20 अप्रैल 2010

जो भविष्य के सपनों में जो जीता हैं



पहले प्रेम और फिर संग के कारण प्रेमी विवाह कर लेते हैं । और फिर श्रंगार की तरह बस्त्रो को, मंगल सूत्र को, और बिंदी इत्यादि को पहनते हैं सिर्फ प्रेम बस । संन्यास तो परम प्रेम में जीना है । अपने प्रियतम के प्रति । फिर ये माला, ये रोब ये माँ या स्वामी के साथ नया नाम हमें हर पल प्रेम से और प्रेम की ओर, ध्यान से और ध्यान की ओर प्रेरित कर उर्जा देता रहता है । और कभी कभी किसी अन्य मित्र की प्यास को भी जगा देता है । और ये साहस दीवानों में ही पाया जाता है । पर ओशो इतने अदभुत है कि उन्होंने 1 साथ नदी के दोनों किनारों को संभाला है । ठीक इसके विपरीत छोर को भी कि किसी चीज़ की कोई जरूरत नहीं । न माला की । न रोब की । न संन्यास की । जब तक मन है । हम इसी तरह चालाकी से उनके वक्तव्यों का उपयोग करते रहेंगे । अपनी सुविधा को देखते हुए हम चुनाव करते हैं । और आश्चर्य यह है कि भगवान श्री ने सभी के लिये अपने द्वार खोल रखे हैं ।
असली बात भीतर प्रवेश करने की है । पर मुझे माला से रोब से बहुत प्यार है । ध्यान है तो सब कुछ । ध्यान नहीं तो कुछ भी नहीं - ओशो ।
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आदमी सदा यही सोचता हैं कि मुझे यही रहना । नही ये याद रखना ही होगा । अंत जरुर है । अपने घर की तलाश करनी होगी । प्रेम की । परमात्मा की । जो भविष्य के सपनों में जो जीता हैं । वो तो बुद्धू है । जो 1 इंच के लिए मर मिटते हैं । कभी विचार में जीते हैं । कभी अतीत से । कभी भविष्य पर जीते हो । वर्तमान में विचार नही होता है । तो घर भी तुम अपना मान लेते हो । यह मन की बाते है । वर्तमान भी मन में नही रहता है । कल और काल । काल मृत्यु है । कल भी भविष्य । ये कभी भी आ सकता है । समय भी मौत है ।
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माँ से अगर बच्चे को प्रेम की सीख ना मिल पायी - बेशर्त प्रेम की । तो फिर वो कहाँ से सीखेगा ? पहली पाठशाला ही चूक गयी । कुंआ पहले झरने पे ही जहरीला हो गया - ओशो ।
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जब तक तुम मृत्यु को जाने नहीं । तभी तक तुम्हें डर है । जीवन भी मृत्यु के बाद में शुरू होता । और मृत्यु है । यह कांटा जब चुभ जाए । तो संसार भी निरथर्क हो जाता है । शास्त्र भी फ़िर कुछ काम नही है । मृत्यु में ही मंगल होता है । जीवन बनाने में पूरा जीवन चला गया । और मृत्यु को जान लेना जीवन भी हंसकर पार हो सकते हैं ।
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जो दूसरे को जानने की चेष्टा करेगा । दूसरे से परिचित होना चाहेगा । पुरुष स्त्री से परिचित होना चाहता है । स्त्री पुरुष से परिचित होना चाहती है । हम मित्र बनाना चाहते हैं । हम परिवार बनाना चाहते हैं । हम चाहते हैं । अकेले न हों । अकेले होने में कितना भय लगता है । कैसी कठिन हो जाती हैं वे घड़ियां । जब हम अकेले होते हैं । कैसी कठिन और दूभर । झेलना मुश्किल । क्षण क्षण ऐसे कटता है । जैसे वर्ष कटते हों । समय बड़ा लंबा हो जाता है । संताप बहुत सघन हो जाता है । समय बहुत लंबा हो जाता है । तो हम दूसरे से परिचय बनाना चाहते हैं । ताकि यह अकेलापन मिटे । हम दूसरे से परिवार बनाना चाहते हैं । ताकि यह अजनबीपन मिटे । किसी तरह टूटे यह अजनबीपन । लगे कि यह हमारा घर है ! सांसारिक व्यक्ति मैं उसी को कहता हूं । जो इस संसार में अपना घर बना रहा है । हमारा शब्द बड़ा प्यारा है । हम सांसारिक को " गृहस्थ " कहते हैं । लेकिन तुमने उसका ऊपरी अर्थ ही सुना है । तुमने इतना ही जाना है कि जो घर में रहता है । वही संसारी है । नहीं । घर में तो संन्यासी भी रहते हैं । छप्पर तो उन्हें भी चाहिए पड़ेगा । उस घर को चाहे आश्रम कहो । चाहे उस घर को मंदिर कहो । चाहे स्थान कहो । मस्जिद कहो । इससे कुछ फर्क पड़ता नहीं । घर तो उन्हें भी चाहिए होगा । नहीं । घर का भेद नहीं है । भेद कही गहरे में होगा ।
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आत्मा को कमजोर करता है भय - ओशो । शरीर के बिना कुछ आनंद लिए जा सकते हैं । जैसे समझें । 1 विचारक है । तो विचारक का जो आनंद है । वह शरीर के बिना भी उपलब्ध हो जाता है । क्योंकि विचार का शरीर से कोई संबंध नहीं है । तो अगर 1 विचारक की आत्मा भटक जाए । शरीर न मिले । तो उस आत्मा को शरीर लेने की कोई तीव्रता नहीं होती । क्योंकि विचार का आंनद तब भी लिया जा सकता है । लेकिन समझो कि 1 भोजन करने में रस लेने वाला आदमी है । वह शरीर के बिना भोजन का रस नहीं ले सकता है । उसके प्राण छटपटाने लगते हैं कि वह कैसे शरीर में प्रवेश कर जाए । और जब उसके योग्य गर्भ नही मिलता है । तब वह कमजोर आत्मा - कमजोर आत्मा से मतलब है ऐसी आत्मा । जो अपने शरीर का मालिक नहीं है । उस शरीर में वह प्रवेश कर सकता है । किसी कमजोर आत्मा की भय की स्थिति में । और ध्यान रहे - भय का 1 बहुत गहरा अर्थ है । भय का अर्थ है - जो सिकोड़ दे । जब आप भयभीत होते हैं । तो आप सिकुड़ जाते हैं । जब आप प्रफुल्लित होते हैं । तो आप फैल जाते हैं । जब कोई व्यक्ति भयभीत होता है । तो उसकी आत्मा सिकुड़ जाती है । और उसके शरीर में बहुत जगह छूट जाती है । जहां कोई दूसरी आत्मा प्रवेश कर सकती है । 1 नहीं । बहुत आत्माएं भी एकदम से प्रवेश कर सकती हैं । इसलिए भय की स्थिति में कोई आत्मा किसी शरीर में जाती है । और
ऐसा करने का कुल कारण इतना होता है कि उसके जो रस हैं । वह शरीर से बंधे हैं । इसलिए वह दूसरे के शरीर में प्रवेश करके रस लेने की कोशिश करती है । इसकी पूरी संभावना है । इसके पूरे तथ्य हैं । इसकी पूरी वास्तविकता है । इसका यह मतलब हुआ कि 1 तो भयभीत व्यक्ति हमेशा खतरे में है । जो भयभीत है । उसे खतरा हो सकता है । क्योंकि वह सिकुड़ी हुई हालत में होता है । वह अपने मकान में । अपने घर के 1 कमरे में रहता है । बाकी कमरे उसके खाली पड़े रहते हैं । बाकी कमरों में दूसरे लोग मेहमान बन सकते हैं । कभी कभी श्रेष्ठ आत्माएं भी शरीर में प्रवेश करती हैं - कभी कभी । लेकिन उनका प्रवेश दूसरे कारणों से होता है । कुछ कृत्य हैं - करूणा के । जो शरीर के बिना नहीं किये जा सकते । जैसे समझें । 1 घर में आग लगी है । और कोई उस घर को आग से बचाने नहीं जा रहा है । भीड़ बाहर
घिरी खड़ी है । लेकिन किसी की हिम्मत नहीं होती है कि आग में बढ़ जाए । और तब अचानक 1 आदमी बढ़ जाता है । और वह आदमी बाद में बताता है कि मुझे समझ में नहीं आया कि मैं किस ताकत के प्रभाव में बढ़ गया । मेरी तो हिम्मत न थी । और वह बढ़ जाता है । और आग बुझाने लगता है । और आग बुझा लेता है । और किसी को बचाकर बाहर निकल आता है । वह आदमी खुद कहता है कि ऐसा लगता है कि मेरे हाथ की बात नहीं है यह । किसी और ने मुझसे करवा लिया है । ऐसी किसी घड़ी में जहां कि किसी शुभ कार्य के लिए आदमी हिम्मत नहीं जुटा पाता हो । कोई श्रेष्ठ आत्मा भी प्रवेश कर सकती है । लेकिन ये घटनाएं कम होती हैं ।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326