परमात्मा ने जैसे ब्रह्माण्ड की रचना की . उसी नमूना में मनुष्य शरीर की रचना की .
इच्छानि स्रष्टि - संकल्प द्वारा स्रष्टि करना ,जिसे योगी आज भी कर लेते हैं .
सासिद्धक स्रष्टि - इच्छानुसार शरीर बना लेना , मारीच हिरन बना .
मुद्राएं -
परमात्म साक्षात्कार के लिये की गयी क्रिया अवस्था को मुद्रा कहतें हैं .
यह दस प्रकार की है .
1 - चाचरी - आँख बन्द कर अन्तर में नाभि से नासिका के अग्रभाग तक द्रण होकर देखना .
2 - खीचरी - जीभ को उलटकर ब्रह्मरन्ध्र तक पहुँचाकर स्थिर कर लें .
3 - भूचरी -परमात्मा का नाम ( हँसो ) अजपा जप को प्राण के मध्य ध्यान में रखकर मनन करना .
4 - अगोचरी - कानों को बन्द कर अन्दर की ध्वनि सुनना .
5 - उनमनी - द्रष्टि को भोंहों के मध्य टिकाना .
अन्य पाँच विशेष मुद्राएं है . उनका साक्षात्कार प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है .
1 - साम्भवी - जीवों में संकल्प से प्रवेश कर उनके अन्तकरण का अनुभव करना
2 - सनमुखी - संकल्प से ही कार्य होने लगे .
3 - सर्वसाक्षी - स्वयं को , तथा परमात्मा को सबमें देखना .
4 - पूर्णबोधिनी - जिसका विचार करता है उसकी पूर्ति तथा बोध पल भर में ही हो जाता है . एक ही जगह स्थित सम्पूर्ण जगत की बात जानना .
5 -उनमीलनी - अनहोने कार्य करने की सिद्धि .
.. भय उत्पन्न होने पर निसन्देह विनाश के गाल में पहुँच जाता है क्योंकि यह जीव के लक्षणों में संगति करता है . भय , निद्रा , मैथुन , आहार ,जब तक ये ह्रदय से बाहर नहीं होते तब तक वह परमात्मा की पूर्ण निष्ठा का दर्शन नहीं करता . हर जीव को मृत्यु का भय व्यापता है . इसी भय के कारण जीव मृत्यु को प्राप्त होता है . वरना तो जीव अविनाशी है .
3 - सर्वसाक्षी - स्वयं को , तथा परमात्मा को सबमें देखना .
4 - पूर्णबोधिनी - जिसका विचार करता है उसकी पूर्ति तथा बोध पल भर में ही हो जाता है . एक ही जगह स्थित सम्पूर्ण जगत की बात जानना .
5 -उनमीलनी - अनहोने कार्य करने की सिद्धि .
.. भय उत्पन्न होने पर निसन्देह विनाश के गाल में पहुँच जाता है क्योंकि यह जीव के लक्षणों में संगति करता है . भय , निद्रा , मैथुन , आहार ,जब तक ये ह्रदय से बाहर नहीं होते तब तक वह परमात्मा की पूर्ण निष्ठा का दर्शन नहीं करता . हर जीव को मृत्यु का भय व्यापता है . इसी भय के कारण जीव मृत्यु को प्राप्त होता है . वरना तो जीव अविनाशी है .
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