श्लोकार्धेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रंथ कोटिभ: ।
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर: ।
ब्रह्म ही सत्य है । अर्थात जो अनेक ग्रंथों में लिखा है । उसे मैं आधे श्लोक में यहां कह रहा हूं - ब्रह्म सत्य है । जगत मिथ्या है । तथा जीव ब्रह्म ही है । कोई अन्य नहीं । दार्शनिक दृष्टि से यह श्लोक अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इसमें अद्वैत दर्शन का प्रतिपादन सूत्र के रूप में किया गया है । इन दृश्यमान जगत में सत्य क्या है ? मिथ्या क्या है ? तथा जीव और ब्रह्म में परस्पर गूढ़ संबंध है । इन सृष्टि में अनुस्यूत है - ब्रह्म । संसार का अधिष्ठापन ही ब्रह्म नाम से श्रुतियों द्वारा प्रतिपादित है । जो था । जो है । और जो सदैव रहेगा । वही तो - ब्रह्म है । " सत्य नाम " से ऋषियों मनीषियों द्वारा वही कहा जाता है । यहां मिथ्या शब्द " असत " से भिन्न है ! मिथ्या शब्द यहां प्रतीति होने वाली वस्तु सत्य सी लगती है । जबकि वह प्रतीति क्षण में नहीं । यही मिथ्यात्व है । इसमें संस्कारों तथा उसके परिणाम स्वरूप स्मृति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । संसार के अस्तित्व को स्वीकार करने पर ही जीव है । संसार की संसार के रूप में प्रतीति के नष्ट होते ही " जीव " का अस्तित्व समाप्त हो जाता है । यह ऐसे ही है । जैसे जागने पर " स्वप्नकाल के द्रष्टा " और " दृश्य " का को लोप हो जाता है । वस्तुत: यह एकत्व और अद्वैत ही परमार्थ है । सत्य का अर्थ है - जिसका तीनों कालों में बोध नहीं होता । अर्थात जो था । जो है । और जो रहेगा । इस दृष्टि से जगत ब्रह्म-सापेक्ष है । ब्रह्म को जगत के होने या न होने से कोई अंतर नहीं पड़ता । जिस प्रकार आभूषण के न रहने पर भी स्वर्ण की सत्ता निरपेक्ष भाव से रहती है । उसी प्रकार सृष्टि से पूर्व भी सत्य था । दूसरे शब्दों में ब्रह्म का अस्तित्व सदैव रहता है ।
श्रुति का वचन है - सदेव सोम्येदग्रमासीत, अर्थात - हे सौम्य ! सृष्टि से पूर्व सत्य ही था । वेदांत ग्रंथों में व्यावहारिक दृष्टि ( सत्ता ) से ब्रह्म के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए ईश्वर को कारण-ब्रह्म और जगत को कार्य-ब्रह्म कहा गया है । इस कारण और कार्य रूप उपाधियों को नकारते हुए
स्वामी रामतीर्थ ने सत्यानुभूति को इन शब्दों में अभिव्यक्त किया है -
न मैं बन्दा न खुदा था । मुझे मालूम न था ।
दोनों इल्लत से जुदा था । मुझे मालूम न था ।
ब्रह्म का चिंतन - इस सृष्टि में मानव देह की उपलब्धता सर्वोत्कृष्ट मानी गई है । मनुष्य जीवन की प्राप्ति परमेश्वर के अनुग्रह का ही फल है । जिसने सम्पूर्ण सृष्टि का सृजन किया है । इस संसार में मनुष्य जन्म
से ही 2 तरह की अनुभूतियों से परिचय होता है ।
सुख और दुख - सुख दुख के विषय में विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे निश्चित रूप से जीवन में आई परिस्थितियों से जुड़े रहते हैं । परिस्थिति अनुकूल होती या प्रतिकूल ? अनुकूल परिस्थितियों से सुख मिलता है । जबकि प्रतिकूल परिस्थितियों से दुख की प्राप्ति होती है । मनुष्य के कल्याण एवं भगवत्प्राप्ति के साधन हेतु अनुकूल परस्थितियों की अपेक्षा प्रतिकूल परिस्थितियाँ अधिक उत्तम सिद्ध होती हैं । अनुकूल
परिस्थितियाँ होने पर मनुष्य भौतिकता में फंस जाता है । लेकिन प्रतिकूल परिस्थिति आने पर ऐसी संभावना लगभग नहीं रहती । तथा मन परम पिता परमात्मा के चरणों में लगने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है । प्रतिकूल परिस्थितियां आने पर मानव को प्रभु का अनुग्रह मानना चाहिए । क्योंकि यह कृपा केवल उन्हीं पर बरसती है । जिन पर उनका विशेष स्नेह होता है । प्रतिकूल परिस्थितियों से घिरने पर व्यक्ति को विशेष सावधानी रखनी पड़ती है । क्योंकि ऐसे समय में सबसे पहले धैर्य, फिर मित्रादि सभी साथ छोड़ने लगते हैं । यदि ऐसी स्थिति में मनुष्य विचलित होने लगे । तो उसका मनोबल टूटने लगेगा । परन्तु यदि प्रभु पर विश्वास रखते हुए इनका सामना किया जाए । तो मनुष्य का आत्मिक विकास होगा । ब्रह्म के चिंतन में वृद्धि होगी । दुष्प्रवृत्तियों से गुजरने वाला व्यक्ति वैसे ही सफल होकर निकलता है । जैसे तपने के पश्चात सोना अधिक चमकदार हो जाता है ।
ब्रह्म क्या है ? सभी का मानना है कि बिना किसी संतुलित संचालन
व्यवस्था के यह संपूर्ण ब्रह्मांड इतने सुव्यवस्थित रूप से नहीं चल सकता । यह सर्वोच्च नियामक सत्ता वैदिक दर्शनों में - ब्रह्म है । आद्य
शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित अद्वैतवाद के अनुसार इस संपूर्ण जगत में जो कुछ भी इंद्रियों द्वारा गृहीत है । अर्थात जो कुछ भी दिखाई, सुनाई, सुंघाई या स्पर्श आदि में आता है । वह सब मात्र ब्रह्म ही है । इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं । जिस प्रकार मिट्टी से निर्मित पात्रों का अलग अलग नाम रूप होने के पश्चात भी मूल रूप मिट्टी ही होती है । इसी प्रकार जो भी जड़ अथवा चेतन तत्व विभिन्न नाम रूप से ज्ञात होते हैं । वे मूल रूप से ब्रह्म ही हैं । भौतिक विज्ञानी आइंस्टीन के नियम के अनुसार इसे पूरे ब्रह्मांड में द्रव्य ऊर्जा है । यह दोनों भी आपस में परिवर्तनशील हैं । अर्थात जो द्रव्य या ठोस पदार्थ हमें दिखते हैं । वे भी ऊर्जा से निर्मित हैं । और सभी ठोस पदार्थ अंतत: ऊर्जा में ही परिवर्तित हो जाते हैं । अत: इस पूरे ब्रह्मांड में ऊर्जा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । अध्यात्म विज्ञान में यही ऊर्जा ब्रह्म है । हम " ब्रह्मांड " शब्द का प्रयोग इसलिए करते हैं कि यह सर्वव्याप्त ब्रह्म से परिपूर्ण एवं अंडाकार है ।
खगोल विज्ञानियों के अनुसार ब्रह्मांड की उत्पत्ति पूर्ण ऊर्जा एवं धूल के कणों में महाविस्फोट से हुई है । कालांतर में इसी से आकाशगंगाएं, नक्षत्र, तारे एवं ग्रह आदि बने । सूर्य के विखंडन से संपूर्ण सौरमंडल अस्तित्व में आया । अध्यात्म विज्ञानी इस सृष्टि की उत्पत्ति नाद से मानते हैं । जबकि खगोल विज्ञानी विस्फोटक से मानते हैं । अर्थात सभी ग्रहों या पृथ्वी पर जो कुछ भी जड़ चेतन तत्त्व है । वह सूर्य या ब्रह्मांड के मूल तत्त्व से ही बना है । परन्तु नाम रूप में भिन्नता होने पर भी मूल तत्व 1 ही है । और वह - ब्रह्म है । दर्शन शास्त्रों में ब्रह्म के संदर्भ में " एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति " कहा गया है । मृत्योपरांत चेतन तत्व द्वारा शरीर को छोड़ने के पश्चात जड़ तत्त्व प्रकृति में विलीन हो जाता है । ब्रह्म को निर्लिप्त, निराकार, निर्विशेष तथा निर्विकार आदि कहा गया है । अध्यात्म शास्त्रियों ने इस ब्रह्मांडीय ऊर्जा के 3 गुण बताए हैं । इसमें सत सत्य है । चित चेतन है । तथा आनन्द ब्रह्म स्वरूप है । इसी को सच्चिदानन्द परमात्मा के रूप में जाना जाता है ।
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तावन्महत्वं पांण्डित्यं कुलिनत्वं विवेकिता ।
यावज्ज्वालितम नाङेषु हतः पंचेषुपावकः । भर्तहरि
- बड़प्पन, पांडित्य कुलीनता और विवेक मनुष्य में उसी समय तक रहते हैं । जब तक शरीर में कामाग्नि प्रज्ज्वलित नहीं होती ।
- भर्तहरि ने " काम शतक " और " वैराग शतक " दोनों ही पूर्णता युक्त होकर लिखे हैं । क्योंकि भर्तहरि का पूर्व चरित्र बेहद कामी पुरुष का रहा है । अतः रानी पिंगला द्वारा धोखा देने तथा अन्य कारणों से उन्हें वैराग कारणवश अधिक हुआ था । इसलिये पूर्व के संस्कारों के दृष्टव्य यह श्लोक सभी अंतःकरण के दृष्टिकोण से अधिक महत्वपूर्ण नहीं है । वास्तव में इसके सटीक और व्यवहारिक रूप को जानने हेतु भर्तहरि का जीवन जानना आवश्यक है । क्योंकि विवेक पांडित्य कुलीनता आदि गुण पैदा ही तब होते हैं । जब कामवासना संयमित होती है । बशर्ते वे दिखावटी न होकर सत्य और आंतरिक रूप से हों ।
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर: ।
ब्रह्म ही सत्य है । अर्थात जो अनेक ग्रंथों में लिखा है । उसे मैं आधे श्लोक में यहां कह रहा हूं - ब्रह्म सत्य है । जगत मिथ्या है । तथा जीव ब्रह्म ही है । कोई अन्य नहीं । दार्शनिक दृष्टि से यह श्लोक अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इसमें अद्वैत दर्शन का प्रतिपादन सूत्र के रूप में किया गया है । इन दृश्यमान जगत में सत्य क्या है ? मिथ्या क्या है ? तथा जीव और ब्रह्म में परस्पर गूढ़ संबंध है । इन सृष्टि में अनुस्यूत है - ब्रह्म । संसार का अधिष्ठापन ही ब्रह्म नाम से श्रुतियों द्वारा प्रतिपादित है । जो था । जो है । और जो सदैव रहेगा । वही तो - ब्रह्म है । " सत्य नाम " से ऋषियों मनीषियों द्वारा वही कहा जाता है । यहां मिथ्या शब्द " असत " से भिन्न है ! मिथ्या शब्द यहां प्रतीति होने वाली वस्तु सत्य सी लगती है । जबकि वह प्रतीति क्षण में नहीं । यही मिथ्यात्व है । इसमें संस्कारों तथा उसके परिणाम स्वरूप स्मृति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । संसार के अस्तित्व को स्वीकार करने पर ही जीव है । संसार की संसार के रूप में प्रतीति के नष्ट होते ही " जीव " का अस्तित्व समाप्त हो जाता है । यह ऐसे ही है । जैसे जागने पर " स्वप्नकाल के द्रष्टा " और " दृश्य " का को लोप हो जाता है । वस्तुत: यह एकत्व और अद्वैत ही परमार्थ है । सत्य का अर्थ है - जिसका तीनों कालों में बोध नहीं होता । अर्थात जो था । जो है । और जो रहेगा । इस दृष्टि से जगत ब्रह्म-सापेक्ष है । ब्रह्म को जगत के होने या न होने से कोई अंतर नहीं पड़ता । जिस प्रकार आभूषण के न रहने पर भी स्वर्ण की सत्ता निरपेक्ष भाव से रहती है । उसी प्रकार सृष्टि से पूर्व भी सत्य था । दूसरे शब्दों में ब्रह्म का अस्तित्व सदैव रहता है ।
श्रुति का वचन है - सदेव सोम्येदग्रमासीत, अर्थात - हे सौम्य ! सृष्टि से पूर्व सत्य ही था । वेदांत ग्रंथों में व्यावहारिक दृष्टि ( सत्ता ) से ब्रह्म के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए ईश्वर को कारण-ब्रह्म और जगत को कार्य-ब्रह्म कहा गया है । इस कारण और कार्य रूप उपाधियों को नकारते हुए
स्वामी रामतीर्थ ने सत्यानुभूति को इन शब्दों में अभिव्यक्त किया है -
न मैं बन्दा न खुदा था । मुझे मालूम न था ।
दोनों इल्लत से जुदा था । मुझे मालूम न था ।
ब्रह्म का चिंतन - इस सृष्टि में मानव देह की उपलब्धता सर्वोत्कृष्ट मानी गई है । मनुष्य जीवन की प्राप्ति परमेश्वर के अनुग्रह का ही फल है । जिसने सम्पूर्ण सृष्टि का सृजन किया है । इस संसार में मनुष्य जन्म
से ही 2 तरह की अनुभूतियों से परिचय होता है ।
सुख और दुख - सुख दुख के विषय में विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे निश्चित रूप से जीवन में आई परिस्थितियों से जुड़े रहते हैं । परिस्थिति अनुकूल होती या प्रतिकूल ? अनुकूल परिस्थितियों से सुख मिलता है । जबकि प्रतिकूल परिस्थितियों से दुख की प्राप्ति होती है । मनुष्य के कल्याण एवं भगवत्प्राप्ति के साधन हेतु अनुकूल परस्थितियों की अपेक्षा प्रतिकूल परिस्थितियाँ अधिक उत्तम सिद्ध होती हैं । अनुकूल
परिस्थितियाँ होने पर मनुष्य भौतिकता में फंस जाता है । लेकिन प्रतिकूल परिस्थिति आने पर ऐसी संभावना लगभग नहीं रहती । तथा मन परम पिता परमात्मा के चरणों में लगने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है । प्रतिकूल परिस्थितियां आने पर मानव को प्रभु का अनुग्रह मानना चाहिए । क्योंकि यह कृपा केवल उन्हीं पर बरसती है । जिन पर उनका विशेष स्नेह होता है । प्रतिकूल परिस्थितियों से घिरने पर व्यक्ति को विशेष सावधानी रखनी पड़ती है । क्योंकि ऐसे समय में सबसे पहले धैर्य, फिर मित्रादि सभी साथ छोड़ने लगते हैं । यदि ऐसी स्थिति में मनुष्य विचलित होने लगे । तो उसका मनोबल टूटने लगेगा । परन्तु यदि प्रभु पर विश्वास रखते हुए इनका सामना किया जाए । तो मनुष्य का आत्मिक विकास होगा । ब्रह्म के चिंतन में वृद्धि होगी । दुष्प्रवृत्तियों से गुजरने वाला व्यक्ति वैसे ही सफल होकर निकलता है । जैसे तपने के पश्चात सोना अधिक चमकदार हो जाता है ।
ब्रह्म क्या है ? सभी का मानना है कि बिना किसी संतुलित संचालन
व्यवस्था के यह संपूर्ण ब्रह्मांड इतने सुव्यवस्थित रूप से नहीं चल सकता । यह सर्वोच्च नियामक सत्ता वैदिक दर्शनों में - ब्रह्म है । आद्य
शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित अद्वैतवाद के अनुसार इस संपूर्ण जगत में जो कुछ भी इंद्रियों द्वारा गृहीत है । अर्थात जो कुछ भी दिखाई, सुनाई, सुंघाई या स्पर्श आदि में आता है । वह सब मात्र ब्रह्म ही है । इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं । जिस प्रकार मिट्टी से निर्मित पात्रों का अलग अलग नाम रूप होने के पश्चात भी मूल रूप मिट्टी ही होती है । इसी प्रकार जो भी जड़ अथवा चेतन तत्व विभिन्न नाम रूप से ज्ञात होते हैं । वे मूल रूप से ब्रह्म ही हैं । भौतिक विज्ञानी आइंस्टीन के नियम के अनुसार इसे पूरे ब्रह्मांड में द्रव्य ऊर्जा है । यह दोनों भी आपस में परिवर्तनशील हैं । अर्थात जो द्रव्य या ठोस पदार्थ हमें दिखते हैं । वे भी ऊर्जा से निर्मित हैं । और सभी ठोस पदार्थ अंतत: ऊर्जा में ही परिवर्तित हो जाते हैं । अत: इस पूरे ब्रह्मांड में ऊर्जा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । अध्यात्म विज्ञान में यही ऊर्जा ब्रह्म है । हम " ब्रह्मांड " शब्द का प्रयोग इसलिए करते हैं कि यह सर्वव्याप्त ब्रह्म से परिपूर्ण एवं अंडाकार है ।
खगोल विज्ञानियों के अनुसार ब्रह्मांड की उत्पत्ति पूर्ण ऊर्जा एवं धूल के कणों में महाविस्फोट से हुई है । कालांतर में इसी से आकाशगंगाएं, नक्षत्र, तारे एवं ग्रह आदि बने । सूर्य के विखंडन से संपूर्ण सौरमंडल अस्तित्व में आया । अध्यात्म विज्ञानी इस सृष्टि की उत्पत्ति नाद से मानते हैं । जबकि खगोल विज्ञानी विस्फोटक से मानते हैं । अर्थात सभी ग्रहों या पृथ्वी पर जो कुछ भी जड़ चेतन तत्त्व है । वह सूर्य या ब्रह्मांड के मूल तत्त्व से ही बना है । परन्तु नाम रूप में भिन्नता होने पर भी मूल तत्व 1 ही है । और वह - ब्रह्म है । दर्शन शास्त्रों में ब्रह्म के संदर्भ में " एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति " कहा गया है । मृत्योपरांत चेतन तत्व द्वारा शरीर को छोड़ने के पश्चात जड़ तत्त्व प्रकृति में विलीन हो जाता है । ब्रह्म को निर्लिप्त, निराकार, निर्विशेष तथा निर्विकार आदि कहा गया है । अध्यात्म शास्त्रियों ने इस ब्रह्मांडीय ऊर्जा के 3 गुण बताए हैं । इसमें सत सत्य है । चित चेतन है । तथा आनन्द ब्रह्म स्वरूप है । इसी को सच्चिदानन्द परमात्मा के रूप में जाना जाता है ।
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तावन्महत्वं पांण्डित्यं कुलिनत्वं विवेकिता ।
यावज्ज्वालितम नाङेषु हतः पंचेषुपावकः । भर्तहरि
- बड़प्पन, पांडित्य कुलीनता और विवेक मनुष्य में उसी समय तक रहते हैं । जब तक शरीर में कामाग्नि प्रज्ज्वलित नहीं होती ।
- भर्तहरि ने " काम शतक " और " वैराग शतक " दोनों ही पूर्णता युक्त होकर लिखे हैं । क्योंकि भर्तहरि का पूर्व चरित्र बेहद कामी पुरुष का रहा है । अतः रानी पिंगला द्वारा धोखा देने तथा अन्य कारणों से उन्हें वैराग कारणवश अधिक हुआ था । इसलिये पूर्व के संस्कारों के दृष्टव्य यह श्लोक सभी अंतःकरण के दृष्टिकोण से अधिक महत्वपूर्ण नहीं है । वास्तव में इसके सटीक और व्यवहारिक रूप को जानने हेतु भर्तहरि का जीवन जानना आवश्यक है । क्योंकि विवेक पांडित्य कुलीनता आदि गुण पैदा ही तब होते हैं । जब कामवासना संयमित होती है । बशर्ते वे दिखावटी न होकर सत्य और आंतरिक रूप से हों ।
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यथार्थ वोध और सर्वग्राही चिंतन,प्रोफे आर एन त्रिपाठी समाजशास्त्र विभाग बीएचयू
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