14 दिसंबर 2014

सिर्फ़ 3 शब्द - लीला अगम अपार

लीला अगम अपार - ये सिर्फ़ 3 शब्द लिखे हुये हैं । मैं शब्द पढता हूँ । मैं शब्द सुनता हूँ । मैं शब्द देखता हूँ । मैं शब्द बोलता हूँ । शब्द खाता हूँ । शब्द पीता हूँ । शब्द अनुभूत करता हूँ । और फ़िर निशब्द । हाँ फ़िर निशब्द । और फ़िर से सिर्फ़ 3 शब्द - लीला अगम अपार । वैसे ये 3 शब्द बेहद साधारण भी हैं । सहज सुलभ भी हैं । फ़िर अति गूढ भी हैं । अति दुर्लभ भी हैं । कोई अपरिचित नहीं हैं ये शब्द । कुछ नये भी नहीं हैं । इनके लिये किसी महान साहित्य को किसी महान लेखक महान कवि को भी पढने की ही आवश्यक्ता नहीं है । साधारण बोलचाल में, रोजमर्रा में, घर के बङे बूढों में, धर्मात्माओं में, दुष्टों में सभी जगह ये शब्द कभी न कभी, अक्सर ही आपने सुने होंगे - लीला अगम अपार ।
पर बहुत भिन्नता है । मेरे सुनने में । तेरे सुनने में । इसके में और फ़िर उसके में । आप याद करिये । जरूर ये शब्द आपने सुने होंगे । बात यह नहीं कि आप किस जाति के किस धर्म के और किस देश के हैं ? मैं इनकी नहीं शब्दों की बात कर रहा हूँ । सिर्फ़ 3 शब्द - लीला अगम अपार ।
और गौर से सोचिये । तो झिंझोङ देंगे ये शब्द । पर आपने कभी ऐसी नजर देखे ही नहीं ये शब्द -लीला अगम अपार । 
ध्यान रखना । मैं कोई अलंकारिक शब्द रचना नहीं कर रहा । कोई लेखन विद्वता भी नहीं । मैं वह सब आपको महसूस कराना चाहता हूँ । जो मुझे अनुभूत कराते हैं - शब्द । और फ़िर निशब्द । लेकिन अभी मैं सिर्फ़ " शब्द " पर नहीं कहना चाहता । अभी मैं सिर्फ़ 3 शब्द - लीला अगम अपार पर ही कहना चाह रहा हूँ । और ये कोई जटिल विषय नहीं । जटिल बात भी नहीं । ल ई ल अ यही तो । अ ग म यही तो । अ प अ र भी यही तो । मैं फ़िर से दुहराता हूँ । इसे कोई उच्च परिष्कृत जैसी हिन्दी का निबन्ध । कोई उपमा । कोई गद्यीय कवित्त । कोई अलंकारिक शब्द रचना जैसा समझने की भूल न करना । मैं हर शब्द बेहद रूखे या बेहद स्निग्ध या फ़िर ठोस

धातु ठोस पदार्थ या अकाटय सत्य जैसा ही कह रहा हूँ । निर्मम सत्य कह रहा हूँ । भले ही वह अनेकानेक पात्रों को अपनी स्थिति से बने भावनुसार प्रिय अप्रिय कुछ भी लगे । इसीलिये शायद अभी मैंने सिर्फ़ 3 शब्द ही लिये हैं - लीला अगम अपार । आपने अब तक गौर किया । सिर्फ़ 3 शब्द ? इनके अक्षर नहीं लिये । स्वर की भी बात नहीं कर रहा । स्वर पूर्व स्फ़ुरणा तो बहुत गहरे या बहुत दूर की बात हो जायेगी । स्फ़ुरणा पूर्व चेतना या चैतन्यता तो और भी अलग । और फ़िर चेतन । और फ़िर निशब्द । फ़िर ? सोचिये ये सब कितना सूक्ष्म हुआ जा रहा है । इसके तुलनात्मक तो ये 3 शब्द - लीला अगम अपार बहुत स्थूल बहुत स्थूल हो जाते हैं । जबकि मैं इनकी ही सूक्ष्मता की बात कर रहा हूँ । शब्द की तुलना में इन 3 शब्दों की सूक्ष्मता ?
पहला शब्द है - लीला । अब जरा सतर्क हो जायें । लीला यानी नाटक या प्रहसन । गौर करिये । सभी जगह लीला शब्द ही आया है । कर्म शब्द नहीं । कर्म एक बेहद गम्भीर शब्द है । और कर्म का कर्ता आवश्यक है । कर्म किये कर्म का कर्म फ़ल बना देता है । उसके लिये एक निश्चित क्रिया की आवश्यकता है । पर क्या लीला के साथ ऐसा है । मैं पुनः दोहराता हूँ । एकदम मोटे अन्दाज में निर्णय नहीं कर लेना । बङी बारीकी से सोचना । कर्म और लीला । एक ही क्रिया के दो नाम । मगर दोनों के अर्थ और दोनों के परिणाम बेहद भिन्न । जमीन आसमान जैसा अन्तर । ये ही अन्तर बताना मेरी मजबूरी जानिये । क्योंकि तुच्छ और विराट के सटीक निहितार्थ शायद आप ना समझ सकें ।
दूसरा शब्द है - अगम । सरल सा अर्थ है । जहाँ जाया न जा सके । सोचिये ऐसा भी कुछ है । कोई स्थान आदि कुछ ऐसा है । जहाँ जाया न जा सके । पर कोई तो गया होगा ? क्यों और क्या कारण है इस शब्द की उत्पत्ति का ? अगम । जाना नहीं हो सकता । फ़िर क्या है ये अगम ?
तीसरा शब्द है - अपार । ये भी बहुत ही सरल शब्द ही है । जिसका कोई पार या छोर न हो । पर किसने कहे हैं ये शब्द । क्या हारे हुये तैराकों ने । क्या सीमाबन्द योद्धाओं ने । इन शब्दों की कैसे और क्यों उत्पत्ति हुयी । क्या आवश्यकता थी इन शब्दों की ?
निर्णय करने में जल्दी न करें - अपार । कोई अन्त न पा सका । पर शायद में " कोई " शब्द गलत जोङ रहा हूँ । इसकी जगह होना चाहिये - हर कोई । या अधिकांश । या विपरीत तरह से कहने पर कह सकते हैं - कोई कोई ही । इक्का दुक्का । या फ़िर विरला ।
और ऐसे ही इक्का दुक्का लोगों में से एक ने लिखा - तेरा सांई तुझमें है । ज्यों पहुपन में बास ।
बहुत सरल है ये भी - ज्यों पहुपन में बास । फ़ूलों में खुशबू कैसे क्यों और कहाँ होती है ? यदि आप खोज सके । तो इन शब्दों का भेद भी खोज लोगे । लेकिन आपको आसानी हो जाये । इसीलिये कबीर ने आगे बात कुछ स्थूल कर दी - कस्तूरी का हिरन ज्यों । फिर फिर ढ़ूँढ़त घास ।
आप ये तो जानते ही होंगे । कस्तूरी सहज अनुभव में आने वाला पदार्थ है । तुलनात्मक फ़ूलों की खुशबू के । अतः दूसरी पंक्ति सिर्फ़ संकेत भर है । वह कोई ज्यादा काम की बात नहीं । असली बात तो " पहुपन में बास " की ही है । मैं फ़िर से कह रहा हूँ - पहुपन में बास, ये कोई साधारण बात नहीं है । यदि आप इसका पूरा मर्म भेद सके तो ।
सर्वात्म एकात्म तुझे ही प्रणाम । तेरे अलावा और है कौन ।

03 जुलाई 2014

गुरुपूर्णिमा निमन्त्रण 2014

जय गुरुदेव की - जय जय श्री गुरुदेव ।
। ॐ श्री गुरुवै नमः । 
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः ।
अखण्ड मंडलाकार व्याप्तं येन चराचरम । 
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरुवे नमः ।. 
परम वन्दनीय प्रातः स्मरणीय परम श्रद्धेय सदगुरुदेव श्री शिवानन्द जी महाराज परमहंस के श्री चरणों में कोटि कोटि नमन करते हुये देश विदेश में रहने वाले सभी स्नेही शिष्यों, श्रद्धालुओं और सभी भक्तजनों का गुरु पूर्णिमा 12 July 2014 को भावपूर्ण निमन्त्रण है ।
इस वर्ष भी दिल्ली (शिमला) निवासी श्री महाराज जी के पूर्ण शिष्य गुरुदेव श्री राकेश महाराज जी परमहंस महाराज भी इस पुण्य पावन अवसर पर 11 july से 13 july 2014 तक उपस्थित रहेंगे और स्थिति अनुसार नये पुराने शिष्यों की हंसदीक्षा, परमहंस दीक्षा भी की जायेगी । 
ध्यान में प्रविष्टि से सम्बन्धित कोई भी परेशानी और विभिन्न शंकाओं और जिज्ञासाओं का समाधान भी किया जायेगा तथा सुयोग्य पात्रों को समाधि ज्ञान/अभ्यास कराया जायेगा ।
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा कहा जाता है । इसी पावन दिन को गुरुपूजा का विधान है । वर्ष भर के किसी भी अन्य दिन से सर्वाधिक महत्वपूर्ण गुरु पूर्णिमा महोत्सव इस वर्ष 12 July 2014 को पङ रहा है । अन्य संसारी लोगों की अपेक्षा उपदेशी शिष्यों के लिये यह दिन बहुत महत्व का है । ऐसा माना जाता है कि जो शिष्य वर्ष भर में एक बार भी गुरु दर्शन न कर सके । वह गुरु पूर्णिमा को कर ले तो भी धन्य हो जाता है । क्योंकि एकमात्र ये गुरु का (विशेष) दिन होता है और इस दिन गुरु की खास कृपादृष्टि शिष्यों पर रहती है । आमतौर पर गुरु चरणामृत भी इसी दिन उपलब्ध होता है क्योंकि वर्ष भर में इस शिष्य धर्म का आधुनिक हो चले (सभी) शिष्य महत्व नहीं समझते । इसका भी बेहद लाभ अनुभवी स्वयंभवी सन्तों द्वारा रचित ग्रन्थों ने कहा है ।

यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरु सी 
- भक्ति की जैसी आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी है । सच्चे सदगुरु की कृपा से ही परमात्मा का साक्षात्कार भी संभव है । गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है ।
तीन लोक नवखण्ड, में गुरु से बढा न कोय । 
कर्ता करे सो न कर सके, गुरु करे सो होय ।  
इसके अतिरिक्त इस समागम में तमाम अपरिचित गुरुभाईयों से भेंट परिचय भी हो जाता है । जिसमें अपने अपने साधना अनुभव, जानकारी, पूर्व भटकाव आदि के वर्णन से एक दूसरे के माध्यम से बहुत कुछ सीखने को मिल जाता है ।
हमारे सम्पर्क फ़ोन न.
श्री महाराज जी 
सदगुरुदेव श्री शिवानन्द जी महाराज ‘परमहँस’
0 96398  92934
हँसदीक्षा ज्ञान गुरुदेव
श्री राकेश शर्मा ‘परमहँस’ (दिल्ली)
(0 84478 15644) 
(0 98183 12908)
राजीव कुलश्रेष्ठ
0 94564  32709 
डा. संजय केसरी (बनारस)
(0 93368 75706)
श्री स्वपनिल तिवारी (म. प्र.)
(0 81030 98400)
हमारा पता -
चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम 
स्वामी श्री शिवानन्द जी महाराज ‘परमहँस’
नगला भादों, तहसील जसराना, 
जिला फ़िरोजाबाद,
उत्तर प्रदेश, 

भारत

27 जून 2014

झूठ पुराण

भारत के गांव कस्बों की तो बात ही छोङिये । दिल्ली मुम्बई बंगलौर जैसे आधुनिक शहरों के लोग भी अभी विदेशियों की तरह ऐसे फ़ालतू ? कार्यों के शौकीन नहीं हैं कि शक्तिशाली दूरबीन या कैमरे लिये बेकार में आकाश को ताकते रहें । या कोई भी नई तरह की घटना जीव जन्तु या दृश्य आदि का फ़िल्मांकन करने में समय बर्बाद ? करें । इसीलिये भारतीय लोगों को आज तक कभी य़ू एफ़ ओ नहीं दिखा । और यदि ऐसा कुछ दिखा भी होगा । तो निश्चय ही उनकी सोच होगी - अरे होगा कुछ ? सरकार जाने । उसका टेंशन है ? सेना सब संभाल लेगी । सर्दी गर्मी ज्यादा पङने पर बारिश कम ज्यादा होने पर उसके लिये सरकार को जिम्मेदार ठहराने वाले ऐसी छोटी मोटी बातों पर क्या टेंशन लें ।
हाँ शायद मेरठ की तरफ़ के लोगों को मुंहनोचवा ( कंडील पंतग आदि के उपयोग द्वारा फ़ैलाई अफ़वाह ) एक महीने से ज्यादा दिखा । इसका नामकरण भी देखिये । भारतीय कभी अनआइडेंटीफ़ाइड आबजेक्ट जैसे शब्दों का उपयोग नहीं करते । उन्होंने पूरा सचित्र "झूठ पुराण " बना डाला - मुंहनोचवा । यहीं भारतीय अखबारों की बात देखिये । यह खबर प्रमुखता से मुखप्रष्ठ तक पर बाक्स खबर का दर्जा पाती रही । दिल्ली में एक बङे साइज का चिम्पाजी जैसा बन्दर जो लोगों को बिना वजह लगभग दो महीनों हैरान करता रहा ( सफ़ेद झूठ ) शाम के अंधेरे के बाद लगभग आठ से नौ के बीच एक रोटी प्याज मांगने वाली बूढी चुङैल का आतंक भी लगभग छह महीने तक बरकरार रहा ।
तो गौर किया आपने । विदेशियों को जहां एलियन, यू एफ़ ओ, क्रोप सर्कल, आसमानी आग के गोले, गाडजिला,

डायनासोर, आइसमैन आदि आदि दिखते हैं ? वहीं भारतीयों को मुंहनोचवा, रहस्यमय आतंकी बन्दर, रोटी प्याज मांगने वाली चुङैल आदि दिखते हैं । उनके दिमाग उनके देश और पूर्वजों द्वारा उस प्रकार प्रोग्राम्ड है । तो भारतीयों के दिमाग उनके देश और पूर्वजों द्वारा इस प्रकार कृमादेशित है । मजे की बात है - बृह्म सत्य जगत मिथ्या जैसे महान सूत्र को मानने वाले । यह जगत स्वपनवत या अंधेरे में रस्सी का सर्प नजर आने की भांति मानने वाले । एक परमात्मा ही है । दूसरा कोई नहीं । मानने वाले भी । ऐसा ऐसा स्वांत सुखाय परांत दुखाय सृजन करते हैं कि स्वयं सृष्टि की रचना करने वाला परमात्मा भी हैरान हो जाये । भले ही सफ़ेद झूठ क्यों न हो । पर रोमांच और सनसनी पैदा होनी चाहिये ।
विकृत शरीर या अंगों को लेकर पैदा होकर कुछ ही घन्टों में मर जाने वाले शिशु यहां लिंग अनुसार देवी देवता माने जाते हैं । ऐसी ही एक घटना मेरे ठीक सामने हुयी । एक महिला का प्रसव चार महीने के गर्भ में ही हो गया । जाहिर है । अविकसित शिशु की आकृति बन्दर के बच्चे जैसी होगी । यह मृत ही था । और प्रसब के बाद हिला तक नहीं । अब छत्तीस साल पुरानी इस बात को लेकर मेरे सामने ही क्या क्या अफ़वाह बनी । देखिये - अरे खबीस ( एक प्रकार का प्रेत ) पैदा हुआ । दूसरी महिला ने आगे जोङ दिया - पैदा होते ही कूदकर टांड ( परछत्ती ) पर चढ गया । कुछ बच्चे डरकर भाग गये । एक और ज्ञानी महिला - मैं तो पहले ही कहती थी । उस घर में, या उस स्त्री पर कोई हवा का चक्कर ( प्रेत प्रभाव ) है आदि आदि । 
हैरानी की बात है कि आज तक एक भी मुंहनोचबा, आंतकी बन्दर या रोटी प्याज मांगने वाली चुङैल या फ़िर ऐसे देवी देवता या फ़िर यू एफ़ ओ या फ़िर एलियन या फ़िर अन्य अन्य । इनका कोई सच्चा प्रमाणित प्रत्यदर्शी या ऐसा प्रमाण आज तक नहीं मिला । जिसको जनता के सामने लाया जा सके । ये तो सिर्फ़ अफ़वाहों की बात है । चन्द्र मिशन तो पूर्णतयाः वैज्ञानिक, सरकारी और शिक्षित लोगों का उपकृम था । और बाकायदा करोङों रुपये

खर्च करके सरकार और कई लोगों की टीम द्वारा क्रियान्वित हुआ था । लेकिन इसके परिणामों का प्रकाशित ब्यौरा आज तक भी जनता के लिये मुंहनोचवा या रोटी प्याज मांगने वाली चुङैल से अधिक नहीं है । अतः आज भी आम लोगों के लिये चन्द्रमा में बुढिया चरखे पर सूत ही कात रही है । आज भी अधिकांश भारतीयों के लिये पहले आसमान धरती के इतना ज्यादा करीब था कि रोज झाङू देने आती सफ़ाई कर्मी महिला की कमर में लगता । और तब गुस्से में एक दिन उसने झाङू के डन्डे से उसे चोट मारा । और आसमान अत्यधिक ऊंचाई पर चला गया । बिजली की शुरूआत में कभी फ़ूंक मारकर बल्ब बुझाने वाले और रेडियो को आदमियों की तरह बोलता देखकर डर जाने वाले या तोङ देने वाले लोगों ने ही ऐसे ऐसे " महान अलौकिक साहित्य " का सृजन कर डाला कि कबीर को हारकर देखिये क्या कहना पङा - पंडित वाद वदन्ते झूठा । भोजन कहे भूख जो भाजे । जल कह तृषा बुझाई ।
बात मैंने शुरू की थी । हमारे राजस्थान के एक शिष्य द्वारा यू एफ़ ओ और विदेशी खेतों आदि में रातोंरात बन जाते क्रोप सर्कल को लेकर । जिसका उत्तर भी फ़ेसबुक में मेरे ग्रुप "सुप्रीम ब्लिस रिसर्च फ़ाउंडेशन" में दिया जा चुका है ।   
मेरे आत्मकथ्य रूपी लेखों में कुछ बार इसका जिक्र हुआ है कि मैं रात्रि में बचपन से ही आकाश को देर रात तक निहारने का बेहद शौकीन था । और तब कहीं न कहीं मुझे लगता था । आकाश से मेरा कोई गहरा सम्बन्ध है । मैं वहां जा सकता हूं । शायद मैंने लिखा हो । ऐसी ही एक रात्रि में पूर्ण से थोङे कम चन्द्रमा को एकटक ( अनजाने में त्राटक हो गया था ) देर तक निहारने से और दिमाग में सिर्फ़ एक ? विचार होने से यकायक मेरी सुरति लक्षित व्यक्ति ( प्रथ्वी पर ) और फ़िर सुदूर ग्रह पर चली गयी । पर ये अनजाने में हुआ था । अतः मैं डर गया । ये कहना ठीक नहीं । पर हङबङा अवश्य गया । ये मुश्किल से बीस तीस सेकिंड की अवधि थी । जिसमें सब कुछ होकर मैं वापिस सचेत भी हो गया । और यदि तीस सेकिंड में वो भी यकायक अप्रत्यशित और खास ये कि अनजानी ऐसी घटना हो । तो इंसान बाद में देर तक मनन करने के बाद ही सारी बात समझ पायेगा । ये घटना चौदह पन्द्रह की उमृ में घटी । और तब तक मेरा ज्ञान संस्कार आरम्भ नहीं हुआ था । अतः सब कुछ मेरे लिये रहस्य जैसा ही था । आज ऐसी घटनायें मेरे लिये एकदम महत्वहीन हैं ।
यदि मेरे पास भी एक शक्तिशाली दूरबीन युक्त कैमरा हो । तो मैं यहाँ अपने चिन्ताहरण आश्रम, नगला भादों ( जिला फ़िरोजाबाद ) के आंगन से ही आपको रोज दस बीस यू एफ़ ओ दस बीस एलियन या मुंहनोचवा
या कोई भी ऊटपटांग सत्यतारहित अन्य अन्य के तमाम चित्र और रोचक विवरण प्रतिदिन अपडेट कर सकता हूं ।
ऐसी ही खबरें प्रकाशित करने वाली एक बेवसाइट से मैंने दो लिंक टिप्पणी में साझा किये हैं । हालांकि उसके " फ़ायर इन द स्काई " शीर्षक से पेज पर ऐसे समाचारों की भरमार है ।

08 जून 2014

विवेकानन्द जी ने क्या देखा ?

गरुदेव प्रणाम, आपकी शरण में फ़िर उपस्थित हूँ । अपनी शंकाओ के समाधान हेतु । जो निम्न प्रकार है । 
१ जीवन के चार पुरषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष । गुरुदेव मेरा मानना है कि धर्म एक व्यवहारिक चींज है । और धर्म तो इतना व्यापक है कि तीनों पुरूषार्थों को समाहित कर सकता है । फ़िर इन्हें वेदों में समान स्थान क्यों दिया गया है । इनकी अलग-२ व्याख्या क्यों की गयी है । 
त्तर - धर्म का अर्थ - धारण किया हुआ । अर्थ का अर्थ - उस पदार्थ वस्तु व्यक्ति आदि में निहित मायने या उपयोग या जो कुछ भी वह है । वह क्या है । काम का अर्थ - सभी इच्छायें या वासनायें । मोक्ष का अर्थ - छुटकारा या अज्ञान रूपी मोह का क्षय हो जाना ।
अब दरअसल इस विषय में सही जानकारी न होने से आपकी बात भी स्पष्ट प्रश्न के रूप में नहीं है । उदाहरण के लिये मान लीजिये । एक वृक्ष है । अब वृक्ष होना उसका शरीरी धर्म है । फ़ल फ़ूल पत्ते लकङी जङ आदि का उपयोग उसमें निहित अर्थ है । हवा पानी धूप स्थान आदि उसका काम या जरूरतें है । और आयु पूर्ण होने पर उस शरीर से छुटकारा पाना कर्तव्य आदि से मुक्त हो जाना ही उसका उस शरीर से मोक्ष है । अतः बताईय़े । कौन सी चीज महत्वहीन है । जिसको समान महत्व न दिया जाय । या व्याख्या करने में उपेक्षित या नकार दिया जाये । अब मान लीजिये । मनुष्य शरीर है । आत्मा से अशरीरी जीवात्मा का शरीर धारण करना शरीर धर्म हुआ । अब केवल शरीर धारण करने का ही तो कोई मतलब नहीं हुआ । क्योंकि शरीर किसी कारण से उपजता है । तो उस कारण और शरीर के अर्थ क्या हैं ? अब विभिन्न वासनाओं और काम मूल का जो यह शरीर रूपी समूह निर्मित हुआ है । वो क्या हैं ? और ये शरीर ( धर्म ) उसका मतलब ( अर्थ ) और उसके कारण संस्कार आदि से निर्मित इच्छायें ( काम ) और फ़िर इसका उद्देश्य पूर्ण होकर इसका त्याग ( मोक्ष ) होना । बताईये । इनमें से कौन सा अमहत्वपूर्ण है । जिसको कम माना जाये । या उसके विषय में बात ( व्याख्या ) करना महत्वपूर्ण न हो ?
२ जब विवेकानंद जी को उनके गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस जी ने अद्वैत का अनुभव कराया । तो विवेकानन्द जी को हर वस्तु मे ब्रह्म नजर आने लगा । निराकार, इन्द्रियातीत परम ब्रह्म को विवेकानन्द जी ने कैसे पहचाना ? उन्हे वो किस तरह दिखाईं दिये ? जिसका न कोई आकार है । न रंग जो इन्द्रियोँ से भी  न जाना जा सके । तो विवेकानन्द जी ने क्या देखा ? मुकेश शर्मा, अलवर ( ई मेल )
उत्तर - मैनें कई बार स्पष्ट किया । विवेकानन्द या कालातीत तमाम अन्य को कब और कौन सा बृह्म नजर आया । या रामकृष्ण ने क्या अनुभव कराया । ऐसी बातों का मेरे लिये कभी कोई महत्व नहीं रहा । मैं ऐसी बातों को विज्ञान के तरह अध्यात्म में खोज हेतु प्रेरणा और संकेत सूत्र अवश्य मानता हूँ । पर एकदम जस का तस सत्य हरगिज नहीं । आप यदि सभी प्रचलित वर्तमान अध्यात्म मंडलों के साहित्य या उनके गुरुओं के बारे में अध्ययन करे । तो तमाम भ्रामक बातें आपको जानने को मिलेगी । यही नहीं जिनका साहित्य उपलब्ध नहीं होगा । उनके बारे में भी सत्य असत्य बातों की भरमार मिलेगी । यहाँ तक कि जिसके बारे में यह कहा गया है । वह पढकर स्वयं भी हंस सकता है कि - ये मेरे बारे में क्या लिखा है । अतः हमें इतिहास से सीखना खोजना जानना अवश्य चाहिये । पर उसी को अक्षरसः सत्य नहीं मान लेना चाहिये । मैंने पहले भी कहा कि मेरे रहते और मेरे बाद भी स्वयं मेरे मंडल और मेरे ही बारे में ऐसी ऐसी बातें प्रचलित हो जायेंगी । जिनका सत्य से दूर दूर तक वास्ता न होगा । मैं कहता हूँ । यदि यह सब सत्य भी हो । तो भी इसको पढने सुनने से किसी को कुछ लाभ नहीं होने वाला । असली सत्य वही है । जो स्वयं आपके अनुभव में आया । और सबसे बढकर आपको उससे कुछ प्राप्ति हुयी । अन्यथा ये व्यर्थ की माथापच्ची और मनोरंजन से अधिक नहीं । अतः मनोरंजन की बजाय मनोमंजन करें ।
अगर आपने थोङा भी बुद्धि का इस्तेमाल किया होता । तो दरअसल ये कोई प्रश्न ही नहीं था । इसका उत्तर दृश्य जगत में ही स्पष्ट है । जैसा कि मैंने कई बार जिक्र किया । परमात्मा की सबसे प्रमुख शक्ति ऊर्जा का रूपांतरित रूप संसार में बिजली है । क्या आज तक बिजली को किसी ने देखा है ? हाँ उसकी शक्ति और आवेश निरंतर अनुभव में आता है । लेकिन जब यह बिजली बल्ब आदि किसी यन्त्र से जुङती है । तो किसी हद तक इसका प्रकट रूप देखा जा सकता है । ठीक यही बात योग में कही जा सकती है कि योगी को उसकी शक्ति आवेश और अंतर रूप प्रकाश नजर आता है । और शरीर में महसूस होता है ।
निराकार से अर्थ इसके इन्द्रियजनित या स्थूल भौतिक आदि आकार से विरोध है । वह ऐसा नहीं है । बल्कि स्वयं प्रकाश है । अतः देखा जा सकता है । मैंने कहा । योग में जब ध्यान एकाग्रता होती है । तो शक्ति आवेश प्रकाश और दिव्य आसमानी ध्वनियां आदि स्पष्ट और साधक की उच्चता अनुसार देर तक और स्पष्ट नजर आते हैं । अतः आपके उपरोक्त शब्द नितांत अनजान व्यक्तियों के शुरूआत्ती पाठयकृम हेतु ही है । न कि अंतिम सत्य । अगर आपने इसके आगे भी पढा होता । तो स्पष्ट वर्णन है । उस निराकार कालातीत इन्द्रियातीत परम को कैसे देखा जाना हुआ जा सकता है । बिजली के बाद सामान्य तत्व हवा आकाश अग्नि को कभी आपने देखा है ? जिसको आप आकाश कहते हैं । वह क्या है ? बङी बारीकी से इस पर गौर करें । जबकि आप आकाश का निरंतर प्रयोग व्यवहार और मान्यता देते हैं । आप कहते हैं । आपको आकाश दिख रहा है । आकाश में बादल है । आकाश साफ़ है आदि आदि । ये आकाश क्या है ? आपको कैसे और क्या दिखता है । मैंने कहा - गहराई से सोचना ?

प्रणाम गुरुदेव
१ यदि अ-मन की अवस्था आ जाये । तो क्या प्रकृति के नियम उस मनुष्य पर काम नहीं करते । वह इस संसार से स्वतंत्र हो जाता है ? क्या यही शून्य अवस्था है ? क्या शून्य अवस्था में मन के साथ-२ बुद्धि का भी लोप हो जाता है ? इस शून्य अवस्था में क्या -२ बचता है ? और मनुष्य इस शून्य अवस्था से आगे किसके आलम्बन के सहारे  बढ़ता है ?  
उत्तर - अध्यात्म इतना सूक्ष्म और गहन विषय है कि यदि मैं इस प्रश्न का विस्त्रत और पूर्ण उत्तर दे दूँ । तो इस मार्ग के साधकों को इसी उत्तर का शोध करने और फ़िर प्रयोगात्मक रूप से जानने में एक या कई जीवन लग सकते हैं । लग जाते हैं । फ़िर भी मुझे पता है । ये प्रश्न मोटे तौर पर और आंशिक भाव ही लिये है ।
इसको एक सजीव उदाहरण से समझिये । कभी कोई डाक्टर या किडनैपर अपने पेशेंट को बेहोशी का इंजेक्शन लगा देता है । और फ़िर इच्छानुसार क्रिया करता है । तब वह मनुष्य अ-मन ही तो होता है । तो प्रकृति कौन सा कार्य नहीं कर रही होती । वह व्यक्ति चीखता चिल्लाता हाथ पैर फ़टकार कर प्रतिरोध भी करता है । पर मन निष्क्रिय होने से यानी शरीर पर उसका नियन्त्रण न होने से ये प्रतिरोध क्षीण और अप्रभावी होता है । परा अपरा दो प्रकृतियां हैं । जिन्हें सरल भाषा में सूक्ष्म और स्थूल कह सकते हैं । जब आप सोते हैं । तब भी लगभग अ-मन ही होते हैं । मगर आपके शरीर को छोङकर पूरी सृष्टि का कार्य बेहद समुचित तरीके से चल रहा होता है । यहाँ तक कि आपके सोते शरीर में भी रक्त प्रवाह प्राण बहना पाचन क्रिया आदि तमाम क्रियायें होती रहती हैं । प्रकृति परमात्मा से प्रकट है । अतः योगियों या साधकों के लिये ( आपके भावनुसार ) प्रकृति के नियम अनुकूल हो जाते हैं । सिर्फ़ परमात्मा और उससे साक्षात्कार हुये योगी पर प्रकृति के नियम कार्य नहीं करते । लेकिन ध्यान रहे । स्वयं परमात्मा या ऐसा योगी प्रकृति से भी परे है । उसकी इस सबमें कोई दिलचस्पी नहीं होती ।
अ-मन की अनेकानेक अवस्थायें स्थितियां हैं । अतः सिर्फ़ परमात्म साक्षात्कार वाले अ-मन को छोङकर वह संसार से मुक्त नहीं होता । हाँ एक लम्बे समय तक दिव्यादि लोकों की प्राप्ति हो जाने को इस मृत्युलोक संसार से स्वतन्त्र हो जाना माना जाय । तो वह हो जाता है । पर ध्यान रहे । वह भी संसार ही है । दीर्घ जीवन और ऐश्वर्यपूर्ण संसार ।
अ-मन होने से शून्य अवस्था आती अवश्य है । पर वह मुक्त रूप से अलग है । मन बुद्धि का लोप नहीं होता । बल्कि इसकी क्षमता और स्तर उच्च हो जाता है । शून्य अवस्था में क्या क्या बचता है । दरअसल आप शून्य अवस्था के बारे में सही तरह से नहीं जानते । सब कुछ बचता है । जो उस शून्य अवस्था को प्राप्त व्यक्ति के पास शेष रहा हो । बुद्ध को शून्य अवस्था हुयी थी । उनके कथनों से आप थोङा तो समझ ही सकते हैं । शून्य अवस्था कोई एक नहीं । कई हैं । अतः इसके बारे में मोटे अन्दाज में नहीं कहा जा सकता । जब तक यह स्पष्ट न हो । आप कहाँ और क्या कह रहे हैं ?
किसी भी योग में मनुष्य सर्वप्रथम गुरुशक्ति तदुपरांत अंतर प्रकाश अंतरध्वनि के सहारे उस स्थिति तक स्वयं द्वारा प्राप्त की हुयी ऊर्जा भक्ति अधिकार ( हक ) और कृपा के द्वारा ही आगे बङता है । यह बात बिलकुल प्रारम्भ से लेकर भक्ति यात्रा के अन्त तक लागू होती है ।
२ आप कहते है कि सम्पूर्ण सृष्टि के जीव एक प्राण से जुड़े हुये है । क्या इसका मतलब यह भी है कि जैसे कोई मनुष्य किसी विशेष देवता की साधना करके उसे साध लेता है । ऐसे ही कोई अन्य मनुष्य भी  उसी देवता को साध लेता । तो क्या दोनों के लिये वो देवता अलग-२ होंगे ? जैसे रामकृष्ण परमहंस काली के साधक थे ।
उत्तर - इस प्रश्न का उत्तर समझना कुछ अधिक कठिन भी नहीं । बल्कि आज के तकनीकी समय में यह प्रश्न ही हंसने योग्य है । जैसे एक मुख्य सर्वर और फ़िर बङे सर्वर और फ़िर अन्य सर्वरों के साथ विश्व के करोङों कम्प्यूटर जुङकर इंटरनेट सेवायें दे रहे हैं । जैसे एक ही बेवपेज को उसकी क्षमता और सर्वर आदि के अनुसार हजारों व्यक्ति एक ही समय पर अलग अलग प्रकार से जानकारी प्राप्त करने और प्रेषित करने में प्रयोग करते हैं । जैसे किसी पूछताछ आदि नम्बर पर जिसमें पहले से ही निर्धारित रिकार्डिड उत्तर होते हैं । उस नम्बर से जोङी गयी क्षमताओं के अनुसार हजारों या लाखों व्यक्ति लाभान्वित होते हैं । जैसे केबल टीवी का एक ही मालिक एक समय में लाखों उपभोक्ताओं को सेवायें दे सकता है । जैसे एक साधारण कम्प्यूटर ही अपनी क्षमता अनुसार एक ही समय में एक से और अलग अलग प्रकार के भी अनेकों कार्य कर सकता है । अगर आप गौर करें । तो ये सब किसी एक ही मुख्य तन्त्र से जुङे उस तन्त्र द्वारा नीचे तक संचालित हो रहे हैं । ठीक उसी प्रकार परमात्मा द्वारा सृजित प्रमुख अन्तःकरण ( गुरु ) से अनेकानेक अन्तःकरण कृमशः स्तर, पद और उपाधियों द्वारा जुङे हुये हैं । जैसे कोई विद्युतवाही तार ही विभिन्न परिपथों द्वारा किसी यन्त्र सयन्त्र को कार्य क्षमता देता है । ऐसे ही समस्त जीव और सृष्टि एक ही चेतना से एक विशाल अति विराट कल्पनातीत अन्दाज में जुङी हुये हैं । अब आपके प्रश्न भाव के अनुसार वह देवता जितनी क्षमता वाला होगा । एक ही समय में उसके अधिकाधिक उतने ही साधक जुङ सकते हैं । अतः वो देवता उनके लिये एक ही होगा । क्योंकि आप यहाँ देवता को सामान्य मनुष्य की तरह देख रहे हैं । जबकि सिद्ध पुरुष और देवता भगवानों आदि द्वारा एक ही समय में कई कई शरीरों से अनेक लोगों से मिलने के कई वर्णन हैं ।
३ सभी धर्म के मनुष्यों का अन्तर मन अलग-२ होता है । तो सभी के मृत्यु के बाद के अनुभव भी अलग-२ होते होंगे । जैसे भारत मे हिंदू धर्म के लोगों को यमराज के दूत ले जाते है । परन्तु क़्या ऐसा अनुभव  किसी वैस्टर्न कल्चर या यूरोपियन लोगों को होता होगा ?
उत्तर - आपसे किसने कहा - अन्तर मन अलग-२ होता है ? सिर्फ़ देश काल जाति धर्म समाज आदि के अनुसार संस्कार पहनावा संस्कृत और भाषा अवश्य अलग हो जाती है । इसके बाबजूद आप किसी अंग्रेज, रसियन, चीनी, फ़्रांसीसी को जोर से डन्डा मार के देखना । शुद्ध हिन्दी में हाय या आह ही निकलेगी । हंसेगा तो हा हा ही ही निकलेगा । रोयेगा तो शुद्ध हिन्दी में ऊं आं ऊं ही निकलेगा । इस तरह सभी मूल क्रियायें मूल ध्वनियां एक ही होगीं । अतः कुछ बाह्य चीजें अलग होती हैं । बाकी अन्तरमन या आंतरिक ढांचा आदि मूलतः समान ही होता है । 
४ गुरुदेव जैसे हमारा सूक्ष्म शरीर काफी पुरातन है । हमारे कई जन्म हो चुके हैं । क्या ऐसे भी जीव या मनुष्य है । जिनका जन्म पहला ही जन्म हो । वो कौन से जीव होंगे । क्या ऎसे भी मनुष्य हैं । जिनका पहला ही जन्म हो । अगर हैं । तो उनका व्यक्तित्व कैसा होता होगा ?  अगर नहीं होते । तो ये जनसंख्या कैसे बढ़ रही है । 

उत्तर - इसका उत्तर भी वर्तमान तकनीक में है । जैसे कम्प्यूटर ( जीव ) के चलन ( आदि सृष्टि ) के समय से कोई एक हार्ड डिस्क ( अंतःकरण ) में एक से एक बढकर अच्छे प्रोग्राम ( एप्लीकेशन ) और एक से एक बढकर घटिया प्रोग्राम ( जीव के विभिन्न संस्कार और कर्म ) क्रियान्वित ( जीवन ) किये जाते रहे हों । यहाँ ध्यान रहे । साधारण जीव अवस्था में कम्प्यूटर ( जीव ) और हार्ड डिस्क ( अन्तःकरण ) ज्ञान या मोक्ष न होने तक अनन्तकाल तक चलते ही रहेंगे । जीव तो निर्लेप और अविनाशी है ही । लेकिन यह अन्तःकरण भी कभी नष्ट या खराब नहीं होता । सिर्फ़ इस पर कर्म, संस्कार का लिखना मिटना निरंतर होता रहता है । और इस पर लिखे कारण संस्कार से ही जीव जन्म मरण मैं तू सृष्टि आदि का बोध मायावश करता है । ज्ञानयोग में यही अन्तःकरण जब फ़ुल फ़ार्मेट ( निर्बीज समाधि से कारण और संस्कार जलना - जबहि नाम ह्रदय धरा अंतर हुआ प्रकाश । जैसे चिनगी आग की परी पुरानी घास ) होता है । उसे आपके भाव अनुसार फ़िर से पहला एकदम नया जन्म कह सकते हैं । और अब आप अन्दाजा लगा सकते हैं । वह कैसा और उसका व्यक्तित्व कैसा होता होगा । वास्तविक स्थित में तो जीव भी अजन्मा ही है । और इसका मरण भी नहीं होता । जन्म मरण बंधन मोक्ष और कल्पित सृष्टि सिर्फ़ मन के धर्म हैं । मन की मायिक रचना है । जो निसंदेह स्वपन चित्र से अधिक सत्य नहीं है । जनसंख्या बढने की बात ये है कि आप अपनी सीमित बुद्धि से इसका अन्दाजा नहीं लगा सकते । सागर ( परमात्मा ) के पानी से कितनी बूंदें ( जीव ) बन सकती हैं । और इसके बाद घूम फ़िर कर कितनी वापिस सागर में आ जाती हैं । और कितनी नई बनती बिगङती रहती हैं । ये मनुष्य बुद्धि से कभी नहीं जाना जा सकता ।
५ जब मनुष्य ऐसी अवस्था प्राप्त करता है । जिस पर प्रकृति का नियंत्रण नहीं रहता । वह कोई भी कार्य करने के लिये स्वतन्त्र है । यदि ऐसी अवस्था में वह कोई ऐसा कार्य कर दे । जो प्रकृति ने डिसाइड ना कर रखा हो । तो क्या प्रकृति का संतुलन बिगड़ जायेगा ?
उत्तर - सती कभी शाप देती नहीं । और वैश्या का शाप फ़लीभूत नहीं होता । अतः निश्चिन्त रहने की बात है । वास्तव में जङ प्रकृति हर स्थिति में मनुष्य के नियन्त्रण में ही है । लेकिन अज्ञान और मायायुक्त स्थिति में द्विपक्ष या प्रकृति को कहीं अलग अनुभव करता है । जैसे एक बच्चा ( जीव ) कोरे कागज ( अन्तःकरण ) पर एक सुन्दर चित्र ( मन अनुकूल ) बना सकता है । और भद्दा या डरावना ( मन प्रतिकूल ) भी बना सकता है । लेकिन इससे कागज या चित्र ( प्रकृति ) या रंग ( गुण ) आदि पर कोई असर नहीं पङता । और वह सुन्दर या भद्दा प्रिय अप्रिय भी मन को ही लग रहा है । और भी वास्तव में वहाँ सिर्फ़ मन के रंग ही बिखरे हैं । चाहे उन्हें अच्छा बुरा कैसा भी कह लो । प्रकृति ने क्या डिसाइड कर रखा है ? और उसका सन्तुलन कैसे बिगङ जायेगा । अभी मैं इसका मतलब ठीक से समझा नहीं ।
मुकेश शर्मा, अलवर ( राजस्थान ) ( ई मेल ) 

20 मार्च 2014

चन्द्रमा सूर्य पर है क्या ?

महाराज जी प्रणाम ! प्रश्न 1 - कालपुरुष की भी आयु है । तो जब अगली बार लाखों साल बाद जब कोई नया व्यक्ति कालपुरुष के पद पर आएगा । तो क्या उसका स्वभाव बदला हुआ नहीं होगा ? ताकि वो जीवों को भरमाना छोड़ दे । 
- काल काल सब कोई कहे । काल न जाने कोय । जेती मन की कल्पना काल कहावे सोय । काल पुरुष यानी समय पुरुष यानी मन यानी खुदा । जैसा कि मैंने एक उत्तर में बताया । एक मूल आत्मा को छोङकर शेष सभी स्थितियां उपाधियां महज अंतःकरण यानी सूक्ष्म शरीर ही हैं । ये खेल बनने के बाद विभिन्न जीवात्मा विभिन्न योग भक्तियों द्वारा अनेकानेक विभिन्न स्थितियों को प्राप्त होते रहे हैं । और जब तक वे मूल आत्मा नहीं हो जाते । जिसका कोई स्वभाव ही नहीं है । तब तक उस उपाधि को प्राप्त हुये पुरुष जीव का निज स्वभाव क्रियाशील रहता है । लेकिन कालपुरुष की क्रूरता या छलभेद आदि उसके निज स्वभाव की न होकर सृष्टि नियम के अंतर्गत है । वह जीवों को सिर्फ़ सताता ही नहीं है । उनके कर्म अनुसार स्वर्गिक भोग आराम सुख आदि भी देता है । यदि कोई पुलिस वाला या जेलर जघन्य अपराधियों के प्रति दयालु हो जाये । तो सामान्य और सज्जन लोगों का जीना कठिन हो जायेगा । इसलिये काल के सभी कार्य नियम अंतर्गत है । अकारण वह किसी को एक तिनका बराबर कष्ट नहीं दे सकता ।
प्रश्न 2 - अगर सूक्ष्म शरीर से सूर्य पर जायें । तो क्या स्थूल शरीर को गर्मी लगेगी । या जल जायेगा ? 
- यहाँ ध्यान रखने योग्य बात ये है कि सभी साधनायें यदि वैधानिक तरीके से की जायें । तो वह उसके अधिकारी वर्तमान सशरीर गुरु द्वारा ही संभव हैं । और यदि साधक ऐसे विधिवत साधना करता है । तो वह नियम कानून के अंतर्गत साधना कर रहा है । अतः ऐसी कोई समस्या नहीं होती । दूसरी साधना की खास बात यह होती है कि - आप जिस भी स्थान पर यात्रा करते हैं । वहाँ के नियम कानून और पर्यावरण आदि के हिसाब से आपको वही तन्त्र ( सूक्ष्म शरीर आदि ) उपलब्ध हो जाता है । अतः स्थूल शरीर को कोई नुकसान नहीं होता । हाँ कोई कोई अधकचरे मनमुख या हठयोगी अवश्य ऐसी स्थिति का शिकार हो जाते हैं । इसके प्रसिद्ध उदाहरण में गीधराज जटायु का भाई संपाति ( जिसने हनुमान और वानर सेना को लंका और सीता का पता बताया था ) ऐसी ही स्थिति का शिकार हुआ था । अतः साधक जलता नहीं है । तमाम सूर्य साधनायें हैं । जिनमें स्वयं सूर्य ही पास में प्रकट हो जाता है । तब भी कोई नहीं जलता । ये स्थिति सिर्फ़ बाह्य जगत या अनियम पर लागू होती है ।
प्रश्न 3 - चन्द्रलोक, सूर्यलोक क्रमश चन्द्रमा सूर्य पर है क्या ?
- ये सभी विभिन्न लोक एक तरह से सृष्टि का प्रशासन है । जो अपना अपना निर्धारित कार्य करते हैं । वैसे यहाँ दिव्य अंतकरण और विभिन्न दिव्य स्थितियों को प्राप्त हुयी जीवात्मायें हैं । और सब कुछ थोङे परिवर्तन के साथ अलग अलग लोकों में वैसा ही है । जैसा आप स्वर्ग या फ़िर इसी प्रथ्वी पर सुनते देखते हैं । सूर्य पुत्र कर्ण मृत्युपरांत वापस सूर्यलोक ही चला गया था ।
प्रश्न 4 - जीवों को चेताने का क्या लाभ है ?
- द्वैत या अद्वैत के सत्य ज्ञान की बात हो । या सिर्फ़ जीवों को शुद्ध आचरण की तरफ़ प्रेरित उन्मुख करना हो । या सिर्फ़ भलाई की तरफ़ प्रेरित करना हो । आप अच्छी तरह जानते हैं । ये सभी अपने बदलाव के स्तर पर उसी % में सुख का कारण बनते हैं । और दूसरे को सुखी करना स्वयं भी सुखी होने का कारण है । उपाय है । जीवन की भाषा में इससे पुण्य का निर्माण होता है । यदि आपने किसी जीव को द्वैत के लिये चेता दिया । और उसे स्वर्ग या कोई देव पद प्राप्त हुआ । तो इसका पुण्यफ़ल आपको भी नियमानुसार निर्धारित उसी % में मिलेगा । जितना उसकी प्राप्ति में आपका योगदान और भूमिका थी । वैसे केवल यहीं किसी का जीवन स्तर ऊँचा उठाने और उसे सुखी करने का फ़ल भी है । उसका भी अच्छा पुण्य है । लेकिन सोचिये । आप किसी जीव को आत्मज्ञान की ओर प्रेरित कर उन्मुख कर हमेशा के लिये आवागमन से मुक्त और दुःखरहित आनन्द पूर्ण जीवन की ओर ले जाने का कारण बनते हैं । तो उसका पुण्यफ़ल कितना होगा ? कल्पना से बाहर । और जब तक वह जीव भजन भक्ति आदि से प्रकाशित होता रहेगा । आपका भाग उसमें स्वयं बनता रहेगा । एक निश्चित समय तक । जिस तरह देवताओं को यज्ञादि में भाग मिलता है । आप अच्छी तरह जानते हैं । संसार की बङी से बङी संपदा से पारलौकिक कुछ नहीं खरीदा जा सकता । अतः परलोक जहाँ यहीं सतकर्म और भक्ति आदि धन काम आता है । वहाँ ऐसी विपत्ति में जो सहायक बने । उसका पुण्य बहुत होगा । धन दो ही है । एक नाशवान भौतिक धन । इसका क्षय हो जाता है । दूसरा अविनाशी अक्षय धन । जिसका क्षय नहीं होता । और जो अशरीर होने पर काम आता है । जिससे नर्क और 84 आदि दूसरे कष्टों का निवारण भी हो जाता है ।
प्रश्न 5 - यमदूत कैसे पहचानते हैं । मरने वालों को ? और क्या उनसे भागकर बचा नहीं जा सकता ?
- ये अखिल सृष्टि वास्तव में एक ही प्राण से आन्दोलित है । जीवन्त है । यानी इसी एक चेतना की डोरी में सभी जीवन गुंथे हुये हैं । फ़िर इनके अति विशाल समूह से बने हुये हैं । और उन समूहों को विभिन्न स्तरों पर नियन्त्रित पोषित करने वाले अधिकारी भी नियुक्त हैं । अतः हर जीव का एक ( उस जीवन का ) अलग कोड भी है । और फ़िर अंतःकरण से काफ़ी पहले से करीब एक महीने पहले से किसी जीव के मरने का पता होता है । पता तो वैसे उसके पैदा होते समय ही होता है । पर उन्हें खास तभी मतलब होता है । जब उसका नम्बर आने वाला हो । तो जैसे अपने मोबायल फ़ोन या अन्य प्रकारों में मशीनरी प्रशासनिक तन्त्र उपभोक्ता आदि को जान लेता है । यमदूत भी जान लेते हैं । भाग इसलिये नहीं सकते । क्योंकि शरीर ही उससे पहले छूटने लगता है । छूट जाता है । वैसे भी वह हर तरह से मरने वाले जीवात्मा की तुलना में शक्तिशाली और गति वाले होते हैं । अतः नहीं भाग सकते ।
प्रश्न 6 - क्या कालपुरुष को ही महाब्रह्मा, महाविष्णु, महाशंकर भी कहते है ?
- नहीं । कालपुरुष अलग है । और यह सब अलग हैं । इनको समझाना थोङा कठिन है । और उसका कुछ लाभ भी नहीं है ।
प्रश्न 7 - देवता और भगवान में क्या अंतर है ? देवता और भगवान कौन कौन हैं । उदाहरण देकर बताईये । 
- ये दोनों ही कामन, उपाधियों और गुणों को प्रदर्शित करने वाले शब्द हैं । मगर दोनों ही अलग अलग दिव्यता को प्राप्त हुयी स्थितियां हैं । और दोनों में कुछ चीजें संयुक्त भी हैं । इन्द्र वरुण आदि को देवता कह सकते हैं । भगवान नहीं । और शंकर विष्णु आदि को देवता और भगवान दोनों कहा जाता है । इसी स्तर के ऋषि महर्षि सन्तों आदि को भी भगवान कहा जाता है ।
प्रश्न 8 - जब तक किसी ने परमात्मा की अंतिम अवस्था को प्राप्त नहीं किया है । तो क्या तब तक ये माना जायेगा कि उसे आत्मज्ञान नहीं हुआ है ?
- अगर पूर्ण आत्मज्ञान की बात की जाये । तो यही सत्य है कि आदि सृष्टि से पूर्व जब आत्मा था । जैसा था । जैसा है । उसी को जानने को ही सही मायनों में आत्मज्ञान कहा जाता है । पर अब सिर्फ़ इसी को आत्मज्ञान नहीं कहते । बृह्मांड की चोटी से ऊपर महासुन्न घाटी मैदान को पार करके जब सचखंड की सीमा शुरू हो जाती है । यह काल से परे का क्षेत्र है । इसी सचखंड में पहुंचे हुये को भी आत्मा के ज्ञानी कहा जा सकता है । क्योंकि ये अमरता को प्राप्त हो जाता है । लेकिन यहाँ भी बहुत स्थितियां हैं ।
प्रश्न 9 - जैसे किसी शिष्य ने अपनी नाम कमाई से इसी जन्म में परमहंस तक की स्थिति को प्राप्त कर लिया है । तो क्या परमात्मा में लीन होने तक का अन्तिम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए फिर से मनुष्य जन्म लेना पड़ेगा ? ( या ये प्रश्न ऐसे भी पूछ रहा हूँ ) कबीर के सभी लगभग 10 हजार शिष्यों में से 4 को पूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ था । फिर अंत तक का ज्ञान प्राप्त कैसे करें ? 
- जैसा कि विभिन्न सन्त वाणियों में कहा गया । एकदम अन्त तक का ज्ञान लाखों करोङों में किसी बिरले को ही प्राप्त हो पाता है । इसके पीछे उस व्यक्ति के पूर्व तथा वर्तमान जन्मों के पुण्य संस्कार, ज्ञान के प्रति गहन जिज्ञासा तथा सबसे बढकर परम लक्ष्य की तरफ़ चलने में जो त्याग मेहनत लगन संघर्ष पीङा अपमान और सूली पर लटकने के समान ऊँच नीच अनुभव ( एक बार विभिन्न सन्तों के जीवन चरित में ऐसी घटनाओं को याद करें ) आदि होते हैं । और इसमें जिस कङी पात्रता से गुजरना होता है । यदि यह सब किसी संयोग से बन जायें । तो फ़िर कोई कारण नहीं कि अंतिम लक्ष्य प्राप्त न हो । इसको इस तरह कहा जाता है - गुरु शिष्य और ज्ञान । ये तीनों पूर्ण हों । तो परम लक्ष्य मिल जाता है । अब आपके प्रश्न भाव के अनुसार किसी कारणवश ऐसी स्थिति बने कि अच्छी नाम कमाई और परमहंस स्थिति के बाद अभी यात्रा के साथ उसकी प्यास और चाहत शेष है । तो निश्चय ही अगला जन्म मनुष्य का होगा । वास्तव में एक मोटे अन्दाज में कहा जाये । तो बुद्ध महावीर ओशो आदि इसी प्रकार के जन्म थे । खुद आपका जन्म इसी प्रकार का है । भले ही उसका स्तर अभी ( पूर्व ) 8% है । जबकि उपरोक्त का 30-40% तक था । कबीर शिष्य धर्मदास को 4 जन्म में ज्ञान हुआ था । वो भी सब त्याग कर यहाँ तक सुराही पंखा तक फ़ेंक दिया था । अन्त तक के ज्ञान के लिये जब तक अन्त हो न जाये । प्यास और समग्र पात्रता बना रहना आवश्यक है ।
प्रश्न 10 - क्या मोक्ष मिलने के बाद जीवात्मा का अपना अस्तित्व समाप्त हो जाता है ?
- क्या कोई मेडीकल का छात्र पढकर जब डाक्टर रूप में नियुक्त हो जाता है । तो उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है ? या किसी व्यक्ति का विवाह हो जाता है । तो उसमें कुछ ऐसा परिवर्तन हो जाता है । जो अभी तक नहीं था । क्या कोई राजा से रंक हो जाता है । तो राजा रंक से रहित उसका मूल अस्तित्व खत्म हो जाता है । ये सब एक ही चेतन आत्मा के कर्मयोग और ज्ञानयोग द्वारा होने वाले असंख्य अंतःकरण रूपांतरण और स्थिति रूपांतरण हैं । जबकि उसके मूल में कोई बदलाव नहीं होता । बाह्य और अस्थायी जीवन रूप बदलते रहते हैं । आंतरिक या मूल या निज जिसे स्वरूप कहते हैं । वह ज्यों का त्यों रहता है । जैसे एक ही अभिनेता विभिन्न मेकअप में हजारों अच्छी बुरी भूमिकायें निभाने के बाद भी अपने मूल में एक ही पहचान का होता है । और वही असली है ।

अनहद नाद सुनने के लाभ

प्रश्न 11 - क्या अवतार के भी अवतार होते हैं ?
- हाँ अवतार के भी अवतार होते हैं लेकिन ये इस पर निर्भर है कि स्वयं उस अवतार या दिव्य शक्ति की क्षमता क्या है ? सरलता से अवतार का मतलब ऐसे समझो । जैसे एक प्रभावशाली और अधिकारी व्यक्ति एक या दस या सौ लोगों को स्व हस्ताक्षरित कागज पर अपनी क्षमता के अन्दर कोई भी कार्य लिख दे तो सम्बन्धित जगह वह कार्य होगा ही । जैसे कोई व्यक्ति अपने ए टी एम कार्ड से जमा राशि के आधार पर कुछ भी सेवायें प्राप्त कर सकता है । मैंने कई बार बताया । शक्ति और धन और अधिकार इनकी लङाई आत्म क्षेत्र में भी काफ़ी ऊपर तक है । जबकि द्वैत का तो सर्वोच्च पद भी सिर्फ़ इन्हीं तीन पर निर्भर है । जहाँ कोई भी जीवात्मा कृमशः ज्ञान स्थिति द्वारा निरुपाधि निरस्थिति निःअक्षर हो जाता है । वहाँ ये सब समाप्त हो जाता है । फ़िर वह सब कुछ होते हुये भी कुछ नहीं होता । एक बार ऐसा हो जाने पर वह स्वेच्छावश किसी भी सृष्टि स्थिति में रूप धरना चाहे । उस पर कोई नियम लागू नहीं होता । क्योंकि वह पूर्ण ज्ञान स्थिति में होता है ।
प्रश्न 12 - सूक्ष्म शरीर हमारे स्थूल शरीर की नाभि से एक पतले तंतु रजत रज्जू से जुड़ा होता है । ये रजत रज्जू क्या होता है ?
- वास्तव में हमारे शरीर की सभी यानी बाल से भी महीन नाङियों में एक विद्युत धारा बहती है । खास मस्तिष्क में तो ये विशेष रूप से दौङती रहती है । जो मूल चेतना का दैहिक ऊर्जा रूपांतरण है । तो रजत चांदी से और रस्सी रज्जु से कहा जाता है । अब रजत को समझो । ये दरअसल आसमानी बिजली की चमक की एक अति क्षीण से क्षीण किरण को रजत रज्जु कह सकते हैं । र कहते हैं चेतना (शरीर ऊर्जा) को । ज कहते हैं जङता (चेतना रहित शरीर) को और त कहा गया है , इन दोनों की संयुक्त स्थिति को । 
तो ये सच है कि इसी बेहद चमकीले धवल प्रकाश की किरण के बेहद बारीक से अति क्षीण तन्तु डोरी से सूक्ष्म शरीर से स्थूल शरीर संयुक्त होता है लेकिन ध्यान रहे कि इसको रज्जु डोरी आदि कहा अवश्य जाता है । पर किसी भी विद्युत धारा के समान ये डोरी वगैरह कुछ नहीं होती । जैसे कि विद्युत धारा भी किसी धारा या डोरी के समान ही मानी जा सकती है । किसी प्रकाश किरण का भी कोई पदार्थिक या भौतिक अस्तित्व मानने को बाध्य होना पङता है  पर यथार्थ में क्या इनका कोई ऐसा अस्तित्व होता है ? यही बेहद बिडंवना
है । यही बेहद अजीब खेल है कि कोई चीज जितनी है भी और उतनी ही नहीं भी है ।
प्रश्न 13 - अगर कोई योगी सूक्ष्म शरीर से यात्रा करे तो क्या ये रजत रज्जू टूटने का खतरा भी रहता है ? और अगर टूट जाये तो क्या मृत्यु भी हो सकती है । 
- जो योगी सूक्ष्म शरीर से यात्रा कर सकने की स्थिति में होगा । उसने इससे पहले कितनी ज्ञान यात्रा कितना अभ्यास किया होगा ? तब यहाँ पहुंचा । क्या लालाराम हलवाई को अंतरिक्ष यात्रा हेतु नासा के अंतरिक्ष यान में भेजा जा सकता है ? कोई भी योगी ही तब बन पाता है । जब इस तरह के शिक्षण प्रशिक्षण से गुजर कर सफ़लता पूर्वक पार हो जाता है । अतः ऐसा होना संभव ही नहीं । अतः फ़िर कोई खतरा नहीं होता ।
क्योंकि - डर के आगे ही जीत है ।

प्रश्न 14 - अनहद नाद सुनने से क्या लाभ है ?
- अनहद नाद यानी निःअक्षर से प्रेरित चेतित अक्षर की विभिन्न स्थितियां विभिन्न मंजिलें । इसी से सृष्टि प्रतिपल सृजित और क्षरण भी हो रही है । प्रतिपल निर्माण और विध्वंस भी इसी से हो रहा है । तब इस अनहद नाद मूल ॐकार का भी मूल ररंकार को सुनना कितने प्रकार के लाभ दे सकता है । वर्णन असंभव है । 
क्योंकि इससे पूरी सृष्टि को खुद को भी न सिर्फ़ जाना जा सकता है वरन नियन्त्रित भी किया जा सकता है । ध्यान रहे सृष्टि शब्द में सिर्फ़ प्रकृति ही नहीं । सभी महा शक्तियां दिव्य शक्तियां आदि भी आ जाती हैं । क्या आप भौतिक जगत के ही बिजली सूर्य वायु जल वनस्पति आदि से लिये जा सकने वाले लाभों को बता सकते हैं ? या कितने लोग इन सम्पदाओं का पूर्णरूपेण लाभ ले पाते हैं ? सच में न के बराबर ।
प्रश्न 15 - ऐसी कौन सी साधनां है । जिनमें ईश्वर से (ध्यानवस्था) में बात की जा सकती है ?
- यहाँ मेरे लिये ईश्वर शब्द से क्या तात्पर्य है । ये समझना बेहद कठिन है । क्योंकि दिव्य सृष्टि में तो ईश्वरों की भरमार ही है । हाँ आपने जो भी इष्ट जो भी मन्त्र जो भी तन्त्र जो भी ज्ञान जो भी गुरु धारण किया है । उसके सफ़लता पूर्वक सिद्ध हो जाने पर उस इष्ट या ईश्वर से अवश्य बात की जा सकती है और सच तो ये है कि सिद्ध हो जाने के बाद किसी ध्यान अवस्था की भी आवश्यकता नहीं । क्योंकि सिद्ध होने का मतलब ही है । एक हो जाना । उससे मिल जाना ।
प्रश्न 16 - कागभुसुंडि कौन है ?
- कागभुसुंडि एक ऋषि हुये हैं । वैसे ये एक ऋषि उपाधि भी है । ये एक शरीर का क्रिया अंग भी है । गले में काग का स्थान ही कागभुसुंडि का स्थान है । काग कौये को और भुसुंडि सूंड को कहा जाता है । गले के काग का आकार किसी सूंड के समान ही होता है । ये जीवात्मा की एक प्रकार की योग यात्रा का रूपक भी है । कागभुसुंडि के बारे में तुलसी के रामचरित मानस के उत्तर कांड में विस्तार से पढ सकते हैं ।
प्रश्न 17 - क्या हैं (धुनात्मक नाम) को निःअक्षर कह सकते हैं ?
- निःअक्षर या सार शब्द एक ही बात होती है और ये ही सृष्टि के किसी भी ज्ञान या आत्मज्ञान की सर्वोच्च उपलब्धि है । यह ध्वनि निरंतर सुनाई नहीं देती । बल्कि प्रकट होती है । तब जब मन या जीव विचार शून्य ही नहीं । सृष्टि शून्य भी हो जाता है । वास्तव में यही सार शब्द असली परमात्मा से मिलाता है । बाकी निरंकार ररंकार हंग छंग आदि की ध्वनियां प्रकट होने के बाद निरंतर सुनाई देती रहती हैं । जिनमें सोऽहंग सबसे स्थूल है । जो बिना किसी दीक्षा बिना किसी ज्ञान के थोङे ही प्रयास से सांसों पर ध्यान देने से सुन सकते हैं ।
प्रश्न 18 - क्या सभी परमहंस वाले गुरु संतमत वाले होते हैं ?
- असल में गुरु, सदगुरु, ऋषि, महर्षि आदि आदि सनातन ज्ञान उपाधियों का आजकल पाखंडियों ने मतलब ही बदल कर रख दिया है । हंऽस या हंऽसो क्योंकि शुद्ध (जीव) आत्मा ही है और वास्तविक आत्मज्ञान सिर्फ़ सन्तमत से ही संभव है । अतः शुद्ध रूप में कहा जाये तो परमहंस वाले सन्तमत के ही हुये पर बाद में समतुल्य स्थितियों में कुन्डलिनी आदि द्वैत ज्ञान में भी लोगों ने परमहंस शब्द जोङ दिया । 
परमहंस का मतलब हंस जीवात्मा की स्थिति परमात्म क्षेत्र में है और ये स्थिति पूरी हो जाने पर आगे और भी स्थितियां हैं पर एक मूल भाव में हंस परम को प्राप्त हो गया । यानी परमात्मा को जान लिया । तब ऐसे लोगों को सदगुरु या परमहंस ही भी कह देते हैं ।
प्रश्न 19 - आपके यहाँ आज्ञा चक्र के अलावा बाकी चक्र क्यों नहीं जाग्रत करते ?
- आपने समझने में भूल की है । सहज योग लय योग है यानी इसमें अखिल सृष्टि के सभी योगों का लय होता है । इसको ऐसे भी कहा जाता है -
जिसको जान लेने पर सब जाना हुआ हो जाता है । हे श्वेतकेतु ! तूने उसको जाना ? 
तो कहने का अर्थ हमारे मंडल में भृंग गुरु और विहंगम योग का तरीका है । इसलिये आज्ञा चक्र जाग्रत करते ही कुन्डलिनी और नीचे के सभी चक्र स्वतः जाग्रत हो जाते हैं । जो उस शिष्य साधक को आगे अनुभव में आते हैं । अच्छे पात्र साधकों को हमारे यहाँ शीघ्र ही `कारण शरीर' से जोङ दिया जाता है । तब वह जन्म जन्मांतरों से संचित आवागमन और बारबार जन्म के कारणों को योग अग्नि से जलाकर मुक्त होने की ओर तेजी से बढता है ।
प्रश्न 20 - आज्ञा चक्र जाग्रत करने के बाद उसी समय से रोज रोज अशरीरी जैसे भूत प्रेत खुली आँखों से दिखने लगेंगे ?
- आज्ञाचक्र ज्ञाग्रत होना या तीसरी आंख खुलना एक ही बात है लेकिन शुरूआत में साधक को जब आज्ञाचक्र पर ध्यान टिकने का अभ्यास और अंतःकरण मलिन वासनाओं से स्वच्छ होने लगे । तब ऐसी स्थिति होती है । और इसके साथ अधिकाधिक समय योग को दिया जाय लेकिन जो साधक निरन्तर अभ्यासी है । वह ध्यान करते समय यदि संस्कारवश या कारणवश किसी ऐसे स्थान पर हैं । जहाँ ऐसे अशरीरी प्रेतादि मौजूद हैं । तो वह दिखते हैं और उसी समय साधक आंखें खोल ले और भले ही अर्द्ध ध्यान जैसी अवस्था हो । तो वह स्थान और वे छायायें या अशरीरी आदि उसी स्थान पर खुली आंखों से भी दिखेंगे ।  

शिव और शंकर एक ही नहीं है

प्रश्न 21 - सूक्ष्म बाडी और प्रेत बाडी में क्या अंतर होता है ?
- अकाल मृत्यु को प्राप्त हुये प्रेत बने जीव के शरीर और सूक्ष्म शरीर में कोई अन्तर नहीं होता । पर डाकिनी शाकिनी वेताल आदि इनके शरीर पर उसी अनुसार शरीर होता है । यह अलग होता है ।
प्रश्न 22 - भूत और प्रेत में क्या अंतर है ?
- मेरी जानकारी के अनुसार भूत सिर्फ़ गुजरे हुये समय को कहते हैं । सही शब्द प्रेत ही है । फ़िर भी इसी भावार्थ पर जीवन से अजीवन हुये किसी जीवात्मा को किसी भाव में भूत कह दिया होगा । पर ऐसा कहने के पीछे मूल क्या है ? मुझे ज्ञात नहीं । वैसे भी शब्दों की जगह क्रिया मेरा क्षेत्र सदैव रहा है ।
प्रश्न 23 - जीवन रस क्या होता है ?
- मूलतः जो सात्विक प्राण चेतना जीवों के शरीर में बहती है । उसे ही जीवन रस कहते हैं । इसी रस से किसी कारणवश क्षीण हुये पंचतत्व भी पुष्ट होते रहते हैं । शरीर मन अंतःकरण भावशुद्धि यहाँ तक कि भाग्य आदि भी इसी शुद्ध सात्विक चेतना पर ही निर्भर हैं । किसी भी योग की शुरूआत यहीं से होती है । साधारण प्राणायाम क्रियायें अनुलोम विलोम और फ़िर ध्यान सम्बन्धित योग क्रियायें इसी जीवन रस को पुष्ट करती हैं । इस पर तो बहुत कुछ लिखा जा सकता है ।
प्रश्न 24 - कृत्या क्या होता है ?
- कृत्य किसी कार्य करने को कहते हैं । तो जाहिर है कि कृत्या कोई ऐसा निर्माण जिसे किसी कार्य विशेष हेतु बनाया गया हो । अतः ये अच्छे बुरे दोनों प्रकार की हो सकती है । और दोनों उद्देश्यों हेतु भी हो सकती है । जिस प्रकार मारण मोहन वशीकरण आदि करने वाले कपङे काठ या मिट्टी की आकृति में कृत्या आरोपित करते हैं । और सिद्ध शक्तियां किसी भी चीज को कृत्या में बदल सकती हैं । इसमें मुख्य बात उनकी ताकत और सिद्ध क्षमता क्या है ? इस पर निर्भर है ।
प्रश्न 25 - हँस ज्ञान के बाद आत्मा सार सार को ही गृहण करती है । और असार त्यागती चली जाती है ।  सार और असार का मतलब क्या है ?
- यदि संक्षेप में कहा जाये । तो चेतनता सार है । और जङता असार है । यानी शरीर, और मन कल्पित सृष्टि के जङ पदार्थों से जीवात्मा के पांच प्रबल शत्रु - काम क्रोध लोभ मोह मद भावनाओं के साथ पूर्ण अज्ञान से जुङे रहना मोहित होना असार है । और कृमश ज्ञान द्वारा इनका क्षरण होते जाना ही सार है । संसार अज्ञान अंधकार भृम या माया का नाम है । और आत्मा ज्ञान प्रकाश सत्य और शाश्वत का नाम है । हंस की यात्रा इसी असार से सार की ओर होती है । कितनी हो सके । ये शिष्य पर निर्भर होता है ।
प्रश्न 26 - शंकर, दुर्गा, विष्णु आदि ये आरतियाँ किसने लिखी है ?
- कुछ आरतियां तो मूल ग्रन्थों से ही ली गयीं हैं । जो सत्य के अधिक करीब हैं । कुछ का हिन्दी रूपांतरण धर्म ग्रन्थों के स्तुति श्लोकों के आधार पर किया गया है । कुछ प्रसिद्ध भक्तों की वाणियों के तौर पर भी हैं । और कुछ भक्त कवियों ( अंतर ज्ञानी नहीं ) ने रचना की है । कुछ एकदम साधारण प्रकार के कवियों ने भी लिख दी हैं । जैसा आजकल देहाती धार्मिक लोक कथाओं के क्षेत्र में प्रायः देखने में आ रहा है । फ़िर भी कोई एकदम सटीक और वैज्ञानिक आध्यात्मिकता युक्त आरती मेरी नजर में आज तक नहीं आयी । आरती शब्द आर्त ( दुख ) भाव यानी दुख में की गयी प्रार्थना को कहा गया है । बेहद प्रसिद्ध आरती " ॐ जय जगदीश हरे " बनारस के किन्हीं व्यक्ति द्वारा लिखी गयी है । जिनका नाम अभी मुझे याद नहीं आ रहा ।
प्रश्न 27 - क्या इन नरकों में जानवर जैसे कुत्ते, जीव जन्तु भी सजा भोग रहे हैं ?
- जैसे ही मत्यु होती है । मनुष्य का स्थूल शरीर या आवरण छूट जाता है । और अंतःकरण यानी सूक्ष्म शरीर अलग हो जाता है । अब मान लो । उस जीवात्मा को देव योनि या स्वर्गादि प्राप्त हुआ । तो उसे उसी अंतःकरण रूपी सूक्ष्म शरीर पर दिव्य शरीर वस्त्र की तरह पहना दिया जाता है । सिद्ध लोक या गंधर्व या तांत्रिक या चित्र विचित्र लोक आदि गया । तो नियमानुसार वैसा ही शरीर सूक्ष्म शरीर के ऊपर पहना दिया जायेगा । ठीक इसी प्रकार नर्क में किस प्रकार का नर्क मिला है । उसी आधार पर " यातना शरीर " होता है । जो सूक्ष्म शरीर पर आवरित हो जाता है । अब कुत्ते बिल्ली आदि जानवर तो पहले ही नर्क समान भोग भोगते हुये भोग योनियों में हैं । तो फ़िर उन्हें अलग से नर्क की क्या आवश्यकता ? मनुष्य को छोङकर सभी भोग योनियां हैं । अतः वे ज्यों के त्यों ही रहते हैं । अर्थात सिर्फ़ पापी मनुष्य जीव ही नर्क भोगते हैं ।
प्रश्न 28 - क्या जानवरों में कुंडलिनी चक्र होते हैं ?
- देवताओं के शरीर में सिर्फ़ बह्मांड होता है । पिंड नहीं होता । जानवरों के शरीर में सिर्फ़ पिंड होता है । बह्मांड नहीं होता । और मनुष्य शरीर में पिंड बह्मांड दोनों होते हैं । इसलिये जानवरों के शरीर में कुन्डलिनी चक्र नहीं होते हैं । सच तो ये है । अलग अलग प्रकार के जीव जन्तुओं में मनुष्य के समान सभी पंच तत्व भी नहीं होते । किसी में चार । किसी में तीन । दो । एक । इस प्रकार तत्व होते हैं । जिसमें जो भी तत्व मूल होता है । उसे छोङकर बाकी तत्व क्षीण या ना समान होते हैं । जबकि मनुष्य में पंच तत्व समान होते हैं । देवताओं के तत्व अलग और इन पंच तत्व से हटकर होते हैं ।
प्रश्न 29 - शिव शक्ति कल्याणकारी महाशक्ति है । क्या इसे ही कुंडलिनी शक्ति कहते है ?
- कल्याणकारी और महामाया दोनों शब्दों का अन्तर देखो । कुंडलिनी को महामाया कहा जाता है । और शिव को कल्याणकारी । वास्तव में शिव शक्ति को सरल तरीके से कहा जाये । तो यही वो उपाधि है । जो समस्त जीवों को सात्विक चेतना प्रदान करती है । इसीलिये सिवोहम मन्त्र सार्थक भी है । क्योंकि मूल सात्विक चेतना के बिना कोई जीवन स्पंदन संभव ही नही है । शिव का अर्थ एक भाव में समग्र से भी है । और शिव से जुङा या शिव को जानने वाला समग्र को जान सकता है । फ़िर से ध्यान रखना । शिव और शंकर एक ही नहीं है । इन दोनों में जमीन आसमान जैसा ही अन्तर है । आमतौर पर टीकाकारों ने या कालमाया के जाल ने या अन्य किसी कारणवश शिव की मुक्त रूप और वास्तविक उपासना विधि आदि आज तक मेरी नजर में नहीं आयी । और जो भी आयीं । उनमें शंकर और शिव को एक कर दिया गया । हालांकि थोङे से ही सरल शोधन द्वारा इस भ्रांति को दूर किया जा सकता है । पर कम से कम मेरे पास इसके लिये समय नहीं । और जैसा समय आने वाला है । उसमें इसका कोई उपयोग भी नहीं है । क्योंकि सनातन या आत्मज्ञान भक्ति में शिव से परिचय आप ही हो जाता है । और अब उसी का समय आ रहा है ।
प्रश्न 30 - 1 पालिंग कितना होता है ?
- 1 पालिंग 3 लोक के बराबर  होता है । और सचखंड के दीप और ऊपरी लोक लाखों करोङों पालिंग से भी अधिक माप के हैं । जिनकी गणना पदम महापदम असंख्य महापदम कहकर वर्णित की गयी है ।

क्रियायोग क्या है ?

प्रश्न 31 - तीसरी आँख के तरह तीसरा कान भी होता है । इसके बारे में कुछ और भी जानकारी दीजिये । 
उत्तर - जिनको बाह्य रूप से दो कान या दो आंख कहते जानते हैं । वे वास्तव में उसी मूल आंख कान से जुङे हैं । जो आध्यात्म की भाषा में दृष्टा कहा जाता है और सन्तमत में इनको सुरति (सुनना) निरति (देखना) कहा गया है । इसमें विस्तार जैसा कुछ नहीं । पूरी दुनियां में दृश्य, श्रव्य (या ध्वनि और प्रकाश के रंग) दो ही चीजें हैं जो माया के पर्दे पर घटित हो रहीं हैं ।
प्रश्न 32 - 7 दीप 9 खण्ड कौन कौन से होते हैं ?
उत्तर -
सात दीप नवखण्ड में, सतगुरु फ़ेंकी डोर ।
ता पर हंसा न चढ़े, तो सतगुरु की का खोर ।
स्पष्टत यह दोहा इस मनुष्य शरीर और बृह्मांड दोनों को लक्ष्य कर कह रहा है । यथा पिंडे तत बह्मांडे के आधार पर भी यह सटीक है । सात दीप इस मनुष्य शरीर में सात चक्रों को कहा गया है । प्रतीकात्मक नहीं कहा गया । वे दीप ही हैं और यहाँ मुख्य लोगों के साथ बहुत लोग रहते भी हैं । नवखण्ड वही नौ द्वार में या नौ खंडों में ही रहता या भटका जीवात्मा के लिये कहा है । एक दूसरी स्थिति में हाथ के तीन भाग (पंजा, कलाई, कोहनी से ऊपर) और पैर के तीन भाग (पंजा, पिंडली, जांघ) सातवां पेट आठवां गला और नौवां सिर इस तरह है । क्योंकि बृह्मांड के इन स्थानों पर मुख्य खण्ड बन जाते हैं । दूसरे वाले हाथ या पैर के भागों को दांया बांया माना गया है और उसे अलग से खण्ड नहीं कहा गया । ये उचित भी है ।

अतः प्रमाणित दोहे के अनुसार भी हंस जीव इन्हीं सात चक्रों (जो कुंडलिनी या महामाया शक्ति का दायरा है, क्षेत्र है) और नव खंडो (नौ द्वारों के मिथ्या और नाशवान भोक्ता शरीर से मोहित हुआ जन्म मरण में फ़ंसा रहता है) में भटका हुआ है । जिससे सिर्फ़ समय का सदगुरु ही निकाल सकता है । अगर आप दूसरी शक्तियों का सोचें तो इस विवरण की स्थितियों पर गौर करने पर पता चलेगा । वे भगवद सत्तायें आदि खुद इसी दायरे में हैं ।
सतगुरु द्वारा डोर फ़ेंकने का आशय उसी नाम ध्वनि के चुम्बकत्व और कंपन तरंग से शिष्य की सुरति को ऊपर चढाकर इस महाकाल जाल से निकालना है ।
प्रश्न 33 - कबीर जी ने निरंजन के 12 नकली पंथ चलाने की माँग को क्यों माना ?
उत्तर - ये बात दरअसल विपरीत तरह से लिख गयी है । कबीर ने काल निरंजन की बारह पंथ चलाने की मांग को माना नहीं बल्कि ये कहा कि कालांतर में काल माया के प्रभाव से और मनुष्य (कबीरपंथियों) के लोभ लालच आदि से सत्य पर असत्य आवरित हो जायेगा । कहना चाहिये । बात का अर्थ ही बदल जायेगा लेकिन यदि कबीर साहित्य गौर से पढ़ें तो एक काबिल ए जिक्र बात ये है कि कबीर ने कहा - जब भी जीव काल की क्रूरता, छल आदि से पीङित होकर सतपुरुष को याद करेगा । कोई न कोई आकर उसको सतनाम द्वारा कालफ़ांस से छुङायेगा । यही बात कालपुरुष और सतपुरुष के बीच तय हुयी थी या कहिये । सतपुरुष ने इसको उचित माना था ।
प्रश्न 34 - क्रिया योग क्या है ?
उत्तर - वास्तव में तो ये अलग अलग परम्पराओं वाले धर्म संप्रदायों ने अलग अलग शीर्षकों का प्रचलन कर दिया है । फ़िर भी क्रिया शब्द क्रियात्मकता का द्योतक है । मेरे ख्याल से कुण्डलिनी का कोई भी योग या जङ चेतन समाधि योग के किसी भी भाग की क्रियात्मकता को क्रिया योग ही कहा जायेगा । बाकी किसी ने और भाव में इसको कहा हो । वह मुझे ज्ञात नहीं ।
सभी योग और ज्ञान का राजा सहज योग भी क्रिया योग ही है । हाँ साधारण जप तप पूजा पाठ आदि क्रिया योग के अंतर्गत नहीं कहे जा सकते । क्योंकि इनमें आंतरिक रूप से या कहिये यांत्रिक रूप से क्रिया नहीं होती ।
प्रश्न 35 - श्रीकृष्ण परमहंस योगी थे और ये पूर्ण योगेश्वर थे । गीता आदि में जो इन्होंने खुद को परमात्मा कहा । वह आत्मदेव का आवेश था यानी शक्ति (और ज्ञान) प्रकट हुयी थी । ये आत्मदेव कौन हैं ?
उत्तर - अगर शाश्वत सत्य एकमात्र सत्य के तौर पर बात की जाये तो इस जगत में इस अखिल सृष्टि में सिर्फ़ एक ही आत्मा है । बाकी सभी जीवात्मा, दिव्यात्मा, भगवतात्मा उसी मूल आत्मा के स्थितियों के आधार पर बने अंतःकरण मात्र हैं । जिनको सूक्ष्म शरीर कहा जाता है ।
इसके दो उदाहरण जैसे लाखों करोङों दर्पण में लाखों करोङों सूर्य प्रतिबिम्ब बनना । जैसे लाखों घङों में लाखों आकाश प्रतिबिम्ब बनना हैं तो एक भाव में तो यही सत्य है । वही परमात्मा अनेक गुण भावों रूपों में खेल रहा है पर क्योंकि यह खेल या स्थिति काल अकाल दो भागों में विभाजित है । अतः कुछ ज्ञान या कर्म कालिक प्रकार के होते हैं जैसे श्रीकृष्ण के जीवन की तमाम क्रियायें कालिक हैं । लेकिन जव ये गीता उपदेश उतरा । उस वक्त आत्मा का आवेश ध्यान अवस्था जैसा होने लगा । अतः वह आत्मिक है । सिर्फ़ कृष्ण ही नहीं कबीर आदि प्रमुख आत्मज्ञानी सन्तों ने जो परम की वाणियां कहीं वो उसी ध्यान या जुङाव से संभव होती हैं । इसके बाद भी उसको पूर्णरूपेण कहना संभव नहीं होता । तब उसको निर्वाणी या अवर्णनीय भी कहते हैं ।
प्रश्न 36 - बुद्ध को वैसे आत्मज्ञान तो प्राप्त नहीं हुआ था । शून्य ज्ञान आदि ही प्राप्त हुआ था । शून्य ज्ञान कौन सा होता है ?
उत्तर - सरल भाषा में शून्य ज्ञान या शून्य समाधि अंतःकरण की कई स्तरों में से एक निर्विचार स्थिति है । क्योंकि इस योग यात्रा में इक्कीस से अधिक शून्य (या सुन्न) आते हैं । ध्यान रहे आत्मा या परमात्मा को अनन्त कहा गया है । अतः कोई आवश्यक नहीं किसी योगी द्वारा घोषित ज्ञान ही अंतिम सत्य हो जाये ।
हाँ कबीर खास इसलिये महत्वपूर्ण हैं क्योंकि कबीर ने समझने के स्तर पर भी अन्त तक की बात और प्रायोगिक और व्यवहारिक स्तर पर भी वैज्ञानिक और कृमबद्ध ढंग से कहा है । दूसरे इस ज्ञान का कोई एक तरीका न बताकर कई तरीके बताये हैं । इसलिये मेरी नजर में कबीर, अष्टावक्र (से भी) और अब तक के किसी से भी अधिक प्रमाणित हैं ।
उदाहरण के लिये ओशो कालपुरुष और उसके परिवार पर कुछ न बोल पाये । जबकि ये आत्म साधना का अनिवार्य हिस्सा हैं । अतः कोई भी जब अंतकरण से लम्बे अभ्यास द्वारा साफ़ और पवित्र होने लगता है या हो जाता है । तो उसे समाधि के अनेक प्रकारों में से किसी तरह की समाधि होने लगती है और वह उसे ही अंतिम सच मान लेता है । क्योंकि उसे आगे कुछ हो नहीं रहा ।
अगर इसके बारे में पता करें तो बीस मिनट के अनुलोम विलोम के बाद तीस मिनट भी सुबह ध्यान में बैठने वाले को ठीक ऐसे ही अनुभव होते हैं पर वास्तव में यह बहुत क्षुद्र सत्य है ।
प्रत्येक शून्य के बाद अगले शून्य तक एक नये प्रकार का मन नये प्रकार की वासनायें और नयी सृष्टि नया आसमान आदि आते हैं और यदि गुरु पहुंचा हुआ है तो साधक की चढ़ाई और प्राप्ति के आधार पर उसे शून्य पार कराता रहता है । अतः सिर्फ़ पहले ही शून्य तक पहुंचा वैरागी विरक्त साधक भी ठीक बुद्ध जैसा ही उपदेश करेगा ।
यदि आत्मज्ञान साहित्य का गौर से मनन करें तो सिर के पिछले भाग में दयाल देश बताया है । जबकि बात इससे भी कहीं बहुत आगे हैं । जो मैं अपने चयनित साधकों को न सिर्फ़ बताऊंगा । बल्कि पात्र होने पर अभ्यास चढ़ाई आदि में पूर्ण सहयोग करूंगा । बाकी यह उन्हीं पर अधिक निर्भर करता है ।
प्रश्न 37 - क्या प्रेतग्रस्त इंसानों की आकृति शीशे में नहीं बनती और क्या उनकी छाया भी नहीं बनती ?
उत्तर - आमतौर पर (सामान्य नियम) नही बनती । मतलब जैसे कोई प्रेत आसपास है तो शीशे या छाया रूप में वह अप्रभावित व्यक्ति को नहीं दिखेगा । हाँ एकदम कुछ फ़ुरहरी सी आना, रौंगटे खङे हो जाना, यकायक चेतना एकाग्र हो जाना, अनजाना सा भय यकायक लगना किसी अदृश्य की उपस्थिति महसूस होना, ऐसे अदृश्य अनुभव होंगे । लेकिन प्रेत प्रभावित व्यक्ति को शीशे या छाया की आवश्यकता ही नहीं । वह तो उसे अक्सर कहीं भी कैसे भी दिखाई ही (भासित) देता रहता है ।
प्रश्न 38 - आपने एक post में लिखा था कि अमेरिका प्रथ्वी पर पाताल लोक का प्रतीक  है । इसका क्या मतलब है ?
उत्तर - क्योंकि प्रथ्वी कर्मयोग, कर्मयोनि या उस विद्यालय के तरह है । जहाँ से असंख्य जीवात्मायें अपने उत्थान पतन का मार्ग या लक्ष्य तय करती हैं । तो जाहिर है कि यहाँ से विभिन्न प्रकार और विभिन्न श्रेणियों और विभिन्न स्तर के नागरिक विभिन्न पाठयकृमों से ही अपनी अपनी अभिरुचि और पूर्व वर्तमान संस्कारों द्वारा निर्मित होते हैं । यदि आप पौराणिक विवरण में जम्बू दीप आदि का वर्गीकरण और विभिन्न स्थानों के निवासियों का रहन-सहन, स्वभाव, जीवनशैली आदि का ब्यौरा देखें तो वह अलग अलग वासनाओं रुचियों और शरीरों वाला होगा ।
ये मजे की बात है । आज के अमेरिकन आदि की जीवनशैली भी बिलकुल नागवंशियों या नागलोक वासियों जैसी ही भोगवादी होगी । जबकि स्वर्ग का दूतावास या क्षेत्र, हिमालय दिव्य और सात्विक लोगों से युक्त आज भी होगा । तो ऐसे सभी प्रतिनिधित्व क्षेत्रों में जीवात्मायें अपने अपने संस्कार वश जाती हैं और आगे के लिये उनके अंतःकरण के परिवर्तन और क्षमताओं का विकास होता है । जो कि सृष्टि की विविधता और समग्रता हेतु आवश्यक भी है ।
प्रश्न 39 - भूत किन व्यक्तियों के पास फटक नहीं सकते ?
उत्तर - सरलता से कहा जाये तो सात्विक वृति या सत ऊर्जा से युक्त व्यक्ति के पास प्रेतात्मायें नहीं आतीं । क्योंकि आ ही नहीं सकतीं । तामसिक वृति या पाप वृति वाले मनुष्यों के ये घेर लेती हैं । क्योंकि वहाँ उनका वास भी है और सृष्टि विधान में ऐसे स्थान ऐसे जीव उनके लिये नियत किये गये हैं ।
प्रश्न 40 - ये बात समझ नहीं आई कि - भूत ‘सतनाम’ सुनते ही भाग जायेंगे । 
उत्तर - ऐसा मैंने अपने योग अनुभवों और पूर्व स्थिति के आधार पर कहा था । जब कोई प्रभावित पीङित व्यक्ति की चेतना पूर्ण भाव से (भले ही दूरस्थ) सतनाम से जुङेगी और वो सहायता की गुहार करेगा तो सतनाम उसकी रक्षा करता है ।
भूत पिशाच निकट नहीं आवें, महावीर जब नाम सुनावे ।

हनुमान जी जो (सत) नाम जपते हैं । उससे भूत, प्रेत, पिशाच निकट भी नही आते ।

आपके अन्दर भी एक आंतरिक गुरु मौजूद

प्रश्न 41 - जब अंतरिक्ष से कोई उल्का पिंड गिरता है । तो उसे भी तो टूटता तारा कहते है न । जब कोई स्वर्ग से पदच्युत होकर नीचे आएगा । तो फिर उसमें और उल्कापिंड में अंतर क्या रह गया ? 
- उल्का पिंड या तारे का टूटना या पूर्णत समाप्त होने का सम्बन्ध अंतरिक्षीय जङ पिंडों से है । और स्वर्ग या अन्य अपवर्ग से गिरे दिव्यात्माओं का गिरना अलग तरह से है । जो भी तारे या जङ उल्का पिंड टूटते हैं । उनका अधिकांश खंडित पदार्थ अंतरिक्ष में गुरुत्वाकर्षण द्वारा दूसरे तारों द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है । या फ़िर अवशेष रूप में कुछ समय अंतरिक्ष में तैरता रहता है । और बाद में ब्लैक होल आदि द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है । जबकि कोई दिव्यात्मा च्युत होने पर उसके शरीर के तत्व ( प्रथ्वी की तरह ही ) वहीं के तत्वों में चले जाते हैं । और दिव्य शरीर से अलग हुआ सिर्फ़ सूक्ष्म शरीर निर्धारित प्रथ्वी की तरफ़ गिरते गिरते ऐसे चमकीले और सुन्दर आकर्षक छोटे कीटों के रूप में बदल जाता है । जो आमतौर पर प्रथ्वी पर नहीं पाये जाते । ये मुश्किल से कुछ दिन जीवित रहकर किसी दूसरे शरीर में चले जाते हैं । एक पौराणिक दृष्टांत के अनुसार श्रीकृष्ण एक चींटें को देखकर हंसते हैं । रुक्मणी उसका कारण पूछती है । तो वह कहते हैं - यह चींटा अठारह बार इन्द्र पद प्राप्त कर चुका । मगर भोग लिप्सा इसे फ़िर वहीं का वहीं ले आती है ।
प्रश्न 42 - आपके अन्दर भी एक आंतरिक गुरु मौजूद है । देहधारी गुरु आपको उसी गुरु से मिलाते हैं । मैं इसका मतलब नहीं समझा ?
- यहाँ प्रश्नकर्ता कौन है ? आपका जीव अज्ञान या सही भाव में अज्ञान स्थिति । आपने प्रश्न किससे किया ? एक देहधारी से । अगर वो आपके प्रश्न का उत्तर दोनों तलों ( बाह्य ( मौखिक ) आंतरिक ( क्रिया घटित या पदार्थिक ) पर देने में समर्थ है । तो वह देहधारी कौन हुआ ? गुरु । अब गौर करो । देहधारी के उत्तर से अज्ञान किस जगह हटा ? और प्रकाश किस जगह हुआ ? अंतर में । जहाँ अभी तक अंधकार या अज्ञान की स्थिति थी । इसका वैज्ञानिक अर्थ आपके अन्दर गु ( अंधकार या अज्ञान ) और रू ( ज्ञान या प्रकाश ) दोनों ही हैं । तो आपके गु को जो रू कर दे । वही गुरु है । ऐसे ही आत्मज्ञान यात्रा में अनेक पढावों पर अनेक स्थितियों पर प्रश्न उत्पन्न होते रहते हैं । और देहधारी गुरु उसे वास्तविक आंतरिक गुरु से जोङता हुआ निराकरण करता रहता है । देहधारी गुरु की आवश्यकता सिर्फ़ इसलिये है कि अभी तुम इतने मोहित हो । इतने भ्रांतिमय हो कि अंतर घटित घटनाओं में क्या सच क्या असच ? इसको लेकर सही निर्णय नहीं कर पाओगे । और ये भी सच है कि अन्दर बहुत से मार्ग और मायाजाल भी है । इन्हीं को सफ़लता पूर्वक पार करना शिष्यता और भक्ति है ।
प्रश्न 43 - साधारण स्थिति में स्वांस मुँह में तलुये ( नाक द्वारा ) से नाभि तक आती जाती प्रतीत होती है । पर वास्तव में इसका आना जाना धुर  ( सिर के मध्य ) से हो रहा है । मैं इसका मतलब नहीं समझा ?
- अब तक काफ़ी हद तक तुम निःअक्षर से अक्षर और अक्षर के कंपन से सृष्टि में होता स्पंदन आदि आदि विज्ञान जान ही चुके हो । मूल बात इसी कंपन के विज्ञान पर आधारित है । जो कि वास्तव में मूल बृह्म की वासना वायु ही है । पर यह मूल है । और जीवों की वासना वायु क्षीण और सीमित दायरे में है । अतः सभी जीवों के अंतःकरण पर आत्म चेतना का फ़ोकस पङ रहा है । और उससे ही जीवन और जीवन क्रियायें भासित महसूस हो रही हैं । इसी में यह स्वांस का चलना भी है । क्योंकि स्वांस प्राणवायु है । और प्राण अक्षर ( शब्द ध्वनि ) से कंपित हो रहा है । इसी से सभी तत्वों का गुण रूपांतरण हो रहा है । अतः वायु का भी चलना इसी से है । इसलिये स्वांस का आवागमन वास्तव में धुर से है । न कि कहीं बाहर से ।
प्रश्न 44 - यह पाप कर्म का भोग संस्कार है । इसकी दवा नहीं हो सकती । रोग संस्कार की ही दवा हो पाती है । भोग की कभी नहीं । मैं इसका मतलब नहीं समझा ?
- यह तो बङी साधारण सी बात है । रोग का उपचार औषधि होता है । पर भोग का उपचार नहीं होता । डाक्टर भी लाइलाज रोग के इलाज से मना कर देते हैं । जिस प्रकार अदालत में कोई केस विचाराधीन है । क्षम्य है । वह तर्क दलीलों याचना से छूट सकता है । पर गम्भीर और अक्षम्य केस के अपराधी के कोई तर्क दलील या याचना नहीं सुनी जाती । ठीक इसी तरह भोग को भोगना ही होता है - काया से जो पातक होई । बिनु भुगते छूटे नहीं कोई ।
प्रश्न 45 - क्या हर महायुग में रामायण, महाभारत repeat  (  दुहराव ) होती है ?
-  यदि सच कहा जाये । तो रामायण हंस स्तर के ( मर्यादित ) अलौकिक ज्ञान का रूपक है । और महाभारत परमहंस ज्ञान के मध्य बनने वाली स्थितियां । इसीलिये रामायण के नायक हंस ज्ञानी मर्यादा पुरुष राम और महाभारत के नायक परमहंस ज्ञानी श्रीकृष्ण हैं । लेकिन इसके बाद भी ये सच है कि ये घटनाये स्थूल या साक्षात रूप भी धर्म स्थापना आदि कार्यों हेतु जगत में भी उस समय पर प्रत्यक्ष होती हैं । लेकिन मेरे कहने का मतलब है । प्रत्येक साधक के साधना जीवन में भी अलग अलग स्तरों पर संस्कार स्थिति अनुसार रामायण महाभारत जैसी घटनायें घटित होती हैं । हर बार कहानी एक जैसी ही हो । ये कोई आवश्यक नहीं । हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता । नाना भांति राम अवतारा । रामायण सत कोटि अपारा ।
प्रश्न 46 - मणिपुर चक्र में आठ दल है । या दस दल ? कबीर वाणी में अष्ट दल वाला बताया गया है । जबकि अन्य सभी जगह और आपके ब्लॉग में दस दल वाला बताया गया है । नाभि ( 8 ) अष्टकंवल दल साजा । सेत सिंहासन बिष्नु बिराजा । नाभि चक्र का देवता बिष्णु है । वहाँ 8 अष्ट दल ( पत्ते ) कमल हैं । यहाँ 6000 अजपा जाप है ।
- अगर सही कहूँ । तो सुरति शब्द योग में चक्रों और कुंडलिनी का कोई महत्व नहीं है । और हमारे साधकों का यहाँ अधिक ठहराव भी नहीं है । और क्योंकि न तो इन चक्रों के इष्ट से उनका कोई लेना देना । और न ही चक्र की सिद्धियों सम्पदाओं से । अतः वे यहाँ से झलक सी देखते हुये तेजी से गुजर जाते हैं । ये सिर्फ़ उनके लिये प्रमाणित होता है । जो उसी चक्र विशेष पर साधना कर रहे हैं । फ़िर भी मेरे ख्याल से आठ दल कमल ही है । और ये जाप वगैरह गिनना नहीं होता । बल्कि सच्ची साधना में स्वतः पूरा होने पर बन्द हो जाता है । कहने का मतलब ये संकेत भर हैं । अन्दर जाने पर अलग ही स्थिति अलग ही अनुभव होते हैं । जो बहुत कुछ साधक के गुरू के तरीके पर आधारित होते हैं । ये संकेत सिर्फ़ समझने हेतु हैं । वास्तविक चक्र जागरण में बहुत कुछ होता है ।
प्रश्न 47 - मनुष्य 84 लाख योनियों के अन्तर्गत आता है ? आपके blog पढ़ने से कभी प्रतीत होता है - मनुष्य 84 के अंतर्गत नहीं आता । तो कभी प्रतीत होता है कि मनुष्य 84 के अंतर्गत आता है ।  
- आकर चार लक्ष चौरासी । जोनि भ्रमति जिव अविनाशी । 
जङ चेतन ग्रन्थि परि गई । जधपि मृषा छूटत कठिनई ।
तब ते मायावश भयहु गुसाईं । बंध्यों कीर मरकट की नाई ।
इसलिये निसंदेह मनुष्य चौरासी लाख योनियों में ही आता है । और इतना ही नहीं । इन चौरासी लाख में चार लाख प्रकार के सिर्फ़ मनुष्य ही होते हैं । जो मुख्यतः दो तौर पर जङता से चेतनता तक अज्ञानता से ज्ञान तक और पाप से पुण्य तक इस आधार पर विभाजित है । और इसी आधार पर पाप, कर्म और बंधन से छूटने हेतु कृमशः यात्रा भी करते हैं । हाँ चौरासी लाख योनियों में ही आने वाले मनुष्य में अन्य से एक अन्तर अवश्य है । मनुष्य कर्मयोनि के अंतर्गत आता है । जबकि शेष भोग योनि के अंतर्गत । लेकिन यह भी ध्यान रहे । मैंने कई बार कहा है । एक सामान्य नियम जो 85% होता है । और एक अपवाद जो 15% होता है । इसके अंतर्गत जङ योनियां पशु तथा वृक्षादि तथा शापित दिव्यात्मायें भी सन्तों की कृपा से उस योनि से छूटकर अगला मनुष्य जन्म प्राप्त कर भक्ति मार्ग पर चलती हैं । इसको सृष्टि के लिये प्रयोग किया जाने वाला शब्द " विलक्षण " के तौर पर देखना चाहिये ।
प्रश्न 48 - मनोवैज्ञानिको के मुताबिक इंसान का दिमाग दो हिस्सों में बंटा होता है । बायां हिस्सा एनालिसिस ( विश्लेषण ) कैलकुलेशन ( गणना ) और लॉजिक ( तर्क ) के काम करता है । दाहिना हिस्सा इमेजिनेशन ( कल्पना शक्ति ) क्रिएटिविटी ( सृजनात्मकता ) ड्रीम्स ( सपने देखना ) और फैंटेसी ( हवाई कल्पना ) के काम करता है । आम आदमी के दिमाग का दाहिना हिस्सा लॉक होता है । यह सिद्ध क्षेत्र है । इस पर मैं विस्तृत जानकारी चाहता हूँ ।
- वास्तविकता ये है कि वैज्ञानिक या मनोवैज्ञानिक न कभी मस्तिष्क को पूरी तरह जान पाये । और न कभी इसे आध्यात्म विज्ञान के वगैर मनुष्य स्तर पर जाना जा सकता है । अतः ऊपर का विवरण भी सत्य कम कल्पना अधिक है । मस्तिष्क का बायां भाग काल क्षेत्र है । दायां भाग सिद्ध क्षेत्र है । और पीछे का दयाल क्षेत्र है । जिनसे निमित्त मनुष्यों द्वारा अनेकानेक कार्य और क्रियायें सिद्ध होती रही हैं । अगर सरल अन्दाज में कहा जाये । तो इतने बङे मस्तिष्क का कोई भी मनुष्य राईदाने से अधिक उपयोग नहीं कर पाता । सिद्ध क्षेत्र पर विस्त्रत जानकारी का अर्थ है । ज्ञानयोग पर बात करना । न कि मस्तिष्क आदि की क्षमता पर बात करना आदि आदि ।
प्रश्न 49 - कई एक जटिल संस्कार { जो अभी मुझे अपने जलाने हैं } मुझसे इस तरह की संस्कार अटैचमेंट की वजह से उसके ऊपर ट्रान्सफ़र हो जायँ । योग में ऐसा हो जाता है । मजा आप ले रहे हो । तो सजा भी आप भुगतोगे । यही नियम है । मेरे संस्कार से { आप लोगों के मुझसे भावनात्मक जुङाव के वजह से } आप लोग प्रभावित न हों । इस पर मैं विस्तृत जानकारी चाहता हूँ । 
- ये स्थिति विशेष के ऊपर बात है । कोई समर्पण और श्रद्धावान शिष्य के भाव अनुसार कभी गुरु मार्गदर्शक को उस शिष्य के पाप या कर्म समूह अपने ऊपर लेने होते हैं । और ज्ञान की शिष्यता में चल रहे अच्छे शिष्य को दूसरे अन्य शिष्य के पाप या कर्म समूह भोगने होते हैं । ये सत संकल्प और सुरति के आपस में जोङने से संभव होता है । प्रारम्भ में किसी शिष्य पर गुरु द्वारा यह क्रिया की जाती है । फ़िर स्वयं होने लगती है । आप जितनी ऊँची प्राप्ति चाहते हैं । जितना उच्च सन्तत्व चाहते हैं । तो उसी तरह के परीक्षणों से गुजरना ही होता है । भक्ति के इस पाठयक्रम का उत्तर बहुत विस्तार से ही संभव है । जो समय समय पर बिन्दुवत स्पष्ट होता रहेगा ।
प्रश्न 50 - क्या मकड़ी का जाला हटाने से पाप नहीं लगता ?
- वास्तव में कर्म सिद्धांत का रहस्य और गति इतनी सूक्ष्म है कि मनुष्य के लिये कल्पनातीत ही है । अतः सामान्य बुद्धि से पाप पुण्य का निर्धारण करना बेहद कठिन है । कुछेक प्रचलित और मोटी मोटी बातों को छोङकर । क्योंकि एक हिसाब में यदि तुम कोई भी परमार्थिक कार्य नहीं कर रहे । तो हवा पानी प्रकाश शाक सब्जी आदि का उपभोग भी पाप कमाने के अंतर्गत ही है । तुम्हारे हर कार्य से प्रतिदिन लाखों जीवाणुओं का नाश हो जाता है । जाने अनजाने छोटे कीट पतंगों की हत्या हो जाती है । तब यही कहा जा सकता है कि सामान्य स्थिति में बुद्धि विवेक से कार्य लेते हुये यथासंभव इनसे बचना चाहिये । और यदि आप किसी भी सच्ची भक्ति से जुङे हैं । तो कुछ न कुछ ऐसा होगा कि आपके द्वारा पाप कर्म नहीं हो पायेगा । दूसरे सामान्य स्थिति में जीवों की सहायता करना उन्हें दाना आटा पानी आदि डालना ऐसे अनजाने में हुये पाप कर्मों का नाश करता रहता है । और यदि नहीं हुये । तो पुण्य बनता रहता है । अतः मकङी का जाला आदि हटाने जैसी आवश्यक क्रियाओं में कोई पाप नहीं होता । घर या खेत में कीटनाशक आदि छिङकने से कोई पाप नहीं होता । पागल कुत्ते द्वारा या पागल कुत्ते के समान ही अकारण दूसरे की हत्या पर उतारू जीव ( मनुष्य आदि ) को मार डालने पर भी कोई पाप नहीं होता । समझें । हालांकि हर हत्या पर पाप है । पर प्रश्न ये भी है कि हत्या का उद्देश्य क्या था । तब वह हुआ पाप भी क्षीण हो जाता है । और पुण्य प्रभावी हो जाता है । हालांकि एक ही कार्य से उस समय दोनों हुये थे । और दोनों का ही फ़ल है । इसीलिये राम और कृष्ण आदि ने महा युद्धों के बाद विभिन्न यज्ञादि क्रियाओं द्वारा प्रायश्चति और शुद्धि के उपाय किये । 

12 मार्च 2014

10 दिसम्बर को प्रथ्वी का परिकृमा चक्र पूरा

सरयू में उफ़ान । 10  दिसम्बर को होगा प्रथ्वी का परिकृमा चक्र पूरा । और तब होगा नये सूर्य का उदय । 100 लाख हेक्टेयर में नया जंगल बनेगा । टूटेगी मथुरा । 
ये चार संकेत मुझे लिखे हुये कृम में ही कई कई दिनों के अंतराल में एक एक करके मिले । कुछ अंतरिक्षीय बदलाव के अलग से भी थे । पर वे इतने जटिल सूक्ष्म विज्ञान आधारित थे कि मेरे लिये उन्हें आपको समझा पाना मुश्किल होगा । सरयू में उफ़ान, संकेत लगभग एक महीने पहले का है । नये सूर्य का उदय कोई दस बारह दिन पहले का । जंगल वाला अभी चार दिन पहले और मथुरा वाला परसों का । पिछले संकेतों पर आप लोगों ने कई प्रश्न किये । वास्तव में ये संकेत उन्हीं संकेतों की कृम श्रंखला ही हैं । 
जैसा कि मेरे नियमित पाठकों को ज्ञात होगा । मैंने 2011 में एक लेख लिखा था - 11-11-2011  को प्रथ्वी का जीव लेखा जोखा समाप्त हो चुका । इसका अर्थ था कि परमात्म तन्त्र की जो वैधानिक व्यवस्था और खास जीवात्माओं के पूर्व संचित भाग्य से जो सुख दुख हानि लाभ के अवसर बनते हैं । वह वैधानिक स्तर पर समाप्त प्रायः हो गये । ऐसी स्थिति में जो पूर्व से सुदृढ स्थिति में था । वही इस समयावधि में कम प्रभावित रहा । रहेगा ।
बहुत से लोग इस बीच के समयांतराल में घटित होने वाले प्रमुख घटनाकृमों के बारे में मुझसे जानने के इच्छुक रहे । जो एकदम सटीक और विस्तार विवरण के तौर पर मैं सबको नहीं बता पाया । पर वह सब कुछ स्पष्ट संकेतों के द्वारा प्रलय सम्बन्धित विभिन्न लेखों में मैंने लिखा । और आज की तारीख तक उनमें से बहुत कुछ घटित हो चुका । और बहुत घटित हो रहा है । और बहुत घटित होने वाला है ।
मुझे याद है । इस अंश प्रलय की जब मैंने एक गुप्त चर्चा में भाग लिया था । वो 2010 का शायद मई महीना था । उस समय बहुत संभावना दिसम्बर 2012 में प्रलय घटनाओं के शुरूआत होने की थी । लेकिन टलने की संभावना भी उतनी ही थी । और ऐसा ही हुआ । दिसम्बर 2012  के आसपास ऐसे प्रलय संकेत सिर्फ़ प्रतीकात्मक झलक जैसे ही रहे । लेकिन फ़िर 2014-15  में संभावना प्रभावी रूप से थी । और मैंने स्पष्ट कहा था । प्रलय का जैसा पौराणिक धार्मिक चित्र आप सोचते हैं । उस तरह प्रलय कभी नहीं होती । अतः ये बेहद प्राकृतिक और वैज्ञानिक तरीके से सब कुछ व्यवस्थित ढंग से करती हुयी नयी व्यवस्था करेगी । जबकि आप एकदम उठापटक और फ़िल्मी अन्दाज सा कल्पना करते हैं ।
खैर..जैसा कि मैंने पहले भी कहा । प्रलय संकेतों के आये शब्द मैं हूबहू ही लिखता हूँ । अतः ऊपर के संकेत भी ज्यों के त्यों ही हैं ।
अब इन संकेतों का आपकी मांग पर खुलासा करता हूँ । सरयू में उफ़ान का क्या अर्थ है । मुझे स्पष्ट नहीं । कब ? ये भी स्पष्ट नहीं ।
10  दिसम्बर को होगा प्रथ्वी का परिकृमा चक्र पूरा । और तब होगा नये सूर्य का उदय । इसका मतलब यह है कि प्रथ्वी पर जीवों और खुद प्रथ्वी का एक निश्चित कार्यकाल होता है । जैसे कि विभिन्न सरकारी तन्त्रों और व्यक्तियों का प्रथ्वी पर होता है । वह कार्यकाल पूर्ण हो जाने पर नया कार्यकाल फ़िर नये तरीके से आरम्भ होता है । इसी को चक्र कहा जाता है । यानी प्रथ्वी और सूर्य जो ( दो तरह से । धुरी और दूसरे ग्रह के ) चक्कर लगाते हैं वह गिनती । अतः 10  दिसम्बर को प्रथ्वी और सूर्य दोनों का कार्यकाल खत्म हो रहा है । और नये की शुरूआत होगी । अभी ये भी तय नहीं कि ये नया ठीक 11 दिसम्बर को ही हो जायेगा । या कुछ और समय बाद । पर इतना तय है । तब तक परिवर्तन दिखने लगेगा । और समझ में आने लगेगा । जैसा कि मैं पहले ही बता चुका 31 अगस्त से बङी घटनाओं के संकेत हैं । और आप देख ही रहे हैं । तमाम स्तरों पर वैसा माहौल भी बनता जा रहा है ।
100 लाख हेक्टेयर में नया जंगल बनेगा । इसका अर्थ ये है कि वर्तमान में जो रिहायशी जमीन है । उसमें 100 लाख हेक्टेयर जंगल में बदल जायेगी । प्रथ्वी पर जो पहले से ही जंगल है । उससे इसका कोई सम्बन्ध नहीं । ये अतिरिक्त और शहरी क्षेत्र में होगी । ये बात किसी एक स्थान या एक क्षेत्रफ़ल के लिये भी नहीं । बल्कि इतनी भूमि चाहे कितने ही टुकङों में हो । वह कुल योग 100 लाख हेक्टेयर होगा ।
टूटेगी मथुरा । संकेत को लेकर भी मैं एकदम स्पष्ट नहीं हूँ । पर मुझे कुछ संभावनायें प्रबल लग रही हैं । देश के राजनीतिक हालात और अस्थिरता देखते हुये इस धार्मिक स्थान पर कोई हमला आदि करके घोर अराजकता फ़ैलाने की कोशिश की जायेगी । मथुरा दो खंडों में विभाजित हो जायेगी । ये उस संकेत का विस्तार है । मुझे एक और भी बात लगती है । आध्यात्म में मथुरा " मन " को कहा जाता है । और तब इसका सीधा सा अर्थ है कि प्रथ्वी पर जीवन की मनःस्थिति दो रूपों में विभाजित हो जायेगी । एक सांसारिक ( मन धर्म ) प्रवृति और एक आत्मिक ( आत्म धर्म ) प्रवृति ।
सूक्ष्मता से और गूढ अर्थों में समझने हेतु ध्यान रखें । जो चीजें सूक्ष्म और अदृश्य में आंतरिक रूप से घटित होंगी । वे अपने बाह्य रूप स्ठूल और दृश्य रूप भी घटित होंगी । इसलिये बात को पूर्णरूपेण समझने जानने हेतु सिर्फ़ स्थूल नजरियें से न देखें । बाकी यदि कुछ बताने स्पष्ट करने योग्य मेरी जानकारी में आयेगा । वह मैं आपको बताता ही रहूँगा ।

07 मार्च 2014

लिंक्स राजीव दीक्षित की PDF पुस्तकें

प्रकृति ने मनुष्य को ऐसे ऐसे वरदानों से नवाजा है कि वह चाहे तो भी जीवन भर उनसे उऋण नहीं हो सकता है । तुलसी भी ऐसा ही 1 अनमोल पौधा है । जो प्रकृति ने मनुष्य को दिया है । सामान्य से दिखने वाले तुलसी के पौधे में अनेक दुर्लभ और बेशकीमती गुण पाए जाते हैं । आइये जाने कि तुलसी का पौधा हमारे किस किस काम आ सकता है ।  तुलसी में गजब की रोगनाशक शक्ति है । विशेषकर सर्दी खांसी व बुखार में यह अचूक दवा का काम करती है । इसीलिए भारतीय आयुर्वेद के सबसे प्रमुख ग्रंथ चरक संहिता में कहा गया है ।
- तुलसी हिचकी, खांसी, जहर का प्रभाव व पसली का दर्द मिटाने वाली है । इससे पित्त की वृद्धि और दूषित वायु खत्म होती है । यह दुर्गंध भी दूर करती है ।
- तुलसी कड़वे व तीखे स्वाद वाली दिल के लिए लाभकारी, त्वचा रोगों में फायदेमंद, पाचन शक्ति बढ़ाने वाली और मूत्र से संबंधित बीमारियों को मिटाने वाली है । यह कफ और वात से संबंधित बीमारियों को भी ठीक करती है ।
- तुलसी कड़वे व तीखे स्वाद वाली कफ, खांसी, हिचकी, उल्टी, कृमि, दुर्गंध, हर तरह के दर्द, कोढ़ और आंखों की बीमारी में लाभकारी है । तुलसी को भगवान के प्रसाद में रखकर ग्रहण करने की भी परंपरा है । ताकि यह अपने प्राकृतिक स्वरूप में ही शरीर के अंदर पहुंचे । और शरीर में किसी तरह की आंतरिक समस्या पैदा हो रही हो । तो उसे खत्म कर दे । शरीर में किसी भी तरह के दूषित तत्व के एकत्र हो जाने पर तुलसी सबसे बेहतरीन दवा के रूप में काम करती है । सबसे बड़ा फायदा ये कि इसे खाने से कोई रिएक्शन नहीं होता है ।
तुलसी की मुख्य जातियां - तुलसी की मुख्यत: 2 प्रजातियां अधिकांश घरों में लगाई जाती हैं । इन्हें रामा और श्यामा कहा जाता है । रामा के पत्तों का रंग हल्का होता है । इसलिए इसे गौरी कहा जाता है । श्यामा तुलसी के पत्तों का रंग काला होता है । इसमें कफनाशक गुण होते हैं । यही कारण है कि इसे दवा के रूप में अधिक उपयोग में लाया जाता है । तुलसी की 1 जाति वन तुलसी भी होती है । इसमें जबरदस्त जहर नाशक प्रभाव पाया जाता है । लेकिन इसे घरों में बहुत कम लगाया जाता है । आंखों के रोग, कोढ़ और प्रसव में परेशानी जैसी समस्याओं में यह रामबाण दवा है । 1 अन्य जाति मरूवक है । जो कम ही पाई जाती है । राजमार्तण्ड ग्रंथ के अनुसार किसी भी तरह का घाव हो जाने पर इसका रस बेहतरीन दवा की तरह काम करता है ।
मच्छरों के काटने से होने वाली बीमारी - मच्छरों के काटने से होने वाली बीमारी, जैसे मलेरिया में तुलसी 1 कारगर औषधि है । तुलसी और काली मिर्च का काढ़ा बनाकर पीने से मलेरिया जल्दी ठीक हो जाता है । जुकाम के कारण आने वाले बुखार में भी तुलसी के पत्तों के रस का सेवन करना चाहिए । इससे बुखार में आराम मिलता है । शरीर टूट रहा हो । या जब लग रहा हो कि बुखार आने वाला है । तो पुदीने का रस और तुलसी का रस बराबर मात्रा में मिलाकर थोड़ा गुड़ डालकर सेवन करें । आराम मिलेगा ।
- साधारण खांसी में तुलसी के पत्तों और अडूसा के पत्तों को बराबर मात्रा में मिलाकर सेवन करने से बहुत जल्दी लाभ होता है ।
- तुलसी व अदरक का रस बराबर मात्रा में मिलाकर लेने से खांसी में बहुत जल्दी आराम मिलता है ।
- तुलसी के रस में मुलहटी व थोड़ा सा शहद मिलाकर लेने से खांसी की परेशानी दूर हो जाती है ।
- 4-5 लौंग भूनकर तुलसी के पत्तों के रस में मिलाकर लेने से खांसी में तुरंत लाभ होता है ।
- शिवलिंगी के बीजों को तुलसी और गुड़ के साथ पीसकर नि:संतान महिला को खिलाया जाए । तो जल्द ही संतान सुख की प्राप्ति होती है ।
- किडनी की पथरी में तुलसी की पत्तियों को उबालकर बनाया गया काढ़ा शहद के साथ नियमित 6 माह सेवन करने से पथरी मूत्र मार्ग से बाहर निकल जाती है ।
- फ्लू रोग में तुलसी के पत्तों का काढ़ा, सेंधा नमक मिलाकर पीने से लाभ होता है ।
- तुलसी थकान मिटाने वाली 1 औषधि है । बहुत थकान होने पर तुलसी की पत्तियों और मंजरी के सेवन से थकान दूर हो जाती है ।
- प्रतिदिन 4-5 बार तुलसी की 6-8 पत्तियों को चबाने से कुछ ही दिनों में माइग्रेन की समस्या में आराम मिलने लगता है ।
- तुलसी के रस में थाइमोल तत्व पाया जाता है । इससे त्वचा के रोगों में लाभ होता है ।
- तुलसी के पत्तों को त्वचा पर रगड़ दिया जाए । तो त्वचा पर किसी भी तरह के संक्रमण में आराम मिलता है ।
- तुलसी के पत्तों को तांबे के पानी से भरे बर्तन में डालें । कम से कम 1 सवा घंटे पत्तों को पानी में रखा रहने दें । यह पानी पीने से कई बीमारियां पास नहीं आतीं ।
- दिल की बीमारी में यह अमृत है । यह खून में कोलेस्ट्रॉल को नियंत्रित करती है । दिल की बीमारी से ग्रस्त लोगों को तुलसी के रस का सेवन नियमित रूप से करना चाहिए ।
- शरीर के वजन को नियंत्रित रखने हेतु भी तुलसी अत्यंत गुणकारी है ।
- इसके नियमित सेवन से भारी व्यक्ति का वजन घटता है । एवं पतले व्यक्ति का वजन बढ़ता है । यानी तुलसी शरीर का वजन आनुपातिक रूप से नियंत्रित करती है ।
- तुलसी के रस की कुछ बूंदों में थोड़ा सा नमक मिलाकर बेहोश व्यक्ति की नाक में डालने से उसे शीघ्र होश आ जाता है ।
- चाय ( बिना दूध की ) बनाते समय तुलसी के कुछ पत्ते साथ में उबाल लिए जाएं । तो सर्दी बुखार एवं मांसपेशियों के दर्द में राहत मिलती है ।
- 10 ग्राम तुलसी के रस को 5 ग्राम शहद के साथ सेवन करने से हिचकी एवं अस्थमा के रोगी को ठीक किया जा सकता है ।
- तुलसी के काढ़े में थोड़ा सा सेंधा नमक एवं पिसी सौंठ मिलाकर सेवन करने से कब्ज दूर होती है ।
- दोपहर भोजन के पश्चात तुलसी की पत्तियां चबाने से पाचन शक्ति मजबूत होती है ।
- 10 ग्राम तुलसी के रस के साथ 5 ग्राम शहद एवं 5 ग्राम पिसी काली मिर्च का सेवन करने से पाचन शक्ति की कमजोरी समाप्त हो जाती है ।
- दूषित पानी में तुलसी की कुछ ताजी पत्तियां डालने से पानी का शुद्धिकरण किया जा सकता है ।
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हार्ट अटैक - 99%  ब्लॉकेज को भी रिमूव कर देता है - पीपल का पत्ता । पीपल के 15 पत्ते लें । जो कोमल गुलाबी कोंपलें न हों । बल्कि पत्ते हरे कोमल व भली प्रकार विकसित हों । प्रत्येक का ऊपर व नीचे का कुछ भाग कैंची से काटकर अलग कर दें । पत्ते का बीच का भाग पानी से साफ कर लें । इन्हें 1 गिलास पानी में धीमी आँच पर पकने दें । जब पानी उबलकर एक तिहाई रह जाए । तब ठंडा होने पर साफ कपड़े से छान लें । और उसे ठंडे स्थान पर रख दें । दवा तैयार ।
इस काढ़े की 3 खुराकें बनाकर प्रत्येक 3 घंटे बाद प्रातः लें । हार्ट अटैक के बाद कुछ समय हो जाने के पश्चात लगातार 15 दिन तक इसे लेने से हृदय पुनः स्वस्थ हो जाता है । और फिर दिल का दौरा पड़ने की संभावना नहीं रहती । दिल के रोगी इस नुस्खे का 1 बार प्रयोग अवश्य करें । पीपल के पत्ते में दिल को बल और शांति देने की अदभुत क्षमता है । इस पीपल के काढ़े की 3 खुराकें सवेरे 8 बजे 11 बजे व 2 बजे ली जा सकती हैं । खुराक लेने से पहले पेट एकदम खाली नहीं होना चाहिए । बल्कि सुपाच्य व हल्का नाश्ता करने के बाद ही लें । प्रयोगकाल में तली चीजें, चावल आदि न लें । मांस, मछली, अंडे, शराब, धूम्रपान का प्रयोग बंद कर दें । नमक, चिकनाई का प्रयोग बंद कर दें । अनार, पपीता, आंवला, बथुआ, लहसुन, मैथीदाना, सेब का मुरब्बा, मौसंबी, रात में भिगोए काले चने, किशमिश, गुग्गुल, दही, छाछ आदि लें । तो अब समझ आया । भगवान ने पीपल के पत्तों को हार्ट शेप क्यों बनाया ?
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यदि तिल्ली और जिगर में सूजन हो । तो अदरक का रस और शहद मिलाकर गर्मी के मौसम में शर्बत बनाकर पीएं । इससे बहुत लाभ होता हैं । यदि सर्दी का मौसम हो । तो गर्म पानी में शहद मिलाकर ले सकते हैं । तिल्ली की सूजन की शिकायत दूर करने के लिए शहद में सोंठ का चूर्ण मिलाकर चाटना लाभप्रद रहता है । दिन में 3 बार ऐसा कर सकते हैं । ऐसा करने से 1 सप्ताह में ही तिल्ली सिमट जाती है ।
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आयुर्वेदिक चिकित्सा किताबों के लिंक्स, राजीव दीक्षित की PDF पुस्तकें । स्वदेशी चिकित्सा 1 - दिनचर्या, ऋतुचर्या के आधार पर 3.79 MB
http://archive.org/download/RajivDixitBooks/SwadeshiChikitsa-1.pdf

स्वदेशी चिकित्सा 2 - बीमारी ठीक करने के आयुर्वेदिक नुस्ख़े 3.39 MB 
http://archive.org/download/RajivDixitBooks/SwadeshiChikitsa-2.pdf

स्वदेशी चिकित्सा 3 - बीमारी ठीक करने के आयुर्वेदिक नुस्ख़े 3.44 MB 
http://archive.org/download/RajivDixitBooks/SwadeshiChikitsa-3.pdf

स्वदेशी चिकित्सा 4 - गंभीर रोगों की घरेलू चिकित्सा 3.70 MB 
http://archive.org/download/RajivDixitBooks/SwadeshiChikitsa-4.pdf

गौ पंचगव्य चिकित्सा 3.94 MB
http://archive.org/download/RajivDixitBooks/GaumataPanchagavyaChikitsa.pdf

गौ - गौवंश पर आधारित स्वदेशी कृषि 3.61 MB
http://archive.org/download/RajivDixitBooks/Gau-GauVanshParAdharitSwadeshiKrushi.pdf

आपका स्वास्थ्य आपके हाथ 3.23 MB
http://archive.org/download/RajivDixitBooks/AapkaSwasthyaAapkeKeHaath.pdf

स्वावलंबी और अहिंसक उपचार 3.12 MB
http://archive.org/download/RajivDixitBooks/SwalambiAurAhinsakUpchar.pdf

Refined तेल का भ्रम  1.01 MB
http://www.scribd.com/document_downloads/direct/208690063?extension=pdf&ft=1394205962&lt=1394209572&user_id=58321120&uahk=sq0txDD5NsiizP1Y8ReSs+MG6c8

Source -
http://rajivdixitbooks.blogspot.in

दैनिक जीवन में काम आने वाला आयुर्वेद आसान भाषा में MP3 files में 919 MB 
https://onedrive.live.com/?cid=E0EC15B0F596BB8A#cid=E0EC15B0F596BB8A&id=E0EC15B0F596BB8A%21619


आरोग्य आपका by Mr. Chanchal Mal Chordia   165.81 MB 
http://www.scribd.com/document_downloads/direct/207996448?extension=pdf&ft=1394199475&lt=1394203085&user_id=58321120&uahk=gmB3nQzV8pQz3wg2rR/Jkh0TqRY

चिकित्सा पद्धतियां
http://chordiahealthzone.in/?page_id=1496
Source - 
http://chordiahealthzone.in/?page_id=989
http://chordiahealthzone.in/?page_id=1945
http://www.scribd.com/cmchordia/documents

चरक संहिता
http://archive.org/search.php?query=charak%20AND%20collection%3Aopensource
http://www.astrojyoti.com/charkasamkitasanskrit.htm

http://www.scribd.com/doc/167254162/ras-tantra-sar-v-sidh-prayog-sangrah
http://kalera.in/Publications.htm
http://www.readwhere.com/preview/6100/Heart-Mafia/vol/194762
http://www.ignca.nic.in/coilnet/kabir016.htm

03 मार्च 2014

सुरति का अर्थ याद करना नहीं है

दादू साधै सुरति को - और तब परमात्मा की स्मृति सध जाती है । पहले तो दर्द । फिर तार का जुड़ना । फिर सुरति का सध जाना । सुरति का अर्थ होता है - स्मृति । सुरति का अर्थ होता है - उसकी याद ।
जैसे कोई प्रेयसी अपने प्रेमी को याद करती है । ऐसी जब तुम्हारी याद हो जाती है । सब भूल जाता है । वही याद रहता है । तब इस सुरति में ही तो तार जुड़ जाता है । तुम रहते यहां हो । यहां के नहीं रह जाते । होते बाजार में हो । बाजार में नहीं होते । खिंचते रहते हो मंदिर की तरफ । बात करते हो किसी से । संवाद " उसी ' से होता रहता है । सोते हो यहां । लेकिन कहीं और जागे रहते हो । भोजन करते हो । काम करते हो । जीवन की सब व्यवस्था जुटाते रहते हो । लेकिन भीतर 1 धुन बजती रहती है - अहर्निश उसके मिलन की । सुरति का अर्थ है - जिसकी याद तुम्हारी स्वांस स्वांस बन जाए । सुरति का अर्थ है - जिसकी याद न करनी पड़े । जिसकी याद होती रहे । इस फर्क को ठीक से समझ लेना । सुरति का अर्थ याद करना नहीं है । सुरति का अर्थ है - याद में रम जाना । 1 फकीर औरत हुई - राबिया । उससे किसी दूसरे फकीर हसन ने पूछा कि - राबिया, तू कितना समय परमात्मा की याद में बिताती है ? उसने कहा - हसन, तू भी पागल है । परमात्मा की याद में कितना समय ? याद तो मैं उसकी करती ही नहीं । याद से तो उसकी मैं छूटना चाहती हूं । 24 घंटे । सोते जागते । स्वांस स्वांस में याद बनी है । जल रही हूं । याद से छूटना है । किसी तरह ।
और 1 ही उपाय है । याद से छूटने का कि आदमी उसमें डूब जाए । परमात्मा जब तक तुम न हो जाओ । तब तक फिर याद न छूटेगी ।
1 तो उपाय है कि संसार में खोए रहो । ताकि याद ही न आए । फिर बीच की जगह है । जहां याद आएगी । और तुम तड़फोगे । बेचैन होओगे । रोआं रोआं तुम्हारा दर्द से भर जाएगा । और फिर 1 तीसरी घड़ी है । जब तुम छलांग लेकर वापिस सागर उतर जाओगे । मछली अपने घर पहुंच गई । सागर ही हो गई । परमात्मा ही जब तक तुम न हो जाओ । तब तक सुरति को । तब तक सुरति का उपयोग है । फिर कोई याद की जरूरत नहीं है । फिर कौन किसकी याद करता ? फिर तुम वही हो गए । जिसकी याद करते थे । फिर याद करने वाला ही न बचा । फिर याद किया जाने वाला भी न बचा । फिर 1 ही बचा ।
देवै किनका दरद का टूटा जोड़ै तार । दादू साधै सुरति को सो गुरु पीर हमार ।
और जो हमारी ऐसी सुरति को सधा दे । वही हमारा गुरु है । वही हमारा पीर है । तो गुरु कौन है ? इसकी परिभाषा कर रहे हैं वे । जो तुम्हारी याद को जगा दे परमात्मा की तरफ । वही गुरु है । जो तुम्हें तड़फा दे । वही गुरु है । देवे दर्द - वही गुरु है । जो तुम्हारे मीठे सपनों को तोड़ दे । क्योंकि मीठे सपने बड़े जहरीले हैं । झूठे हैं । जितना समय गया उसमें । व्यर्थ ही गया । जितना जाएगा । वह भी व्यर्थ जाएगा । सपनों से चलते रहने से यात्रा नहीं होती । जो तुम्हें जगा दे । दर्द से भर दे । प्यास से भर दे । वही गुरु है । ओशो
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प्रेम  मृत्यु ही जीवन है - सुबह घूमकर लौटा था । नदी तट पर 1 छोटे से झरने से मिलना हुआ । राह के सूखे पत्तों को हटाकर वह झरना नदी की ओर भाग रहा था । उसकी दौड़ देखी । और फिर नदी में उसका आनंद पूर्ण मिलन भी देखा । फिर देखा कि नदी भी भाग रही है ।
और फिर देखा कि सब कुछ भाग रहा है । सागर से मिलने के लिए । असीम में खोने के लिए । पूर्ण को पाने के लिए समस्त जीवन ही । राह के सूखे मृत पत्तों को हटाता हुआ । भागा जा रहा है । बूंद सागर होना चाहती है । यही सूत्र समस्त जीवन का ध्येय सूत्र है । उसके आधार पर ही सारी गति है । और उसकी पूर्णता में ही आनंद है । सीमा दुख है । अपूर्णता दुख है । जीवन सीमा के, अपूर्णता के समस्त अवरोधों के पार उठना चाहता है । उनके कारण उसे मृत्यु झेलनी पड़ती है । उसके अभाव में वह अमृत है । उनके कारण वह खण्ड है । उनके अभाव में वह अखण्ड हो जाता है । पर मनुष्य अहं की बूंद पर रुक जाता है । और वहीं वह जीवन के अनंत प्रवाह में खण्डित हो जाता है । इस भांति वह अपने ही हाथों सूरज को खोकर 1 क्षीणकाय दीये की लौ में तृप्ति को खोजने का निरर्थक प्रयास करता है । उसे तृप्ति नहीं मिल सकती है । क्योंकि बूंद, बूंद बनी रहकर कैसे तृप्त हो सकती है ? सागर हुए बिना कोई राह नहीं है । सागर ही गंतव्य है । सागर होना ही होगा । बूंद को खोना जरूरी है । अहं को मिटाना जरूरी है । अहं ब्रह्मं बने । तभी संतृप्ति संभव है । सागर होने की संतृप्ति ही सत्य में प्रतिष्ठित करती है । और वह संतृप्ति ही मुक्त करती है । क्योंकि जो संतृप्त नहीं है । वह मुक्त कैसे हो सकती है । जीसस क्राइस्ट ने कहा है - जो जीवन को बचाता है । वह उसे खो देता है । और जो उसे खो देता है । वह उसे पा जाता है ।
यही मुझे भी कहने दें । यही प्रेम है । अपने को खो देना ही प्रेम है । प्रेम का मृत्यु को अंगीकार करना ही । प्रभु के जीवन को पाने का उपाय है । तभी तो मैं कहता हूं - बूंदो ! सागर की ओर चलो । सागर ही गंतव्य है । प्रेम की मृत्यु को वरण करो । क्योंकि वही जीवन है । जो सागर के पहले ठहर जाता है । वह मर जाता है । और जो सागर में पहुंच जाता है । वह मृत्यु के पार पहुंच जाता है ।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326