31 मार्च 2011

क्या ओशो पूरे सतगुरु नहीं थे

नमस्कार राजीव कुमार जी । मैं सुभाष राजपुरा से । मैं आपके ब्लोग का नियमित मुसाफ़िर हूँ । मुझे आज रजत ने बताया कि आपने उसको ई-मेल पर संदेश भेजा । हम सबको बहुत अछा लगा । मैंने ही 1 दिन रजत को आपके ब्लोग के बारे में बताया था । फ़िर रजत ने अपने कुछ और दोस्तों को भी बताया । हम सब B.A के छात्र हैं । हम राजपुरा के पटेल पब्लिक कालेज में पढते है । हम सब रहते भी 1 ही कालोनी में हैं । मेरा नाम सुभाष । मेरा दोस्त रजत । साथ में शालू । और निशु । हम 4 दोस्त हैं । थोडा संकोची होने के कारण मैंने इससे पहले आपको कभी ई-मेल नही किया । कल शायद रजत ने आपको ई-मेल कर दिया । राजीव जी मैं आपसे 1 प्रश्न करने की गुस्ताखी कर रहा हूँ । मेरे 1 रिश्तेदार ओशो भक्त हैं । लेकिन Q ओशो महाराज ॐकार पर बहुत जोर देते हैं । और Q आपके ब्लोग में मैंने पढा है कि ॐ से तो शरीर की रचना हुई है । तो Q क्या ओशो पूरे सतगुरु नहीं थे ( जो अन्त तक की बात बता सकें ) और 1 बात और Q सिखधर्म के गुरुनानक देव जी की वाणी में ॐ कार की भी प्रशंसा है । और अकाल पुरुष का भी वर्णन है ( ये बात मुझे मेरी गर्लफ़्रेन्ड ने बताईं । जो 1 सिख परिवार से है ) ये बात उसने तब बताई । जब मैंने उसको आपके ब्लोग के बारे में बताया । आप कृपया इस Q ओशो के ॐकार और गुरुनानक के ॐकार वाले रहस्य पर से ज़रुर पर्दा उठायें । हम सबको आपके आगामी लेख का बेसब्री से इन्तजार रहेगा - सुभाष । रजत । शालू । निशु और रविन्दर कौर ( मेरी गर्ल फ़्रेन्ड ) राजपुरा से ।
Q ओशो महाराज ॐकार पर बहुत जोर देते हैं ।
ANS - इस मनुष्य शरीर का बहुत महत्व है । देवता भी इसे प्राप्त करने के लिये तरसते हैं । इस शरीर के बिना कुछ भी प्राप्ति नहीं हो सकती । अतः ओशो का ॐकार को महत्व देना ठीक ही था । पर वो महत्व किस तरह और कहाँ उपयोगी है ? ये जानना आवश्यक है ।..वैसे - ओशो महाराज ॐकार पर बहुत जोर देते हैं । ( हैं नहीं थे ) आज के वाले तो न ओ हैं न शो हैं ।
Q आपके ब्लोग में मैंने पढा है कि ॐ से तो शरीर की रचना हुई है ।
ANS - चलिये आज आप देख ही लो । ये बात कैसे है । वैसे ॐ की आंतरिक शरीर संरचना और भेद तो इतनी आसानी से नहीं समझाई जा सकती । पर इंसान के दोनों पैर और लिंग ( स्त्री हो तो स्त्री योनि भी वास्तव में लिंग ही है । सिर्फ़ बनाबट का फ़र्क है । ध्यान दें । स्त्री के लिये कहा जाता है । स्त्री लिंग । फ़िर ये स्त्री वाला लिंग क्या होता है ? ) ये हुये  ( उ ) । ( इसी आकार में बनाकर देखें ) इस उ से पीछे निकलने वाली ( ऊ ) आधी लाइन । कमर से गर्दन तक । एक हाथ । इसी लाइन से जुङी लाइन । दूसरा हाथ । अर्ध चन्द्र । ( . ) बिन्दी । सिर । बन गया पूरा ॐ । इसकी आंतरिक संरचना में । अ । उ । म । अर्ध चन्द्र । और ( . ) बिन्दी । ये पांच हैं । इसमें म यानी माया से बना । अ और ( . ) बिन्दी प्रमुख हैं । पर इनका वास्तविक तरीका और घटक बताने के लिये पूरी एक बङी किताब ही लिख जायेगी ।
Q क्या ओशो पूरे सतगुरु नहीं थे ( जो अन्त तक की बात बता सकें )
ANS - ओशो सतगुरु ही थे । और उन्होंने अन्त तक की ही बात कही है । पर कोई भी बात प्रसंग और विषय के अनुसार ही तो कही जायेगी । जहाँ ॐकार की बात थी । वहाँ उन्होंने ॐकार के लिये कहा । जहाँ निरंकार या ररंकार की बात थी । वहाँ उन्होंने वैसा कहा । पर क्योंकि लोग ॐकार को ही ज्यादा सुनते आये हैं । ॐकार अधिक पापुलर है । अतः उसी को पकङ कर बैठ गये ।
ओशो ने कहा - नया निर्माण मत करो । पुराना गिरा दो ।
अर्थ - अब नये कर्मों का निर्माण मत करो । और पुराने कर्म संस्कार योग से जला दो । यही मुक्ति है ।
ओशो ने कहा - वह चींटी की भी पगध्वनि सुनता है ।
अर्थ - किसी भी जीव या मनुष्य की प्रत्येक हरकत को वह जानता है । क्योंकि सबके अन्दर वही विराजमान है ।
ओशो ने कहा - आखिर में उस दरबाजे के बाद नीचे दूर दूर तक घना अंधकार है । जिधर देखो । उधर काला घना अंधकार । यहीं कूद जाना है । इसके आगे ही मंजिल है । पर यहीं इंसान ( साधक ) भयभीत हो जाता है । और लक्ष्य से वंचित रहता है ।
- संक्षेप में यही अन्त की बात थी । लेकिन ये बात सिर्फ़ ओशो रजनीश पर ही लागू होती है । बाद में जो अनेक ओशो हो गये । उनमें किसी पर भी नहीं ।
दूसरी महत्वपूर्ण बात - कोई कितना ही बङा सतगुरु क्यों न हो । उसकी मान्यता शरीर रहने तक ही होती है । शरीर खत्म होने के बाद वह सतगुरु नहीं रहता । सिर्फ़ उसके उपदेशों से हम अपने अध्यात्म ग्यान में वृद्धि तो कर सकते हैं । बाकी आज कोई दिवंगत ओशो को ही गुरु मानकर सतगुरु वाले लाभ प्राप्त करना चाहे । ऐसा कभी नहीं हो सकता । और ये बात सिर्फ़ ओशो पर ही नहीं सभी पर लागू होती है । चाहे वह कबीर । रैदास । रामकृष्ण परमहँस । राम । श्रीकृष्ण कोई क्यों न हो ।
Q सिखधर्म के गुरुनानक देव जी की वाणी में ॐ कार की भी प्रशंसा है । और अकाल पुरुष का भी वर्णन है ।
ANS - जी हाँ गुरु गृन्थ साहब में आत्मग्यान सन्तों की वाणी में ही है । और एकदम सही है । पर ये बात दूसरी है कि समझ उसको 10% लोग भी नहीं पाते ।
Q ओशो के ॐकार और गुरुनानक के ॐकार वाले रहस्य पर से ज़रुर पर्दा उठायें ।
ANS - दोनों एक ही हैं भाई । भले ही हिन्दू मुसलमान सिख ईसाई पारसी आदि जातियाँ बना दी गयीं । पर नंगा शरीर होने पर आदमी तो एक ही जैसा होता है । खून एक जैसा । हड्डी एक जैसी । बाल आदि सभी चीजें एक जैसी ही तो हैं । अतः दो दो ॐकार कैसे हो सकते हैं ?

नहीं तो वास्तविक गंगास्नान क्या है ?

हम प्रसाद सेतिया है । आपसे 1 बार पहले भी बात हुई थी । जब मैंने आपको बताया था कि मैंने 1 बाबा से 2 प्रश्न किये । और बाबा ने पहले प्रश्न का उत्तर दिया । और दूसरे प्रश्न का उत्तर टाल दिया था । शायद अब आपको याद आ गया हो । राजीव जी तो पिछ्ले रविवार वो मैडम हमारे घर आयी । और लगी करने । उस बाबाजी की तारीफ़ । मैं चुपचाप सुनता रहा । उसने मुझसे कहा कि आप उन बाबा से मिलते रहा कीजिये ( क्योंकि वो बाबा लोकल ही रहते हैं ) गंगा नदी तो अपने शहर में ही है । आप तो रोज स्नान किया कीजिये । मैं उनकी बात बिना विरोध सुनता रहा ( क्योंकि वो मैडम मेरी पत्नी की सहेली हैं । मैं नही चाहता था कि मेरी कही कोई भी बात उनको बुरी लगे ) लेकिन उसके जाने के बाद मैं चुपचाप सोचता रहा कि जिस बाबा ने 1 प्रश्न का उत्तर टालने की कोशिश की हो । उसके पास जाना गंगास्नान कैसे हुआ ? Q 1 और पता नहीं ये मैडम उस बाबा से इतनी प्रभावित क्यों है ? तो राजीव जी हम आपसे ही पूछ लेते हैं कि Q 2 जो बाबा किसी जिग्यासु के प्रश्न को टालने की कोशिश करे । क्या उसके पास जाना गंगा स्नान है ? Q 3 और अगर नहीं तो वास्तविक गंगास्नान क्या है ? 1 बात और बताने का कष्ट करें कि जैसा हम लोग पढते हैं इतिहास में कि सुल्तान बाबर । चंगेज खान । तैमूर लंग । हलाकू आदि जैसे लोग भारत पर हमला करते रहे हैं । जिस कारण हजारों जाने जाती रही हैं । Q 4 तो इन जैसे लोगों की कैसी गति हुई होगी ? जब तक ये लोग जिन्दा रहे । तब तक तो लोग इनसे डरते थे । कोई भी बडे से बडा सूरमा भी इनके सामने बोलने की हिम्मत भी नही करता था । लेकिन उस जनम के बाद इनका क्या हुआ होगा । कोई आइडिया ? Q 5 और आखिर में आपके अनुसार वास्तविक पाप और पुण्य के मायने क्या है ? इस पर जरूर कुछ खुलकर बताने का कष्ट करें । प्रसाद कुमार सेतिया । कानपुर । उत्तर प्रदेश । ( ई मेल से )
Q 1 और पता नहीं ये मैडम उस बाबा से इतनी प्रभावित क्यों है ?
ANS - हालांकि सारी ! मैं आपकी इन मैडम की बात नहीं कर रहा । बल्कि एक सामान्य बात कर रहा हूँ । दो शायरी बङी प्रसिद्ध हैं । ( छोङो बताना । उचित नहीं जान पङता । ) वो प्रभावित क्यों है ?? भाई ये बात तो वही ठीक से जानती होंगी ।
एक बार सागर का मंडूक ( मेंढक ) घूमते घूमते कूप मंडूक के पास आ गया । उसने कुँए में झाँककर जब दूसरे मंडूक को देखा । तो कम स्थान की तंगहाली देखकर उसे तरस आया । वह उसे सागर के बारे में बताने लगा । तब कूप मंडूक ने कुँए में एक छलांग लगाई । और कहा । क्या तुम्हारा सागर इतना बङा है ?
सागर मंडूक - नहीं इससे बहुत बङा ।
इस तरह कूप मंडूक ने कई बार पहले से बङी और अन्त में पूरे कुँए के बराबर छलांग लगाकर बारबार पूछा । क्या इतना बङा ?
सागर मंडूक ने सोचा । इसने कूप से बाहर जब देखा ही नहीं । तो यह कैसे समझ सकता है कि सागर कितना बङा है ? और बिना प्रत्यक्ष दिखाये इसको समझाना भी मुश्किल है ।
Q 2 जो बाबा किसी जिग्यासु के प्रश्न को टालने की कोशिश करे । क्या उसके पास जाना गंगा स्नान है ?
ANS - अब वह बेचारा ! जितना जानता होगा । उतना ही तो बतायेगा । अभी उसे स्वयँ ( गंगा ) स्नान की आवश्यकता है । पर वह भी क्या करे - राम तेरी गंगा मैली हो गयी । पापियों के पाप धोते धोते । और असली गंगा उसे ग्यात नहीं । हाउ सैड !
Q 3 और अगर नहीं तो वास्तविक गंगास्नान क्या है ?
ANS - वास्तविक गंगास्नान तो हरिद्वार । प्रयाग । कुम्भ । गंगासागर । गोमुख आदि कहीं भी बहती हुयी गंगा में करना भी नहीं हैं । और न ही शास्त्र इसके लिये असल रूप में कहते हैं । इनको तीर्थस्थल कहा गया है । जिसको करने से पुण्य अवश्य प्राप्त होता है । पर इसका वास्तविक फ़ल प्राप्त नहीं होता । विस्तार से बताने पर बात बहुत लम्बी हो जायेगी । अतः संक्षेप में समझने की कोशिश करें । गंगा के लिये विभिन्न नाम..हरिद्वार..मानसी गंगा..गोमुख आदि जैसे कई नाम लिये जाते हैं । इन सब नामों का अर्थ समझें ।
हरिद्वार - यानी हरि का द्वार - गूढ भाषा में - संकेत में - हरि स्वांस को कहा गया है । क्योंकि यही शरीर को हरा भरा रखती है । इसके निकल जाने पर शरीर सङने लगता है । उससे बदबू आने लगती है । और फ़िर उसको शरीर न कहकर " मिट्टी " कहा जाता है ।
शरीर में ये हरि का द्वार नाक का ऊपरी भाग जहाँ मस्तक से जुङता है । वहाँ है । जो सामान्य अवस्था में बन्द होता है । सच्चे गुरु अपनी शक्ति से इसको खोल देते हैं । तब ये मानसी गंगा - यानी मन में स्थित गंगा । गोमुख यानी गो माने इन्द्रियाँ और मुख माने मुँह..यानी अपनी समस्त इन्द्रियों का मुख उधर मोङकर । हरिद्वार की उस मानसी गंगा में स्नान करता है । ये तीन नाम मैंने संक्षेप में उदाहरण के लिये समझने हेतु दिये हैं । असली बात तो बहुत अधिक है ।
पर असली गंगा स्नान घर बैठे करना बहुत सरल है । नाक के दोनों छिद्रों से चलते स्वर इङा पिगंला ही गंगा जमुना हैं । माथे पर तिलक या बिन्दी लगाने वाले स्थान सरस्वती का है । यहीं पर तीनों मिलते हैं । अतः यही संगम है । संस्कृत में कुम्भ घङा और शरीर को कहते हैं । अतः अपने शरीर द्वारा इसका स्नान करना ही कुम्भ स्नान है । शरीर को घट यानी घङा की उपाधि दी गयी है । यानी ये किसी ( भव ) सागर में तैरते जल से भरे हुये उस घट के समान है । जो घङे का आवरण टूटते ( यहाँ इंसान की मृत्यु ) ही उसमें भरा जल सागर के जल में समा जायेगा । इसी के लिये कबीर साहब ने कहा है । फ़ूटा कुम्भ जल जलहि समाना । ये गति विरला जानी ।
अतः वास्तविक गंगा स्नान वही है । बाबा रामदेव जिसे अनुलोम विलोम कहते हैं । बस यदि आपको किसी सच्चे सतगुरु ( बनाबटी तो बहुत हैं ) से महामन्त्र की दीक्षा प्राप्त हो । तो इस स्नान का फ़ल लाख गुना हो जाता है ।
आप एक प्रयोग करके देखिये - एक दिन किसी संगम आदि जैसी प्रसिद्ध जगह पर स्नान करें । और देखें उस दिन आपको कैसा लगता है ? दूसरे दिन आप सुबह के समय बृह्ममुहूर्त में अनुलोम विलोम करें । आपको लाख गुना शान्ति महसूस होगी । बशर्ते आप सही से अनुलोम विलोम करना जानते हों । बाबा ( रामदेव ) बताते तो बहुत है । पर अभी भी अच्छे अच्छे तक नहीं जानते कि सही अनुलोम विलोम होता कैसे है ?
Q 4 तो इन जैसे लोगों की कैसी गति हुई होगी ?
ANS - पहले तो ये लोग हजारों साल का घोर कष्टदायी नरक भोगते हैं । और बाद में बारबार 84 लाख योनियाँ भोगते हुये जो इन्होंने पाप कर्म किये हैं । उसकी सजा रूप में उन्ही व्यक्तियों ( जिनको इन्होंने मारा या कष्ट दिये ) की गुलामी करते हैं । उदाहरण के लिये । धोबी का गधा - काम भी करता है । और मालिक की पनहैया ( हंटर जैसा ) भी नितम्बों पर खाता है । आदि ।
मान लीजिये । किसी व्यक्ति के पास बन्दूक है । अब वो उसका क्या उपयोग करता है । किसी की जान भी ले सकता है । किसी की जान बचा भी सकता है । और ये दोनों न करके सिर्फ़ अपनी ही रक्षा भी कर सकता है । यही बात शारीरिक बल । धन बल आदि सभी प्रकार की ताकत पर भी लागू होती है । अर्थात जैसा वह करेगा । वैसा आगे वह भरेगा भी । काया से जो पातक होई । बिन भुगते छूटे नहीं कोई ।
Q 5 और आखिर में आपके अनुसार वास्तविक पाप और पुण्य के मायने क्या है ?
ANS - कर्मयोग और ग्यान योग ये दो ही हैं । कर्मयोग का सीधा सा सिद्धांत यही है कि जैसा व्यवहार आप अपने लिये दूसरों से चाहते हैं । वैसा ही पहले स्वयँ औरों के साथ करें । इसमें जो आप करते हैं । वापस उसी के फ़ल की प्राप्ति होती है । लेकिन इसमें मुक्ति कभी नहीं हो सकती । स्वयँ श्रीकृष्ण ने कहा है । अर्जुन मुक्ति ग्यान से है । कर्म से नहीं । ग्यान योग में पाप पुण्य दोनों जलकर भस्म हो जाते हैं । और जीव मुक्त हो जाता है । यह मुक्ति यानी मुक्त सिर्फ़ महामन्त्र से संभव है । बाकी मुक्ति झूठी ही हैं । भृम है ।

तभी वास्तविक चीजें तुम्हें घट सकती हैं

यदि तुम श्रद्धा से चलते हो । समग्रता से चलते हो । छाया की तरह बुद्ध के पीछे हो लेते हो । चीजें तुममें घटित होने लग सकती हैं । क्योंकि वे इस व्यक्ति में घटित हो चुकी हैं । इन्हीं गौतम बुद्ध में । जीसस में । महावीर में वे घटित हो चुकी हैं । और अब वे मार्ग जानते हैं । वे उस पर यात्रा कर चुके हैं । यदि तुम उनसे तर्क करो । तो तुम्हीं गंवाने वाले बनोंगे । वे गंवाने वाले नहीं हो सकते । वे तुम्हें बिलकुल 1 ओर छोड़ देंगे । इस सदी में ऐसा गुरजिएफ के साथ हुआ है । बहुत से लोग उसके प्रति आकर्षित होते । लेकिन वह ऐसी परिस्थितियां बना देता नये शिष्यों के लिए कि जब वे समग्रता से श्रद्धा नहीं करते । उन्हें तुरंत चले जाना पड़ता । जब तक कि वे बेतुकेपन में भी श्रद्धा नहीं रखते । और वे बेतुकी बातें आयोजित की हुई होती थीं । गुरजिएफ झूठ बोलता जाता । सुबह वह 1 बात कहता । दोपहर को कुछ और । और फिर तुम कुछ पूछ तो सकते नहीं थे । वह तुम्हारे तर्क पूर्ण मन को पूरी तरह तहस नहस कर डालता । सुबह वह कहता - इस गड्डे को खोदो । ऐसा करना अनिवार्य ही है । शाम तक यह पूरा हो जाना चाहिए । सारा दिन तुम इसे खोदते रहते । तुम बहुत ज्यादा परिश्रम करते । तुम थक जाते । तुम पसीना पसीना हो जाते । तुमने कुछ भी खाया न होता । और शाम होने पर वह आता । और कह देता - मिट्टी को वापस गड्डे में फेंक दो । और तुम्हारे सोने से पहले वह काम पूरा हो जाना चाहिए । इस समय तक तो 1 साधारण बुद्धि वाला भी कह देगा - आपका मतलब क्या है ? मैंने सारा दिन बरबाद कर दिया । मैंने सोचा था कि यह कुछ बहुत
जरूरी है । जिसे शाम तक पूरा करना ही पड़ता था । और अब आप कहते हैं । मिट्टी को वापस फेंको । यदि तुम ऐसी बात उससे कहते । गुरजिएफ कहता - सीधे भाग जाओ । जाओ । मैं तुम्हारे लिए नहीं । तुम मेरे लिए नहीं । यह गड्डे की या उसे खोदने की बात नहीं है ।
असल में वह देखना चाह रहा है । तुम तब भी उसमें श्रद्धा रख सकते हो । या नहीं ? जब वह बेतुका हो । 1 बार वह जान लेता कि तुम उसमें श्रद्धा रख सके हो । और वह जहां भी ले गया । उसके साथ चल सके हो । केवल तभी वास्तविक चीजें चली आती । तब परीक्षा समाप्त हो गयी । तुम परख लिये गये । और प्रामाणिक पाये गये हो । 1 सच्चा खोजी । जो प्रयोग कर सकता है । और श्रद्धा रख सकता है । तभी वास्तविक चीजें तुम्हें घट सकती हैं । इससे पहले हरगिज नहीं ।
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च्वाग्त्सू ने सपना देखा । च्वाग्त्सू ने सपना देखा । अपना सपना देखो न । कब तक च्वाग्त्सू के सपने से काम चलोओगे ? याद है न । किसने कहा था ? जो भी मिले सहारा । लटकने की तो आदत है । नईया मंझधार में डूब रही है पार लगा दो प्रभु । यही प्रार्थनायें हैं न हमारी । आपकी । अधिकतर की । बनाये हुए मन्त्र भी क्या हैं ? उद्धार करो । सम्पदा भर जाये । और आप तोता बना के बोले चले जा रहे हैं । 
मंदिर में गए झुके से दीखते हैं । हाथ जुड़े हुए से दीखते हैं । पर अंदर से उतने ही तने एकदम अकड़ के साथ । पैसे दिए । काम हो गया । पुजारी को दिए । कुछ तथाकथित भगवान की मूर्ति को भी दिए । पुजारी ने संकल्प करा दिया रुपये का । ले दे हो गया काम ख़त्म । अब आगे का धंधा पानी देखते हैं । मंदिर से बाहर निकले । अकड़ी हुई गर्दन के साथ । चलो काम हो गया । 1 कृत्य हुआ । मस्जिद में घुटने पर बैठ नमाज़ अदा की । 1 कृत्य हुआ । आत्मा तो झुकी नहीं । समर्पण इतना आसान नहीं । श्रद्धा इतनी हलकी नहीं । चर्च में प्रार्थनाओं में शामिल हुए । कृत्य हुआ । अब आगे की रोजी रोटी की सोचते हैं । यही साधारण दिनचर्या । और यही तथाकथित धर्म की परिभाषा । किसी आम व्यक्ति के लिए । सम्मोहित से जीवन काट रहे हैं । इसी में दुखी भी हैं । हताश भी हैं । सुखी भी हैं । उत्साहित भी । और सातों रंगो का लुत्फ़ उठा रहे हैं । खुश हुए तो भगवन ( मानसिक ) को वाहवाही मिल गयी । दुखी हुए । तो 2-4  सुना डाली । क्या हैं सपने आपके ? आपकी वास्तविक स्थिति का आपको आभास भी तभी होता है । जब आपका सम्मोहन टूटता है । आपको मन्त्र पकड़ा दिए गए । आप रटे जा रहे हैं । मन में संतुष्ट कि साधना हो रही है । मंत्रों की वास्तविक स्थिति क्या है । क्या आपको आभास है ? यदि आपके ही भाव अनुसार समझने की चेष्टा करें । तो मन्त्र को 1 वाहन के रूप में समझा जा सकता है । जिनका कार्य आपको वहाँ तक ले जाना है । जहाँ से आपकी अगली यात्रा शुरू होती है । जिनका कार्य आपको आपकी शक्ति से परिचित कराना है । यानि कि व्याख्याएं तो संकेत थी ही उन मूल ग्रन्थ को समझने का । मूल ग्रन्थ में वर्णित क्लिष्ट यानि कि दुष्कर यानि कि कठिन भाषा को समझने का कार्य व्याख्याओं ने किये । परन्तु यहाँ ध्यान देने वाली ये बात है कि आप जिन मूल को व्याख्या द्वारा समझने की चेष्टा कर रहे हैं । वो मूल भी अंततः संकेत ही हैं । मंत्रो ने आपको वहाँ ले जाकर खड़ा कर दिया । जहाँ आपको भवन का दरवाजा दीख रहा है । अब इस भवन मे प्रवेश करना है । तो वहाँ मंत्रो को छोड़ना ही पड़ेगा । ध्यान दीजियेगा । अपनी साधना के पथ पर आपने जिन जिनका भी ( जन्म से मिले संस्कार धर्म या के कर्म से मिले गुरु, पुस्तकें, कल्पनायें, दिवास्वप्न ) उपयोग किया है । वो सब माध्यम मात्र हैं । और आपको छोड़ना ही है । उनको पकड़ के आप आगे नहीं बढ़ सकते । अंत में सब मात्र संकेत ही हैं । कभी 1 जन्म लिए बालक के बढ़ते शरीर को देखिये । आज का पहना वस्त्र हो सकता है कल काम न आये । शरीर बढ़ गया । अब उसको दूसरे वस्त्रो की आवश्यकता है । पर वस्त्र वस्त्र ही है । आत्मा का स्थान नहीं ले सकते । इसी प्रकार साधना में भी आत्मिक विकास के साथ वस्त्र बदलते हैं । पर वो वस्त्र ही हैं ।
दरअसल जो भी इतना विकसित हो गया कि स्वप्न और जागरण में भेद करने लग गया । आभास होने लगता है कि स्वप्न के प्रभाव कहाँ   कहाँ जीवन में हैं । और कितने गहरे हैं । फिर चाहे बुद्ध हों । रामकृष्ण हों । कृष्णमूर्ति हों । या ओशो । कोई भी उस स्तर पर पहुँच कर उस सत्य को सहज ही महसूस कर सकता है । आप में भी वो ही सम्भावनाये हैं । ये कोई जादू नहीं । सिर्फ जागरण है । कृष्ण का भी इशारा ही था । जिसने भागवत गीता को जन्म दिया । ऋषि मुनियो का जागरण था । जिनके माध्यम से वेदों ने जाना गया । राम ने स्वयं कोई ऐसी उदघोषणा की ही नहीं । मज़े की बात मुहम्मद सारी उम्र यही कहते रहे । वो अति साधारण उन लोंगों जैसे ही हैं । उनके अंदर कोई चमत्कार जैसा नहीं । पर लोंगों ने वो ही सुना । जो वो चाहते थे । जीसस यही कहते रहे । बुद्ध यही कहते रहे । पर इनकी भी धारायें बन गयीं । धर्म बनकर खड़े हो गए । जैसे आज ओशो की धाराएं बन गयी हैं । फिर नया क्या हुआ ? इनके कहने और समझने का समाज पर असर क्या हुआ ? क्या ये सब वो ही समझा पाये । जो ये चाहते थे ? आज का सबसे ज्वलंत उदाहरण तो शिर्डी साई बाबा का है । जिनको सब जानते मानते और पहचानते भी हैं । उनकी ही शिक्षाओं के विपरीत आज सोने से लदे भवन में विराजमान हैं । और सुबह शाम सेवा उनकी चल रही है । और लोंगों को मुक्ति का आभास भी हो रहा है । कैसा सम्मोहन है ये ? यही जागरण आपको उन सभी तन्दराओं से मुक्त करेगा । जिन जिनको आपने अपनी निंद्रा में अभूतपूर्व पूज्यनीय स्थान दिया है । यही जागरण आपको बतायेगा कि वो सिर्फ संकेत है । मृगतृष्णा है । आपके लिए 1 ऐसी धर्म की व्यवस्था है । जिसके रेगिस्तान में आप प्यासे भटकते भटकते दम तोड़ देते हैं । और देखिये मजे की बात । दम तोड़ते वक्त भी आप उसी तन्द्रा में ही दम तोड़ते हैं ।
नानक दुःखिया सब संसार । ते सुखिया जिन नाम अधार ।
उस स्तर पर पहुँच के अगर कोई कुछ कह रहा है । तो पहली बात इतना हल्का नहीं हो सकता कि पडोसी का नाम ले ले कि तू पार हो जायेगा । नानक कौन से नाम की बात कह रहे हैं ? नानक ने 1 बार भी नहीं कहा कि - मेरा नाम ले । सिर्फ इशारा - ते सुखियां जिन नाम आधार । कृष्ण ने भी इशारा किया । बुद्ध ने इशारा किया । रामकृष्ण ने । रमन महर्षि ने । ओशो ने । पर बुद्धि हमारी । हमने समझा वही । जो हम समझना चाह रहे हैं । वो बेचारे क्या कहना चाह रहे हैं ? इससे तो हमें कोई वास्ता ही नहीं । कह   कहकर उनके जीवन कम पड़ गए । सुन   सुनकर भी हमने वही सुना । जो हमारे कान सुनना चाह रहे थे । आज भी हम उतना ही सुनते और पढ़ते हैं । जितना हम चाहते हैं ।
और यही वजह है कि - धर्म का जो रूप हम चाह रहे हैं । वो हमारे सामने है । एकदम तैयार भोजन । इसके लिए ये मन्त्र । उसके लिए वो मन्त्र । ये चाहिए तो ये पूजा । वो चाहिए तो ये हवन । इस सफलता के लिए इस दिन इस पत्थर को इस तरह से पूजो । उस सफलता के लिए उस पत्थर को उस विधि से पूजो । और हो गया - सनातन धर्म । सब ताली बजा रहे हैं । सम्मोहित से । इससे ज्यादा का विचार ही नहीं किया । विचार आता ही तभी है । जब ये चेतना आती है कि ये भी काम नहीं आ रहे ? क्यों ? जिस दिन जागरण फलित होता है । 1 भारी सम्मोहन से छुटकारा मिलता है । 1 गहरी तन्द्रा से पीछा छूटता है । क्या सत्य कुछ और है ? कापी पेस्ट ।

हमारे नये साधक । निर्मल बंसल

उना , हिमाचल प्रदेश के मूल निवासी और वर्तमान में छत्तीसगढ भिलाई के निवासी श्री निर्मल बंसल जी से मेरे ब्लाग्स के नियमित पाठक बखूबी परिचित होंगे ।  कई लेखों में उनके प्रश्नों के उत्तर है । तथा कहीं कहीं उनके बारे में लिखा भी है ।

बंसल जी आठ साल से भी अधिक योग साधना कर रहे हैं । और राधास्वामी के किसी मंडल से पंचनामा द्वारा दीक्षा भी लिये हुये थे । बंसल जी ने पूरे मनोयोग से साधना की । और उसके अच्छे परिणाम भी आये । परन्तु निरंकार शब्द पर आकर उनकी साधना अटक गयी । और इससे आगे नहीं बङी । बंसल जी ने इस सम्बन्ध में मंडल के लोगों से कई बार बात भी की ।
पर कोई सही समाधान नहीं निकला ।

तब एक बार बंसल जी नेट पर "  अनुराग सागर " सर्च कर रहे थे । और उनका मेरे ब्लाग से परिचय हुआ । बंसल जी के अनुसार उन्हें मेरे लेखों में - अपने काफ़ी प्रश्नों के उत्तर मिले । और कई

जानकारियाँ प्राप्त हुयीं । इसके बाद बंसल जी अक्सर फ़ोन पर मुझसे और गुरुजी से बात करने लगे । होली के बाद 21 मार्च 2011 को बंसल जी आगरा हमारे यहाँ आये । और दीक्षा लेकर हमारे मंडल से जुङ गये । बंसल जी के अनुसार इस दीक्षा से उन्हें नये और अलग और तुरन्त अनुभव हुये ।

 दूसरे दिन सुबह बातचीत में श्री महाराज जी ने मेरे सामने ही बंसल जी से कहा - क्योंकि हमारी महामन्त्र दीक्षा राधास्वामी पंचनामा से एकदम अलग होती है । अतः 6 महीने के नाम अभ्यास के बाद वे आगे बङाने वाली दीक्षा करेंगे ।


यह फ़ल साधन से नहिं होई । तुम्हरी कृपा पाये कोई कोई ।
अर्थात ये दुर्लभ ग्यान बङे भाग्य से हासिल होता है । इसमें तीसरा नेत्र तो

बहुत जल्दी ही खुल जाता है ।
अगला जन्म मनुष्य का पक्का हो जाता है । और अलौकिक अनुभव होने लगते हैं । इन कुछ प्रमुख बातों के अलावा इस दीक्षा का प्रभाव इसको लेने वाला ही जानता है । जय जय श्री गुरुदेव ।

29 मार्च 2011

इस अमृतबेला की वास्तव में क्या महिमा है ?

नमस्ते राजीव जी । मैं सुशील कुमार हरियाणा से । मेरी आपसे पहले भी 2 बार बात हो चुकी है । आज मेरे दफ़्तर में छुट्टी थी । इसलिये मैंने सोचा । आपसे कुछ काम की बात पूँछ लूँ । राजीव जी सुना है । अमृतबेला का बहुत महत्व है । कहते हैं कि ये समय देवताओं का समय होता है । मुझे आप इस अमृतबेला की महिमा के बारे में कुछ बतायें । क्योंकि आपके विचार और सुझाव केवल मेरा ही नही बल्कि और लोगों का भी मार्गदर्शन करेंगे । इसलिये आप हो सके तो इस अमृतबेला की वास्तव में क्या महिमा है ? इस बात पर कुछ काम की बात बतायें । ( श्री सुशील कुमार जी । हरियाणा । ई मेल से )

MY ANS - सीतापुर के श्री खुशीराम जी मेरे ब्लाग के नियमित पाठक हैं । और कभी कभी मुझे फ़ोन करते रहते हैं । एक बार उन्होंने शाम 6 बजे के लगभग मुझे खेत पर कार्य करते हुये फ़ोन किया । कुछ देर की बातचीत में बात ध्यान पर आ गयी । मैंने पूछा - क्या आपके कोई गुरु हैं ? आप किसी प्रकार का ध्यान या नाम जप करते हो..आदि ?? फ़िर तय हुआ कि अभी तो खेत पर व्यस्त हैं । समय मिलने पर बात करेंगे । इसके तीन चार दिन बाद सुबह चार बजे खुशीराम जी का फ़ोन आया । जो मैंने ( हमारा स्पेशल समय होने के कारण ) रिसीव नहीं किया । बाद में खुशीराम जी ने बताया कि सुबह ध्यान के बारे में पूछने के लिये फ़ोन किया था । साथ ही साथ एक उलाहना सा भी दिया । साधु होकर चार बजे सो रहे थे ??
मुझे बहुत खुशी हुयी कि आज के समय में भी खुशीराम जैसे हजारों नहीं बल्कि लाखों लोग है । जो चार बजे से आरम्भ होने वाली " अमृतबेला " तक शौचादि से फ़ारिग होकर जीवन का वास्तविक आनन्द प्राप्त करते हैं । हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में तो स्त्री पुरुषों के उठने का समय यही है । जो बहुत पहले से परम्परागत चला आ रहा है ।..वैसे सुबह आठ से लेकर दोपहर दो बजे तक उठने वालों की संख्या तो करोङों में है ।
अमृतबेला -  सुबह चार बजे से लेकर छह बजे तक के समय को अमृतबेला कहते हैं । 24 घंटे के दिन रात में 2 घंटे की इस अमृतबेला की वास्तव में बहुत महिमा है । जप तप नाम सुमरन ध्यान अन्य पूजा पाठ के लिये तो इसका महत्व है ही । सामान्य मानव जीवन के लिये भी ये बेहद महत्वपूर्ण है । इस समय तक उठकर शौचादि से फ़ारिग होकर स्नान करके कुछ हरिनाम का सुमरन करने वाले का जीवन मानों हर तरह से सफ़ल और सम्पन्न हो जाता है । केवल इतना करने मात्र से ही वह इंसान जीवन में कभी रोगों से पीङित नहीं होगा । दैहिक ( शारीरिक ) दैविक ( अलौकिक ) भौतिक ( जीवन या संसार से जुङी ) ताप ( कष्ट ) उसके पास फ़टकेंगे भी नहीं । सच्चरित्रता स्वयँ उसके स्वभाव में आ जायेगी । समस्त सदगुण बिना किसी प्रयास के उसे अपना लेंगे । बचपन से ही सदा इस नियम का पालन करने वाले के दांत जीवन भर ( 100 वर्ष ) नहीं टूटेंगे । मजबूत रहेंगे । केश सफ़ेद नहीं होंगे । हड्डियाँ कमजोर नहीं होंगी । त्वचा ढीली होकर नहीं लटकेगी । यानी वृद्धावस्था उसके पास भी नहीं फ़टकेगी ।
अमृतबेला अलौकिक दृष्टि से - इस समय क्योंकि दैवीय शक्तियाँ प्रबल होती हैं । अतः आपका थोङा भी पूजा पाठ दिन की अपेक्षा कई गुना प्रभावशाली हो जाता है । जो लोग योग साधना में ऊँचे उठे हुये होते हैं । वे इस समय ऊँचे आकाश में स्वयँ उच्चरित हो रही वेद ऋचायें आदि साक्षात जमीन से ही सुन सकते हैं । ठीक उसी तरह जिस तरह आप सुबह सुबह किसी मन्दिर में बजता कीर्तन भजन आदि सुनते हो । ये कार्य किसी पहुँचे हुये गुरु द्वारा आपकी तीसरी आँख ( दिव्य नेत्र ) या Third Eye खोल देने पर होता है । आपके सिर्फ़ तीसरी आँख ही नहीं होती । तीसरा कान ( दिव्य कर्ण ) भी होता है । पर इसको खोलना ( एक्टिव ) नहीं  होता । तीसरी आँख खुलते ही यह स्वयँ ही खुल जाता है । बाकी तो इस अमृतबेला का आनन्द और महत्व इसमें उठने वाले ही जानते हैं ।
अब एक सच्चा किस्सा - लगभग कोई पचास साल पहले एक अच्छे सन्त हुये हैं । जब उनके पास कोई भी इंसान अपनी किसी भी समस्या को लेकर जाता था । तो वो हमेशा एक ही बात कहते थे कि - सुबह जल्दी चार बजे उठा करो । और हैरानी की बात । उनकी बात मानकर जल्दी उठने से लोगों की हर समस्या हल हो जाती थी ।
क्या था इसका रहस्य - एकाध अपवाद को छोङकर आपने देखा होगा कि बुरे से बुरे इंसान के भी जैसे किसी मन्दिर आदि में घुसकर पवित्र विचार हो जाते हैं । किसी तीर्थस्थल पर पहुँचकर भावनाएँ स्वतः धार्मिक हो जाती हैं । सुबह के समय हमारा किसी फ़िल्म गाने आदि देखने के बजाय । धार्मिक भजन आदि सुनने का स्वतः ही मन करता है । सुबह के समय बेहद लङाकू आदमी भी लङाई नहीं करता । यानी हमारी भावनाओं में सात्विक रसायन खुद व खुद उस समय घुल रहा होता है । बस जरूरत है । उसे आत्मसात ( आबजर्ब ) करने की । यही रसायन हमारी जिन्दगी में हर तरह के अच्छे उच्च और सकारात्मक परिणाम लाता है ।
गोधूलि बेला - यानी पुराने समय के अनुसार कहें । तो जिस समय गायें दिन भर चरने के बाद शाम को जिस समय घर लौटती हैं । और उनके चलने से जो धूल उङती है । उसे गोधूलि बेला कहते हैं । यह समय दिन और शाम जिस बिंदु पर मिलते हैं । यानी आपस में मिक्स हो रहे होते हैं । उसे कहा जाता है । जो लगभग शाम पाँच से छह बजे का समय होता है । यह भी अमृतबेला से कम पर महत्वपूर्ण समय होता है । शास्त्र के अनुसार इस समय भी कोई जीवन से जुङा हुआ कार्य नहीं करना चाहिये । हाँ कर सकते हैं । तो हरि नाम सुमरन । पूजा । आरती आदि करें । किसी सम्मानीय अथवा अतिथि या साधु आदि की सेवा करें ।
राक्षसी बेला - 24  घंटे के समय में बीच बीच में आसुरी प्रवृति यानी राक्षसी बेला का भी समय आता है । सुबह आठ से दस के बीच कुछ समय । दोपहर बारह से तीन के बीच में । शाम चार से पाँच के बीच में । और रात में बीच बीच में कुछ कुछ समय को छोङकर चार बजे तक पूरी रात ही राक्षसों की होती है । इसीलिये इस समय में चोरी हत्या कामवासना और सोते हुये व्यर्थ जिन्दगी गँवा देना आदि दुर्गुणों का बोलबाला हो जाता है ।
विशेष - सच्चे साधु रात में मुश्किल से तीन घंटे ही सोते हैं । और बाकी समय जागते ( भले ही लेटे लेटे ही ) हुये प्रभु चिंतन ही करते हैं । इसी के लिये कबीर साहब ने कहा है ।
सुखिया सब संसार है । खाबे और सोबे ।
दुखिया दास कबीर है । जागे और रोबे ।
और अन्त में - धन्यवाद सुशील जी ! जो आपने मुझे ये सतसंग याद दिलाया । आप जैसे सज्जन पुरुष हम साधुओं को सचेत करते रहते हैं । जय राम जी की साहेब.. साहेब !

सूरा सो पहचानियो जु लरे दीन के हेत ।

बसई मुम्बई निवासिनी दर्शन कौर जी मेरी मित्तर हैं । इस मित्तरता ( आप लोग ये मत सोच लेना कि मुझे ठीक से लिखना भी नहीं आता । सबूत के लिये देखें..मित्र ..मित्रता ) का कारण हैं । खाने पीने की शौकीन और तीर्थ पहाङों पर घूमने की शौकीन दर्शन जी स्वागत बङे दिलोजान से करती हैं । कोई भी मेरे जैसा मुफ़्त खाऊँ..मौज उङाऊँ.. तबियत का इंसान इनका मित्तर होना ही होना है ।

खैर..भाई लोगों मित्रता की एक और वजह भी है । दर्शन जी का स्वभाव से धार्मिक होना । अतः ये अपनी पोस्ट अक्सर गुरुवाणी आदि किसी अच्छी वाणी से शुरू करती हैं । अबकी बार भी हेमकुन्ड यात्रा की समापन पोस्ट दर्शन जी ने नीचे लिखी इन पंक्तियों से की ।


                    गगन दमामा बाजिओ । परिओ नीसाने घाऊ ।
              खेत जु मांडियो सूरमा  । अब जुझन को दाऊ ।
                    सूरा सो पहचानियो । जु लरे दीन के हेत ।
              पुरजा - पुरजा कटी मरे । कबहूँ न छाँङे खेत ।
मेरा दिल इन पंक्तियों को पढकर आनन्द से भर गया । आगे मैंने लेख पढा । और अच्छा भी लगा । परन्तु जिस प्रकार रसगुल्ला खाने के बाद चाय मीठी नहीं लगती । मेरा दिल भी इस सन्तवाणी में ही रमा रहा ।
और मैंने दर्शन बीबी को कमेंट किया ।..बीबी तुसी इसका अर्थ भी बताओ ।
दर्शन जी ने कहा..राजीव जी आप ही बताओ । ये मेरे लिये जन्मदिन का तोहफ़ा होगा ।
तो चलिये । भाई लोगो । जितनी मुझ में अक्ल है । उससे आपको इसका अर्थ बताते हैं ।
..जैसा कि अधिकतर लोग साधुओं की वाणी में छिपे रहस्य या गूढ तत्व को नहीं समझ पाते । और फ़िर उसे कल्पना..रहस्यवाद..या प्रतीक या अतिश्योक्ति का नाम देकर छुट्टी कर देते हैं । और वह दुर्लभ ग्यान पाने से सब वंचित रह जाते हैं ।
आज मैं आपको बता दूँ । सन्तों ने कहीं भी कल्पना या अतिश्योक्ति ( बात को बङा चङाकर कहना ) वाली बात नहीं कही है । बल्कि ज्यों की त्यों कही है । अक्षरशः सत्य कही है । ये बात ऊपर के दोहे के अर्थ से स्पष्ट हो जायेगी । साथ ही किसी भी सन्तवाणी का सही अर्थ आपको समझ में न आया हो । तो..मुझे लिखें । फ़ोन करें । मिलें । आपको जीवन के बाद..मृत्यु के बाद.. के किसी भी अन्य सवाल का जबाब चाहिये । तो भी मुझसे पूछ सकते हैं ।
अब आईये । दोहे का अर्थ करते हैं ।


..गगन दमामा बाजिओ परिओ नीसाने घाऊ ।
शब्दार्थ - आकाश में दमामा ( एक वाध्य यंत्र ) बजा । और घाव पर निशाना बैठा ।
इसका असली मतलब - ये मनुष्य ( आत्मा ) कालपुरुष उसकी त्नी माया ( आदिशक्ति..अष्टांगी कन्या..महा देवी आदि जिसको कहते हैं ) और उसके तीन पुत्रों बृह्मा विष्णु महेश की कैद में अनन्तकाल से है । इन सबका एक ही उद्देश्य है कि ये मनुष्य अपनी वास्तविक पहचान को न जान सके । इसलिये सन्तों के मोक्ष ग्यान की तर्ज पर इन्होंने भी एक लगभग झूठा मोक्ष ग्यान बना डाला । जो वास्तव में मोक्ष ( मुक्त ग्यान ) न होकर मुक्ति ग्यान है । इस मुक्ति का मतलब है । स्वर्ग आदि के प्रलोभन देकर जीव को फ़िर से हजारों साल के लिये अपने जाल में उलझा देना ।
तब..इस स्थिति में काल की त्रिलोकी सीमा से ऊपर के वासी सच्चे सन्त जीव को सतनाम दीक्षा देकर मुक्त कराने आते हैं ।..दरअसल कालपुरुष से काफ़ी झगङे के बाद हुये समझौते में आखिर यही निर्णय हुआ था ।
कि सतनाम दीक्षा वाला उस सच्चे नाम की कमाई ( जाप ) करके मुक्त हो सकेगा । उसे काल नहीं रोकेगा ।
पर काल ने यहाँ भी छल किया । और अपनी पत्नी और पुत्रों के साथ मिलकर नाम उपदेश पाने वाले जीवों के उद्धार होकर जाने वाले मार्ग में तमाम बाधायें उत्पन्न कर दीं ।
अब ये जो आकाश में बाजा वाली बात है । ये अंतर आकाश में एक अनहद ( लगातार ) ध्वनि गूँज रही है । जो साधक को निरंकार ( आकाश तत्व या आकाश ) से ऊपर उठने पर सुनाई देती है । तो बाजा वाली बात आप समझ ही गये होंगे । कुछ कुछ झींगुर की आवाज से मिलती इस लगातार होती आकाशीय ध्वनि को ही सन्तों ने बाजा कहा है । इसी ध्वनि की चोट से साधक असली सत्य जानने की ओर बङता है । इसी को कहा गया है । परिओ नीसाने घाऊ ।
..खेत जु मांडियो सूरमा अब जुझन को दाऊ ।
शब्दार्थ - खेत यानी रणक्षेत्र यानी लङाई के मैदान में अब ये वीर अपने दाँव से जूझेगा ।
असली रहस्य का अर्थ - मैंने ऊपर कहा कि कालपुरुष कभी नहीं चाहता कि कोई जीव आत्मा मुक्त होकर असली सुखधाम याने अपने वास्तविक घर सतलोक ( जहाँ की वह निवासी है ) जा सके । इसीलिये उसने संसार में तरह तरह के मायाजाल और कामवासना ( जो आदिकाल में सिर्फ़ संतान उत्पत्ति हेतु थी ) में एक विशेष आकर्षण पैदा कर दिया ।..लेकिन फ़िर भी कभी कभी जीव इन सबसे उकताकर परमात्मा को पुकारता है । और तब उस पुकार को सुनकर परमात्मा किसी सच्चे सन्त को उसके उद्धार के लिये भेजता है ।
फ़िर सन्त के द्वारा सच्चा नाम उस जीव के अंतर में प्रकट करके उसे नाम कमाई का रास्ता बताया जाता है ।
इस नाम कमाई ( जो बाद में ध्यान कहलाती है । ) के अभ्यास से वह भक्त अंतर आकाश में ऊपर उठता है ।
और जब निरंकार ( आकाश ) से कुछ ऊपर पहुँच जाता है । तब ये कालपुरुष की माया सेना उसे घेर लेती है । और विभिन्न हथकन्डों से डराती है । ( लेकिन चिंता की बात नहीं होती । सदगुरु महाराज हमेशा साथ होते हैं । भले ही मालूम नहीं पङता कि साथ हैं । ) यहाँ कदम कदम पर उस नाम साधक की परीक्षा होती है । काल भयभीत करता है । तरह तरह के लालच देता है । अप्सरायें आदि भेजता है । ( यदि साधक फ़ीमेल है । तो इस स्तर के देव आदि भेजकर कामवासना का प्रभाव डालता है । )
*** तो असली बात यही है कि ये सूरमा यानी नाम साधक उस युद्धक्षेत्र में पहुँच गया । और अब इसे खुद को साबित करना है कि अब तक की पढाई में वह कितना योग्य है ।


सूरा सो पहचानियो जु लरे दीन के हेत ।
शब्दार्थ - असली वीर वही है । जो निर्बलों कमजोर के लिये लङता है । न कि अपने लिये ।
असली अर्थ -...पूरा सन्तमत ही निस्वार्थ भावना पर आधारित है । और परमार्थ की ही शिक्षा देता है ।..तो जब कोई साधक इस ऊँचाई पर पहुँच जाता है । तो उसे अपने कष्टों और तकलीफ़ों ( जो साधना में आते हैं ) को भूलकर सब निर्बल और दुखीजनों ( जो उस समय इस बाह्य जगत में उसके सम्पर्क में आते हैं । ) की सहायता करनी होती है । ये साधना का नियम है । यहाँ एक तरह से ..मारे और रोने भी न दे..वाली स्थिति हो जाती है । यही सच्चा शिष्य होना है । यही शिष्य परीक्षा की कसौटी भी है ।
पुरजा - पुरजा कटी मरे कबहूँ न छाँङे खेत ।
शब्दार्थ - चाहे शरीर के चिथङे चिथङे हो जायँ । मगर युद्ध का मैदान न छोङे ।
असली अर्थ - ..ये लाइन बङी महत्वपूर्ण है । पंजावी लोगों में सुमरन शब्द बच्चा बच्चा जानता है । पर इसका सही अर्थ नहीं जानता । सुमरन..मतलब खुद मर जाना ।..तो अभी बात उसी युद्ध की ही है । काल कोई कसर नहीं छोङता । और साधक पर चौतरफ़ा वार हो रहे होते हैं । इसी स्थिति के लिये सुरति शब्द योग की महान साधिका रैदास जी की शिष्या मीराबाई ने कहा है..जो मैं ऐसा जानती । भगति करे दुख होय । नगर ढिढोंरा पीटती । भगति न करियो कोय । आगे मीरा जी ने और भी कहा है..सूली ऊपर सेज पिया की । किस विधि मिलना होय ।..ऐसी ही बातें तमाम और सन्तों ने भी कही है ।
इसको ठीक से समझने के लिये..मछली का उदाहरण भी बताया गया है । मछली को पानी से बाहर निकाल दो । फ़िर भी पानी के लिये तङपती है । उसको पका के खा लो । फ़िर भी पेट में जाकर पानी के लिये तङपती है । ( मछली खाकर प्यास अधिक लगती है । ऐसा लोग कहते हैं । मुझे इसका अनुभव नहीं है । )
..तो कहने का मतलब..मछली जैसे पानी से मुहब्बत की खातिर जान दे देती है । पर पानी के बिना नहीं रह सकती । उसी तरह परमात्मा के भक्त को भी..पुरजा - पुरजा कटी मरे । कबहूँ न छाँङे खेत..भले ही वो तङप तङपकर मर जाय । पर उस प्यारे प्रभु का ख्याल तक न छोङें । इसी को साधना में सधना कहा गया है । और इसीलिये साधना करने वाले को साधक ( किसी भी स्थिति में विचलित न होकर सधा रहे । ऐसा साधने वाला । ) कहा जाता है ।
और अन्त में - आपका बहुत बहुत धन्यवाद ! दर्शन कौर जी ! जो आपकी इन चार लाइनों से मुझ जैसे मूढमता को कुछ सीखने को मिला । मैं थोङा अग्यानी टायप हूँ । ढंग से नही लिख पाता । अतः जहाँ समझ न आया हो । दोबारा पूछ लें । सतनाम वाहेगुरु जो बोले सो निहाल । सत श्री अकाल ।

27 मार्च 2011

वह सब कुछ चुपचाप सहता है

निज घर के लिए महाविरह । मीरदाद - धुंध के सामान है निज घर के लिए महाविरह । जिस प्रकार समुद्र और धरती से उठी धुंध समुद्र और धरती पर ऐसे छा जाती है कि उन्हें कोई देख नहीं सकता । इसी प्रकार ह्रदय से उठा महाविरह ह्रदय पर ऐसे छा जाता है कि उसमे और कोई भावना प्रवेश नहीं कर सकती । और जैसे धुंध स्पष्ट दिखाई देने वाले पदार्थ को आँखों से ओझल करके स्वयं एकमात्र यथार्थ बन जाती है । वैसे ही वह विरह मन की अन्य भावनाओं को दबाकर स्वयं प्रमुख भावना बन जाता है । और यद्यपि विरह उतना ही आकारहीन, लक्ष्यहीन तथा अंधा प्रतीत होता है । जितनी कि धुंध । फिर भी धुंध की तरह ही इसमें अनंत अज्ञात आकार भी होते हैं । इसकी दृष्टि स्पष्ट होती है । तथा इसका लक्ष्य सुनिश्चित । ज्वर के सामान है यह - महाविरह । जैसे शरीर में सुलगा ज्वर शरीर के विष को भस्म करते हुए धीरे धीरे उसकी प्राण शक्ति को क्षीण कर देता है । वैसे ही अंतर की तड़प से जन्मा यह विरह मन के मैल तथा मन में एकत्रित हर अनावश्यक विचार को नष्ट करते हुए मन को निर्बल बना देता है । 1 चोर के सामान है यह - महा विरह । जैसे छिपकर अंदर घुसा चोर अपने शिकार का भार तो कुछ हलका करता है । पर उसे बहुत दुखी कर जाता है । वैसे ही यह विरह गुप्त रूप से मन के सारे बोझ तो हर लेता है । पर ऐसा करते हुए उसे बहुत उदास कर देता है । और बोझ के अभाव के बोझ तले ही दबा देता है । चौड़ा और हरा भरा है वह - किनारा । जहाँ पुरुष और स्त्रियां नाचते, गाते, परिश्रम करते तथा रोते हुए अपने क्षण भंगुर दिन गँवा देते हैं । किन्तु भयानक है आग और धुआँ उगलता वह - साँड़ । जो उनके पैरों को बाँध देता है । उनसे घुटने टिकवा देता है । उनके गीतों को वापस उनके ही कंठ में ठूँस देता है । और उनकी सूजी हुई पलकों को उन्ही के आंसुओं में चिपका देता है । चौड़ी और गहरी भी है वह - नदी । जो उन्हें दूसरे किनारे से अलग रखती है । और उसे वे न तैरकर, और न ही चप्पू अथवा पाल से नौका को खेकर पार कर सकते हैं । उनमे से थोड़े, बहुत ही थोड़े लोग उस पर चिंतन का पुल बाँधने का साहस करते हैं । किन्तु सभी, लगभग सभी, बड़े चाव से अपने किनारों से चिपके रहते हैं । जहाँ हर कोई अपना समय रूपी प्यारा पहिया ठेलता रहता है । महाविरही के पास ठेलने के लिए कोई मनपसंद पहिया नहीं होता । तनाव पूर्ण व्यस्तता और समयाभाव द्वारा सताये इस संसार में केवल उसी के पास कोई काम धंधा नहीं होता । उसी को जल्दी नहीं होती । पहनावे, बोलचाल, और आचार व्यवहार में इतनी शालीन मनुष्य जाती के बीच वह अपने आपको वस्त्रहीन, हकलाता हुआ और अनाड़ी पाता है । हँसने वाले के साथ वह हँस नहीं पाता । और न ही रोने वाले के साथ वह रो पाता है । मनुष्य खाते हैं । पीते हैं । और खाने पीने में आनंद लेते हैं । पर वह स्वाद के लिए खाना नहीं खाता । और जो वह पीता है । वह उसके लिए नीरस ही होता है । औरों के जीवन साथी होते हैं । या वे जीवन साथी खोजने में व्यस्त हैं । पर वह अकेला चलता है । अकेला सोता है । अकेला ही अपने सपने देखता है । लोग सांसारिक बुद्धि तथा समझदारी की दृष्टि से बड़े अमीर हैं । 1 वही मूढ़ और बेसमझ है । औरों के पास सुखद स्थान हैं । जिसे वह घर कहते हैं । 1 वही बेघर है । औरों के पास कोई विशेष भूखण्ड हैं । जिन्हे वे अपना देश कहते हैं । तथा जिनका गौरव गान वे बहुत ऊँचे स्वर में करते हैं । अकेला वही है । जिसके पास ऐसा कोई भूखंड नहीं । जिसका वह गौरव गान करे । और जिसे वह अपना देश कहे । यह सब इसलिए कि उसकी आंतरिक दृष्टि दूसरे किनारे की ओर है । निद्राचारी होता है - महाविरही । इस पूर्णतया जागरूक दिखने वाले संसार के बीच । वह 1 ऐसे स्वप्न से प्रेरित होता है । जिसे उसके आसपास के लोग न देख सकते हैं । न महसूस कर सकते हैं । और इसलिये वे उसका निरादर करते हैं । और दबी आवाज में उसकी खिल्ली उड़ाते हैं । किन्तु जब भय का देवता । आग और धुआँ उगलता । वह साँड़ प्रकट होता है । तो उन्हें धूल चाटनी पड़ती है । जबकि निद्राचारी, जिसका वे निरादर करते और खिल्ली उड़ाते थे । विश्वास के पंखों पर उनसे और उनके साँड़ से ऊपर उठ जाता है । और दूर, दूसरे किनारे के पार, बीहड़ पर्वत की तलहटी में पहुँच जाता है । बंजर, और उजाड़, और सुनसान है वह भूमि । जिस पर से निद्राचारी उड़ता है । किन्तु विश्वास के पंखों में बल है । और वह व्यक्ति उड़ता चला जाता है । उदास, और वनस्पति हीन और अत्यंत भयानक है वह - पर्वत । जिसकी तलहटी में वह उतरता है । किन्तु विश्वास का ह्रदय अजेय है । और उस व्यक्ति का ह्रदय साहस पूर्वक धड़कता चला जाता है । पथरीला, रपटीला और कठिनाई से दिखाई देने वाला है । पहाड़ पर जाता उसका रास्ता । परन्तु रेशम सा कोमल है विश्वास का हाथ । स्थिर है उसका पैर । और तेज है उसकी आँख । और वह व्यक्ति चढ़ता चला जाता है । रास्ते में उसे समतल, चौड़े मार्ग से पहाड़ पर चढ़ते हुए पुरुष और स्त्रियां मिलते हैं । वे अल्पविरही पुरुष और स्त्रियां हैं । जो चोटी पर पहुँचने की तीव्र इच्छा तो रखते हैं । परन्तु 1 लंगड़े और दृष्टिहीन मार्गदर्शक के साथ । क्योंकि उनका मार्गदर्शक है । उन वस्तुओं में विश्वास । जिन्हें आँखें देख सकती हैं । और जिन्हें कान सुन सकते हैं । और जिन्हें हाथ छू सकते हैं । और जिन्हें नाक और जिह्वा सूंघ और चख सकते हैं । उनमे से कुछ पर्वत के टखनों से ऊपर नहीं चढ़ पाते । कुछ उसके घुटनों तक पहुँचते हैं । कुछ कूल्हे तक । और बहुत थोड़े कमर तक । किन्तु उस सुन्दर चोटी की झलक पाये बिना वे सब अपने मार्गदर्शक सहित फिसलकर पर्वत से नीचे लुढ़क जाते हैं ।
क्या आँखें वह सब देख सकती हैं । जो देखने योग्य है ? और क्या कान वह सब सुन सकते हैं । जो सुनने योग्य है ? क्या हाथ वह सब छू सकता है । जो छूने योग्य है ? और क्या नाक वह सब सूंघ सकती है । जो सूंघने योग्य है ? क्या जिह्वा वह सब चख सकती है । जो चखने योग्य है ? जब दिव्य कल्पना से उत्पन्न विश्वास उनकी सहायता के लिए आगे बढ़ेगा । केवल तभी ज्ञानेन्द्रियां वास्तव में अनुभव करेंगी । और इस प्रकार शिखर तक पहुँचने के लिये सीढ़ियां बनेंगी ।
विश्वास से रहित ज्ञानेन्द्रियां अत्यंत अविश्वसनीय मार्गदर्शक हैं । चाहे उनका मार्ग समतल और चौड़ा प्रतीत होता हो । फिर भी उनमे कई छिपे फन्दे और अनजाने खतरे होते हैं । और जो लोग स्वतन्त्रता के शिखर पर पहुँचने के लिए इस मार्ग को अपनाते हैं । वे या तो रास्ते में ही मर जाते हैं । या फिसलकर वापस लुढ़कते हुए वापस वहीँ पहुँच जाते हैं । जहां से वे चले थे । और वहाँ वे अपनी टूटी हड्डियों को जोड़ते हैं । और अपने खुले घावों को सीते हैं ।  अल्पविरही वे हैं । जो अपनी ज्ञानेन्द्रियों से 1 संसार रच तो लेते हैं । लेकिन जल्दी ही उसे छोटा तथा घुटन भरा पाते हैं । और इसलिए वे 1 अधिक बड़े और अधिक हवादार घर की कल्पना करने लगते हैं । परन्तु नई निर्माण सामग्री और नये कुशल राजगीर को ढूँढ़ने के बजाय वे पुरानी निर्माण सामग्री ही बटोर लेते हैं । और उसी राजगीर को ज्ञानेन्द्रियों को अपने लिए एक अधिक बड़े घर का नक्शा बनाने और उसका निर्माण करने का काम सौंप देते हैं । नये घर के बनते ही वह उन्हें पुराने घर की तरह छोटा तथा घुटन भरा प्रतीत होने लगता है । इस प्रकार वे ढहाने बनाने में ही लगे रहते हैं । और सुख तथा स्वतन्त्रता प्रदान करने वाले जिस घर के लिए वे तड़पते हैं । उसे कभी नहीं बना पाते । क्योंकि ठगे जाने से बचने के लिए वे उन्हीं का आसरा लेते हैं । जिनके द्वारा वे ठगे जा चुके हैं । और जैसे मछली कड़ाही में से उछलकर भट्टी में जा गिरती है । वैसे ही वे जब किसी छोटी मृगतृष्णा से दूर भागते हैं । तो कोई बड़ी मृगतृष्णा उन्हें अपनी ओर खींच लेती है । महाविरही तथा अल्पविरही व्यक्तियों के बीच ऐसे मनुष्यों के विशाल समूह हैं । जिन्हे कोई विरह महसूस नहीं होता । वे खरगोशों की तरह अपने लिए बिल खोदने और उन्ही में रहने, बच्चे पैदा करने और मर जाने में सन्तुष्ट हैं । अपने बिल उन्हें काफी सुन्दर, विशाल और आरामदेह प्रतीत होते हैं । जिन्हे वे किसी राजमहल के वैभव से भी बदलने को तैयार नहीं । वे निद्राचारियों का मजाक उड़ाते हैं । खासकर उनका जो 1 ऐसी सूनी पगडण्डी पर चलते हैं । जिस पर पदचिह्न विरले ही होते हैं । और बड़ी मुश्किल से पहचाने जाते हैं ।
अपने साथी मनुष्यों के बीच में महाविरही वैसा ही होता है । जैसा वह गरुड़ जिसे मुर्गी ने सेया है । और जो चूजों के साथ उनके बाड़े में बन्द है । उसके भाई चूजे तथा माँ मुर्गी चाहते हैं कि वह बाल गरुड़ उन्ही के जैसे स्वभाव और आदतों वाला, और उन्ही की तरह रहने वाला । और वह चाहता है कि चूजे उसके समान हों । अधिक खुली हवा और अनंत आकाश के स्वप्न देखने वाले । पर शीघ्र ही वह उनके बीच अपने आपको 1 अजनबी और अछूत पाता है । वे सब उसको चोंच मारते हैं । यहाँ तक कि उसकी माँ भी । किन्तु उसे अपने रक्त में शिखरों की पुकार बड़े जोर से सुनाई देती है । और बाड़े की दुर्गन्ध उसकी नाक में बुरी तरह चुभती है । फिर भी वह सब कुछ चुपचाप सहता रहता है । जब तक उसके पंख पूरी तरह नहीं निकल आते । और तब वह हवा पर सवार हो जाता है । और प्यार भरी विदा दृष्टि डालता है । अपने भूतपूर्व भाइयों और उनकी माँ पर । जो दानों और कीड़ों के लिये मिटटी कुरेदते हुए मस्ती में कुड़कुड़ाते रहते हैं ।
ख़ुशी मनाओ - मिकेयन । तुम्हारा सपना 1 पैगम्बर का सपना है । महाविरह ने तुम्हारे संसार को बहुत छोटा कर दिया है । और तुम्हे उस संसार में 1 अजनबी बना दिया है । उसने तुम्हारी कल्पना को निरंकुश ज्ञानेन्द्रियों की पकड़ से मुक्त कर दिया है । और मुक्त कल्पना ने तुम्हारे अंदर विश्वास जाग्रत कर दिया है । और विश्वास तुम्हे दुर्गन्ध पूर्ण, घुटन भरे संसार में बहुत ऊँचा उठाकर वीरान खोखलेपन के पार बीहड़ पर्वत के ऊपर ले जाएगा । जहाँ हर विश्वास को परखा जाता है । और संदेह की अन्तिम तलछट को निकाल कर उसे निर्मल किया जाता है । और इस प्रकार निर्मल हो चुका विश्वास तुम्हें सदैव हरे भरे रहने वाले शिखर की सीमाओं पर पहुंचा देगा । और वहाँ तुम्हें दिव्य ज्ञान के हाथों में सौंप देगा । अपना कार्य पूरा करके विश्वास पीछे हट जायेगा । और दिव्य ज्ञान तुम्हारे कदमो को उस शिखर की अकथनीय स्वतन्त्रता की राह दिखायेगा । जो प्रभु तथा आत्म विजयी मनुष्य का वास्तविक, सीमा रहित आनंदपूर्ण धाम है । परख में खरे उतरना - मिकेयन । तुम सब खरे उतरना । मेरे साथियो । उस शिखर पर क्षण भर भी खड़े हो सकने का सौभाग्य प्राप्त करने के लिये चाहे कोई भी पीड़ा सहनी पड़े । ज्यादा नहीं है । परन्तु उस शिखर पर स्थायी निवास प्राप्त करने में यदि अनंत काल भी लग जाए । तो कम है ।
हिम्बल - क्या आप हमें अपने शिखर पर अभी नहीं ले जा सकते । 1 झलक के लिए । चाहे वह क्षणिक ही हो ? 
मीरदाद - उतावले मत बनो, हिम्बल । अपने समय की प्रतीक्षा करो । जहाँ मैं आराम से साँस लेता हूँ । वहाँ तुम्हारा दम घुटेगा । जहाँ मैं आराम से चलता हूँ । वहाँ तुम हाँफने और ठोकरें खाने लगोगे | 
विश्वास का दामन थामे रहो । और विश्वास बहुत बड़ा कमाल कर दिखायेगा । यही शिक्षा थी मेरी नूह को । और यही शिक्षा है मेरी तुम्हे । 

25 मार्च 2011

आगामी समय में महाराज जी का राजस्थान का कार्यकृम..सूचना

महाराज जी खन्ना पंजाब में झील पर
श्री सोहन गोधरा जी ( जाट ) राजस्थान के जिला हनुमानगढ की टिब्बी तहसील के गाँव पीर कमरिया के रहने वाले हैं । और लगभग 6 महीने से मेरे सभी ब्लाग्स के नियमित पाठक हैं । मुझे आश्चर्य इस बात का होता है कि सोहन जी के पास कम्प्यूटर नहीं है । और इन्होंने मेरे सभी ब्लाग्स मोबायल फ़ोन पर पढे हैं ।
उससे भी अधिक आश्चर्य की बात यह है कि सोहन जी एक किसान है । और ज्यादातर खेतों पर रहते हैं ।  सोहन जी ने जबसे मेरे ब्लाग पढना शुरू किया । तबसे अनेकों बार मुझसे फ़ोन पर बात कर चुके हैं । ईश्वर की प्राप्ति और आत्मग्यान की चाह रखने वाले सोहन जी एक साधारण भक्ति पूजा वाले मन्त्र से किसी गुरु से दीक्षा भी ले चुके हैं । पर इनकी आत्मग्यान की चाह अति प्रबल है ।
जब इन्होंने मेरे ब्लाग में कबीर साहब और धर्मदास की वार्ता पर आधारित " अनुराग सागर " की इतनी प्रशंसा देखी । तो बङे जतन से तीन महीने के अथक प्रयास से " अनुराग सागर " को प्राप्त करने में कामयाबी हासिल की । और उसे पढा । और जैसा कि मैं कहता रहा हूँ कि उसे पढते ही इनके सब भृम भाग गये । सब सवाल खत्म हो गये । और ये आत्मग्यान की सतनाम दीक्षा के लिये व्याकुल हो गये । इन पर इस किताब का ऐसा जादुई असर हुआ कि ये पूरे परिवार को नामदान दिलाना चाहते हैं ।
अब थोङी अलग बात..
जिला हनुमानगढ के ही रिफ़ायंडरी के पास के गाँव झन्डीपुर के एक महात्मा जिन्होंने हनुमानगढ में आश्रम बना लिया है । महाराज जी से लगभग तीन चार साल पहले मिले थे । और जमकर सतसंग हुआ । तबसे वे महात्मा लगातार आग्रह करते रहे कि महाराज जी कभी हमारे यहाँ भी आईये । इत्तफ़ाकन महाराज जी अभी चार महीने पहले राजस्थान गये । पर वहाँ नहीं पहुँच पाये ।
एक और बात..
मध्यप्रदेश के भिंड जिले के पास किसी गाँव में रहने वाले ( इस समय मुझे गाँव का नाम ध्यान नहीं आ रहा । कुछ अलग सा नाम है । ) कबीरपंथी और गायक कवि के रूप में आसपास के क्षेत्रों में प्रसिद्ध हनूवीर जी का महाराज जी से चार दिन लगातार सतसंग चला । और कबीरपंथ को मानते हुये भी कुछ अलग सोच रखने वाले हनूवीर को मानना पङा कि महाराज जी ही सही कह रहे हैं ।
अब खास बात..
अब यदि कुछ विशेष बात न हुयी तो अगले कुछ दिनों में श्री महाराज जी का राजस्थान का भृमण हो सकता है । इसलिये जो भी आसपास के लोग आतमग्यान की जिग्यासा रखते हों । महाराज जी से मिल सकते हैं  ।
इस सम्बन्ध में अधिक जानकारी प्राप्त करने हेतु श्री सोहन जी से उनके इस नम्बर पर 096804 61798 पर बात कर सकते हैं ।

22 मार्च 2011

इस पुस्तक को अवश्य पढें । ये आपकी आँखे खोल देगी ।

असली नकली बाबाओं की पोल खोलती पुस्तक । कालपुरुष और उसकी पत्नी माया की असली कहानी बताने वाली पुस्तक । बृह्मा विष्णु महेश के माँ बाप और उनके जन्म विवाह आदि के बारे में बताने वाली पुस्तक ।
इस सृष्टि की शुरुआत कैसे हुयी ? कालपुरुष ने क्या क्या खेल रचाया ? अपनी पत्नी माया के साथ कैसा मायाजाल बनाकर जीव को फ़ँसाया ? संसार में धर्म पूजा में पाखंड कैसे आया । इसका दोषी कौन था ?
ऐसे सभी तमाम उठने वाले प्रश्नों का जबाब देने वाली एकमात्र पुस्तक का नाम है । अनुराग सागर ।
मैंने 100 रु मूल्य की इस अनमोल पुस्तक की अपने कई लेखों में प्रशंसा की है । और मुझे खुशी है कि कई पाठकों ने इसे खरीदकर न सिर्फ़ पढा । बल्कि उनके संतुष्टि भरे फ़ोन भी आये ।
लेकिन एक तरह से कुछ लोगों में काफ़ी चर्चित । और गूढ गुप्त होने के कारण बहुत लोगों को नामालूम । इस पुस्तक के मिलने में कठिनाई हुयी । और ये उन्हें नहीं मिली ।
ऐसे पाठकों के लिये पुस्तक मिलने के दो पते ।
प्रकाशक--अमित पाकेट बुक्स
सखूजा मार्केट
नजदीक चौक अड्डा टांडा
जालंधर । पंजाब ।
पिन 144008
( 0181 )  2212696--5076900--3951696
जालंधर । पंजाब  के आसपास के लोगों के लिये । सीधे खरीद या डाक से मंगाने का पता ।


अमित पुस्तक भंडार
ग्यान मार्केट
चौक अड्डा टांडा ।
जालंधर । पंजाब
फ़ोन-   ( 0181 )  2212696
मथुरा के आसपास के लोगों के लिये । सीधे खरीद या डाक से मंगाने का पता ।
वंदना बुक डिपो
चौक गुङहाई बाजार
मथुरा । उत्तर प्रदेश
पिनकोड 281001
फ़ोन--403493 ( 0565) STD कोड 
नोट-- मथुरा के STD कोड के प्रति कंफ़र्म नहीं हूँ । कृपया सही कोड हासिल कर इंक्वायरी करें ।


kuldeep singh पोस्ट " इस पुस्तक को अवश्य पढें । ये आपकी आँखे खोल देगी । " पर एक टिप्पणी । 

चंडीगढ या इसके आसपास के लोग इस एड्रेस से आसानी से प्राप्त कर सकते हैं ।
Running Book Vehicle Shop of Geeta Press Gorakhpur
Behind Bus Stand of Sector -17-c, chandigarh-160017
Near Fire Service Station Or Circus Ground
अगर पता ढूँढने में कोई परेशानी हो । तो मुझसे लोकली कान्टेक्ट कर सकते हैं । मेरा मोबायल नम्बर है ।
 - 98884   13419 

*** कुलदीप जी आपके द्वारा एक और पता मुहैया कराने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद । वैसे प्रीत इन्दर जी आपसे पहचान होने से पहले इस पुस्तक को बैचेनी से तलाश कर रहे थे । आपके द्वारा कोरियर से भेजी गयी पुस्तक प्राप्त होते ही उन्होंने बेहद खुशी से मुझे फ़ोन किया । खैर..मुझे उम्मीद है । इस पुस्तक की एक प्रति आपके पास भी अवश्य होगी ।..राजीव ।

किन्ही अग्यात सज्जन ने एक और पता उपलब्ध कराया है । आपका बहुत बहुत आभार भाई । सन्तमत के इस प्रचार में सहयोग के लिये ।
बेनामी  पोस्ट " इस पुस्तक को अवश्य पढें । ये आपकी आँखे खोल देगी । " पर ।

Manoj Publications 
1583-84, Daribaa kalaan, 
Chandni Chowk, Delhi-110006 
Phone no. 23262174, 23268216 
Mobile-09818753569 

14 मार्च 2011

पटियाला में महाराज जी के साथ रहने वाले पागल बाबा के नवीनतम चित्र

सभी चित्र प्रीत इन्दर जी । पटियाला के सौजन्य से । प्रीत इन्दर जी.. आपका हार्दिक आभार 

पटियाला में महाराज जी के नवीनतम चित्र

गुरुदेव महाराज सांयकालीन भृमण पर
गुरुदेव एकान्त अध्यात्म चिंतन में
गुरुदेव एक मनोरम स्थान पर । पंजाब में
गुरुदेव और पागल बाबा पलंग पर । नीचे अनुभवी साधक राधारमण गौतम जी और काली पेंट में चन्डीगङ के नये साधक कुलदीप सिंह जी ।
गुरुदेव आशीर्वाद देते हुये । पंजाब ।
गुरुदेव ध्यान कक्ष में 
सभी चित्र । प्रीत इन्दर जी । पटियाला के सौजन्य से प्रीत इन्दर जी.. आपका हार्दिक आभार 

10 मार्च 2011

एक जरूरी सूचना । महाराज जी पटियाला में ।

महाराज जी सतगुरुदेव श्री शिवानन्द जी महाराज आज सुबह पटियाला fri, 11 March, 2011 06:00 AM
पर पहुँच गये है । और नबजोत सिंह सिद्धू की लाल कोठी के पास । House number 32-G, majithia enclave near railway phatak number 24, patiala में ठहरे हुये हैं । पटियाला या आसपास के जो लोग दूरी और समय अभाव के कारण मिलना चाहते हुये भी मिल नहीं पाये थे । उपरोक्त पते पर मिल सकते हैं । इस पते का सम्पर्क नम्बर यह है । 0 9780 62 65 13 धन्यवाद । आत्मग्यान जिग्यासा का समाधान श्री महाराज जी से पाकर लाभ उठायें ।









03 मार्च 2011

ये जीव कालमाया का कैदी है ।

बहुत बहुत धन्यवाद आपका । आपके कहे अनुसार मैं हिन्दी वाला बाराह पैड डाउनलोड कर लूँगा । लेकिन आज मुझे क्षमा करें । मैं जल्दबाजी में डाउनलोड कल कर नहीं पाया । आज शाम तक कर लूँगा । कल मैं जरा बिजी था । आपके जबाब पढकर बहुत अच्छा लगा । एक छोटा सा कष्ट और है । चार सवाल और आ गये मन में । निवेदन है । उनको भी क्लियर करें । ( श्री प्रसाद कुमार सेतिया । कानपुर । ई मेल से । )
Q 1st आत्मा जब जीव भाव को छोङ देती है । तब वो जीवात्मा से आत्मा हो जाती है ।
Q तो क्या वो दोबारा फ़िर से जन्म ले सकती है ? ( अपनी इच्छा से ) क्या ये सम्भव है ??
ANS - जी हाँ । जिस तरह मुक्त आदमी कुछ भी करने को स्वतन्त्र होता है । उसी तरह मुक्त आत्मा भी इच्छानुसार सब कर सकती है । पर उस आनन्द में पहुँचकर फ़िर कोई ऐसी बातें नहीं सोचता । वो बात ही कुछ अलग है । वो मजा ही कुछ अलग है । दुबारा जन्म तो बहुत दूर की बात है । इसी जन्म में बहुत कुछ इच्छानुसार होता है । जैसे दिव्य लोकों में जाना । और कई तरह के उच्च यौगिक फ़ल दीक्षा के दो तीन साल में ही अनुभव होने लगते हैं ।
Q 2nd Q ये मोक्ष अवस्था कैसी होती है ? जिसमें आपने लिखा था कि आत्मा परमात्मा हो जाती है ?
ANS - आत्मा जब पूरी तरह निर्मल हो जाती है । वैसे ही उसको अपना भूला हुआ घर सतलोक और अपनी पहचान हँस का ग्यान हो जाता है । फ़िर ये परमात्मा से मिलने चल देती है । बीच में कुछ स्थितियाँ पार करने के बाद ये परमात्मा के पास पहुँच जाती है । इसके बारे में खुलकर बताना नियम विरुद्ध है । जब तक आप हमारे मन्डल के न हों । मोक्ष बङी आनन्ददायक अवस्था है । जिसको परमानन्द भी कहते हैं । इसका शब्दों में वर्णन नहीं हो सकता । जैसा कि कई जगह मैंने लिखा है । मोक्ष यानी मुक्त यानी स्वतन्त्र यानी अपनी मर्जी का मालिक । इससे बङकर और क्या बात हो सकती है । जबकि जीव परतन्त्र है । और माया तथा कालपुरुष का कैदी है । सतगुरु परमात्मा के नाम से उसको मुक्त कर देते हैं ।
Q क्या मोक्ष हो जाने के बाद भी आत्मा वापिस इस मृत्युलोक में आ सकती है ??
ANS - केवल इसी में नहीं । इस जैसी करोङों सृष्टि में कहीं भी आ जा सकती है । और ये मृत्यु के बाद नहीं इसी जीवन में और इसी शरीर से संभव है । केवल समर्पण भाव से ग्यान को सही गृहण करना आवश्यक है ।
Q या किसी और लोक में भी जा सकती है ? ( अपनी इच्छा से )
ANS - अखिल सृष्टि में कहीं भी आ जा सकती है । यही मुक्त होना है । यही मोक्ष है । एक महत्वपूर्ण बात और । जा भी अपनी इच्छा से सकती है । और जब इच्छा हो आ भी सकती है । वो भी जन्म मरण के चक्कर में फ़ँसे बिना ।
Q क्योंकि सबसे पहले जन्म मरण के चक्कर में फ़ँसने से पहले भी तो आत्मा अपनी अनादि अवस्था में ही थी । बेशक उसको मोक्ष जैसी अवस्था बोला जाय । तो गलत नहीं होगा ।
ANS - आपकी बात एकदम ठीक है । पहले यह अनादि अवस्था में बहुत शक्तिशाली और मुक्त ही थी । विषय वासना की चाह और मायामोह रूपी दलदल ने इसे कालमाया का कैदी बना दिया । और इसकी दुर्दशा हो गयी ।
Q 3rd Q आपके ब्लाग में जिस साधना की आप सबसे ज्यादा तारीफ़ करते हैं । जिसको आप सुरति शब्द साधना या महामन्त्र साधना या ढाई अक्षर के नाम की साधना या हँसदीक्षा जैसे अलग अलग नामों से पुकारते हैं । क्या ये एक ही साधना है ??
ANS - जी हाँ ये सब एक ही है । इसको सन्तमत का ग्यान कहते हैं । और अखिल सृष्टि में परमात्म ग्यान की इसके अलावा कोई साधना नहीं है । " साधना " शब्द से किन्ही भारी भरकम तामझाम वाली बात मत सोच लेना । इसमें सिर्फ़ गुरु द्वारा दिये नाम का सुमरन करना होता है । उसके लिये स्नान करो । या मत करो । अगरबत्ती जलाओ । या मत जलाओ । कोई अन्तर नहीं । सिर्फ़ किसी भी हालत में नाम का अधिक से अधिक अजपा जाप करो । नाम जपत कोढी भला । कंचन भली न देह ।.. नाम लिया तिन सब लिया । चार वेद का भेद । बिना नाम नरके पङा । पढ पढ चारो वेद । यही साधना मीराबाई । रैदास । कबीर । गुरुनानक । दादू । पलटू । ईसामसीह । मुहम्मद साहब । वाल्मीकि । नारद । गौतम बुद्ध । ध्रुव । प्रह्लाद । राम । कृष्ण । शंकर आदि ने की थी ।
Q क्या इससे बङी साधना और कोई नहीं ?
ANS - जिस तरह परमात्मा से बङी कोई सत्ता नहीं है । उसी तरह इस ग्यान । मन्त्र । साधना या दीक्षा से बङी कोई अन्य साधना नहीं है । इसी के लिये तुलसीदास ने कहा है । ..मन्त्र परम लघु जासु बस । विधि हरि हर सुर सर्व । मदमत्त गजराज को अंकुश कर ले खर्व ।..अर्थात - जिस प्रकार मतवाले हाथी को छोटा सा अंकुश वश में रखता है । उसी प्रकार बृह्मा विष्णु शंकर और सभी देवता । महाशक्तियाँ इस नाम के वश में रहती हैं । ये नाम हरेक शरीर में स्वतः हो रहा है । इसको वाणी से जपा नहीं जाता । बाकी सभी साधनायें परमात्मा से नीचे के स्तर के महा देवताओं । देवताओं । ऋषि । मुनि । महर्षि आदि के द्वारा निर्मित की गयीं है । ये सबसे सरल और सहज नाम साधना स्वयँ परमात्मा की दी हुयी है । और ये कोई आज की नयी खोज नहीं है । बल्कि अनादि सत्ता के द्वारा आदिकाल से चली आ रही है । हाँ बीच बीच में कुछ समय के लिये ये लुप्त हो जाती है । ये सिर्फ़ सन्तमत मार्ग वाले सन्तों द्वारा ही मिलती है । इसकी पहचान यह है कि सच्चे सन्तों से मिलते ही ये तुरन्त सहज तरीके से अपना कार्य शुरू कर देती है । इसी के लिये कहा गया है । कोटि जन्म का पन्थ था । पल में दिया मिलाय ।
Q क्या इससे आत्मा मुक्त हो जायेगी ??
ANS - मुक्त होना । इस ग्यान में बहुत छोटी चीज माना जाता है । करम धर्म दोऊ बटें जेबरी । मुक्ति भरे जहाँ पानी । ये गति विरला जानी । मुक्त तो इसमें बहुत पहले ही हो जाते हैं । वास्तव में सतगुरु से दीक्षा मिलते ही जङ चेतन की गाँठ खुल जाती है । और जीव उसी समय मुक्त हो जाता है । पर मुक्तता की उस स्थिति को स्थायी रूप से प्राप्त करने के लिये उसे नियमामुसार नाम सुमरिन करना होता है । किसी कारणवश यदि जीव एक जन्म में इस पढाई को पूरा नहीं कर पाता । तो इस नाम के प्रताप से उसे दूसरा जन्म भी मनुष्य ( आदमी है तो आदमी । औरत है तो औरत । ) का ही मिलता है । ग्यान बीज बिनसे नही । होंवे जन्म अनन्त । ऊँच नीच घर ऊपजे । होय सन्त का सन्त । अर्थात..एक बार ये ग्यान सतगुरु से प्राप्त हो जाने के बाद नष्ट नहीं होता ।
Q 4rth जिन बाबाजी को आप अपना गुरू बताते हैं ।
Q क्या वो सतगुरू और परमहँस कैटेगरी के हैं ?
ANS - क्या अजीब बात पूछी है । सेतिया जी आपने । मैं आपको लास्ट तक का ग्यान बता रहा हूँ । ये सब मुझे इन्हीं महाराज जी " प्रातः स्मरणीय परमपूज्य सतगुरु श्री शिवानन्द जी महाराज " से ही प्राप्त हुआ है । आज से लगभग 8 साल पहले मैं द्वैत यानी तन्त्र मन्त्र की साधनायें किया करता था । जिसमें एक साधना में मुझसे गलत क्रिया हो गयी । और मैं भारी परेशानी में आ गया । बहुत महात्माओं को दिखाया । पर कोई सही हल न बता सका । तब एक परिचित के माध्यम से इन्ही महाराज जी का पता चला । जो उस समय तक सन्त के रूप में गुप्त थे । और अधिकांश समय बीहङ जंगली क्षेत्र में रहते थे । महाराज जी के द्वारा मेरे सिर पर हाथ रखते ही सब विघ्न शान्त हो गये । बाद में उन्होंने बताया कि सच्ची । सरल । और सहज । जिसे बच्चे भी आराम से कर सकें । जिसमें कोई डर की बात नहीं । आनन्द ही आनन्द है । उस परमपिता परमात्मा की भक्ति यानी नाम साधना करो । जिससे तुम्हें हर चीज प्राप्त होगी । और साथ ही मुक्त भी होओगे । वे सतगुरु हैं ? या क्या हैं ? ये उनके दर्शनमात्र से ही आपको ग्यात हो जायेगा । उनका फ़ोन न. ब्लाग पर है । आप मेरा वास्ता देकर बात करके देख लो । बस भावना अच्छी और श्रद्धायुक्त होनी चाहिये । बात करने से ही आनन्द और शान्ति महसूस करोगे । इससे ज्याद क्या कहूँ ।
Q अगर हैं । तो क्या मैं भी उनको अपना गुरु बना सकता हूँ ??
ANS - अगर परमात्मा की कृपा होगी कि आपको ये दुर्लभ ग्यान मिले । तो आप अवश्य उनसे दीक्षा ले सकते हैं । वैसे आप श्री महाराज जी से बात करके एक बार उनके पास घूम आयें । कानपुर से इटावा की दूरी भी अधिक नहीं है । उनके पास जाने से पहले फ़ोन से ये अवश्य पता कर लेना कि वो कब और कहाँ मिलेंगे ? वैसे ये ग्यान लेने की । या श्री महाराज जी से दीक्षा लेने की आपकी पवित्र भावना होगी । तो आपको निश्चित दीक्षा मिलेगी सेतिया जी । इसमें कोई सन्देह की बात नहीं है ।
( आशा है कि आप इन 4 सवालों का जबाब आज शाम तक दे देंगे । मैं हिन्दी बाराह पैड साफ़्टवेयर भी शाम तक डाउनलोड कर लूँगा । )
** धन्यवाद सेतिया जी । मैं यहाँ यथासंभव आपकी शंकाओं के समाधान के लिये ही हूँ । इसलिये जो भी प्रश्न आपके मन में उठें । उन्हें निसंकोच पूछें । मेरा सभी पाठकों से निवेदन है कि परमात्मा के इस दुर्लभ ग्यान की जानकारी अधिक से अधिक लोगों को देकर जीव को चेतायें । इससे बङा पुण्य और परमार्थ कोई दूसरा नहीं है । आप सबका धन्यवाद । जय गुरुदेव की ।

02 मार्च 2011

आत्मा सो परमात्मा " इसका क्या अर्थ है ??

हम प्रसाद सेतिया हैं । प्रसाद कुमार सेतिया । हम कानपुर से हैं । हम भी आपका ब्लाग शौक से पढते हैं । बहुत खूब लिखते हैं आप । हम भी आपसे कुछ जानना चाहते हैं । कृपया बताने का कष्ट करें ।पहली बात ये निर्गुण सगुण का असली अर्थ क्या होता है ? कोई कहता है । परमात्मा सगुण हैं । पर कोई कहता है । परमात्मा निर्गुण है । कोई यह भी कह देता है । परमात्मा सगुण और निर्गुण दोनों ही है ।आप बतायें कि हम किसकी बात पर भरोसा करें ? दूसरी बात एक घटना हमारे साथ घटी । अभी कुछ दिन पहले । हमारी जान पहचान के एक डाक्टर साहब हैं । उनकी पत्नी बहुत धार्मिक विचारों वाली महिला हैं । कुछ दिन पहले सन्डे वाले दिन उसने घर में कीर्तन करवाया । कोई लोकल कीर्तन करने वाले थे । परन्तु उन कीर्तन करने वालों के साथ 1 बाबाजी भी थे । बात आगे बङाने से पहले हम आपको उन बाबाजी का थोङा सा परिचय देना उचित समझते हैं । वो बाबाजी अभी जवान ही हैं । ये हमको पता नही कि उन्होंने शादी की है कि नहीं ? वो अपने घर में ही रहते हैं । और ये मैंने सुना है कि बाबाजी के माता पिता भी उनके पाँव छूते हैं । अब परिचय से आगे बङते हैं । डाक्टर साहब के घर सन्डे को रात को आधा घन्टा कीर्तन हुआ । बाबाजी ने 15 मिनट परमात्मा की तारीफ़ की । और समाज को बचाने का संदेश दिया । उसके बाद खुद बाबाजी ने अपने हाथ से लोगों को भोजन परोसा । लोगों की गिनती 100 से भी शायद कम ही थी । मेरी पत्नी डाक्टर साहब की पत्नी की सहेली है । इसलिये हम लोग बाकी लोगों के जाने के बाद भी वहाँ रुके रहे । 3 या 4 परिवार और रुके हुये थे । फ़िर अन्दर शानदार बेडरूम में बेड पर बाबाजी अकेले ही बैठे थे । डाक्टर साहब की पत्नी उनको चाँदी के थाल में भोजन करवा रहीं थी । लेकिन वो वाला नहीं । जो हमको खिलाया गया । डाक्टर साहब की दो बेटियाँ बाबाजी के अगल बगल हाथ जोङे खङी थी । बेड के आसपास जमीन पर मैं अपनी पत्नी के साथ बैठा था । क्योंकि जो और तीन या चार परिवार रुके हुये थे । वो भी सब हमारे साथ जमीन पर ही बैठे थे । कोई बातचीत नहीं हो रही थी । बस सब हाथ जोङे बाबाजी को भोजन करते हुये देख रहे थे । बाबाजी बहुत धीरे धीरे भोजन कर रहे थे । पर फ़िर भी वो जवान हैं । तकरीबन 35 साल के शायद एन्ड हष्ट पुष्ट भी हैं । फ़िर अचानक हल्की फ़ुल्की बातों का ऐसा माहौल बना कि मेरे मन में विचार आया कि मैं बाबाजी से कोई ग्यान की बात जान लूँ । तो मैंने थोङा झिझकते हुये पूछा । बाबाजी मुझे एक सवाल पूछना है ।
उन्होंने बङे प्यार से कहा कि हाँ हाँ पूछिये ।मैंने कहा । बाबाजी ये जो मैं आपके सामने बैठा हूँ । ये मेरी फ़िजीकल बाडी है । और प्रसाद कुमार सिर्फ़ इस बाडी का नाम है । जिस दिन ये बाडी खत्म हो जायेगी । तब प्रसाद सेतिया भी खत्म । लेकिन इस बाडी के अन्दर जो आत्मा है । वो कहते हैं कि अमर है । और बार बार जन्म लेती है । तो फ़िर मेरी रियल सेल्फ़ real self क्या है ? क्या मैं ही आत्मा हूँ ?? तब बाबाजी ने पहले संस्कृत का एक श्लोक बोला । जो मेरी समझ में तो नहीं आया । फ़िर उन्होंने उस श्लोक का हिन्दी में ट्रान्सलेसन करते हुये कहा कि हाँ ये सही है । असली स्वरूप तो हम सबका आत्मा ही है । ये कहकर वो चुप हो गये । फ़िर मैंने पूछा कि ये आत्मा अनादि है ?? तब वो ये सुनकर मेरी तरफ़ देखने लगे । मैने साथ ही साथ कहा कि आदि तो उसको कहेंगे । जिसकी कभी न कभी शुरूआत हुयी हो । लेकिन अनादि वो जो सदा से ही है । मेरे इतना कहने पर आसपास जो लोग बैठे थे । वो तो बिलकुल ही चुप हो गये । और बाबाजी ने इस बात का कोई जबाब ना देकर ये कहा । ( हँसकर ) आप मुझे ये सब बातें फ़िर कभी करना । आज तो मैं अपनी दुकान बन्द करके आया हूँ । इसके बाद और इधर उधर की बातें शुरू हो गयी । थोङी देर बाद हम भी उठकर घर को आ गये । मैं आपसे ये पूछना चाहता हूँ कि मैंने उन बाबाजी से दो सवाल किये । पहले सवाल का उत्तर उन्होंने दे दिया । कृपया आप बतायें । क्या उनका उत्तर बिलकुल सही था ?? फ़िर दूसरे सवाल का उत्तर उन्होंने नहीं दिया । तो अगर दूसरा सवाल मैं आपसे करता । तो आप क्या उत्तर देते ? अगर वो दूसरे सवाल का जबाब दे देते । तो मैं उनसे तीसरा सवाल भी करता । वो तीसरा सवाल ये था कि आत्मा और परमात्मा का आपस मैं क्या सम्बन्ध है ?? सुनने मैं आता है कि " आत्मा सो परमात्मा " इसका क्या अर्थ है ?? और क्या आत्मा परमात्मा की संतान है ?? तो क्या परमात्मा वाले सारे गुण आत्मा में भी हैं ?? आपने बृह्मकुमारी नाम की संस्था के बारे में सुना होगा । वो लोग कहते हैं कि आत्मा का स्वरूप बिल्कुल एक दिव्य तारे ?? जैसा है । जैसे कोई अति सूक्ष्म दिव्य चाँदी जैसा प्रकाश । कृपया बतायें । क्या ये बात सही है ?? हमें आपकी उचित प्रतिक्रिया का इन्तजार रहेगा । प्रसाद कुमार सेतिया । कानपुर ।
** सेतिया जी आप से एक निवेदन है । इस पर तो बात करेंगे ही । आप कृपया अपने कम्प्यूटर में " बाराह हिन्दी पैड " BARAHA HINDI PAID मुफ़्त साफ़टवेयर डाउनलोड कर लें । इसके लिये आप गूगल सर्च में BARAH HINDI PAID टायप करें । और सही साईट सिलेक्ट करके ये साफ़टवेयर डाउनलोड कर लें ।
या इस साफ़्टवेयर को डाउनलोड करने के लिये यहाँ पर क्लिक करें । और ध्यान रहे । फ़्री वाला ही चुनें । BUY NOW वाला नहीं । वैसे साइट और पेज का पता यह है । http://www.baraha.com/download.htm इस पर भी यहीं से क्लिक करके सीधे वहाँ जा सकते हो ।
इससे आपका " THEEK ISI TARAH.. ठीक इसी तरह " लिखा मैटर हिन्दी में बदल जायेगा । मतलव आप पेज में rajeev ye bataaiye लिखोगे । तो वह अपने आप बदलकर " राजीव ये बताईये " ही लिखेगा । क्योंकि हिन्दी बनाने में काफ़ी समय खराब होता है । और आपको सिर्फ़ उतना ही करना पङेगा । जितना आप करते हो । इस तरह उत्तर देने में शीघ्रता होगी । और दुगनी के बजाय मुझे आधी मेहनत करनी होगी । धन्यवाद । आपके प्रश्नों के उत्तर शीघ्र ही ।

मेरे बारे में

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326