19 मार्च 2010

अनुराग सागर की संक्षित कहानी


अनुराग सागर ।.. कबीर साहिब और धरमदास जी के संवादों पर आधारित महान ग्रन्थ  है । इसकी शुरुआत में बताया गया है कि सबसे पहले जब ये सृष्टि नहीं थी । प्रथ्वी । आसमान । सूरज । तारे आदि कुछ भी नहीं था । तब केवल परमात्मा ही था ।.. सिर्फ़ परमात्मा ही शाश्वत है ।

 इसलिये संतमत में । और सच्चे जानकार संत । परमात्मा के लिये । है । शब्द का प्रयोग करते हैं । उसने ( परमात्मा ने ) कुछ सोचा ।.. ( सृष्टि की शुरूआत में । उसमें स्वतः एक विचार उत्पन्न हुआ । इससे स्फ़ुरणा ( संकुचन जैसा ) हुयी ) । तब एक शब्द ( हुं.. ) प्रकट हुआ । ( जैसे हम लोग आज भी विचारशील होने पर । हुं.. । करते हैं । तब उसने सोचा । मैं कौन हूं ?..

 इसीलिये हर इंसान आज तक इसी प्रश्न का उत्तर खोज रहा है कि मैं कौन हूं ? उस समय ये पूर्ण था । ) तब उसने एक सुन्दर और आनंददायक दीप की रचना की । और उसमें विराजमान हो गया । फिर उसने एक एक करके । एक ही नाल से 16 अंश यानी सुत प्रकट किये । उनमें 5 वें अंश कालपुरुष को छोड़कर सभी सुत आनंद को देने वाले थे । और वे सतपुरुष द्वारा बनाये गए हंसदीपों मैं आनंदपूर्वक रहते थे ।

 इनमें कालपुरुष सबसे भयंकर और विकराल था । वह अपने भाइयों की तरह हंसदीपों में न जाकर । मानसरोवर दीप के निकट चला आया । और सत्पुरुष के प्रति घोर तपस्या करने लगा । लगभग 64 युगों तक तपस्या हो जाने पर । उसने सतपुरुष के  प्रसन्न होने पर तीन लोक । स्वर्ग । धरती और पाताल मांग लिए । और फिर से कई युगों तक तपस्या की  ।
इस पर सतपुरुष ने अष्टांगी कन्या ( आदिशक्ति । भगवती आदि ) को स्रष्टि बीज के साथ कालपुरुष के पास भेजा । ( इससे पहले सतपुरुष ने कूरम नाम के सुत को भेजकर उसकी तपस्या करने की इच्छा की वजह पूछी । )

अष्टांगी कन्या बेहद सुन्दर और मनमोहक अंगो वाली थी । वह कालपुरुष को देखकर भयभीत हो गयी । कालपुरुष उस पर मोहित हो गया । और उससे रतिक्रिया का आग्रह किया । ( यही प्रथम स्त्री पुरुष का काम मिलन  था । ) और दोनों रतिक्रिया मैं लीन हो गए । ये रतिक्रिया बहुत लम्बे समय तक चलती रही ।
इससे ब्रह्मा । विष्णु और शंकर का जन्म हुआ । अष्टांगी कन्या उनके साथ आनन्दपूर्वक रहने लगी । पर कालपुरुष की इच्छा कुछ और ही थी ? इनके जन्म के उपरांत कुछ समय बाद कालपुरुष अदृश्य हो गया । और भविष्य के लिए आदिशक्ति को निर्देश दे गया ।
तब आदिशक्ति ने अपने अंश से तीन कन्यायें उत्पन्न की । और उन्हें समुद्र में छिपा दिया । फ़िर उसने अपने पुत्रों को समुद्र मंथन की आग्या दी । और समुद्र से मंथन के द्वारा प्राप्त हुयी तीनों कन्यायें अपने तीन पुत्रों को दे दी ।

ये कन्यायें सावित्री । लक्ष्मी और पार्वती थी । तीनों पुत्रों ने मां के कहने पर उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार लिया । तब आध्याशक्ति ने ( कालपुरुष के कहेनुसार..यह बात कालपुरुष दोबारा कहने आया  था । क्योंकि पहले अष्टांगी ने जब पुत्रों को इससे पहले सृष्टि रचना के लिये कहा । तो उन्होंने अनसुना कर दिया । )  अपने तीनो पुत्रों के साथ सृष्टि की रचना की ।
आद्धाशक्ति ने खुद अंडज । यानी अंडे से पैदा होने वाले जीवों को रचा । ब्रह्मा ने पिंडज । यानी पिंड से शरीर से पैदा होने वाले जीवों की रचना की । विष्णु ने ऊश्मज । यानी पानी । गर्मी से पैदा होने  वाले जीव कीट पतंगे जूं आदि की रचना की । शंकर जी ने स्थावर यानी पेड । पौधे । पहाड़ । पर्वत आदि जीवों की रचना की । और फिर इन सब जीवों को 4 खानों वाली 84 लाख योनियों में डाल दिया ।
इनमें मनुष्य शरीर की रचना सर्वोत्तम थी । इधर ब्रह्मा । विष्णु । शंकर ने अपने पिता कालपुरुष के वारे मैं जानने की बहुत कोशिश की । पर वे सफल न हो सके । क्योंकि वो अदृश्य था और उसने आध्याशक्ति से कह रखा था कि वो किसी को उसका पता न बताये । फिर वो सब जीवों के अन्दर ॥ मन ।। ??? के रूप मैं बैठ गया । और जीवों को तरह तरह की वासनाओं में फ़साने लगा । और समस्त जीव बेहद दुख भोगने लगे ।
 क्योंकि सतपुरुष ने उसकी  क्रूरता देखकर शाप दिया था कि वह एक लाख जीवों को नित्य खायेगा । और सवा लाख को उत्पन्न करेगा । समस्त जीव उसके क्रूर  व्यवहार से हाहाकार करने लगे और अपने बनाने  वाले को पुकारने  लगे ।  सतपुरुष को ये जानकर बहुत गुस्सा आया कि काल समस्त जीवों पर बेहद अत्याचार कर रहा है । ( दरअसल काल  जीवों को तप्तशिला पर रखकर पटकता और खाता था । )
तब सतपुरुष ने ग्यानी जी ( कबीर साहब ...जो सतपुरुष के 16 अंश में से एक है । ) को उसके पास भेजा । कालपुरुष और ग्यानी जी के बीच काफ़ी झडप हुयी । और कालपुरुष हार  गया । तप्तशिला पर तडपते जीवों ने ग्यानी जी से प्रार्थना की । कि वो उसे इसके अत्याचार से बचायें । ग्यानी जी ने उन जीवों को  सतपुरुष का नाम ( ढाई अक्षर का महामन्त्र । ) ध्यान करने को कहा । इस नाम के ध्यान करते ही जीव मुक्त होकर ऊपर ( सतलोक ) जाने लगे । यह देखकर काल घबरा गया ।
तब उसने ग्यानी जी से एक समझौता किया । कि जो जीव इस परम नाम ( वाणी से परे ) को सतगुरु से प्राप्त कर लेगा । वह यहां से मुक्त  हो जायेगा । ग्यानी जी ने कहा । मैं स्वयं आकर सभी जीवों  को यह नाम दूंगा । नाम के  प्रभाव से वे यहां से मुक्त होकर आनन्दधाम को  चले जायेंगे ।
तब काल  ने  कहा । मैं और माया ( उसकी पत्नी ) जीवों को तरह तरह की भोगवासना में फ़ंसा देंगे । जिससे जीव भक्ति भूल जायेगा । और यहीं फ़ंसा रहेगा ।
तब ग्यानी जी ने कहा । लेकिन उस सतनाम  के अंदर जाते ही जीव में ग्यान का प्रकाश हो जायेगा और जीव तुम्हारे सभी चाल समझ जायेगा । अब काल को चिंता हुयी ।
तब उसने बेहद चालाकी से कहा । ..मैं जीवों को मुक्ति  और उद्धार के  नाम पर तरह तरह के जाति धर्म पूजा पाठ तीर्थ वृत आदि में ऐसा उलझाऊंगा कि वह कभी अपनी असलियत नहीं जान पायेगा ।..साथ ही मैं तुम्हारे चलाये गये.. पंथ में भी..? अपना जाल फ़ैला दूंगा ? इस तरह अल्पबुद्धि जीव यही नहीं सोच पायेगा.. कि सच्चाई आखिर है  क्या ? मैं तुम्हारे असली नाम में भी अपने नाम  मिला दूंगा ?..आदि । अब क्योंकि समझौता हो  गया था ।
ग्यानी जी वापस लौट गये । वास्तव में मन रूप मैं यह काल ही है । जो हमें तरह तरह के कर्मजाल मैं फंसाता है । और फिर नरक आदि भोगवाता है ।
लेकिन वास्तव मैं यह आत्मा सतपुरुष का अंश होने से बहुत शक्तिशाली है । पर भोग वासनाओं में पड़कर इसकी ये दुर्गति हो गई है ।
 इससे छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय सतगुरु की शरण और महामंत्र का ध्यान करना ही है ।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326