताहि लपटाय।
ज्यौंहि वमन करि डारिया, स्वान स्वाद करि खाय॥
दुनिया बंधन पङि गई, साधू हैं निरबंध।
राखै खंग जु ज्ञान का, काटत फ़िरै जु फ़ंद॥
कबीर कमलन जल बसै, जल बसि रहे असंग।
साधूजन तैसे रहें, सुनि सदगुरू परसंग॥
मुर्गाबी को देखकर, मन उपजा यह ज्ञान।
जल में गोता मार कर, पंख रहे अलगान॥
जुआ चोरी मुखबिरी, ब्याज विरानी नारि।
जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि॥
सन्त समागम परम सुख, जान अलप सुख और।
मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरै ठौर॥
संत मिले सुख ऊपजे, दुष्ट मिले दुख होय।
सेवा कीजै संत की, जनम कृतारथ होय॥
हरिजन मिले तो हरि मिले, मन पाया विश्वास।
हरिजन हरि का रूप है, ज्यूं फ़ूलन में वास॥
संत मिले तब हरि मिले, कहिये आदि रु अन्त।
जो संतन को परिहरै, सदा तजै भगवंत॥
राम मिलन के कारनै, मो मन बङा उदास।
संत संग में सोधि ले, राम उनों के पास॥
सरनै राखौ साइयां, पूरो मन की आस।
और न मेरे चाहिये, संत मिलन की प्यास॥
कलियुग एकै नाम है, दूजा रूप है संत।
सांचे मन से सेइये, मेटै करम अनंत॥
संत जहाँ सुमरन सदा, आठों पहर अमूल।
भरि भरि पीवै रामरस, प्रेम पियाला फ़ूल॥
फ़ूटा मन बदलाय दे, साधू बङे सुनार।
तूटी होवै राम सों, फ़ेर संधावन हार॥
राज दुवार न जाइये, कोटिक मिले जु हेम।
सुपच भगत के जाइये, यह विस्नू का नेम॥
संगत कीजै साधु की, कदी न निस्फ़ल होय।
लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय॥
सो दिन गया अकाज में, संगत भई न संत।
प्रेम बिना पशु जीवना, भाव बिना भटकंत॥
संत मिले तब हरि मिले, यूं सुख मिलै न कोय।
दरसन ते दुरमत कटै, मन अति निरमल होय॥
साहिब मिला तब जानिये, दरसन पाये साध।
मनसा वाचा करमना, मिटे सकल अपराध॥
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