22 दिसंबर 2015

पारस पत्थर की खोज

sir i want to talk to u about paras stone. i need it's information for humanity sake. pleasee sir help me. ( ईमेल द्वारा )
-----------
ये सत्य है कि मुझे सुरति शब्द योग या आत्मज्ञान के बजाय..सोना बनाने की विधि, पारस पत्थर, आयुर्वेदिक उपचार, भूत प्रेत बाधाओं, कोई सिद्धि करने हेतु तथा सबसे अन्त में सट्टे का नम्बर जानने हेतु तुलनात्मक सर्वोच्च ‘सुरति शब्द योग’ अधिक फ़ोन आते हैं । जबकि मेरे लेखन का सही अध्ययन करने वालों को पता होगा । इनमें से मेरी किसी में कोई दिलचस्पी नही है ।
फ़िर भी हम जो जानते हैं । वह जनहितार्थ दूसरे को साझा करते हैं । यही समाज का चलन है ।
- सर्वप्रथम यह जानिये कि मेरे पास न तो पारस पत्थर है और न मैंने इसे देखा है । और किसी की खोज के आधार पर जानकारी देने स्पष्ट करने के अतिरिक्त मैं और कोई सहायता नहीं कर सकता ।
- आगे मैं जो लिख रहा हूँ । यह जानकारी किसी ग्रन्थ या सुने हुये के आधार पर न होकर मेरे स्रोतों पर आधारित है ।
- अभी का नहीं पता, पर भूतकाल में यह पत्थर कुछ लोगों के पास था । जिनमें राजा परमाल के पास निश्चित था । परमाल के पास सोना भी काफ़ी था । उसके किले में दरवाजों चौखटों आदि में ही काफ़ी सोना था । प्रसिद्ध ऐतहासिक प्रथ्वीराज युद्ध और बाद में सब खास के मारे जाने के बाद ये पत्थर समुद्र में फ़िकवा दिया गया । जिसे खोजने की अंग्रेजों ने बहुत कोशिश की । पर नहीं मिला । 
- सबसे पहले यह जानिये कि पत्थर शब्द से रेतकणों से बने आम पत्थर का आभास अधिक होता है । लेकिन हीरे को भी मूल भाव में पत्थर ही कहा जाता है । और पारस पत्थर या पारसमणि एक हीरा पत्थर ही होता है । न कि कोई आम पत्थर जैसा ।
- यह एक खरबूजे जैसा बङा भी हो सकता है । और मध्यम आलू या बेर जैसा भी । पर छोटे की सम्भावना अधिक रहती है ।
- इसकी कोई उमृ और क्षमता नहीं होती । कितना भी लोहा लगाते रहो । यह काम करेगा ।
- यह पहाङी और तराई क्षेत्रों में अधिक हो सकता है । मेरे अनुमान के अनुसार ये नेपाल के तराई क्षेत्र में हो सकता है । ( यद्यपि मैंने नेपाल और उसका तराई कभी नहीं देखा )
- जैसा कि बहुत स्थानों पर लिखा है कि यह किसी भी वस्तु को सोना बना सकता है । यह सही नहीं है । यह सिर्फ़ शुद्ध जंगरहित ‘लोहे’ को ही स्वर्ण में बदलता है ।
- इसकी सबसे बङी पहचान इसका स्व प्रकाशित होना है । बहुत से सर्प इसको प्राप्त कर लेते हैं । फ़िर अंधेरे में इसका प्रयोग करते हैं । लेकिन यह उनके मस्तक आदि में नहीं होता । बल्कि मुंह में दबाकर चलते हैं । इसीलिये नागमणि जैसे शब्दों और कहानियों का चलन हुआ ।
अतः इसको खोजने में पथरीले स्थान और अंधेरा ही प्रमुख है । क्योंकि इसकी रोशनी दिखेगी । जो इसके दबे या खुले होने पर कम ज्यादा हो सकती है ।
- कुछ चिङियां भी ऐसा प्रकाशी पत्थर घोंसलें में ले आती हैं । पर वह हो भी सकता है और नहीं भी ।
- पहाङी क्षेत्रों में इसके जानकार कुछ लोग अक्सर पशुओं के खुरों में लोहा लगवा देते हैं । और जब कभी विचरते हुये उनका खुर इससे स्पर्श हो जाता है । तो वे सोने के हो जाते हैं । फ़िर वे सोना अलग कर लेते है । ऐसा कई बार हुआ है ।
- पारस पत्थर को खोजने का यह भी एक सरल तरीका है । अपने जूतों और हाथ में ऐसी छङ जिसके निचले हिस्से पर लोहा हो । लेकर खोजना ।
- अनेक रहस्यमय प्रकृति के क्रियाकलापों में से एक यह भी प्रकृति निर्मित प्राकृतिक वस्तु है । और किसी भी काल में पारस पत्थर प्रथ्वी पर हजारों और लाखों भी हो सकते हैं । गौर करें । हम कौन सा हर चीज से लोहे को स्पर्श कराकर परीक्षण करते हैं । बहुत संभव है ये अनेक लोगों ने अनायास उठाकर ढेले की भांति उछाल दिया हो ।
- यह कहीं भी हो सकता है । आपके पुराने घर से लेकर किसी सुनसान टापू या समुद्र आदि के पास भी ।
- सबसे मजे की बात, पौराणिक स्यमंतक मणि यानी आधुनिक कोहिनूर हीरा भी पारसमणि हो सकता है ।
----------------
पारस पत्थर के बारे में इंटरनेट से प्राप्त कुछ तथ्य ।
----------
- आज से 831 साल पहले दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान ने राजकुमारी चंद्रावल को पाने और पारस पत्थर व नौलखा हार लूटने के इरादे से चंदेल शासक राजा परमाल देव के राज्य महोबा पर चढ़ाई की थी ।
किवदन्तियां - कहते हैं कि यह पहाड़ों पर कहीं होता है । पहाड़ी चरवाहे बकरियों के खुरों में लोहे के नाल ठोक देते हैं । वे कभी पारस के ऊपर होकर निकल जाती हैं । तो लोहे के नाल सोने के हो जाते हैं । 
- सुअरिया का दूध यदि ईंटों पर पड़ जाय । तो वह सोने की हो जाती हैं । 
- विज्ञान खोजियों को अभी तक इस प्रकार की किसी वस्तु का संसार भर में पता नहीं लगा है । जिसे छूने से लोहा सोना हो जाता हो ।
- कुछ अलकेमिस्टस के अनुसार ये पत्थर चंद्रमा या किसी दूसरे गृह पर बना था । जो धरती पर गिरा था ।
- कुछ को लगता है कि ये किसी अंडे के भीतर सही मटेरियल मिलने पर बनता है ।
दुनिया के अधिकांश धर्म संप्रदायों - हिंदू, बौद्ध और ईसाई धर्म में भी इसके बारे में लिखा गया है । ये पत्थर कैसा नजर आता है ? इस बारे में भी अलग अलग जानकारी मिलती है । किसी में इसे लाल, जामुनी किसी में पारदर्शी बताया गया है ।
- तीमंगढ़ किले से जहाँ किले के पास स्थित सागर झील में मौजूद पारस पत्थर के स्पर्श से कोई भी चीज सोने की हो सकती है । जोधपुर के तीमंगढ़ किला, मसलपुर उप तहसील के अन्दर आने वाले करौली के पास स्थित है । 1100 ई में बने इस किले को नष्ट करवा के यदुवंशी राजा तीमंपल द्वारा 1244 ई में इस किले का निर्माण कराया गया ।
----------
पारस पत्थर पारे का ठोस रूप होता है । जो प्रकृति में गंधक के साथ मिलकर उच्चदाब और उच्चताप की परिस्थितियों में बनता है । उसी उच्चदाब और उच्चताप की परिस्थितियों में तेलिया कंद पारे को ठोस रूप में बदलने में सहायक होता है ।
2Hg+ S = Hg2S ( -2e ) ( सोना )
आयुर्वेद के हिसाब से पारा शिव और गंधक पार्वती का रूप है । उसी तर्ज पर पारा
( hg, 80 ) + गंधक ( sulphar ) -> उत्प्रेरक ( तेलिया कंद )
तेलिया कंद
Hg + S => gold
उत्प्ररेक
पारे को गंधक के तेल में घोटकर उसमें तेलिया कंद मिलाकर बंद crucible में गरम करते हैं । इस क्रिया में पारे का 1 अणु गंधक खा जाता है । गंधक पारे में अपना पीला रंग देता है । तेलिया कंद पारे को उड़ने नहीं देता । तथा पारा मजबूर होकर ठोस रूप में बदल जाता है । और वो सोना बन जाता है ।
-----------
तेलिया कंद - एक चमत्कारिक पौधा है । जिसका पहला गुण परिपक्वता की स्थिति में जहरीले से जहरीले सांप से काटे हुए इंसान का जीवन बचा सकता है । दूसरा ये पारे को सोने में बदल सकता है । इसके पौधे के आसपास की जमीन का क्षेत्र तेलिय हो जाता है । तथा उस क्षेत्र में आने वाले छोटे मोटे कीड़े मकोड़े उसके तैलीय असर से मर जाते हैं ।
तेलिया कंद का पौधा 12 वर्ष उपरांत अपने गुण दिखाता है । तेलिया कंद male और female 2 प्रकार का होता है । इसके चमत्कारी गुण सिर्फ male में ही होते है । इसके male कंद में सुई चुभोने पर इसके तेजाबी असर से वो गलकर नीचे गिर जाती है । पहचान स्वरुप जबकि female जड़ी बूटी में ऐसा नहीं होता ।
इसका कंद शलजम जैसा रंग आकृति का तथा पौधा सर्पगंधा से मिलती जुलती पत्ती जैसा होता है ।  पौधा वर्षा ऋतु में फूटता है । वर्षा ऋतु के बाद ख़त्म हो जाता है । इसका कंद जमीन में ही सुरक्षित रह जाता है । इस तरह से हर मौसम में ऐसा 12 वर्षों तक लगातार होने के बाद इसमें चमत्कारिक गुण आते हैं । 
ये बूटी भारत के कई जंगलों में पायी जाती है । 1982 तक भीलों का डेरा mount abu में बालू भील से देश के सभी क्षेत्र के लोग ये बूटी खरीद के ले जाते थे । बालू भील का देहांत हो चुका है । तथा उसके बच्चे इसकी अधिक जानकारी नहीं रखते ।
इस बूटी का चमत्कार करते हुए अंतिम बार बूंदी में बाबा गंगादास के आश्रम 1982 में देखा गया था । आज भी देश में लोग खासकर कालबेलिये और साधू इसके चमत्कारिक गुण का उपयोग करते हैं । तेलिया कंद की जगह देश में अन्य चमत्कारिक बूटियां भी काम में ली जाती हैं । जैसे रुद्रबंती, अंकोल का तेल, तीन धार की हादजोद आदि ।

14 दिसंबर 2015

20% सत्य और 80% असत्य

अगर आप बेहोशी की नींद में नही हैं तो सिर्फ़ शास्त्र ही नही राजनीति, समाज आदि जगत व्यवहार में प्रचलित 80-90% व्याप्त असत्य का अक्सर ही आभास होगा । दरअसल 20% सत्य में 80% असत्य का निरन्तर घुलनशील मिश्रण का नाम ही सृष्टि है । सृष्टि ! जगत नहीं लिखा मैंने । क्योंकि जगत सिर्फ़ सृष्टि खंड का आभास देता है ।
अतः यदि 20% सत्य और 80% असत्य को जाना जाये । महसूस किया जाये । तो बहुत से आधारहीन प्रश्न बचते ही नही हैं । और ये अनावश्यक प्रश्न ही बाधक बने हुये हैं । बंधन हैं । जन्म मरण, पाप पुण्य, सुख दुख, ज्ञान माया भी हैं ।
लेकिन मेरा विषय बिन्दु अध्यात्म है और अध्यात्म का स्पष्ट हो जाना ही सृष्टि रहस्य का मूल है - एकहि साधै सब सधै ।
वर्तमान उपलब्ध सतसाहित्य तथ्यों को लेकर असत्य से भरपूर तो है ही । उसमें पतनकारी सामग्री भी समाहित है । यह बात वैश्विक है ।
ऐसे सत्य असत्य के मिश्रण के पीछे कई प्राकृतिक कारण स्व स्फ़ूर्त होते हैं । जो गलत लगते हुये भी पूर्णतया सही हैं । असत्य में रहना ही परिवर्तनशील सृष्टि है । और जाग्रत होकर शोधन से सत्य का प्रकट होना शाश्वत चैतन्यता है । यही खेल मात्र है ।
उपजा ग्यान बचन तब बोला । नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला ।
अतः ऐसे में असत्य में से सत्य का शोधन करने का एक सरल सा सूत्र है । उन तथ्यों, विवरणों में से सिर्फ़ विज्ञान और क्रियात्मक व्यवहार अलग कर परस्पर अन्य सभी को मिलाकर शोधित किया जाये ।
भारतीय हिन्दू समाज में भी प्रमुख राम, कृष्ण, विष्णु, हनुमान, शंकर, दुर्गा शक्ति आदि को लेकर बहुत सी मिथ्या धारणायें अधिक प्रचलित हैं । ऐसा ही अद्वैत भक्ति या निर्गुण निराकार शाखा में प्रमुख कबीर नानक जी आदि को लेकर हुआ है । ऐसा ही भारत से कोई सम्बन्ध न होते हुये भी दो प्रमुख यीशु और मुहम्मद के प्रति तथ्यों को लेकर चलन है ।

अब यहाँ मूल की बात की जाये । तो धर्मग्रन्थ सम्मत भी अद्वैत ज्ञान ही मूल है । जिसमें कबीर, नानक आदि सन्त आते हैं । साकार द्वैत फ़िर इसका सृष्टि विस्तार है । जिसमें राम, कृष्ण आदि देवी देव आते हैं । बाइबल कुरआन जैसी पुस्तक धर्म आधारित सिर्फ़ गुण सूत्र है । जो बेहद सीमित और प्रारम्भिक सी चर्चा करते हैं ।
इसमें भी ध्यान रखना होगा । मैं मूल वाणियों की बात कह रहा हूँ । अभी प्रचलित मिलावटी और लगभग नकली की नहीं । और गुण शब्द को विशेष ध्यान में रखना । क्योंकि तमो गुण द्वैत, अद्वैत और किसी भी धर्म पदार्थ का एक अभिन्न अंग है । सिर्फ़ देवत्व ही धर्म नही है । दानव भी एक धर्म है । और मनुष्य सृष्टि में यह बृह्मा का ही एक वंश है । लेकिन खास अद्वैत और तम का सम्बन्ध विशेष विचारणीय है । जो एकदम अटपटा भी है । पर अनिवार्य है । क्योंकि सत और रज तो आदि, मध्य में सहज स्वीकार हैं ।
चाहे वो विषय राम, कृष्ण आदि के बारे में हो या कबीर नानक के, सही सहज और सरल सत्य के बजाय भ्रामक अधिक है ।
राम का जन्म आदि कुछ घटनायें, कबीर और नानक का जन्म आदि घटनायें सहज से अधिक चमत्कारिक बनाकर पेश की गयीं । उनके सन्देश निर्देश को कुछ का कुछ मान लिया गया । वो भी उनके कट्टर अनुयायियों द्वारा ।
अगर अंतरज्ञानियों में से कोई या कुछ गोरखनाथ को मछन्दर नाथ का पुत्र बतायें । तो कोई मानने सुनने को तैयार नहीं होगा । हनुमान का सुग्रीव के साथ पर्वत पर आने से पूर्व विवाहित जीवन था । पत्नी हनुमान जी के पर्वत पर जाने के बाद में अपने सम्बन्धियों के पास चली गयीं । मुश्किल है स्वीकारना । मछली द्वारा मानव पुत्र स्वीकृत है । पर वास्तविक सत्य नहीं । कबीर समाधिस्थ ऋषि और हिमालय गयी कुंवारी के गर्भ से उत्पन्न थे । इसको स्वीकारना कठिन है । पर आकाश से सीधा सरोवर कमल पर प्रकट हुये । यह सहज स्वीकार्य है । क्योंकि हमें सिर्फ़ चमत्कारी अस्तित्व पसन्द आते हैं ।
यद्यपि उन्हीं कबीर साहब ने कहा था कि - हाजिर की हुज्जत गये की तलाशी, का जमाने का पुराना चलन है ।
अतः हम एक चमत्कारिक मगर गढी हुयी छवि से सम्मोहित होकर सत्य से दूर हो गये । हम उन्हें तो मानते हैं । पर उनकी ही वाणी आदर्श और चलन को नहीं मानते ।
हाँ, मानते हैं मगर अपनी सुविधा और शर्तों पर और यह हरगिज सत्य नही है ।
पौराणिक कथायें, वेद की ऋचायें और उपनिषद के सूत्रों को पढने रटने मात्र से किसी चमत्कार या किसी चमत्कारिक पुरान पुरुष की या किसी दुर्लभ या अन्तिम प्राप्ति की अपेक्षा रखते हैं । तो यह सिर्फ़ मृग मरीचिका भर ही है । क्योंकि सत्य को पाने हेतु सत्य भेदन करना होगा ।

13 दिसंबर 2015

जङ और चेतन

जो इन 3 चित्रों को गहरायी से समझ लेगा । वह परमहंस ज्ञान या जङ चेतन की संयुक्तता और प्रथकता को भी समझ लेगा ।
हरा नारियल - जीव की सर्वाधिक प्रारम्भिक अवस्था है । जिसमें वह निर्मल निर्दोष है ।
कठोर कवच सहित नारियल - लेकिन अभी अधकच्चा हो । यह जीव की घोर अज्ञान अवस्था है ।
कवच से प्रथक हुआ नारियल - पूर्णत मुक्त और ज्ञान अवस्था है ।
( यद्यपि इसका कवच से पूर्णतया अलग गोले का चित्र होना चाहिये । पर वह उपलब्ध नहीं हो सका । इसलिये इसे कवच से अलग मानकर चलें । )

ईश्वर अंश जीव अविनाशी । चेतन अमल सहज सुखराशी ।
जङ चेतन ग्रन्थि परि गयी । जद्यपि मृषा छूटत कठिनई ।
---------
आपने अक्सर सनातन धर्म की विभिन्न पूजा पद्धतियों में नारियल का प्रयोग होते देखा होगा । लेकिन इसके पीछे क्या कारण है ? यह शायद ज्ञात नहीं होगा । ये तीन चित्र आत्मा के जीव सृष्टि के प्रतीक और फ़िर कृमशः धर्म अर्थ काम का प्रतिनिधित्व करते हुये मोक्ष के प्रतीक है ।
परमहंस ज्ञान की गुप्त पद्धति में तो नारियल मुख्य ही है । आपने कभी गौर किया है । कठोर कवच को तोङकर 

नारियल निकालना एक तरह से कष्टदायक ही है । लेकिन कवच से अलग हुआ नारियल यहाँ मुक्त जीव है और जटिलता से जुङा कवच अज्ञान है । दोनों के अलग होने में जो श्रम, कठिनाईयां, कष्ट आदि आये । वही साधना और भक्ति है ।
तो गहरायी से समझिये इस बन्धन और मुक्ति के सूत्र को ।
इसकी स्पष्ट व्याख्या इसलिये नहीं की । क्योंकि फ़िर उससे अपेक्षित लाभ नहीं होगा ।

09 दिसंबर 2015

शिकरा बाज

शिकरा बाज या लग्गङ ग्रामीण भाषा में एक शिकारी स्वभाव के पक्षी नाम है । जो वास्तव में "शिकारी बाज" का अपभ्रंश हो सकता है । आमतौर पर यह पक्षी कबूतरों, चूहों और छोटी चिङियों को अपना शिकार बनाता है । यह बाज से आकार में लगभग आधा और एक बङे उल्लू के समान होता है । तथा कुछ कुछ उसी जैसा दिखता भी है । मैंने इसे कई बार देखा है । 
यदि आप अपने आसपास की प्राकृतिक घटनाओं पर भी सावधान नजर रखते हैं । तो आपने कभी न कभी इसे देखा होगा । पेङों पर बैठी चिङियों का झुण्ड इसके आकृमण के समय तेजी से चहचहाता इधर से उधर उङता है ।
पशु पक्षी जगत के अन्य तमाम रहस्यों की भांति शिकरा बाज का भी एक अनोखा रहस्य पुराने लोगों द्वारा सुनने में आता है ।
पूर्व समय में कुछ लोग शिकरा बाज का घोंसला खोजते थे । और देखते थे कि उसमें छोटे बच्चे हैं या नहीं । बच्चे होने पर वे किसी एक बच्चे के पैर में लोहे की जंजीर बांध देते थे । शिकरा बाज जब बच्चे को जंजीर में बंधा 

देखता था । तो वह किसी ( अज्ञात ) पेङ पौधे आदि की लकङी लाता था । और उसके स्पर्श से वह जंजीर काट देता था । बाद में वह लकङी और जंजीर वह लोग उठा लाते थे । 
फ़िर उस लकङी के स्पर्श से लोहा कट जाता था ।
वास्तव में ऐसी कई जङी बूटियां हैं । जो अनोखे कार्य करती हैं । वनवासी ऋषियों मुनियों को इनमें से बहुतों के बारे में जानकारी थी । पर विलक्षण कार्य वाली वस्तुओं के नाम और उपयोग आदि जानकारी को उन्होंने दुरुपयोग के भय से उजागर नहीं किया ।
इनमें से कई का सम्बन्ध प्राचीन दिव्यताओं से भी है । जो इनकी शक्ति से भी जुङा है ।
हुआ हुआ करने वाला साधारण सियार, पूज्य और उपयोगी होने के बाद भी मानव मल को खा लेने वाली गाय, प्रथ्वी को स्पर्श करते समय हमेशा पैर में लकङी दबाये हारिल पक्षी ( ताकि प्रथ्वी का स्पर्श न हो, अलल पक्षी, शार्दूल, गुणकारी शक्तिशाली पौधा तुलसी, केतकी, केवङा आदि, इन सबका सम्बन्ध प्राचीन दिव्य विभूतियों के शाप या स्थिति च्युत घटनाओं से हैं ।
84 लाख योनियों में अधिकांश देहधारी इसी के चलते शरीर आकार, रंग, खानपान और रहनी को लेकर विवश हैं । बाद में उनके कर्मफ़ल के आधार पर इस देह के भी सुख या कष्ट अलग से होते हैं ।

10 नवंबर 2015

सदैव दीपावली

दरअसल हम रहे हैं सदैव आकांक्षी एक सुखी समृद्ध विलासी जीवन के  । पर झूठी है यह तलाश ही । ठीक कुत्ते के हड्डी चूसने जैसी । हवा को बांधने जैसी । आकाश को समेटने जैसी । स्वेच्छिक अनुकूल अनुरूप वर्गीय जीवन की अन्धी मनःवासना । जो कि न है न कभी होना सम्भव है । कुछ वर्ष नहीं, कुछ माह, कुछ दिन, कुछ क्षण को भी नहीं । 
क्योंकि यह होगा समय को बांधना । पर नहीं बांधा जा सकता है समय को । हाँ रोक देते हैं कुछ योगी, कुछ सन्त, कुछ सती भी इस चक्र को । पर तब समय होता ही कहाँ है । जो पहले से ही नहीं है । उसमें कैसे क्या कुछ हो सकता है ?
इसलिये हम नहीं समझ पाते होली को दीवाली को ईद को क्रिसमस या किसी ओर को । दिये जलाते हैं । रंग उछालते हैं । पकवान बांटते हैं । वृक्ष आदि जङ को सजाते हैं ।
पर भूल जाते हैं खुद को । तेल को बाती को मिट्टी के दिये को । गुणों के रंग को । स्वभाव की मिठास को । चाह के परिधानों को । कल्पना के वृक्ष को माया की झिलमिल को ।
मैंने नहीं देखी दीप आवली । नहीं जलता दिया । तो फ़िर कौन जलायेगा पूरी श्रंखला ।
सोचिये, इन सबके पीछे सिर्फ़ आकांक्षायें है । झूठी कल्पनाओं की । निर्मूल धरातलों की । कोरी भावनाओं की । फ़िर कैसे जलेगा दिया और जगमगायेगी प्रकाशित आवली ।
स्मृति है बाती । भाव है तेल । शरीर दिया । विवेक है उजाला । जगत है वृक्ष । मन है जीव । इनसे परे शिव । और सर्व ।
हम कहते हैं वही । करते हैं प्रतीक वही । पर जानते नहीं । जो प्रकृति दर्शाती अनकही । 
अनकही प्रकृति की । खोजो दिया तेल बाती और युक्ति । युक्ति प्रकाश की । शाश्वत की । तब जलेगा दीप और और बनेगी आवली ।
कच्चा दिया । क्षणिक प्रकाश । छोटी सी बाती । और अशुद्ध तेल । तब नहीं होगा उजाला । सदैव दीप आवली वाला ।
सदैव दीप आवली । एक दो दिन नहीं । झूठी नहीं । न ही दिखावे की । न ही खुशी रहित ।
सदैव शाश्वत अक्षय अविनाशी अविचल अनुपम स्वतः ।
न तेल न बाती न दीप ।
फ़िर सदैव
दीपावली ।
की चिन्ताहरण आश्रम ( मुक्त मंडल ) की ओर से सभी को हार्दिक शुभकामनायें ।

01 नवंबर 2015

अनन्तकला परमात्मा

हिन्दू शास्त्रों का एक महत्वपूर्ण और निर्णयात्मक सूत्र - बृह्म सत्य जगत मिथ्या । मिथ्या कुछ कठिन शब्द है । सरल अर्थ है झूठ । और भी सरल करें तो - जो नहीं है ।
कुछ अजीब सा लगता है । ये कौन कह रहा है । किससे कह रहा है । कब कह रहा है ?
जब हम इसकी तलाश करेंगे । तो ये जीव कह रहा है । जीव जीव से या स्वयं से कह रहा है । या बोध रहा है । जगत मिथ्या ।
पर यह सूत्र अपने आप में पूर्ण नहीं है । यदि इसमें जीव अविनाशी अमर जैसी बात और ज्ञात न हो । क्योंकि मोटे तौर पर जीव जगत में ही है । और जगत मिथ्या तो जीव क्या ?
फ़िर आगे जगत मिथ्या को और भी सरल किया गया - स्वपनवत । अब स्वपन का भी साधारण ज्ञान रखने वाले बारीक अर्थ नहीं जानते । वह यह - अपनी ही अवस्था । चाहे तुरीया के जाग्रत या निद्रा में । है स्वपन स्व-पन ही । क्या स्वपन है - जगत ।
उमा कहहुं मैं अनुभव अपना, सत हरि नाम जगत सब सपना ।
अव प्रश्न यह उठा कि स्वपन कहाँ से आया ? उत्तर है - कल्पना से । कल्पना कहाँ से आयी ? उत्तर - वासना से । वासना कहाँ से ? उत्तर - चाह से । चाह कहाँ से ? उत्तर - इच्छा से । इच्छा कहाँ से ? उत्तर - स्फ़ुरणा, होने का बोध ।
बोध किसको, स्फ़ुरणा किसको ? उत्तर - जीव । जीव कौन ? उत्तर - हंकार, हंग । हंकार किससे ? उत्तर - निहंग से, आत्मा से ।
निहंग क्या, आत्मा क्या ? उत्तर - .....( निशब्द, शब्दातीत, अवर्णनीय, है, जो है सो है )
कोष्ठक में जो शब्द लिखने पङे । वह मजबूरी है । बात खत्म, मौन, जैसा भी लिखना झूठ हो जायेगा ।
कुछ भी कहना सम्भव नहीं । आदि से अब तक कोई कह न सका । कहने का प्रयत्न किया । पर वक्ता को स्वयं लगा - नहीं, कहा नहीं जा सकता ।
किसी भी जीव के आदि सृष्टि से अब तक की स्थिति का यही कृम है । यही मार्ग है । जिस पर वह चलकर आया । अब ठीक इसी कृम को उलटना है ।
गहराई से सोचें - बृह्म सत्य जगत मिथ्या, किसने कब क्यों कैसे कहा ?
अक्सर लोग कहते हैं, मुझे अपने अनुभव अधिक लिखने चाहिये । योग समाधि आदि क्रियाओं में हुये अनुभव । जैसे परीकथाओं जैसा कोई वृतांत कोई दृश्य का सृजन हो । कोई देव देवी मिले । यक्ष राक्षस मिले । पारलौकिक भूमियों देशों के विस्तृत वर्णन । एक रोचक रहस्यमय कहानी जैसे ।
यह उनकी एक और कल्पना है । शब्द, कथन यहाँ तक कि अक्षर सब अनुभव ही है । बस उनके पीछे उनकी तह में उनके मूल में जाने की कोशिश करो । फ़िर उस अस्तित्व को सोचो ।
इस सूत्र का पुनर्निरीक्षण करें - बृह्म सत्य जगत मिथ्या । क्या ध्वनि क्या संदेश निकल रहा है ?
सबसे पहले यह सोचें - जगत मिथ्या क्यों कहा ? बृह्म सत्य भी क्यों कहा ? जीव भी अविनाशी अमर कैसे हो सकता है ? और ये कब क्यों किसके द्वारा कहे गये ।
यदि कोई सूत्र का सही अर्थ जानता हो । तो फ़िर इस सूत्र के भी उपरोक्त शब्दों के द्वारा तहों या तल पर जा सकता है ।
क्या यहाँ 3 हैं - सत्य बृह्म, कल्पनाओं से बनता मिटता जगत और ऐसा कहने वाला स्वयं ?
ये भी योग की एक स्थिति है । तीन भी हो सकते हैं । फ़िर वह और बृह्म ऐसे दो भी होते हैं । और फ़िर बृह्म हुआ वह स्वयं ही शेष रहे । यह भी होता है । और स्थिति के उपरान्त फ़िर तीन हो जाते हैं । स्थिति बारबार के अभ्यास से दृढ होने पर अक्सर ही कभी दो कभी तीन कभी एक होता रहता है । लेकिन बृह्म होने का सत्य तब तक प्रतिष्ठित हो जाता है - अहं बृह्मास्मि ।
ईश्वर बृह्म जीव और माया । कैसा अदभुत खेल बनाया ।
मेरे सामने एक अङचन रहती है ‘बृह्म सत्य’ ऐसा किसने और क्यों कहा ? बृह्म शब्द का अर्थ उसने क्या लिया । नाम नहीं लेना । पर अधिकांश शून्यवादी शून्य समाधि वाले शून्य को ही सब कुछ घोषित कर गये । अन्दर सिर्फ़ शून्य ही शून्य है और कुछ नहीं । कुछ ने इसमें प्रकाश जोङ दिया । आत्मा ( या बहुतों ने इसे कहा परमात्मा ) प्रकाश स्वरूप है ।
कुछ विद्वानों ने कहा - बृह्म का अर्थ आत्मा या शाश्वत से है । लेकिन जिन शास्त्रों में बृह्म शब्द है । उन्हीं में पारबृह्म शब्द भी है । यदि बृह्म को एक चेतन पुरुष माना जाये । तो फ़िर पारबृह्म के अर्थ उससे पार या परे जो कुछ है न कि कोई पारबृह्म पुरुष ।
लेकिन सुरति शब्द योग में मजबूरन परम आत्मा के लिये जो सम्बोधन ‘मालिक, साहिब, कुल मालिक’ आदि कहा गया है । यह कुल तस्वीर को अधिक साफ़ करता है । मतलब साफ़ है । सबके बाद सबसे परे जो है । वही सबका स्वामी है ।
दरअसल बृह्म सत्य जगत मिथ्या को लेकर भृम की जो स्थिति बन सकती है । वह योग ध्यान की एक अच्छी स्थिति है । जिसमें मुख्य दो तरह का अनुभव होता है । एक, जिसमें वह अभ्यास के द्वारा पूर्णतया निर्विचारी ( अंतःकरण के विचार नष्ट नहीं होते । बल्कि उस समय वह विचारों से ऊपर या परे निकल जाता है ) हो जाता है । ऐसी स्थिति में वह खुद स्वयं सशरीर भान के साथ दूर दूर तक जहाँ जहाँ देखता है । दसों दिशाओं में खाली स्थान और चमकीला सफ़ेद दिखाई देता है । सहजता से समझने के लिये बर्फ़ के विशाल और समतल मैदान की कल्पना कर सकते है । लेकिन फ़र्क यह होता है कि बर्फ़ के मैदान पर भूमि और सृष्टि का पूर्ण अहसास होता है । जबकि यहाँ पूर्ण रिक्तता और बेहद हल्कापन महसूस होता है । यह स्थिति जगत मिथ्या कही जा सकती है । क्योंकि बेहद भीङभाङ या निर्माण के बीच भी यह स्थिति बन जाये तो सब कुछ अलोप हो जाता है ।
और दूसरी, अहम बृह्मास्मि वाली जिसमें वह खुद से जगत को प्रकाशित होते और प्रकृति को हलचल करते हुये देखता है । एक आवश्यक बात बता दूं । समाधि संयुक्त उच्च ध्यान में आँखे खुली हों या बन्द दृश्य एक ही दिखाई देता है । अन्दर बाहर समान । बस ध्यान निर्धारित स्थान या धुर पर केन्द्रित होना चाहिये । ऐसे अनुभव वाला भी कोई बृह्म सत्य जगत मिथ्या कह सकता है । पर इसको आंशिक सत्य ही कहा जायेगा । क्योंकि असली और अन्तिम सच्चाई अभी बहुत दूर है ।
एक बात विशेष स्मरण की है कि जिसके लिये बृह्म सत्य हो गया । उसके लिये भी जगत मिथ्या नहीं है । क्योंकि यह अपने सभी घटकों के साथ अब उसी में है । और स्थायी रूपेण अलग नहीं हो सकता । हाँ मोह आसक्ति आदि अज्ञान मूल से नाश हो जायेगा ।
हमें एक बात पर बारबार गौर करते रहना चाहिये - परमात्मा अनन्त कला है ।
और यदि साधक कोई स्थिति को जान रहा है । कुछ बार पहुंचा है । तो उससे फ़लित परिणाम क्या हुआ ? क्या उसे कोई विशेष शक्ति, उपाधि आदि कुछ प्राप्त हुआ । यदि ऐसा नहीं है । तो उसका तमाम योग एक खूबसूरत धोखा है ।
ये चर्चा बेहद विस्तार की मांग रखती है । अतः अभी समाप्त करते हुये एक चीज की ओर आपका ध्यानाकर्षण करता हूँ ।
आपने जीव के लिये अजर अमर अविनाशी अमल निर्मल यह सब सुना होगा । लेकिन शाश्वत नहीं । जीव को शाश्वत नहीं कहा जा सकता । यदि जीव शाश्वत है । तो जैसे परमात्मा अनादि है वैसे ही जीव भी अनादि हो जायेगा ।
हंकार रूपी बुलबुले से उत्पन्न जीव पुनः हंकार मिटने तक अंतःकरण अनुसार विभिन्न उपाधियों स्थितियों में अनन्तकाल तक भृमण करता रहता है । हंकार नष्ट हो जाने पर यह मूल हो जाता है यानी - शाश्वत आत्मा ।

25 अक्टूबर 2015

निरपंथी कोई बिरला जाना

कहावत है - काठ की हांडी अधिक देर नहीं चढती । कागज के फ़ूलों में खुशबू नहीं आती और शेर की खाल ओढ लेने से सियार शेर नहीं हो जाता । सनातन धर्म के हास होने में यह कहावतें सटीक हैं । इन कहावतों पर गौर करने पर पता लगता है । एक चीज इनमें कामन है - असली के रूप में अन्दर नकली ।
लेकिन कहावतें और भी हैं - सांच को आंच नहीं होती । हीरे को अपना मोल नहीं बताना होता । सत्य कभी छुपता नहीं ।
परन्तु बात और भी है - यहाँ खरबूजे को देखकर खरबूजा अधिक रंग बदलता है । जमाना भेङचाल से सदा प्रभावित रहा है । अक्सर हमारे बहुत से कार्य अकारण अज्ञात और उद्देश्यहीन होते हैं ।
परेशानी यह है कि - हम अपना ही कहा हुआ नहीं विचारते । हम कह क्या रहे हैं और कर क्या रहे हैं । हमारा लक्ष्य क्या है और जा किधर रहे हैं ?
**********
मुझे एक मजेदार बात याद आती है । किसी धार्मिक चैनल से मेरे लिये फ़ोन था । वह श्री महाराज जी की भागवत कथा या प्रवचन या जीवन्त प्रसारण के लिये आग्रह कर धीरे धीरे व्यवसायिक मोलतोल पर आ रहे थे । मैंने उसी दिन उन्हें गारंटी दी कि - यदि महाराज जी कभी भी प्रवचन करेंगे । तो उसका लाइव टेलीकास्ट आपके यहाँ से ही करायेंगे ।
दरअसल यह पुरानी बात अक्सर की और कल की नयी बात से जुङती है । हमारे यहाँ विभिन्न भगवत प्रेमियों के आग्रह पर साप्ताहिक सतसंग रविवार को बारह से चार होता है । जिसमें तरह तरह के महात्मा बारी बारी से अपना उपदेश करते हैं । सबसे अन्त में नियमानुसार श्री महाराज जी का होता है ।
जब पूर्व के महात्मा लोभ, लालच, आचरण, समाज सुधार जैसी बातों को आधार बनाकर उससे जीवन सफ़ल होना उद्देश्य पूर्ति होना मनुष्य की उत्कृष्टता सिद्ध होना पर बोल चुके होते हैं । तब गुरुदेव का उपदेश उनके लिये आघात पहुंचाने वाला होता है ( क्योंकि वह इन सब कार्यों भावनाओं का सम्बन्ध परमात्म प्राप्ति से जोङ रहे होते हैं )
वह यह - परमात्मा कहीं खोया नहीं है । जो उसे खोज रहे हो । परमात्मा कोई वस्तु नहीं । जो उसे प्राप्त कर लोगे । परमात्मा को प्राप्त करने का कोई साधन नहीं है - यह गुन साधन से नहिं होई । तुम्हरी कृपा पाय कोई कोई ।
परमात्मा को प्राप्त करने का कोई मार्ग भी नहीं है -
पंथा पंथी कहे जमाना । निरपंथी कोई बिरला जाना ।
सोई जानहि जाहि देयु जनाही । जानत तुमहि तुमहि हुय जाही ।
----------
ऐसी ही कुछ बातें ।
संकर ‘सहज स्वरूप’ संवारा । लागि समाधि अखंड अपारा ।
शिष्यों की तेजी से बढती संख्या को देखकर गुरुदेव ने हंसदीक्षा ( जीव का ज्ञान स्वरूप या ज्ञान बोध ) के साथ साथ ‘समाधि दीक्षा’ भी साथ ही देना शुरू कर दिया । पहले समाधि दीक्षा पात्रता के अनुसार हंस ज्ञान के परिपक्व हो जाने पर कोई एक वर्ष बाद दी जाती थी । इससे अनोखा लाभ यह है कि ध्यान का सही अभ्यास न कर पाने वाला साधक समाधि दीक्षा हो जाने से सुगमता से ध्यान कर लेता है ।
नोट - हमारे जिन शिष्यों की हंस दीक्षा या परमहंस दीक्षा हो चुकी है । परन्तु समाधि दीक्षा नहीं हुयी । वो आश्रम से सम्पर्क करके शीघ्र दीक्षा ले लें ।
रामायण की इस चौपाई में शंकर जी जो ‘सहज स्वरूप’ संवारते हैं । इसी को समाधि दीक्षा में दिया जाता है । यह सिर्फ़ समर्थ गुरु के आदेश से क्रियाशील होती है । मेरे अनुमान से अभी हमारे यहाँ एक हजार से ऊपर समाधि साधक होंगे । ध्यान साधक कई हजार हैं ।
-------------
सनमुख होय जीव मोहि जबहीं । कोटि जन्म अघ नासों तबहीं ।
समाधि के विभिन्न चरणों में गिरते गिरते जब सभी असार गिर जाता है । तब सार शाश्वत आत्मा ( परमात्मा ) ही प्रकाशित होता है । यही वो क्षण है । जब सनमुख होने से करोङों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं ।
----------
जब हंसा परमहंस हुय जावे । पारबृह्म परमात्मा साफ़ साफ़ दिखलावे ।
परमहंस का ध्यान करना हंस और समाधि ज्ञान की तुलना में कुछ कठिन है । शुरूआत में आंखों से लेकर कपाल तक में एक तनाव और भारीपन सा हो जाता है । दूसरे यह वक्री दिशा ध्यान है । यानी आपका चेहरा जिस तरफ़ है । उससे कोई बीस डिग्री झुकाव पर बिना चेहरा मोङे ध्यान करना । जैसे नब्बे अंश पर आपका चेहरा एकदम सीधा है । तब सत्तर अंश पर ऊपर की तरफ़ ध्यान केन्द्रित करना । यहीं प्रथम मोक्ष द्वार है ।
लेकिन इस ध्यान को सरल करने में हंस अभ्यास और समाधि अभ्यास से सुगमता हो जाती है । क्योंकि इससे साधक में कृमशः सूक्ष्मता आती रहती है ।
----------
मम दरसन फ़ल परम अनूपा । जीव पाय जब सहज सरूपा ।
मेरे ( परमात्मा के ) दर्शन का फ़ल अनुपम है । जीव जब अपने सहज स्वरूप में स्थित हो जाता है । उसे सहज ही मेरा दर्शन हो जाता है ।
----------
सबसे ऊपर मैंने जो लिखा । वह हमारे यहाँ प्रचलित तमाम मंडलों से आने वालों के निराशाजनक अनुभवों पर है । जिसमें वाणी द्वारा एक या पांच छह नाम जपना, सिर से एक हाथ ऊपर ध्यान करना या गुरु द्वारा कहना - चिन्ता न करो मैं सबको सत्यलोक ले जाऊंगा..जैसी मिथ्या बातें हैं । 
मजे की बात यह है यह सब कबीर के नाम पर हो रहा है । लेकिन झूठ से लोगों को कब तक भरमाया जा सकता है । रोटी कहने से भूख और जल कहने से प्यास नहीं बुझती । शान्त आनन्दस्वरूप सच्चिदानन्द के दर्शन के बाद ही यह प्यास तृप्त होगी ।

02 अक्टूबर 2015

अस्तित्व

अक्टूबर के प्रारम्भ के साथ ही हल्की हल्की सर्दी की दस्तक शुरू हो गयी । यह मिश्रित है । शाम से रात 11 तक कुछ गर्मी कुछ उमस सी रहती है । इसके बाद जैसे सर्दी शरीर से लिपटना शुरू हो जाती है । ठीक ऊपर घूमता सीलिंग पंखा जैसे इसमें चार चाँद लगाता हो । 
रात का सताया हुआ योगी कुनमुनाता हुआ अधमरा सा होने वाली नयी सुबह की प्रतीक्षा करता है । जो अगले 12 घन्टे उसे राहत देगी । और फ़िर वही 12 घन्टे की काली रात । दुखिया दास कबीर जागे और रोवे ।
वैसे अपवाद को छोङकर कसौटी शिष्य का कोई भी क्षण सुखमय नहीं होता - सेवक धर्म कठोरा । अहर्निश तपती रेगिस्तानी यात्रा में जैसे छांव फ़ल फ़ूल पत्ती की कोई आस नहीं । अपना कुछ नहीं । सपना भी कुछ नहीं । जीना भी नहीं । मरना भी नहीं ।
खिङकी से बाहर शान्त खङे आम्र वृक्षों को देखकर अक्सर सोचता हूँ - शायद ऐसे ही चला जाऊंगा । कहीं अज्ञात में..जहाँ मुझसे पहले इसी पथ के पथिक गये हैं । और मेरे साथ मेरा जाना हुआ भी ।
शब्द स्पंदित होने लगे । धीरे धीरे वायु संकुचन हुआ । एक अज्ञात स्फ़ुरणा किसी प्रबल प्रवाह वाली जलधार सी अलक्ष्य फ़ूटने लगी । शब्द बहने लगे । बनने लगे । बिगङने लगे । कोई तारतम्य नहीं । कोई व्याकरण नहीं । कोई ज्ञान विज्ञान नहीं । कोई कृम नहीं । कोई अर्थ नहीं । सब बेतरतीब ।
चट्टानी पत्थरों से टकराती अनियंत्रित पहाङी जलधार..कलकल..हलहल..चलचल..गलगल..क्या है इनका स्वर..क्या है इनका आशय..क्या है इनका बोध, कौन जानता है ? शायद ये खुद भी नहीं ।
इस अदम्य अलक्ष्य प्रवाह में वासना वायु के बने अस्तित्व लेते बुलबुले उछल रहे हैं । गिर रहे हैं । टूट रहे हैं । और किसी जिद में फ़िर बारबार बन रहे हैं ।
फ़िर सरस हुये शब्द जैसे आकार लेने लगे । विचारों के पंख फ़ङफ़ङाने लगे । मन पक्षी कल्पित खुले आकाश में उङ गये । एक सुन्दर सृष्टि विस्तार लेने लगी । जन्म मृत्यु, सुख दुख, उजाले अंधेरे से आँख मिचौली सी खेलती वैचारिक सृष्टि ।
लेकिन प्रवाह निर्लेप था । कर्ता उद्देश्यहीन था । अकर्ता था । अवैचारिक था । कुछ उदासीन सा । कुछ उदासीन सा..क्योंकि उदासीन भी न था । उमंग न थी तो उदासी भी क्या ?
मैं यही सोचता हूँ । मेरा अस्तित्व ? निर्लेप कर्ता से हुयी जीव सृष्टि में मेरा क्या अस्तित्व । क्या गति । क्या होना । क्या न होना ।
कभी अदभुत सा कभी चिङचिङापन सा जो महसूस होता है कभी । कभी सुखद सा कभी दुखद सा जो अनुभूत होता है कभी । वही मैं हूँ - सोहंग । अलग मैं हूँ - ओहंग । खोजी मैं हूँ - कोहंग । खोज मैं हूँ - निःहंग । अलग भी । एक भी । एकोह्म द्वितीयोनास्ति । एकोह्म बहुष्यामि ।
एक मैं हूँ । अनेक मैं हूँ । सब कुछ मैं हूँ । कुछ नहीं मैं हूँ । जाग्रत मैं हूँ । सोया मैं हूँ । चैतन्य मैं हूँ । निष्क्रिय मैं हूँ । तुरीया मैं हूँ । तुरीयातीत भी मैं हूँ - हुं..हुं..हुं । अंततः निशब्द मैं हूँ । जिसे कहना शब्द से पङता है ।
आश्रम दिन की गतिविधियों से क्रियाशील हो उठा है । साधु सन्तों स्थानीय लोगों आगन्तुक की चहल पहल जारी है । पर जैसे मैं इस सबसे अछूता हूँ । और पदार्थ अपदार्थ प्रतिपदार्थ में विचरता हूँ । वायु से उङते रंगों की रंगीन फ़ुहारें सी । शब्दों को उछालते फ़ुरणा । एक निर्वाध शून्य । और उसमें होता विछोभ । उठता उछाह । जो कभी मुझे होने कभी न होने का मिश्रित अहसास देता है ।

28 सितंबर 2015

एक मृत्यु और

अभी पिछले 8 दिनों से मौसम कुछ कुछ राहत वाला है । लेकिन इससे पूर्व कोई 40 दिनों तक लगातार आश्रम में भी भीषण गर्मी का साम्राज्य कायम था । आश्रम में भी मैंने इसलिये लिखा । क्योंकि आश्रम में दो सालों में ऐसी गर्मी मैंने पहली बार देखी । थोङा आश्चर्य कर सकते हैं कि 48 दिनों पूर्व जब भीषण गर्मी वाले दिन थे । आश्रम में बसन्त बहार सी छायी हुयी थी ।
ऐसी ही गर्मी के मध्य मुझे करीब 22 दिन पहले एलर्जिक जुकाम और फ़िर खांसी हो गयी । और कुछ दिनों में भोजन कङवा सा लगने लगा । पर अधिक कुछ न मालूम पङा । साथ के लोगों ने कहा - शरीर बहुत गर्म है । पर उसका भी मैंने कोई नोटिस न लिया । शरीर का बहुत गर्म या बहुत ठंडा हो जाना, मेरे लिये उन शारीरिक क्रियाओं में से था । जो अक्सर हो जाते हैं । फ़िर सबने कहा - तेज बुखार है । लेकिन मुझे अलग से कुछ नहीं लग रहा था । पर यकायक मुझे थोङे में ही थकान महसूस होने लगी । और मुझे 2 घन्टे बाद ही लेटना पङता था । जब सबने फ़िर कहा - तेज बुखार है । तो अबकी मैंने मान लिया । और डाक्टर को भी बोल दिया । लेकिन अन्दर से कोई कमजोरी या बुखार जैसा नहीं लगा ।
इससे पहले अमृतसर के दो सरदार जी आये थे । उन्होंने मुझे सेहत का ख्याल रखने और धूम्रपान न करने की सलाह दी । इस पर मेरे मुँह से निकल गया - मृत्यु मेरे लिये वरदान के जैसी है । और दूसरे जीने की कोई वजह नहीं ।
उन्होंने कहा - आप ऐसा न कहें । हम लोगों को आपकी बेहद जरूरत है । और परमात्मा अभी आपसे कार्य लेना चाहता हो ।
डाक्टर ने मुझे वायरल फ़ीवर के तौर पर इलाज दिया । जिससे हल्का बुखार तो कम हुआ । पर अन्ततः चार दिन बाद वह भी बेकार हो गया । तब डाक्टर ने मुझे विभिन्न टेस्ट के बाद उपचार की सलाह दी । और फ़िर मैं फ़िरोजाबाद ट्रामा सेंटर में भर्ती हो गया । तुरन्त सभी टेस्ट के बाद मुझे भर्ती कर लिया गया । टेस्ट रिपोर्ट के बाद जो बात मेरे नोटिस में आ रही थी । वो डाक्टरों का चौंकना और बारबार पूछना था..पहले कभी मूत्र, थूक आदि से खून आया । किसी कारण से कोई गर्म चीज खायी हो । पहले कोई गम्भीर बीमारी बनी हो ।
मेरी तरफ़ से इन सबका उत्तर ‘नहीं’ था । मैं उनके पूछने चौंकने के कारण जानता था । पर वे मेरा कोई कारण न जानते थे । टेस्ट की रिपोर्ट के बाद मेरा ब्लड प्रेसर नापा गया । और नर्स हैरत से बोली - हैं..बीपी तो नार्मल है ( फ़िर ऐसा तीन बार हुआ और यही संवाद दोहराया गया ) जो विभिन्न टेस्ट रिपोर्ट आयी थीं । उनके चलते वे अचानक और निश्चय ही मुझमें कोई भूकंपीय अटैक अनुमानित कर रहे थे । और मेरे थोङा खांसने पर भी चौंक कर देखते । जबकि वास्तव में मैं पूर्णतः शान्तचित्त था । और कोई परेशानी नहीं थी ।
आनन फ़ानन एक के बाद एक मुझे तीन बोतलें चढाई गयीं । और कुछ इंजेक्शन कुछ गोलियां भी दी गयीं । इसके बाद डाक्टर ने पूछा - कोई फ़र्क महसूस हुआ । आराम आया ।
मैंने कहा - मुझे तो कुछ नहीं लगा । ( वह कुछ नहीं बोला )
दूसरे दिन मैंने अपनी तरफ़ से छुट्टी के लिये बोला । ट्रामा सेंटर में पेशेंट केस फ़ाइल टेस्ट रिपोर्ट आदि उन्हीं के पास रहती है । मरीज को नहीं देते ।
तब डाक्टर ने कहा - इतनी जल्दी छुट्टी कैसे हो सकती है । इनको टायफ़ाइड है । और प्लेटलेटस कम हो चुकी हैं । आगे कुछ कहते कहते वह रुक गया ।
लेकिन मैंने अपनी परेशानी बतायी । और आश्रम पर ही निर्देशित इलाज करा लेने को कहकर छुट्टी करा ली ।
ये सब वह था, जो बाह्य तौर पर हुआ । ये दरअसल एक मृत्यु और थी । कुछ वैसी ही जिनसे मैं पहले भी दो चार बार गुजर चुका था । मैं चाह रहा था । शरीरान्त हो जाये । पर मैं अच्छी तरह जानता था । ऐसा नहीं होगा ।
इस बार के अनुभव में भी जो सबसे पहली चीज मुझे ज्ञात हुयी कि कोई भी अग्नि लौ ( माचिस की तीली आदि ) मेरे लिये बेहद धुंधली नजर आ रही है । जबकि अन्य चीजें एकदम स्पष्ट थी । कहने का मतलब बुखार या कमजोरी की वजह से दृष्टि धुंधली नहीं हुयी थी । जब पहली बार मैंने इस चीज का नोटिस लिया । तो और भी पक्का करने हेतु बारबार लौ को देखा । वह चमकीली के बजाय एकदम मरियल थी । कुछ मटैली सी थी । यह अग्नि तत्व का क्षीण होना था ।
इसके बाद पानी एकदम बेजान सा अजीब सा और बेमतलब सा लगा । ये जल तत्व क्षीण होना था ।
इक्का दुक्का चीजों को छोङकर कोई भी खाद्य पदार्थ एकदम बेस्वाद रसहीन और कुछ भी खाने की इच्छा न होना जैसा अनुभव हुआ । ये प्रथ्वी तत्व का क्षीण होना था ।
हाँ वायु तत्व और आकाश तत्व पुष्ट थे । और लगभग निर्मल थे । लेकिन जब जब चेतना डूबने या लुप्त सी होने लगती । ये भी सिमट जाते ।
यहाँ मनोवैज्ञानिक दिमाग वाले एक उपहासी अन्दाज में इनको बुखार और कमजोरी का लक्षण मान सकते हैं । और ये सत्य भी है कि कुछ कुछ ऐसे ही लक्षण होते भी हैं । क्योंकि प्रायः सभी बीमारियों में तत्व क्षीणता ही होती है ।
लेकिन यहाँ एक बारीक और असामान्य फ़र्क यह होता है कि उनका अनुभव दूसरे तरह का होता है । यदि वह मृत्यु पूर्व का न हो । तो चेतना डूबने जैसा अनुभव अक्सर नहीं होता । और जब चेतना डूबने का नहीं होता । तो महसूस हुयी तत्व क्षीणता कमजोर महसूस होती है । लेकिन वैसी कभी नहीं । जो मैंने ऊपर कही । मोटे तौर पर उन्हें कभी नहीं लगता कि वे मरने वाले हैं या मर सकते हैं ।
आत्मज्ञान के साधक को यदि वह कारण महाकारण से ही ऊपर है । और निरन्तर अग्रसर है । तो कई कई बार ऐसी मृत्यु के अनुभव होना सामान्य बात है । जो पूरी तरह मृत्यु ही होते हैं । पर शरीरान्त नहीं होता ।
जैसा कि हमेशा ही मेरी मजबूरी रही है कि कुछ वर्जित बातें, जिनसे तस्वीर एकदम स्पष्ट हो जाये । मैं वैसे नियम के कारण नहीं बता पाता ।
पर ये दरअसल सिर्फ़ एक यौगिक क्रिया न होकर मेरे विद्रोह और अहंकार की एक सजा भी थी । जो बर्दाश्त की सीमा टूट जाने पर स्वाभाविक ही उत्पन्न हो जाते हैं । और सोचिये, तब क्या मजा होता होगा । जब अपराधी मृत्यु या किसी भी अंजाम से भयभीत न हो ।
यहाँ गौर करने वाली बात ये भी है कि नियम तोङने वाला ही पदार्थिक फ़ेरबदल कर नये निर्माण करता है । पर तय पदार्थिक नियमों को तोङना बेहद कष्टमय शारीरिक स्थिति को झेलना है । जिसका अब मैं आदी हो चुका हूँ । और शायद ऐसे ही स्वभाव और उससे उत्पन्न हुयी प्रेरणा से मैंने जिस मंडल का गठन किया । उसका नाम ही है - मुक्त मंडल ।
__________
बरहाल ये लेख लिखना इस बात का प्रमाण है कि अब मैं लगभग स्वस्थ हूँ । और फ़ौजी की राह तकती उस पत्नी की भांति कलेंडर में उस तारीख को खोजता हूँ । जब वास्तविक रूप से मेरी शरीरान्त वाली मृत्यु होगी ।

23 अगस्त 2015

तुम झूठलोक के झूठ से कभी ऊबते क्यों नहीं ?

जय श्री गुरुदेव, गुरूजी मेरा एक प्रश्न है कि चलते फिरते भजन कैसे करें ? क्योंकि चलते फिरते भजन करने पर ध्यान तो भटकेगा । और जब तक मन एक स्थान पर नहीं है । तो वो ध्यान कैसे हुआ ? 
ओशो कहते हैं कि जो भी करो 100% मन से करो । ये भी एक ध्यान है ।
भजन तथा काम दोनों एक साथ कैसे. वैसे चलते हुए भजन की सही विधि क्या है । व इसका आध्यत्मिक तथा भौतिक लाभ क्या है ?
गुरूजी की एक शिष्य
*********
लगभग दस महीने के अज्ञातवास के बाद एक बार फ़िर डेढ महीने से ‘चिन्ताहरण आश्रम’ में हूँ । ये ठीक ऐसा ही है । महीनों पूङी पराठें खाने के बाद रोटी का खाना 56 व्यंजन के समान लगे । अथवा मरीजी टायप मूंग की दाल की खिचङी भी ‘मोहन भोग’ लगे । बात विपरीत लग सकती है । पर बात परिवर्तन को लेकर है । आप आजमा कर देखें । कश्मीर या स्विटरजरलेंड जैसी वादियों से ऊब होने पर उजङी हवेलियां, भुतहा खंडहर, टूटे पुल भी उतन ही आकर्षक और सम्मोहक लगते हैं । जबकि जिन्हें प्राप्य नहीं । खूबसूरत वादियों की सिर्फ़ कल्पना भी उनके लिये स्वर्गिक ही है । अदृश्य परमात्मा, सुना हुआ सत्यलोक या सचखण्ड भी उनके लिये अति महत्वाकांक्षी महल है । 
शब्द बङे विचित्र होते हैं । इतने विचित्र ! कि हम उनके भी मायाजाल में फ़ंस जाते हैं । यदि हम उनके अस्तित्व को जानने की कोशिश न कर सिर्फ़ उनके सन्देश में बहते है ।
झूठलोक या झूठखण्ड से सत्यलोक सचखण्ड का सफ़र और फ़िर गुरु कृपा से वहाँ का स्थायी निवासी हो जाना । आवागमन का झंझट मिट जाना । रोग बुढापा दुख का सदा समाप्त हो जाना बराबर सत्यलोक और परमात्मा है ।
स्वयं अखण्ड परमात्मा ने मुख्यतया दो खण्ड, प्रथम सचखण्ड और दूसरा झूठखण्ड बनाया । जिनमें एक पारबृह्म का क्षेत्र कहलाता है । दूसरा काल निरंजन का । कुछ अधिक विद्वान आपत्ति उठा सकते हैं कि झूठखण्ड परमात्मा ने नहीं, काल निरंजन ने बनाया है । उठाईये, मुझे कोई आपत्ति नहीं । पर इनके लिये भूमि आवंटन ( अलाटमेंट ) किसी तीसरे जमींदार ( लेंडलार्ड ) ने किया होगा ?
सत्य में स्थित होना ही सचखण्ड है । जो सिर्फ़ आत्मिक है । मन में स्थित होना ही झूठखण्ड है । ऊपर मैंने लिखा - शब्द विचित्र होते हैं । इसलिये मैं कह रहा हूँ ।
तुम झूठलोक के झूठ से कभी ऊबते क्यों नहीं ?
शब्दों की गति, शब्दों का निर्माण, शब्दों की खाईयां, शब्दों की इमारतें, शब्दों की लय, शब्दों का बहाव..क्या कभी खोजा है ?

जिस दिन उपरोक्त कमेंट हुआ । उसी दिन मैंने फ़ेसबुक के किसी पेज पर लिखा देखा - Art of living without doing anything 
बात अजीब सी है न । प्रश्न उठने से पहले उत्तर आ चुका था - Art of living without doing anything
बहुत कम शब्द, बहुत सटीक उत्तर - Art of living without doing anything
मैं बङे गौर से देखता हूँ शब्दों को । यह कहूँ तो गलत हो जायेगा । लेकिन आपके लिये वह देखना ऐसा है । यह सही है । मैं तो सामान्यतयाः गौर से ही देखता हूँ । मैं गौर से ही सामान्यतयाः  देखता हूँ ।
उपरोक्त कमेंट में यदि ‘गुरूजी की एक शिष्य’ में यदि ‘की’ न लिखा होता । तो यह कहीं से भी स्त्री वर्ग में नहीं था । लेकिन सिर्फ़ इस एक ही शब्द के बाद ‘शिष्य’ लिखना उलझन पैदा करता है - ओशो कहते हैं कि जो भी करो 100% मन से करो । ये भी एक ध्यान है ।
लगभग 4-5 पंक्तियों में किये प्रश्न में प्रश्नकर्ता ( या कर्ती ) ओशो का उदाहरण देते हुये मुझसे प्रश्न करता है ।
क्या उत्तर दूँ ? अब मेरे लिये यह प्रश्न है । क्योंकि शब्द खुद में विचित्र होते हैं । विचित्र ! उलझो मत । उनका सिर्फ़ एक चित्र बनाना मुमकिन नहीं है ।
या तो आपने ओशो को पढने सुनने में भूल की । या ओशो ने ऐसा मोटा अन्दाज बोलकर भूल की । लेकिन यह शोधार्थियों की खोज का विषय है - ओशो कहते हैं कि जो भी करो 100% मन से करो । ये भी एक ध्यान है । 
दरअसल मन कभी 100% होता ही नहीं । यदि आप 100% को पूर्णता का मानक मानते हुये सिर्फ़ अंतःकरण के 25% मन भाग ( पार्ट ) को ही 100% मान लें । तो यह गलत तो नहीं होगा । लेकिन फ़िर ऐसा मन किसी काम का नहीं । यह ऐसे स्टेयरिंग की भांति होगा । जिसमें गति हेतु पहिये और इंजन न हो । और अकेला स्टेयरिंग वाहन का कार्य नहीं कर पायेगा । तब जाहिर है 100% मन से सक्रियता नहीं हो सकती । इसके लिये वाहन के अन्य तीन भाग - बुद्धि, चित्त, अहम का होना अनिवार्य है ।
आगे झगङा झंझट और भी है । जब दो प्रकार की निश्चयात्मक अनिश्चयात्मक बुद्धि सही गलत के निर्णय में बेहद अङचन पैदा करेगी । इसकी भी बारीकी में जायें । तो और भी बङा झमेला है । क्योंकि कोई गारंटी नहीं । बुद्धि सही पर ही निर्णय दे । कभी कभी यह गुणों के आधार पर ‘गलत’ को सही ठहरा देगी । अतः इसका भी भरोसा नहीं ।
एक तीसरा भाग ‘चित्त’ या तो चापलूस है । या बेहद मजबूर ? यह बुद्धि के विचारण के साथ ही तुरन्त ( इंस्टेंट ) विचारित आधारित दृश्य और भूमि तैयार करता रहेगा ।
हाँ अहम ( शरीर युक्त स्व होने का भाव ) बेचारा किंकर्तव्यविमूढ सा इनके निर्णय का इंतजार करेगा कि कब फ़ैसला हो । और कब ये शरीर रूपी वाहन सक्रिय हो ?
दोहराना आवश्यक तो नहीं लगता । पर सिर्फ़ 100% मन से आप हिल भी नहीं सकते ।
अतः जब मन बुद्धि चित्त अहम जुङे होंगे । तभी कार्य होगा ।
लेकिन जब ये चारों मिलकर 1 हो जाते हैं । तो उसको फ़िर मन नहीं ‘सुरति’ कहते हैं । और इस एकाग्रता में जो कार्य होता है । वह बुद्धि के बजाय ‘विवेक’ का होता है । और विवेक का निर्णय बुद्धि की भांति दो पक्षीय न होकर सिर्फ़ 1 पक्षीय ही ( ऐसा जिसका दूसरा पक्ष न हो ) सत्य ही होता है ।
जो प्रश्न किया गया । इसका उत्तर बहुत पहले दिया जा चुका है । सर पर ( बिना हाथ लगाये ) घङा लाती पनिहारिन की भांति । कछुवी के अंडे सेने की भांति, ये प्रसिद्ध उदाहरण हैं । तुलसीदास ने इस तरह बताया है ।
कर से कर्म करो विधि नाना । राखो ध्यान जहाँ कृपा निधाना ।
पर मेरा सोचना, इन सबमें नहीं है । कहाँ पुरानी बातों के चक्कर में पङते हैं ? आज की आपाधापी वाली जिन्दगी में एक साथ चार चार काम कौन नहीं कर रहा भला । और स्थिति अनुसार उन 4-5-6 कामों से महत्वपूर्ण काम पर सर्वाधिक ध्यान देना प्रयत्न करना क्या किसी को सिखाना पङता है ?
अतः भजन न कर पाने का बहाना ढूंङना या असमर्थता प्रकट करना बेकार है ।
अतः प्रश्न के नीचे यह लिखा होना - वैसे चलते हुए भजन की सही विधि क्या है । व इसका आध्यत्मिक तथा भौतिक लाभ क्या है ? बेहद हास्यास्प्रद है ।
ये ( पूरा प्रश्न ही ) तब और भी अधिक हास्यास्प्रद है जब इसके ठीक नीचे लिखा हो - गुरूजी की एक शिष्य 
--------
आपने किसी गुरुजी से नामदीक्षा ली है ? या फ़िल्म एक्टिंग कोर्स में एडमिशन लिया है । पहले यह विचार करें ?

17 अगस्त 2015

कबीर कोई जाप नहीं करते थे

आपको प्रणाम ! मैंने आपके ब्लाग के बहुत से लेख पढे । मैं रीवा ( म. प्र. ) से हूँ । मैं मैकेनिकल इंजीनियरिंग का स्टूडेन्ट हूँ । मेरी अध्यात्म में रुचि है । मेरे मन में बहुत से प्रश्न हैं । आप उनके समाधान की कृपा करें । ( ल. गौ. )

1. क्या सृष्टि के सृजन के बाद कभी ऐसा समय रहा । जब अधिकतर लोग परमात्मा को जानते थे और परमात्मा की स्तुति करते थे । परमात्मा को प्राप्त करने की उनकी विधि क्या थी ?
इच्छा काया इच्छा माया, इच्छा जगत बनाया ।
इच्छा पार जो हैं विचरत, उनका पार न पाया ।
उत्तर - सृष्टि का सृजन माया के अभाव में कभी संभव नहीं था । न ही कभी होगा । इसलिये प्रथमतः सृजन के दौरान ही आदिमाया, माया, योगमाया जैसे अस्तित्व निर्मित हो गये । इसको सरल उदाहरण के रूप में ऐसे समझ सकते हैं । जैसे एक चित्रकार खाली कागज ( मन, चित्ताकाश या चित्त ) पर प्रथम कुछ रेखायें ( विचार ) उकेरता है । उनसे आकारों ( ढांचा रचना ) का निर्माण होता है । फ़िर उसमें ( भावना ( ओं ) के ) रंग ( तीन गुण ) स्वेच्छानुसार भरता है । और अन्ततः उसका इच्छित चित्र ( वासना ) निराकार ( कोरा कागज ) से साकार ( रंगीन ) हो जाती है । और वह वस्तु चित्र सत्य सा लगने लगता है । जबकि कोरे कागज पर कुछ रेखायें और रंगों का संयोजन ही है । वहाँ यथार्थिक कुछ नही है ।
आशय यह है कि जो भी संकल्पित जीव ( सभी कुछ, महाशक्तियां भी ) बने । वो माया के आवरण में ही थे । और परमात्मा सबसे फ़िर भी अलग ही रहा ।
अब महत्वपूर्ण यह है कि मनुष्य को छोङकर जो भी देव, बृह्म आदि अस्तित्व थे । उनका ढांचा सीमित था । उसमें विराट या अनन्त था ही नहीं । और उनका परिपथ ( सर्किट ) अथवा यन्त्र ही भिन्न था । जानने के अनुरूप नहीं था । अतः कह सकते हैं कि उन्होंने जो जाना, बरता, वह अनन्त परमात्मा की एक कला या कुछ अंश मात्र था ।
और मनुष्य में यह सब कुछ था । पर वह ताले या तालों में बन्द था । जिसकी चाबी सम्बन्धित अधिकारी या गुरु के पास थी । जो एक निर्धारित नियमों की औपचारिकता के बाद ही मिलती ।
अतः निःसंदेह ही कहा जा सकता है कि आदि सृष्टि के ठीक एक क्षण बाद का भी समय ऐसा नहीं था कि बहुत लोग परमात्म मूल को जानने वाले हों । क्योंकि मायावश वे बहुत दूर हो गये थे । ऐसा बहुत आवश्यक था । क्योंकि तभी सृष्टि रह सकती थी ।
स्तुति - विभिन्न जीव उपाधियों द्वारा जो भी स्तुति हुयी । वह परमात्म स्तुति ही थी । पर उससे मूल को जाना नहीं जा सकता था । मूल को वही जान सकता था । जिसे वह ( कारणवश ) चुनता था ।
जेहि जाने जाहि देयु जनाई, जानत तुमहि तुमहि हो जाई ।
यह फ़ल साधन से नहि होई, तुम्हरी कृपा पाई कोई कोई ।
विधि - परमात्मा को प्राप्त करने की कोई विधि नहीं है । हाँ उसकी कृपा हो जाये । ऐसा भाव निरन्तर रखना, को शब्दों के घुमाव में विधि कह सकते हैं । स्मरण रहे - परमात्मा सिर्फ़ भाव का भूखा है । और कुछ उसे तृप्त नहीं करता ।

2. परमात्मा ने कब कब अवतार लिया । अथवा परमात्मा ने कब और किस तरह लोगों को अपने बारे में बताया ?
साहिब तेरी साहिबी घट घट रही समाय, ज्यों मेंहदी के पात में लाली लखी न जाये ।
उत्तर - परमात्मा ने कभी अवतार नहीं लिया । लेकिन परमात्मा प्रकट अवश्य होता है । यह किसी भी सन्त ह्रदय में एक कला से लेकर बहुकला अथवा अनन्तकला प्रकट होता है । वह सन्त उसी अनुसार उसको कहता है । पूर्ण परमात्मा या अनन्त परमात्मा वाणी का विषय नहीं बन पाता । अतः निर्वाणी या अवर्णनीय ही रहता है । वास्तव में यह ह्रदय से ह्रदय में प्रकट होता है । यद्यपि बहुत से सन्तों ने इसका अधिकाधिक सटीक वर्णन करने का प्रयास किया । पर सफ़ल नहीं हुये । और दूसरे उन्हें इसका विशेष लाभ नजर नहीं आया । क्योंकि जैसी जीव सृष्टि है । उसमें उपलब्ध वर्णन जीव स्तर पर काफ़ी है । और यदि कोई जीव ज्ञान मार्ग पर बढता है । तो मूल सूत्रों के अनुसार अनुभव करता हुआ जानने लगता है । ऐसे जीवों ने भी प्रारम्भ में उत्साह से इसका वर्णन करना चाहा । पर शीघ्र ही वह समझ गये । यह सिर्फ़ गूंगे का गुङ है । जो सिर्फ़ खाने वाला ही जान सकेगा ।
इसलिये इसका विशेष इतिहास या वैज्ञानिकता लिखित में नहीं है । कब और किस तरह से की बात यह है कि आदि सृष्टि से ही जो खेल प्रचलित हुआ । उसमें भक्ति सर्वोपरि थी । वास्तव में यह मायिक खेल बच्चों के छुआछाई या चोर सिपाही की भांति ही था । जो आदि सृष्टि के समय जैसा था । वैसा ही आज भी है । इसी क्षण भी है ।
कह सकते हैं - लाखों करोङों युगों में कोई समय ऐसा आता है । जब अनन्तकला परमात्मा किसी बिरले में प्रकट होता है ।
हर घट तेरा साईयां सेज न सूनी कोय, बलिहारी उन घटन की जिन घट प्रगट होय ।
अवतार - ईश्वरीय या भगवद शक्तियां लेती हैं । मुख्य अवतार जैसे राम कृष्ण आदि आधे अंश से होता है । फ़िर भी इसे पूर्णावतार कहते हैं । विभिन्न नैमित्तिक कार्यों हेतु अनेक अंशांश अवतार जैसे वराह, मोहिनी, रुद्र आदि हुये, होते रहते हैं । इनकी संख्या लाखों में होती है ।

3. वास्तविक मोक्ष क्या है । क्या सतलोक जाना ही मोक्ष है ? जो अविनाशी धाम पहुंच जाते हैं । तो वहाँ वे किस अवस्था में रहते हैं कि अनन्त समय तक उबाऊपन नहीं आता ?
उत्तर - केवल और एकमात्र परमात्म स्थिति को प्राप्त हो जाना ही असली मोक्ष है । मोक्ष शब्द मोह-क्षय..मोःक्षःय से बना है । इस स्थिति का कोई वर्णन मेरी नजर में आज तक नहीं आया । कबीर को छोङकर अधिकांश ने शून्य समाधि या शून्य स्थिति को परमात्म स्थिति कह दिया । जो बेहद हास्यास्प्रद है । कबीर ने भी सतपुरुष और पारबृह्म से अधिक ( मेरी जानकारी में ) वो भी कुछ संकेतों में, नहीं कहा । अनन्त शब्द का प्रयोग अवश्य किया । पर अनन्त क्या ? यह नहीं बताया । या फ़िर अभी तक मेरी जानकारी में नहीं है । क्योंकि कबीर की वाणियां बहुत हैं । जिनमें बहुतों में मिलावट भी है । और बहुत सी लोप हो चुकी हैं ।
पर एक बात अवश्य है । अभी तक उपलब्ध वाणियों में कबीर से.. अधिक, सटीक और सार कोई नहीं बोल सका । कबीर जैसी बेबाक और खरी खरी तो दूर की बात है ।
सतलोक पहुँचा जीव स्थिति अनुसार आवागमन से रहित, मनः दुर्गुणों से परे, काग वासनाओं से दूर आनन्द की अवस्था में एक पक्षीय होता है । त्रिलोकी जैसा कल्पित पक्ष नहीं होता । अविनाशी धाम में अमृत्व, प्रकाश, आनन्द और हंस अवस्था होती है । बाकी यहाँ की दीप भूमियां इतनी विशाल और अनेकानेक रासरंग विचित्रताओं वाली हैं कि उबाऊपन कैसे हो ? यह मैंने सिर्फ़ समझाने हेतु लिखा है । दरअसल हंस काय में उबाऊपन जैसा कुछ होता ही नहीं । ये मनः चेष्टा के अंतर्गत ही है ।
इस बात को ऐसे समझें कि किसी तरह आपको निरन्तर युवा अजर निरोगी काय और सभी सुख सुविधायें और स्वेच्छा चरण विचरण प्राप्त हो । तो इसी प्रथ्वी पर लाखों वर्षों तक उबाऊपन नहीं होगा । क्योंकि विचित्रतायें और बहुरंगता और रहस्य और बहुभोग ये अहसास तक नहीं होने देंगे कि लाखों वर्ष हो गये । प्रथ्वी ( मृत्युलोक ) के एक एक जगह की ही विचित्रता विभिन्नता और रहस्य ज्ञान विज्ञान को अनुभूत करने हेतु युगों का समय चाहिये । फ़िर अन्य अदभुत की तो बात ही कैसे हो ?
सबसे बङी और खास बात अविनाशी धाम के जीव आदेशानुसार और स्वेच्छा से भी विभिन्न सृष्टियों में गर्भरहित आवागमन करते रहते हैं । इसलिये परिवर्तन और नित नूतन के कारण उबाऊपन जैसा कुछ हो नहीं सकता । सब कुछ खेल जैसा होता है ।

4. क्या परमात्मा निराकार और साकार दोनों हो सकता है ? यदि हाँ, तो दोनों में से किसकी भक्ति श्रेष्ठ है । और दोनों से मिलने वाले फल में क्या अंतर है ?
उत्तर - हाँ कहो तो है नहीं, ना कही न जाये । हाँ ना के बीच में साहिब रहा समाय ।
परमात्मा को निराकार खास इसलिये कहा है कि उसका कोई आकार रूप रंग नहीं है । बाकी न वह निराकार है न साकार है । बल्कि वह - है । जो है - सो है । इसलिये निराकार बस इसलिये कह दिया कि वह साकार हरगिज नहीं है । लेकिन निराकार है । ऐसा भी नहीं है । दूध में छिपा घृत और मेंहदी में छिपी लाली और रगङ में छिपी अग्नि की भांति ही वह प्रकट भर होता है । प्रकट होते समय दर्शनीय और आवेशी होता है । बाकी फ़िर अगम अगोचर ही रहता है । ध्यान दें..घी लाली अग्नि ये फ़िर लोप हो जाती हैं ।
अब क्योंकि वह निराकार साकार है ही नहीं । तो फ़िर इनकी भक्ति कैसे । हाँ दोनों भक्तियों की अपनी श्रेष्ठता है । पूर्व में बिना साकार के निराकार भक्ति संभव ही नहीं । फ़िर भी गुणात्मक और घटक पदार्थों के अनुसार तुलना की जाये । तो निराकार श्रेष्ठ है । क्योंकि साकार के बाद उच्चता कृम में यही है ।
यदि भक्ति साकार ही रही । तो द्वैत बना रहेगा । निराकार द्वैत को अद्वैत में बदलता है । साकार की तुलना में निराकार भक्ति के फ़लों में राई पहाङ जैसा अन्तर है । निराकार ही ‘होने’ में फ़िर ‘है’ में ले जाती है ।

5. क्या परमात्मा को केवल मंत्र जप से ही पाया जा सकता है ? यदि कोई परमात्मा के लिए प्रेम रखे । और आश्रय ले । परन्तु मंत्र न जपे । तो उसकी गति क्या होगी ?
उत्तर - यह गुन साधन ते नहिं होई, तुम्हरी कृपा पाय कोई कोई ।
परमात्मा को किसी तन्त्र मन्त्र से जाना, पाया नहीं जा सकता । पर थोङा सा अलग शब्दों में कह सकते हैं कि इसका एक तरीका है । और सदगुरु है । और कृपा है । और भक्त का समर्पण होना है । और भक्त का ही भाव पूर्ण होना है ।
मन्त्र जप या निर्वाणी मन्त्र या अजपा जप, जन साधारण को विषय समझाने हेतु सर्वाधिक उपयुक्त शब्दों में कहे गये हैं । क्योंकि प्रारम्भिक स्थितियों में बात समझाने के लिये शब्दों और खास शब्दों की आवश्यकता होती ही है । वैसे स्वयं निशब्द के लिये शब्द कैसे हो सकते हैं । यानी वहाँ तक जाने के संकेत और पूर्व साधन ।
प्रेम - मन की सिर्फ़ आठ अवस्थायें होती हैं - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ज्ञान, वैराग । जाहिर है इनमें प्रेम का भाव या अवस्था है ही नहीं । सांसारिक लोग जिसे प्रेम कहते या समझते हैं । वह दरअसल स्वार्थ पूर्ण सम्बन्ध या चाहना या या सम्मोहक आकर्षण का मिला जुला भाव है । जो उपरोक्त में ‘काम’ श्रेणी में आता है । और कारणवश उत्पन्न होता है । पर क्योंकि इसमें लोभ, मोह, मद आदि भावों का भी स्थिति अनुसार अंश होता है । इसलिये इसे ‘प्रेम’ कहने लगते हैं । जो भारी अज्ञानता है । मन का नहीं, परन्तु जीव का नौवां भाव ‘प्रेम’ है । जो एक अविरल धारा है । जिसे चेतना भी कहते हैं । इसी में प्रविष्टि होने पर समत्व शिवत्व जैसे समग्र भाव उदित होते हैं ।
सियाराम मय सब जग जानी, करहुं प्रनाम जोरि जुग पानि ।
इसी भाव में प्रविष्टि के बाद ही सम्भव है । ये चेतना में रमण करने या निर्वाणी मन्त्र में लय के बाद अनुभूत होता है । अतः बिना इसको जाने, बिना इसको हुये कोई भी परमात्मा या किसी अन्य से प्रेम कर ही नहीं सकता ।
गौर से सोचिये - आप परमात्मा से प्रेम क्यों कर रहे हैं या करेंगे ? उत्तर में स्वार्थ ही निकलेगा ।
यह प्रेमधार ही परमात्मा तक ले जाती है । पर इस पनघट की डगर अति कठिन है ।
- लेकिन फ़िर भी यह बात मान कर चलते हैं कि परमात्मा से सिर्फ़ प्रेम रखें । और मन्त्र जप न करें । 
तो वास्तव में यह होगा कि यदि आप प्रेम ( भाव ) से शुरू करते हैं । तो मन्त्र की उच्छवास आदि डूबना, भाव बेहोशी, भाव समाधि जैसी क्रियायें स्वतः होने लगेंगी । और नयी क्रियाओं से घबराकर गुरु के पास जाना ही होगा । और इसके बजाय यदि आप निर्वाणी मन्त्र से शुरू करते हैं । तो प्रगाढ प्रेम उदय होकर बढता ही जायेगा । तरीका कोई अपनायें । सदगुरु के बिना सफ़ल नहीं होगा ।

6. यदि कोई संसार में परमात्मा का ज्ञान रखता हो । या उसको प्राप्त करने का उपदेश दे । तो सृष्टि के जो बडे देवता ब्रह्मा, विष्णु या शंकर आदि देवता भी तो जान जायेंगे । तो वो परमात्मा को पाने का प्रयास नही करेंगे ?
उत्तर - जैसे इस प्रथ्वी के आसमान में कोई उल्का आदि चमके । बिजली कौंधे । तो सभी निवासियों को ज्ञात हो जाता है । ऐसे ही जब भी कोई भक्ति पुंज प्रकाशित होता है । तुरन्त उसकी खबर अधिकांश को हो जाती है । अक्सर वर्णनों में ऐसा आता है कि उसके तप से तीनों लोक जल उठे । उसके घनघोर तप से धरती आसमान थर्रा उठे, डोलने लगे आदि ।
तो देवता या अन्य कुछ शक्तियां, माया आदि जिनका कार्य भक्ति में बाधा डालना भी होता है । निश्चय ही जान जाते हैं । सर्वप्रथम तो माया ही जान जाती है । क्योंकि इच्छाशक्ति जगत के विपरीत भगति की ओर होने लगती है । इसके पश्चात तीन गुणों के नियंता, प्रतिनिधि बृह्मा विष्णु शंकर आदि जान जाते हैं । क्योंकि इनकी क्रियायें भी विपरीत हो उठती हैं । फ़िर भक्ति स्तर बढने पर काल और अन्य भी चौकन्ने हो उठते हैं । क्योंकि एक भक्त जीव जाग्रत होकर निकट भविष्य में उनके लिये चुनौती बनने वाला है । इनके लिये एक-एक जीव की बहुत कीमत होती है ।
वास्तव में यह अजीब सी बात है । परन्तु तत्व को समझकर जाग्रत होने की दशा में मुढ चुका निश्चयात्मक बुद्धि का जीव ( यदि वह पात्र भी हो ) यदि बिना भक्ति के विष्णु लोक या विष्णु पद भी मांगे । तो त्रिलोकी सत्ता बेहिचक सहर्ष दे देगी । क्योंकि इससे जीव उनकी जद में ही रहेगा । और अक्सर ऐसा ही हो जाता है ।
अब दूसरी बात यह कि - बृह्मा विष्णु शंकर आदि देवता उस भक्त जीव को हुये उपदेश के बारे में सैद्धांतिक जानकारी लेकर स्वयं भी प्रयास कर सकते हैं । तो मैं कह चुका हूँ । उनका तन्त्र और यन्त्र दोनों ही इस प्राप्ति के अनुरूप नहीं होते । क्योंकि मुख्यतया देवों के निर्माण में सिर्फ़ बृह्मांड ही होता है । पिंड नहीं होता । जबकि इस लक्ष्य के लिये एक ही काय में अंड पिंड बृह्मांड तीनों का होना आवश्यक है ।
बङे भाग, मानुष तन ? पावा । सुर दुर्लभ ? सद ग्रन्थन गावा ।
सुर दुर्लभ मानुष तन, यानी सर्व सुख भोगी देवों के पास यह मनुष्य शरीर नहीं है । जाहिर है कि आत्मतत्व ज्ञान के लिये मनुष्य शरीर अनिवार्य है ।
दूसरे जब देवों का देवत्व काल पूर्ण हो जाता है । तो इन्हें मेघों के साथ उस देवलोक से कुछ विशेष जीवों के आवरण में गिरा देते हैं । तदुपरान्त विभिन्न योनियों से गुजर कर जब कभी इन्हें मनुष्य शरीर मिलता भी है । तो अज्ञान को लेकर इनमें और इस धरती के मनुष्यों में कोई अन्तर नहीं होता । कृष्ण रुक्मणी को को सत्रह बार इन्द्र बन चुके चींटे के बारे में बताते हैं । हम धरती पर स्वयं सहित जिन असंख्य मनुष्य और जीवों को देखते हैं । वे सब और हम अनेकानेक बार देवता राक्षस भगवान यक्ष आदि सभी कुछ बन चुके हैं । यह त्रिलोकी तन्त्र के बारे में है । इससे परे की बात अलग हो जाती है । वहाँ की स्थितियां उपाधियां अमरत्व वाली होती हैं ।
अतः देवता यदि प्रयास करें भी तो कुछ नहीं होने वाला ।

7. सदगुरु कबीर का उपदेश व्यापक स्तर पर क्यों नहीं किया गया ? किसी भी ज्ञान, मंत्र को एकदम क्लियर नही बताया गया । यहाँ तक कि कई कबीर पंथी संत अलग अलग मंत्र उपदेश दे देते हैं । उन्हें भी नहीं पता होता । साधारण इंसान के लिए तो इसे कोई विशेष कृपा कैसे मानें ।
उत्तर - समस्त द्वैत अद्वैत अलौकिक ज्ञान गूढ की श्रेणी में आता है । हीरा पायो गांठ गठियाओ । हीरा वहाँ न खोलिये जहाँ कुंजङन की हाट । अतः मन्त्र गूढ शैली में ही लिखे गये हैं । साधारणतः जैसे विज्ञान गणित आदि जटिल विषय जन साधारण के लिये नहीं होते । कुछ ही लोग इनके अधिकारी हो पाते हैं । ऐसे ही आध्यात्म जैसे उच्च विषय विशेष मायनों में सभी के लिये नहीं होते । और जो पात्र होते हैं । उनके लिये गूढता सरल सहज हो जाती है ।
जहाँ तक व्यापक स्तर पर उपदेश की बात है । कोई भी उपदेश व्यापक स्तर पर नहीं होता । वर्गीय और वर्गीय भेद होने से ही सृष्टि विलक्षण बहुरंगी बहुरस वाली है । सत्य ज्ञान का उपदेश व्यापक स्तर पर होने से 90% सृष्टिक गतिविधियां मृत हो जायेंगी ।
सत्य ज्ञान गद्दी परम्परागत नहीं होता । और कबीर पंथ या अन्य इसी गद्दी परम्परा के अंतर्गत हैं । शेष कबीर पंथ या उनका ज्ञान क्या कैसे क्यों है । कबीर ग्रन्थ ‘अनुराग सागर’ से स्पष्ट हो जाता है ।

8. मैंने सुना है सदगुरु कबीर राम नाम का जप करते थे । क्या उनको इस जप की आवश्यकता थी ? और सदगुरु कबीर यदि विष्णु या कृष्ण से श्रेष्ठ हैं । तो उन्होने साधारण जन के सामने ज्ञान उपदेश क्यों नहीं किया । उन्हें तो कोई भय नहीं होगा । क्या परमात्मा यह नहीं चाहते कि सब उन्हें जानें । क्योंकि परमात्मा के सामने कालपुरुष की दाल तो नहीं गलेगी ।
धन्यवाद ! 
उत्तर - आपने गलत सुना है । कबीर कोई जाप नहीं करते थे । बल्कि उन्होंने जहाँ जहाँ ऐसी वाणी कही है । वह भक्त जीव के उस स्थिति का प्रतिनिधित्व किया है । दूसरे शब्दों में इसको वैज्ञानिक विश्लेषण कह सकते हैं । जैसे -
कबीर कूता राम का मुतिया मेरा नाम, गले राम की जेबरी जित खेंचो तित जावं ।
अर्थात समर्पित भक्त की स्थिति गले में रस्सी पङे उस कुत्ते की भांति है । जिसकी डोरी मालिक के हाथ है । और वह उसी की इच्छानुसार चलता है । कबीर का अर्थ मनुष्य शरीर का संचालक जो चेतन पुरुष है, होता है ।
तुलसीदास ने इसको ऐसे कहा है ।
उमा दारु जोषित की नाईं, सबहि नचावत राम गुसाईं ।
दारु जोषित - कठपुतली ।
निसंदेह विष्णु या कृष्ण और कबीर की तुलना में राजा भोज और गंगू तेली जैसा फ़र्क है । कबीर राजा हैं ।
कबीर के सभी जाति धर्म देश में दीक्षित अदीक्षित 70 हजार शिष्य थे । जिनमें राजा रंक सभी थे । उन्होंने बेहद सरल सादगी युक्त जीवन के साथ हरेक को उपदेश किया । निर्भयता का ज्ञान देने वाले को भय कैसे हो सकता है ?
परमात्मा न यह चाहते कि कोई उन्हें जाने । न यह चाहते कि न जाने । इसके लिये आदिसृष्टि के बाद से ही एक कानून बना हुआ है । उसी ज्ञान विज्ञान से सभी घटनायें होती हैं ।
परमात्मा की सृष्टि में एक ही समय में अरबों कालपुरुष होते हैं । जो इससे ऊपर की कई उपाधियों के तुलनात्मक बेहद छोटी उपाधि है । अतः दाल गलेगी जैसा कुछ सोचना ही व्यर्थ है ।
----------
साहेब

16 जुलाई 2015

निमन्त्रण - गुरु पूर्णिमा 2015

ॐ श्री गुरुभ्ये नमः 
गुरुपूर्णिमा, गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा से नतमस्तक होकर कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन है । गुरु के लिए पूर्णिमा से बढ़कर और कोई तिथि नहीं । गुरु पूर्ण है और पूर्ण से ही पूर्णत्व की प्राप्ति होती है । गुरु शिष्यों के अंत:करण में ज्ञानरूपी चंद्र की किरणें प्रकाशित करते हैं । अतः इस दिन हमें गुरु के चरणों में अपनी समस्त श्रद्धा अर्पित कर अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए । गुरुकृपा असंभव को संभव बनाकर शिष्यों के हृदय में अगाध ज्ञान का संचार करती है ।
गुरु, जीव और परमात्मा के बीच एक कड़ी का काम करता है । 
संस्कृत शब्द गु का अर्थ है - अन्धकार औ रु का अर्थ है - प्रकाश ।
गुरु शिष्य के आत्मबल को जगाने का काम करता है, प्रेरणाएं देता है । गुरु शिष्य को अंत:शक्ति से ही परिचित नहीं कराता बल्कि उसे जागृत एवं विकसित करने के हर संभव उपाय भी बताता है ।
गुरु और परमात्मा में कोई भेद नही है और गुरु ज्ञानस्वरूप ही हैं ।
इस वर्ष 2015 की गुरुपूर्णिमा 31 जुलाई को है । 
मुक्तमंडल के तत्वावधान में परमपूज्य श्री सदगुरुदेव श्री शिवानन्द जी महाराज ‘परमहंस’ की अमृतमयी उपस्थिति में इस वर्ष का गुरु पूर्णिमा महोत्सव विश्वप्रसिद्ध..परमानन्द शोध संस्थान, चिन्ताहरण आश्रम में धूमधाम से आयोजित हो रहा है ।
वर्ष में एक बार होने वाले इस भव्य आयोजन में ‘मुक्तमंडल’ के शिष्यों और श्रद्धालुओं का भावपूर्ण निमन्त्रण है ।

कबीर साहब ने गुरु दर्शन की महत्ता को लेकर कहा है कि सन्त या गुरु का दर्शन एक दिन में दो बार करना चाहिये । फ़िर यदि न कर सको तो इसको ऐसे ही बढ़ाते बढ़ाते एक पक्ष में एक बार फ़िर महीने में एक बार और वह भी न कर सके तो वर्ष में एक बार तो अनिवार्य ही बताया है ।  
पाख पाख नहिं करि सकै, मास मास करु जाय ।
या में देर न लाइये, कहैं कबीर समुझाय ।
बरस बरस नाहिं करि सकै, ताको लागे दोष । 
कहै कबीर वा जीव सो, कबहु न पावै योष ।
और सबकी तो मैं नहीं कहता पर यह मेरा अनुभव है कि इस दिन गुरुदर्शन, पूजन, सेवा, भेंट आदि का फ़ल अन्य दिनों की तुलना में बहुत अलग और कीमती होता है । दूसरे शब्दों में कह सकते हैं । उस दिन गुरु की साक्षात कृपा बरसती है ।
कोई आवै भाव ले, कोई अभाव लै आव । 
साधु दोऊ को पोषते, भाव न गिनै अभाव ।
बात जब गुरु महिमा की हो और सदगुरु श्री शिवानन्द जी महाराज हों तो कुछ कहने के लिये वाणी असमर्थ हो जाती है । यह बात श्री महाराज जी से जुङे शिष्य भलीभांति जानते ही हैं ।
सन 2010 से सिर्फ़ इंटरनेट के माध्यम से जुङे सैकङों शिष्य समाधि और ध्यान समाधि जैसी मोक्षप्रद और आत्मदर्शन की क्रियाओं को सहजता से कर रहे हैं ।
इसके अतिरिक्त अन्य माध्यम से जुङने वाले साधक भी अच्छे अभ्यासी हो चले हैं ।
दिल्ली और आसपास के ‘सहज योग’ साधकों का स्तर ऊँचा उठाने में श्री राकेश महाराज जी ‘परमहंस’ ने भी बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । श्री राकेश महाराज जी समाधि का अभ्यास भी कराते हैं ।
जहाँ तक संभव है । इस कार्यकृम में श्री श्री 1008 श्री राकेश महाराज जी परमहंस भी उपस्थित होंगे ।
तीन दिवसीय इस कार्यकृम में नये शिष्यों को हंसदीक्षा, परमहंस दीक्षा, समाधि दीक्षा भी दी जायेगी । जिनका ध्यान जुङने में बाधा आ रही है । उनकी ध्यान क्रिया ठीक की जायेगी । कार्यकृम की तिथि 29-31 जुलाई 2015 है ।
सो इस पावन दिवस पर पुण्य पावनबेला में सदगुरुदेव के निर्मल कृपामय सानिंध्य में परमात्म भक्ति परमात्म कृपा का लाभ उठाने अवश्य आयें ।
साहेब ।
- कोई तीन वर्ष पूर्व स्थापित हुये चिन्ताहरण आश्रम में इसी वर्ष पिछले लगभग आठ महीने से एक बङा सतसंग हाल और चार बङे कमरों का निर्माण हुआ है । जिसमें यथाशक्ति सभी शिष्यों श्रद्धालुओं और निकटवर्ती ग्रामवासियों का तन मन धन से पूर्ण सहयोग रहा ।

निवेदक
सन्तजन - माधवानन्द, अभेदानन्द, राजानन्द, श्यामानन्द, रामानन्द, सन्तोषानन्द
आश्रम संस्थापक - श्रीमती कस्तूरी देवी घिया (पत्नी स्व रामसिंह घिया)
परिवारी जन - शीला देवी, प्रेमवीर फ़ौजी-आशा, लक्खे-मीना, पंछी-मंजू, अश्विनी कुमार यादव-संजू ।
सहयोगी जन - उपदेश यादव, सुरेन्द्र यादव, कमलेश यादव (नगला शीश) अहिवरन सिंह यादव, सतीश यादव, रवीश यादव, करनपाल यादव, रघुराई यादव शास्त्री, वीकेश यादव, प्रमोद यादव, आचार्य नरेन्द्र, गिरीश यादव बौहरे, पवन, उपवन, रामकुमार यादव, नरेश यादव, राकेश, देवेश यादव, रघुनाथ यादव, विजेन्द्र यादव, ब्रिजेश यादव, विरेश यादव एवं सभी ग्रामवासी ।
प्रचारादि सहयोग - स्वपनिल तिवारी, साहिल तिवारी, रोबिन बाधवा, डा. संजय केसरी

स्थान -
निःअक्षर दीक्षा केन्द्र (मुक्तमंडल)
परमानन्द शोध संस्थान, चिन्ताहरण आश्रम
नगला - भादों,
तहसील - जसराना,
जिला - फ़िरोजाबाद,
राज्य - उत्तर प्रदेश,

देश - भारत 

29 जून 2015

सट्टा का जालबट्टा

विशेष - यह लेख प्रकाशित होने के बाद सट्टे का नम्बर जानने हेतु हमारे पास रोज ही फ़ोन आने लगे । 
कृपया विशेष ध्यान दें - यह लेख सट्टा, मटका, जुआ आदि जैसी बुराईयों के प्रति जागरूकता के लिये है । न कि उन्हें प्रोत्साहन देने हेतु । सट्टे मटके से कोई धनी नहीं होता । न किसी की समस्या समाधान होती हैं । अतः इसका उल्टा अर्थ निकालकर सट्टे मटके का नम्बर आदि जानने के लिये फ़ोन न करें ।
यह साइट सिर्फ़ सन्त मत, आत्मज्ञान और योग ध्यान की क्रियायें सिखाता है ।
आप किसी भी प्रकार के सट्टे लाटरी जुये आदि के लिये फ़ोन न करें ।
*************
जैसा कि इस कमेंट में निजामाबाद के किसी रामप्रिय दास बाबा का जिक्र है । जो मटका (सट्टा) या अगले दिन के शेयर मार्केट का भाव बता देते थे और नगर सेठों की उनके स्थान के सामने लाइन लगी होती थी ।
विभिन्न प्रकार के साधुओं से अधिक मेलजोल और गहरा सम्पर्क अक्सर होते रहने के कारण कम से कम इस मामले में साधुओं की पोलपट्टी मैं बखूबी जानता हूँ ।
ऐसी बात नहीं कि इस तरह के मन्त्र या सिद्धियां नहीं होती या फ़िर साधु इन्हें किसी ‘जरूरतमन्द’ को बताते नहीं हैं । पर जैसा कि इस कमेंट में लिखा है और अक्सर अधिकांश ढोंगी साधुओं ने इसे सस्ती लोकप्रियता और आय का जरिया बनाया हुआ है । वह एकदम गलत है । कहने का भाव है कि कोई भी सिद्ध पुरुष क्यों न हो । यदि वह नियमित इसका उपयोग निजी लालचवश करता है तो परिणाम कभी सही नहीं आयेंगे । और प्रथम तो कोई सिद्ध पुरुष या मन्त्र ज्ञाता ऐसा करेगा ही क्यों ?
इस सम्बन्ध में झूठे बाबा एक चालाकी भरा तर्क देते हैं कि - कोई भी मन्त्र या सिद्धि निजी लाभ हेतु उपयोग नहीं की जा सकती । इसलिये वो परोपकार करते हुये अप्रत्यक्ष तरीके से अपना अंश मात्र ले लेते हैं ।
नरेश आर्य के इस कमेंट से मुझे अपना वह अतीत अंश स्मरण हो आया । जिनमें ऐसे बाबाओं से बने सोहबत के कुछ घण्टे थे और मुझे लगा कि इस विषय पर कम से कम बाबाओं की ढोंग लीला से परिचित कराकर मैं लोगों को धन की बरबादी और पतन से बचाने का अपना कर्तव्य पूरा कर सकता हूँ ।
क्या होता है सट्टा या मटका - जिस तरह लाटरी में नम्बर के आधार पर लाटरी के नम्बर का अन्तिम अंक 1 से लेकर 0 तक 10 अंकों का होता है और उस अन्तिम अंक का मिलान हो जाने पर लगभग 10 गुना हो जाता है । और न आने पर गांठ का लगाया हुआ 10% भी जाता है । फ़िर दहाई फ़िर सैकङा तक के अंक समान मिलने पर इनाम राशि में बढोत्तरी होती है और भी आगे तीन नम्बर 1st 2nd 3rd इनाम वाले होते हैं ।
इसी प्रकार मटके में 1 से लेकर 100 तक गिनती होती है । जिसमें 99 अंक (जिसे खिलाङी अक्सर ‘घर’ कहते हैं) मटका खेलने वाले के होते हैं और 1 अंक खिलाने वाला का होता है । अलग अलग मटका गद्दियों के हिसाब से नम्बर आ जाने पर 1 रुपये पर यह भुगतान 80 से लेकर 95 रुपये तक होता है । यानी सीधे सीधे 1 रुपये का 80 से लेकर 95 गुना तक हो जाना या फ़िर अपना 1 रुपया बिलकुल जाना ।
अब मटका व्यापार को समझें - जानकार सूत्रों के अनुसार छोटे छोटे गांवों से लेकर शहरों के मुहल्लों तक में इनका एक कलेक्शन एजेंट टायप बतौर कमीशन पर होता है । इसके लिये आवेदन करने की कोई जरूरत नहीं । बस पैसे और ग्राहक का इच्छित नम्बर लो और उसकी पर्ची बनाकर दे दो । एकत्रित धन और नम्बर किसी बङी प्रमुख गद्दी पर जमा कर आओ और नम्बर आने पर सुबह भुगतान ले आओ । 
और समझें - मान लीजिये, अलग अलग व्यक्तियों ने 20 नम्बर पर 500 रुपये की कुल जमा राशि लगायी । किसी ने 1 तो किसी ने 5 रुपये या किसी ने 100 भी लगाये हो सकते हैं । कलेक्शन एजेंट एक रजिस्टर में साथ के साथ 1 से 100 तक गिनती वाले फ़ार्म में बस उस नम्बर के सामने आने वाले रुपये लिखता जाता है और बुकिंग बन्द हो जाने पर अलग अलग नम्बरों पर आये पैसे जोङकर मुख्य गद्दी को पहुँचा देता है । मतलब यदि 100 व्यक्तियों ने 6 नम्बर पर कुल 1000 रुपये का दाव खेला तो प्रमुख गद्दी वाले के लिये यह सिर्फ़ 6 नम्बर पर 1000 रुपये की प्रविष्टि वाला एक ही खाना होगा ।
आगे फ़िर जो काम छोटा एजेंट अलग अलग व्यक्तियों के नम्बर को एक नम्बर बनाकर करता है । यही काम प्रमुख गद्दी वाला छोटी गद्दियों से आये कलेक्शन के लिये करता है । उदाहरण के लिये 50 छोटी गद्दियों से 8 नम्बर पर मान लो 10 000 का कलेक्शन आया । तो उसकी शीट में 8 नम्बर के आगे 50 खानों में राशि और उनका टोटल 10 000 होगा ।
इसी तरह उस चेन से जुङे फ़िर सभी शहरों का उससे ऊपर वाली गद्दी को सिर्फ़ नम्बर और लागत धन का संक्षिप्त ब्यौरा जाता है और इन बङी बङी गद्दियों को भी पता नहीं होता कि किस नम्बर पर कुल कितना धन लगा है या किस नम्बर पर सबसे कम धन लगा है ।
आश्चर्यजनक रूप से यह सब एकत्र हुआ कुल धन और उससे सम्बन्धित नम्बर रात्रि बारह बजे के आसपास मुख्य कलेक्टर के पास पहुँच जाते हैं । मतलब 1 से 100 तक के अंक और उन पर लगा अलग अलग धन । समझें आप, सिर्फ़ दो खानों का कार्य, जिसमें एक में सिर्फ़ गिनती और दूसरे में उस पर लगा धन दर्ज होता है ।
मुख्य कलेक्टर सिर्फ़ इतना करता है कि - सबसे कम धन किस नम्बर पर लगा है । वही नम्बर अगले दिन के लिये (लिस्ट प्राप्त होने के पाँच मिनट बाद ही लगभग 1 बजे तक) खोल दिया जाता है । क्योंकि उस पर सबसे कम भुगतान देना है ।
विशेष - ऐसा अक्सर हो जाता है कि एकाध महीने किसी किसी क्षेत्र में लगवाङी पर कोई नम्बर प्रायः नहीं खुलता और उस क्षेत्र के सटोरिये सट्टे के प्रति उदासीन होने लगते हैं । तब ऐसे क्षेत्रों को चिह्नित कर वहाँ का अधिक लगाया नम्बर जानबूझ कर खोल दिया जाता है और सटोरिये पुनः उत्साहित हो जाते हैं ।
-------------
अब नम्बरी बाबाओं की चालाकी - वास्तव में अपवाद को छोङकर इन बाबाओं ने कोई मन्त्र या कोई सिद्धि नहीं की होती । बल्कि वे भी सट्टेबाजों का गणित और उनकी मानसिकता से परिचित खुद भी सटोरिये ही होते हैं । इसमें तुक्का भिङ जाना का भी इस्तेमाल में नहीं कर सकता । क्योंकि वे तुक्का भी नहीं लगाते । बल्कि एक दिमागी चाल चलते हैं ।
जैसा कि मैंने कहा, ये बाबा लोग भी आये नम्बरों का हिसाब किताब और पूरा आंकलन रखते हैं और उसी आधार पर (आने वालों की औसत गिनती के अनुसार) प्रतिदिन लगभग 40 अनुमानित नम्बर (कभी कभी 60-70 तक ) तैयार कर लेते हैं  और अलग अलग लोगों को इस हिदायत के अनुसार कि - किसी को बताना नहीं है, अलग अलग ही नम्बर दे देते हैं ।
अब आप सोचेंगे कि 40 नम्बर में से भी नहीं आया तो ?
जी नहीं, दरअसल सट्टे में दिये गये 40 नम्बर बदलकर पूरे 100 हो जाते हैं । और 100 में से एक तो आना निश्चित ही है ।
कैसे - इसके पीछे सटोरियों की सट्टा गणित मानसिकता है । मान लीजिये किसी बाबा ने 31 लकी नम्बर बताया । तो सटोरिया इसे लगाने के साथ साथ 69 को भी लगायेगा । जो 100 में से 31 घटाने पर आया और इनकी भाषा में ‘बाकी’ कहलाता है । इसके अलावा 13 को भी लगायेगा । जो 31 का उलटा है । जिसे खिलाङी ‘पलट’ बोलते हैं ।
इस तरह प्रमुखतया 1 नम्बर के 3 मुख्य नम्बर बन गये और इसमें छोटी सम्भावनायें अलग से जोङी जाती हैं । पर यदि हम 1 नम्बर के 3 नम्बर ही लेकर चलें और ‘ये बाबा’ 40 नम्बर तय करते हैं । तो आटोमेटिक 120 नम्बर बन जाते हैं । जिनमें से 1 निश्चय आना है ।
और ऐसे नम्बर खुल जाने पर ये बाबा ‘सिद्ध’ कहलाते हैं ।
- गणित और भी है । पिछले 2 दिन आ चुके नम्बर अक्सर हटा दिये जाते हैं । इस तरह 100 में सिर्फ़ 98 नम्बर ही बचे ( हालांकि ‘बायचांस’ सिद्धांत अनुसार कुल लगवाङी आधार पर इन्हें भी बहुत कम धन से लगा दिया जाता है कि संयोग से आ ही जाये । तो एक तरह से निवेश की मूल राशि वापस हो जाती है) 100 नम्बर बहुत कम आता है । अपवाद सा है तो यह 1 और कम हो जाता है ।
-----------
क्योंकि मेरा उद्देश्य आपको ‘सट्टा शास्त्र’ ज्ञान देना नहीं बल्कि सट्टा बाबाओं की चालबाजियों से परिचित कराना है । तो बाबा एक और ‘तरीका’ अपनाते हैं । जिसे इनकी भाषा में ‘रमूज’ कहा जाता है ।
क्या है रमूज - रमूज दरअसल प्राकृतिक संकेतों को कहते हैं । ये वो संकेत होते हैं । जो खिलाङी को कुछ अजीब सा और संकेत सा करते हुये अलग सा दिखे और खास तब जब वह अगले दिन के संभावित नम्बर के बारे में सोच रहा था । तभी यकायक दिखे । जैसे - तार पर छाता टंगा था । औरत बच्चे को दूध पिला रही थी । आदमी भैंस ले जा रहा था/दुह रहा था आदि आदि कोई भी दृश्य या घटना ।
- अब इसमें उन्होंने ‘अंक ज्योतिष’ की भांति सबके लिये कोई न कोई 1 से 0 तक अंक निर्धारित किया हुआ है । जैसे औरत का 8 आदमी का 1 बच्चे का 4 आदि । इसी तरह पशु और अन्य निर्जीव वस्तुओं के भी हैं । और फ़िर वस्तु या आदमी के प्रथम या अन्तिम अक्षर में किस अंक का अक्षर बनता है । इस सबका विचार किया जाता है ।
अब उदाहरण के लिये जैसे - तार पर छाता टंगा था । तो यहाँ तार (का 3) और छाता (का 6) ही मुख्य हैं और ये कुछ अलग सी बात है । क्योंकि आमतौर पर तार पर छाता नहीं होता । अतः सटोरिया लकी नम्बर के तौर पर बङे धन के साथ 36 नम्बर लगायेगा । और साथ में छोटा गुणा भाग अलग ।
आपको अजीब सा लगेगा और यह मत कहना कि मैं प्रोत्साहित कर रहा हूँ । बाबाओं की अपेक्षा बहुत बार खुद के द्वारा देखे गये ऐसे अजीब संकेत ‘सच’ निकलते हैं । एक उदाहरण जो मेरी जानकारी में हुआ । बताता हूँ ।
बाजार में एक टेलर की दुकान पर बहस हो गयी और उस तू तू मैं मैं के अंजाम के बाद उनमें से एक लकङी की भारी कुर्सी को लेकर सर पर रखकर 5 किमी दूर घर तक गया । गौर करें । तो बात कुछ अजीब सी है । जो सामान्यतया देखने में नहीं आती । 
वहाँ कुछ सट्टा खिलाङी भी थे और उन्होंने आदमी (का 8) और कुर्सी (का 7) लगाकर बङा दाव खेला । परिणाम को लेकर बेहद उत्सुकता थी और यकीन करें । अगले दिन सटीक 87 नम्बर ही खुला ।
किसी और घटनाकृम में आदमी का अंक 1 होता है पर खिलाङियों ने जाने किस गणित के आधार पर 1 का 8 कर दिया और गणित सही बैठा । आप किसी परिपक्व सट्टेबाज से बात करेंगे । तो आपको आश्चर्य होगा कि इनका भी अच्छा खासा सट्टा गणित है ।
--------
जब बाबा दयालु हो जायें - इस तरह की छोटी बङी कई घटनायें होती हैं । पर 1 विशेष उल्लेखनीय है । करीब 32 वर्ष पहले एक लगभग गरीब आदमी फ़ुटपाथ पर तख्त तिरपाल के द्वारा गन्ने का रस बेचकर आजीविका निर्वाह करता था । जून की सुनसान और कङक दोपहरी में एक साधारण सा (मतलब ठीक से बाबा भी नहीं लगता था) लगभग गन्दे वस्त्रों वाला आदमी उसके पास आया और बोला - बङी प्यास महसूस हो रही है । जाहिर था । वह खरीद नहीं सकता था । वरना सीधा आर्डर ही देता ।
रस विक्रेता ने उसे पूरे धर्म भावना से बिना लाभ की आशा किये दो गिलास रस पिलाया । उसके बाद उस आदमी ने आगे मांगा तो नहीं । पर रस विक्रेता को लगा । अभी यह तृप्त नहीं हुआ । अतः अबकी उसने 1 लोटा ही भर दिया । अबकी आदमी वाकई तृप्त हो गया ।
और आंतरिक प्रसन्नता से बोला - मैं तुझे कुछ देना चाहता हूँ । इस नम्बर (25) पर जितना पैसा लगा सके लगा दे । लेकिन उसके पास ‘जितना’ जैसा पैसा नहीं था । अतः उस समय में उसने 5000 में अपना कोल्हू आदि सब सामान बेच दिया ।
और दूसरी सुबह उसकी जिन्दगी 5 लाख के साथ शुरू हुयी । बङी रकम पर पूरा 100% भुगतान होता है ।
--------
विशेष - ध्यान दें । ऐसी घटनायें आकस्मिक (बिना सोचे) और कभी कभी और विपन्न हालत में होती हैं । अतः रोज रोज और लालचवश और हराम में कमाने का जरिया सोच कर कभी सट्टा, जुआ आदि को न अपनायें । यह हमेशा हर तरह का पतनकारक ही है ।

26 जून 2015

दान के भेद और फ़ल

राजा धर्म वर्मा ने दान का तत्व जानने की इच्छा से बहुत वर्षों तक तपस्या की । तब आकाशवाणी हुयी -
द्विहेतु षङिधष्ठानाम षडंगम च द्विपाक्युक । 
चतुष्प्रकारं त्रिविधिम त्रिनाशम दान्मुच्याते ।
- दान के 2 हेतु 6 अधिष्ठान 6 अंग 2 प्रकार के परिणाम (फल) 4 प्रकार 3 भेद और 3 विनाश साधन हैं । ऐसा कहा जाता है ।
यह एकमात्र श्लोक कहकर आकाशवाणी मौन हो गयी और राजा धर्म वर्मा के बारबार पूछने पर भी आकाशवाणी ने उसका अर्थ (विस्तार) नहीं बताया ।
तब राजा धर्म वर्मा ने ढिढोंरा पिटवा कर घोषणा की कि - जो भी इस श्लोक की ठीक ठीक व्याख्या कर देगा । उसे राजा द्वारा 7 लाख गाय इतनी ही स्वर्ण मुद्रा तथा 7 गाँव दिया जायेगा । कई ब्राह्मणों ने इसके लिए प्रयास किया । पर कोई भी श्लोक की ठीक ठीक व्याख्या नहीं कर पाया । 
इस मुनादी को नारद ने भी सुना । जो उस समय आश्रम बनाने के लिए पर्याप्त भूमि की तलाश में थे  और इस दुविधा में थे कि वह दान में ली हुई भूमि और बिना राजा की भूमि पर आश्रम नहीं बनाना चाहते थे । वह केवल अपने द्वारा अर्जित भूमि पर ही आश्रम बनाना चाहते थे । उन्होंने इस मुनादी से 7 गाँव के बराबर भूमि अर्जित करने का मन बनाया और वृद्ध ब्राह्मण का वेष रखकर राजा धर्म वर्मा के दरबार में इस श्लोक की व्याख्या करने पहुँचे ।
राजा ने नारद से बड़ी विनम्रता से पूछा कि - दान के कौन से 2 हेतु, कैसे भेद और फल होते हैं ?  कृपया श्लोक का अर्थ बतायें । जिसे बड़े बड़े ज्ञानी भी नहीं बता पाए । 
नारद बोले - दान के 2 हेतु हैं । दान का थोङा होना या बहुत होना अभ्युदय का कारण नहीं होता । अपितु श्रद्धा और शक्ति ही दान की वृद्धि और क्षय का कारण होती है । यदि कोई बिना श्रद्धा के अपना सर्वस्व दे दे अथवा अपना जीवन ही निछावर कर दे । तो भी यह उसका फल नहीं पाता । इसलिए सबको श्रद्धालु होना चाहिए । श्रद्धा से ही धर्म का साधन किया किया जाता है । धन की बहुत बड़ी राशि से नहीं ।
देहधारियों के लिए श्रद्धा 3 प्रकार की होती है - सात्विक, राजसी और तामसी ।
सात्विक श्रद्धा वाले - पुरुष देवताओं की पूजा करते हैं । 
राजसी श्रद्धा वाले - पुरुष यक्ष और राक्षसों की पूजा करते हैं । 
तामसी श्रद्धा वाले - पुरुष दैत्य, पिशाच की पूजा करते हैं । 
दान शक्ति (सामर्थ्यता) - के बारे में कहा गया है कि जो कुटुंब के भरण पोषण से अधिक हो । वही धन दान देने योग्य है । वही मधु के समान है और पुण्य करने वाला है और इसके विपरीत करने पर वह विष के समान होता है । अपने आत्मीयजन को दुख देकर किसी सुखी और समर्थ पुरुष को दान करने वाला मधु की जगह विष का ही पान कर रहा है । वह धर्म के अनुरूप नहीं, विपरीत ही चलता है ।
- जो वस्तु बड़ी तुच्छ हो । अथवा सर्व साधारण के लिए उपलब्ध हो । वह ‘सामान्य’ वस्तु कहलाती है ।
- कहीं से मांग कर लायी हुई वस्तु को ‘याचित’ कहते हैं । धरोहर का ही दूसरा नाम ‘न्यास’ है ।
- बंधक रखी हुई वस्तु को ‘आधि’ कहते हैं ।
- दी हुई वस्तु ‘दान’ के नाम से पुकारी जाती है । दान में मिली हुई वस्तु को ‘दान धन’ कहते हैं ।
- जो धन एक के यहाँ धरोहर रखा हो और जिसके यहाँ रखा हो । वह यदि उस धरोहर को किसी और को दे दे । तो उसे ‘अन्वाहित’ कहते हैं । 
- जिसको किसी के विश्वास पर उसके यहाँ छोड़ दिया हो । उस धन को ‘निक्षिप्त’ कहते हैं । 
- वंशजों के होते हुए भी अपना सब कुछ दान करने को ‘सान्याय सर्वस्व दान’ कहते हैं । 
विद्वान पुरुष को उपरोक्त नव वस्तुओं का दान नहीं करना चाहिए । वरना वह बड़े पाप का भागी होता है ।
6 अधिष्ठान - दान के 6 अधिष्ठान हैं । उन्हें बताता हूँ - धर्म, अर्थ, काम, लज्जा, हर्ष और भय ।
ये दान के 6 अधिष्ठान बताये गए हैं ।
- सदा ही किसी प्रयोजन की इच्छा न रखकर केवल धर्मबुद्धि से सुपात्र व्यक्तियों को जो दान दिया जाता है, उसे ‘धर्मदान’ कहते हैं ।
- मन में कोई प्रयोजन रखकर ही प्रसंगवश जो कुछ दिया जाता है, उसे ‘अर्थदान’ कहते हैं । वह इस लोक में ही फल देने वाला होता है ।
- स्त्रीगमन, सुरापान, शिकार और जुए के प्रसंग में अनधिकारी मनुष्यों को प्रयत्नपूर्वक जो कुछ दिया जाता है, वह ‘कामदान’ कहलाता है ।
- भरी सभा में याचकों के मांगने पर लज्जावश देने की प्रतिज्ञा करके उन्हें जो कुछ दिया जाता है । वह ‘लज्जादान’ माना गया है । 
- कोई प्रिय काम देख कर या प्रिय समाचार सुन कर हर्षोल्लास से जो कुछ दिया जाता है । उसे धर्म विचारक ‘हर्षदान’ कहते हैं । 
- निंदा, अनर्थ और हिंसा का निवारण करने के लिए अनुपकारी व्यक्तियों को विवश होकर जो कुछ दिया जाता है । उसे ‘भयदान’ कहते हैं ।
6 अंग - अब 6 अंगो का वर्णन सुनिए । दाता, प्रतिग्रहीता, शुद्धि, धर्म युक्त देय वस्तु, देश और काल - ये दान के 6 अंग माने गए हैं ।
दाता निरोग, धर्मात्मा, देने की इच्छा रखने वाला, व्यसन रहित, पवित्र तथा सदा अनिन्दनीय कर्म से आजीविका चलने वाला होना चाहिए । इन 6 गुणों से दाता की प्रशंसा होती है ।
सरलता से रहित, श्रद्धाहीन, दुष्टात्मा, दुर्व्यसनी, झूठी प्रतिज्ञा करने वाला तथा बहुत सोने वाला दाता तमोगुणी और अधम माना गया है ।
जिसके कुल, विद्या और आचार तीनों उज्जवल हो । जीवन निर्वाह की वृत्ति भी शुद्ध और सात्विक हो । वह ब्राह्मण दान का उत्तम पात्र (प्रतिग्रह का सर्वोत्तम अधिकारी) कहा जाता है । याचकों को देखकर सदा प्रसन्न मुख हो । उनके प्रति हार्दिक प्रेम होना, उनका सत्कार करना तथा उनमें दोष द्रष्टि न रखना, ये सब सदगुण दान में शुद्धिकारक माने गए हैं । 
जो धन किसी दूसरे को सताकर न लाया गया हो । अति कुंठा उठाये बिना अपने प्रयत्न से उपार्जित किया गया हो । वह थोङा हो या अधिक, वही देने योग्य बताया गया है ।
किसी के साथ कोई धार्मिक उद्देश्य लेकर जो वस्तु  दी जाती है । उसे धर्म युक्त देय कहते हैं ।
यदि देय वस्तु उपरोक्त गुणों से शून्य हो तो उसके दान से कोई फल नहीं होता । जिस देश अथवा काल में जो जो पदार्थ दुर्लभ हो । उस उस पदार्थ का दान करने योग्य वही वही देश और काल श्रेष्ठ है, दूसरा नहीं । इस प्रकार दान के 6 अंग बताये गए हैं ।
2 परिणाम (फल) - अब दान के 2 फलों का वर्णन सुनो । महात्माओं ने दान के 2 परिणाम (फल) बतलाये हैं । उनमें से 1 तो परलोक के लिए होता है और 1 इहलोक के लिए ।
- श्रेष्ठ पुरुषों को जो कुछ दिया जाता है । उसका परलोक में उपभोग होता है । 
- असत पुरुषों को जो कुछ दिया जाता है । वह दान यहीं भोग जाता है । ये 2 परिणाम बताये गए हैं ।
4 प्रकार - अब दान के 4 प्रकारों का श्रवण करो । ध्रुव, त्रिक, काम्य और नैमित्तिक । 
इस क्रम से द्विजों ने वैदिक दान मार्ग के 4 प्रकार बतलाये हैं ।
- कुआँ बनवाना, बगीचे लगवाना तथा पोखर खुदवाना आदि कार्यों में, जो उपयोग में आते हैं ।
धन लगाना ‘ध्रुव’ कहा गया है ।
- प्रतिदिन जो कुछ दिया जाता है । उस नित्य दान को ‘त्रिक’ कहते हैं ।
- संतान, विजय, ऐश्वर्य, स्त्री और बल आदि के निमित्त तथा इच्छा पूर्ति के लिए जो दान किया जाता है । वह ‘काम्य’ कहलाता है ।
नैमित्तिक दान 3 प्रकार का बतलाया गया है । वह होम से रहित होता है ।
- जो ग्रहण और संक्रांति आदि काल की अपेक्षा से दान किया जाता है । वह ‘कालाक्षेप’ नैमित्तिक दान है ।
- श्राद्ध आदि क्रियाओं की अपेक्षा से जो दान किया जाता है । वह ‘क्रियाक्षेप’ नैमित्तिक दान है ।
- तथा संस्कार और विद्या अध्ययन आदि गुणों की अपेक्षा रख कर जो दान दिया जाता है । वह ‘गुणाक्षेप’ नैमित्तिक दान है ।
3 भेद - इस प्रकार दान के 4 प्रकार बताये गए हैं । अब उसके 3 भेदों  का प्रतिपादन किया गया है । 8 वस्तुओं के दान उत्तम माने गए हैं । विधि के अनुसार किये गए 4 दान उत्तम माने गए हैं और शेष कनिष्ठ माने गए हैं । यही दान की त्रिविधिता है । जिसे विद्वान लोग जानते हैं । 
- गृह, मंदिर या महल, विद्या, भूमि, गौ, कूप, प्राण और स्वर्ण - इन वस्तुओं का दान अन्य वस्तुओं की अपेक्षा ‘उत्तम दान’ माना गया है ।
- अन्न, बगीचा, वस्त्र तथा अश्व आदि वाहन - इन मध्यम श्रेणी के द्रव्यों के दान को ‘मध्यम दान’ कहते हैं ।
- जूता, छाता, बर्तन, दही, मधु, आसन, दीपक, काष्ठ  और पत्थर आदि वस्तुओं के दान को श्रेष्ठ पुरुषों ने ‘कनिष्ठ दान’ बताया है ।
ये दान के 3 भेद बताये गए हैं ।
दान नाश के 3 हेतु
- जिसे देकर पीछे पश्चाताप किया जाए । जो अपात्र को दिया जाए और जो बिना श्रद्धा के अर्पण किया जाए । वह दान नष्ट हो जाता है ।
- पश्चाताप, अपात्रता और अश्रद्धा - ये तीनों दान के नाशक हैं । यदि दान देकर पश्चाताप हो । तो वह ‘असुर दान’ है । जो निष्फल माना गया है ।
- अश्रद्धा से जो दिया जाता है । वह ‘राक्षस दान’ कहलाता है । वह भी व्यर्थ होता है । 
- ब्राह्मण को डांट फटकार कर और कटुवचन सुनाकर जो दान दिया जाता है अथवा दान देकर जो ब्राह्मण को कोसा जाता है । वह ‘पिशाच दान’ कहते हैं । और उसे भी व्यर्थ समझाना चाहिए । 
यह तीनों भाव दान के नाशक हैं ।
इस प्रकार 7 पदों में बंधे हुए दान के उत्तम महात्म्य को मैंने तुम्हें सुनाया है ।
धर्म वर्मा बोले - आज मेरा जन्म सफल हुआ । आज मुझे अपनी तपस्या का फल मिल गया ।
विद्या पढ़ कर भी यदि मनुष्य दुराचारी हो गया तो उसका सम्पूर्ण जीवन व्यर्थ है ।
बहुत क्लेश उठाकर जो पत्नी प्राप्त की गयी हो । वह यदि कटुवादिनी निकली तो वह भी व्यर्थ है । कष्ट उठाकर जो कुआँ बनवाया गया । उसका पानी यदि खारा निकला तो वह भी निरर्थक है ।
तथा अनेक प्रकार के क्लेश सहन करने के पश्चात जो मनुष्य जन्म मिला । वह यदि धर्माचरण के बिना बिताया गया तो उसे भी व्यर्थ ही समझाना चाहिए ।
इसी प्रकार मेरी तपस्या भी व्यर्थ चली गयी थी । उसे आज आपने सफल बना दिया । आपको बारम्बार नमस्कार है ।

शरीर एक प्रकार का घर है

अर्जुन बोला - मुने ! ऐतरेय किसके पुत्र थे । उनका निवास स्थान कहाँ था । परम बुद्धिमान ऐतरेय ने किस प्रकार भगवान के प्रसाद से सिद्धि प्राप्त की  ?
नारद बोले - कुन्तीनन्दन ! यहीं मेरे द्वारा स्थापित स्थान में जो हारित मुनि रहते थे । उन्हीं के वंश में एक श्रेष्ठ ब्राह्मण उत्पन्न हुए । जो मांडूकि नाम से विख्यात थे । वे वेद वेदांगों के पारंगत पंडित थे । उनके ‘इतरा’ नाम वाली पत्नी थी जो नारी के समस्त गुणों से सुशोभित थी । उसके गर्भ से जो पुत्र हुआ । उसी का नाम ‘ऐतरेय’ था ।
ऐतरेय बाल्यावस्था से ही निरंतर द्वादशाक्षर मंत्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) का जप करता था । उसे पूर्व जन्म में ही इस मंत्र की शिक्षा मिली थी ? वह न तो किसी की बात सुनता था और न स्वयं कुछ बोलता था और न अध्ययन ही करता था । इससे सबको निश्चय हो गया कि - यह बालक गूंगा है । पिता ने अनेक उपायों से उसको समझाया । बोध कराया । परन्तु उसने लौकिक व्यवहार में कभी मन नहीं लगाया । यह देख पिता ने भी यही निश्चय कर लिया कि यह सर्वथा जड़ है । तब उन्होंने ‘पिंगा’ नाम वाली दूसरी स्त्री से विवाह किया और उससे 4 पुत्र उत्पन्न किये । जो वेद वेदांगों में विद्वान हुए ।
ऐतरेय भी प्रतिदिन तीनों समय भगवान वासुदेव के मंदिर में जाकर उस उत्तम मंत्र का जप करने लगे । वे दूसरे किसी कार्य में परिश्रम नहीं करते थे । एक दिन उनकी माता अपनी सौत के पुत्रों की योग्यता देखकर संतप्त चित्त हो अपने पुत्र से बोली - अरे ! तू तो मुझे क्लेश देने के लिए ही पैदा हुआ । मेरे जन्म और जीवन को धिक्कार है । संसार में उस नारी का जन्म निश्चय ही व्यर्थ है । जो पति के द्वारा तिरस्कृत हो और जिसका पुत्र गुणवान न हो ।
वत्स ! मैं बड़े खोटे भाग्य वाली हूँ । अतः ‘महिसागर संगम’ में डूब मरूंगी । मेरा मर जाना ही अच्छा है । जीवित रहने में मुझे क्या लाभ  है ? मेरे मर जाने पर तू भी भगवान का महामौनी भक्त होकर दीर्घकाल तक आनंद भोगना ।

नारद बोले - माता की बात सुनकर ऐतरेय ठठा कर हंस पड़े । वे बड़े धर्मज्ञ थे । उन्होंने 2 घडी भगवान का ध्यान करके माता के चरणों में प्रणाम किया ।
और कहा - माँ ! तुम झूठे मोह में पड़ी हुई हो । अज्ञान को ही ज्ञान मान बैठी हो । शुभे ! जो शोचनीय नहीं है । उसी के लिए तुम शोक करती हो और जो वास्तव में शोचनीय है । उसके लिए तुम्हारे मन में तनिक भी शोक नहीं होता । यह संसार मिथ्या है । इसमें तुम इस शरीर के लिए क्यों चिंतित एवं मोहित हो रही हो । यह तो मूर्खों का काम है । तुम जैसे विदुषी स्त्रियों को ये शोभा नहीं देता । संसार में ‘सारतत्व’ तो कुछ और ही है ? किन्तु अज्ञान से मोहित मनुष्य किसी और ही असार वस्तु को सार समझते हैं ।
तुम इस मानव शरीर को यदि सार मानती हो । तो लो । इसकी भी असारता सुनो । यह जो मानव शरीर है । यह गर्भ से लेकर मृत्युपर्यन्त सदा अत्यंत कष्टप्रद है । यह शरीर एक प्रकार का घर है । हड्डियों का समूह ही इसके भार को संभालने वाला खम्भा है । नाङी जाल रुपी रस्सियों से ही इसे बाँधा गया है । रक्त और मांस रूपी मिटटी से इसको लीपा गया है । विष्ठा और मूत्र रुपी द्रव्यों का यह संग्रह पात्र है । केश और रोम रूपी तृण से इसको छाया गया है । सुन्दर रंग की त्वचा से इसके ऊपर रंग किया गया है । 
मुख ही इसका प्रधान द्वार है । दो आँख । दो कान । और नाक के छिद्र - ये ही छह खिड़कियाँ है । दोनों ओठ ही इसके द्वार को ढकने वाले किवाड़ हैं । दांत ही अर्गला (किवाड़ बंद करने वाली कुण्डी) है । नाङी और पसीने ही नाली और जल प्रवाह है । यह सदा काल की मुखाग्नि में स्थित है । ऐसे इस देह रूपी गेह में ‘जीव’ नाम वाला गृहस्थ निवास करता है ।
इस घर में त्रिगुणमयी प्रकृति ही उसकी पत्नी है तथा क्रोध, अहंकार, काम, ईर्ष्या और लोभ आदि ही उक्त गृहस्थ की संतान हैं ।
हाय ! कितने कष्ट की बात है कि जीव इस देह-गेह की मोह माया से मूढ़ होकर तदनुकूल बर्ताव करता है । उसका जिस जिस विषय में जैसे जैसे मोह होता है ।
वह सब बताता हूँ । सुनो ! जैसे पर्वत से झरने गिरते हैं । उसी प्रकार शरीर से भी कफ और मूत्र आदि बहते रहते हैं । उसी देह के लिए जीव मोहित होता है । विष्ठा और मूत्र से भरे हुए चर्मपात्र की भांति यह शरीर समस्त अपवित्र वस्तुओं का भण्डार है । और इसका एक प्रदेश (एक अंश) भी पवित्र नहीं है । अपने शरीर से निकले हुए मल मूत्र आदि के जो प्रवाह हैं । उनका स्पर्श हो जाने पर मिटटी और जल से हाथ शुद्ध किया जाता है । तथापि उन्ही अपवित्र वस्तुओं के भण्डार स्वरुप इस देह से न जाने क्यों मनुष्य को वैराग्य नहीं होता ?
सुगन्धित तेल और जल आदि के द्वारा यत्नपूर्वक भलीभांति संस्कार (सफाई) करने पर भी यह शरीर अपनी स्वाभाविक अपवित्रता को नहीं छोड़ता । ठीक उसी तरह जैसे कुत्ते की टेढ़ी पूँछ को कितना ही सीधा कर लिया जाए । वह अपना टेढ़ापन नहीं छोड़ पाती । अपनी देह की अपवित्र गंध से जो मनुष्य विरक्त नहीं होता । उसे वैराग्य के लिए अन्य किस साधन का उपदेश दिया जाए ? 
दुर्गन्ध तथा मल मूत्र लेप को दूर करने के लिए ही शारीरिक शुद्धि का विधान किया गया है । इन दोनों (गंध और लेप) का निवारण हो जाने के पश्चात आतंरिक भाव की शुद्धि होने से मनुष्य शुद्ध होता है । भाव शुद्धि ही सबसे बढ़कर पवित्रता है । वही सब कर्मों में प्रमाणभूत है ।
आलिंगन पत्नी का भी किया जाता है और पुत्री का भी । परन्तु दोनों में भाव का महान अंतर है । प्यारी पत्नी का आलिंगन किसी और भाव से किया जाता है एवं पुत्री का दूसरे भाव से । एक ही स्त्री के स्तनों को पुत्र दूसरे भाव से स्मरण करता है और पति दूसरे भाव से । अतः अपने चित्त को ही शुद्ध करना चाहिए । बाह्य शुद्धि के दूसरे दूसरे साधनों से क्या लेना है ?
भावदृष्टि से जिसका अन्तःकरण अत्यंत शुद्ध है । वह स्वर्ग और मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है ।
ज्ञान रूपी निर्मल जल तथा वैराग्य रूपी मृत्तिका से ही पुरुष के अविद्या एवं रागमय मल-मूत्र के लेप और दुर्गन्ध का शोधन होता है । इस प्रकार इस शरीर को स्वभावतः अशुद्ध माना गया है । जैसे केले के वृक्ष में केवल वल्कल ही सार है । उसी प्रकार इस देह में केवल त्वचा मात्र ही सार है । वास्तव में तो यह सर्वथा  निस्सार है । 
जो बुद्धिमान अपने शरीर को इस प्रकार दोष युक्त जान कर उदासीन हो जाता है । उसकी ओर से अनुराग शिथिल कर लेता है । वही इस संसार बंधन से छूट कर निकल पाता है । किन्तु जो दृणता पूर्वक इस शरीर को पकङे हुए रहता है । इसका मोह नहीं छोड़ता । वह संसार में ही पड़ा रह जाता है । इस प्रकार यह मानव जन्म लोगों के अज्ञान दोष से तथा नाना प्रकार के कर्मशात दुःख स्वरुप और महान कष्टप्रद बताया गया है ।
जैसे बड़े भारी पर्वत से दबा हुआ कोई प्राणी बड़े कष्ट से पीड़ित रहता है । उसी प्रकार गर्भ की झिल्ली में बंधा हुआ मनुष्य महान कष्ट से वहाँ ठहर पाता है । जैसे समुद्र में गिरा हुआ कोई मनुष्य अत्यंत व्याकुल होकर बड़े भारी दुःख से घिर जाता है । उसी प्रकार गर्भगत जल से भीगे हुए अंगों वाला गर्भस्थ शिशु अत्यंत व्याकुल रहता है । जैसे किसी को लोहे के घड़े में रखकर आग में पकाया जाता है । वैसे ही गर्भ रूपी घाट में डाला हुआ जीव जठरानल की आंच से पकता रहता है । यदि आग के समान दहकती हुई सुइयों से किसी को निरंतर छेदा जाए तो उसे कितनी पीड़ा हो सकती है । उससे आठ गुनी पीड़ा गर्भ में भोगनी पड़ती है ।
इस प्रकार स्थावर जंगम सभी प्राणियों को अपने अपने गर्भ के अनुरूप यह महान गर्भ दुःख प्राप्त होता है । ऐसा कहा गया है ।
गर्भ में स्थित होने पर सभी को अपने पूर्व जन्मों का स्मरण हो आता है । 
उस समय जीव इस प्रकार सोचता है - अहो ! मैं मरकर पुनः उत्पन्न हुआ और उत्पन्न होकर पुनः मृत्यु को प्राप्त हुआ । जन्म से लेकर मैंने सहस्त्रों योनियों का दर्शन किया है । इस समय जन्म धारण करते ही मेरे पूर्व संस्कार जाग उठे हैं । अतः अब मैं ऐसे कल्याणकारी साधन का अनुष्ठान करूँगा । जिससे पुनः मेरा गर्भवास न हो । संसार बंधन को दूर करने वाले भगवदीय तत्व ज्ञान का मैं चिंतन करूँगा । इस प्रकार उस दुःख से छूटने के उपाय पर विचार करता हुआ गर्भस्थ जीव चिंतामय रहता है ।
जब उसका जन्म होने लगता है । उस समय तो उसे गर्भ की अपेक्षा भी ‘कोटि गुना’ अधिक दुःख होता है । गर्भवास के समय जो बुद्धि जागृत रहती है । वह जन्म हो जाने पर नष्ट हो जाती है । बाहर की हवा लगते ही मूढ़ता आ जाती है । मोहग्रस्त होने पर शीघ्र ही उसकी स्मरण शक्ति का नाश हो जाता है । स्मरण शक्ति नष्ट होने पर पूर्व कर्मवशात जीव का पुनः उसी जन्म (के शरीर आदि) में अनुराग हो जाता है । इस प्रकार राग और मोह के वशीभूत हुआ वह संसार में न करने योग्य पापादि कर्मों में लग जाता है ।
उनमें फंसकर न तो वह अपने को जानता है । न दूसरों को जानता है । और न किसी देवता को ही कुछ समझता है । अपने परम कल्याण की बात तक नहीं सुनता । आँख रहते हुए भी नहीं देखता । समतल मार्ग पर धीरे धीरे चलते हुए भी वह पग पग पर लड़खड़ाने लगता है । विद्वानों के समझाने पर भी । बुद्धि रहते हुए भी वह नहीं समझ पाता । इसलिए राग और मोह के वशीभूत होकर संसार में क्लेश उठाता रहता है । जन्म लेने पर गर्भकाल में जागृत हुई पूर्व जन्म की स्मृति अथवा गर्भ के दुखों की स्मृति नहीं रहती । 
इसलिए महर्षियों ने गर्भ दुःख का निरूपण करने के लिए शास्त्रों का प्रतिपादन किया है । वे शास्त्र स्वर्ग और मोक्ष के उत्तम साधन हैं । सब कार्यों और प्रयोजनों को सिद्ध करने वाले इस शास्त्र ज्ञान के रहते हुए भी लोग उससे अपने कल्याण का साधन नहीं करते । यह बड़ी अदभुत बात है ।
बाल्यावस्था में इन्द्रियों की वृत्तियाँ अव्यक्त रहती हैं । इसलिए जीव उस समय के महान दुःख को बताने की इच्छा होने पर भी बता नहीं सकता और न उस दुःख के निवारण के लिए कुछ कर ही सकता है । फिर जब दांत उठने लगते हैं । तब उसे महान कष्ट भोगना पड़ता है । मूल रोग (सर दर्द) नाना प्रकार के बाल रोग तथा पूतना आदि बालग्रह आदि से भी बालक को बड़ी पीड़ा होती है । भूख प्यास की पीड़ा से उसके सब अंग व्याकुल रहते हैं । तथा वह कभी खाट पर पड़ा हुआ रोता रहता है । इसके बाद जब वह कुछ बड़ा हो जाता है । तब अक्षरों के अध्ययन आदि से और गुरु के अनुशासन से उसको महान दुःख होता है ।
युवावस्था में रागोनमत्त पुरुष की सम्पूर्ण इन्द्रिय वृत्तियाँ काम तथा राग की पीड़ा से सदा मतवाली रहती हैं । अतः उसे भी कहाँ से सुख प्राप्त हो सकता है । मोहवश पुरुष को यदि कहीं अनुराग हो जाता है तो ईर्ष्या के कारण उसे बड़ा भारी दुःख होता है ।
जो उन्मत्त और क्रोधी है । उसका कहीं भी राग होना केवल दुःख का ही कारण है । रात में कामाग्नि जनित खेद से पुरुष को नींद नहीं आती । दिन में भी द्रव्योपार्जन की चिंता लगी रहने के कारण उसे सुख नहीं मिल सकता । 
स्त्रियाँ सब दोषों का आश्रय है । यह बात भलीभांति जान लेने पर भी जो लोग उनमें मैथुन से सुख मानते हैं । उनका वह सुख मल मूत्र त्याग के सदृश ही माना गया है । सम्मान अपमान से, प्रियजनों का संयोग वियोग से तथा जवानी वृद्धावस्था से ग्रस्त है । निर्विघ्न सुख कहाँ है ?
युवावस्था का शरीर एक दिन जरा अवस्था से जर्जर कर दिया जाने पर सम्पूर्ण कार्यों के लिए असमर्थ हो जाता है । उसके बदन में झुर्रियां पड़ जाती हैं । सर के बाल सफेद हो जाते हैं । और शरीर बहुत ढीला ढाला हो जाता है । स्त्री और पुरुष का वही रूप जो जवानी के दिनों में एक दूसरे का आधार था । जराग्रस्त हो जाने पर दोनों में से किसी को भी प्रिय नहीं लगता । बुढ़ापे में दबा हुआ पुरुष असमर्थ होने के कारण पत्नी पुत्र आदि बन्धु बांधवों तथा दुराचारी सेवकों द्वारा भी अपमानित होता है । वृद्धावस्था में रोगातुर पुरुष धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का साधन करने में असमर्थ हो जाता है । इसलिए युवावस्था में ही धर्म का आचरण करना चाहिए ।
वात, पित्त और कफ़ की विषमता ही व्याधि कहलाती है । इस शरीर को वात आदि का समूह बताया गया है । इसलिए अपना यह  शरीर व्याधिमय है । ऐसा जानना चाहिए । इस शरीर में अनेक प्रकार के रोगों द्वारा बहुतेरे दुःख प्रवेश कर जाते हैं । उनका पता अपने आपको भी नहीं चलता है । फिर दूसरों को तो लग ही कैसे सकता है । इस देह में 101 व्याधियां स्थित हैं । इनमें से 1 व्याधि तो काल के साथ रहती है और शेष आगंतुक मानी गयी है । जो आगंतुक बताई गयी है । वे तो दवा करने से तथा जप, होम और दान से शांत हो जाती हैं । परन्तु मृत्यु रूपी व्याधि कभी शांत नहीं होती । नाना प्रकार की व्याधियां, सर्प आदि प्राणी, विष एवं अभिचार (पुरश्चरण) - वे सब देहधारियों के मृत्यु के द्वार बताये गए हैं ।
यदि जीव का काल आ पहुंचा है तो सर्प और रोग आदि से पीड़ित होने पर उसे धनवंतरि भी जीवित नहीं रख सकते । काल से पीड़ित मनुष्य को औषधि, तपस्या, दान, मित्र तथा बन्धु बांधव कोई भी बचा नहीं सकते । रसायन, तपस्या, जरा, योग, सिद्ध महात्मा तथा पंडित - ये सब मिलकर भी कालजनित मृत्यु को नहीं टाल सकते ।
समस्त प्राणियों के लिए मृत्यु के समान कोई दुःख नहीं है । मृत्यु के समान कोई भय नहीं है । मृत्यु के समान कोई त्रास नहीं है । सती भार्या, उत्तम पुत्र, श्रेष्ट मित्र, राज्य, ऐश्वर्य और सुख - ये सभी स्नेहपाश में बंधे हुए हैं । मृत्यु इन सबका उच्छेद कर डालती है ।
माँ ! क्या तुम नहीं देखती हो कि हजारों मनुष्यों में से 5 भी शायद ऐसे होंगे । जो पूरे 100 वर्ष तक जीने वाले हो । कोई ही कोई 80 वर्ष और 70 वर्ष की अवस्था में मरते हैं । प्रायः 60 वर्ष तक की ही लोगों की परमायु हो गई है । किन्तु वह भी सबके लिए निश्चित नहीं है ।
जिस देहधारी को अपने  पूर्व कर्मानुसार जितनी आयु प्राप्त होती है । उसका आधा भाग तो मृत्यु रूपिणी रात्रि हर लेती है । बाल्यावस्था । अबोधावस्था और बृद्धावस्था के द्वारा 20 वर्ष और व्यतीत हो जाते हैं । जो धर्म, अर्थ और काम - किसी के भी उपयोग में नहीं आते । शेष आयु का आधा भाग मनुष्य के आने वाले बहुत से भय और अनेक प्रकार के रोग और शोक आदि हर लेते हैं । इन सबसे जो शेष रह जाता है । वही मनुष्य का जीवन है ।
इस जीवन की समाप्ति होने पर मनुष्य अत्यंत भयंकर मृत्यु को प्राप्त होता है । मृत्यु के बाद वह पुनः करोड़ों योनियों में जन्म ग्रहण करता है । कर्मों की गणना के अनुसार देह भेद से जो जीव एक शरीर से वियोग होता है । उसे ‘मृत्यु’ नाम दिया गया है । वास्तव में उससे जीव का विनाश नहीं होता । मृत्यु के समय महान मोह को प्राप्त हुए जीव के मर्म स्थान जब विदीर्ण होने लगते हैं । उस दशा में उसे जो बड़ा भारी कष्ट भोगना पड़ता है । उसकी इस संसार में कहीं कोई उपमा नहीं है ।
जैसे सांप मेंढक को निगल जाता है । उसी प्रकार मृत्यु जब मनुष्य को निगलने लगती है । उस समय वह हा तात ! हा मातः ! हा कान्ते ! इत्यादि रूप से पुकारता हुआ अत्यंत दुखी हो होकर रोता है । भाई बांधवों से साथ छूट रहा है । प्रेमीजन उसे चारों ओर से घेर कर खड़े हैं । वह सूखते हुए मुख से गरम गरम सांस खींचता है । चारपाई पर चारों ओर बारबार करवट बदलता है । पीड़ा से मोहित होकर बड़े वेग से इधर उधर हाथ फेंकता है । उसके वस्त्र खुल गए हैं । उसकी लज्जा छूट चुकी है । विष्ठा और मूत्र में सना हुआ है । 
कंठ, ओष्ठ और तालू सूख जाने के कारण बारबार पानी मांगता है । अपने धन वैभव के लिए इस बात की चिंता करता है कि मेरे मर जाने पर ये किसके हाथ में पड़ेंगे । पुनः ‘कालपाश’ से खींचे जाने पर उसका गला घुरघुराने लगता है और पार्श्ववर्ती लोगों के देखते देखते मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । जैसे तृण जलौका (जौंक) जल में बहते हुए तिनके के अंत तक पहुँच कर जब दूसरा तिनका थाम लेती है । तब पहले को छोड़ देती है । उसी प्रकार जीव एक देह से दूसरी देह में क्रमशः प्रवेश करता है । भावी शरीर में अंशतः प्रवेश करके पूर्व शरीर को त्याग करता है ।
विवेकी पुरुष के लिए किसी से कुछ माँगना मृत्यु से भी अधिक दुखदायी होता है । मृत्यु का दुःख तो क्षण भर में समाप्त हो जाता है । परन्तु याचनाजनित दुःख का कभी अंत नहीं होता । मैंने तो इस समय यह अनुभव किया है कि मृत मनुष्य जीवित रहकर याचना करने की अपेक्षा श्रेष्ठ है । क्योंकि अब वह फिर दूसरे किसी के सामने हाथ नहीं फैला सकता ।
तृष्णा ही लघुता का कारण है ।
आदि में दुःख है । मध्य में दुःख है । तथा अंत में भी दारुण दुःख प्राप्त होता है ।
दुखों की यह परंपरा समस्त प्राणियों को स्वभावतः प्राप्त होती है । क्षुधा को सब रोगों से महान रोग माना गया है । वह अन्न रूपी औषधि का लेप करने से कुछ क्षणों के लिए शांत हो जाती है । (यदि कहें कि धन धान्य संपन्न राजा सुखी होंगे । तो यह भी ठीक नहीं) राजा को केवल यह अभिमान ही होता है कि मेरे घर में इतना वैभव शोभा पा रहा है । वास्तव में तो उनका सारा आभरण भार रूप है । समस्त आलेपन द्रव्य मल मात्र हैं । सम्पूर्ण संगीत राग प्रलाप मात्र है तथा नृत्य आदि भी पागलों की सी  चेष्टा है । विचार दृष्टि से देखने पर इन राज्य भोगों के द्वारा राजाओं को सुख कहाँ प्राप्त होता है ? क्योंकि वे लोग तो एक दूसरे को जीतने के लिए सदा ही चिंतित रहते हैं । प्रायः राज्यलक्ष्मी के मद से उत्पन्न होने के कारण नहुष आदि महाराज स्वर्ग का साम्राज्य पाकर भी वहाँ से नीचे गिर गए हैं । राजलक्ष्मी अथवा धन ऐश्वर्य से भला कौन सुख पाता है ?
मनुष्य स्वर्ग लोक में जो पुण्य फल भोगते हैं । वह अपने मूल धन को गवां कर ही भोगते हैं । क्योंकि वहाँ वे दूसरा नवीन कर्म नहीं कर सकते । यही स्वर्ग में अत्यंत भयंकर दोष है । जैसे वृक्ष की जड़ काट देने पर वह विवश होकर पृथ्वी पर गिर पड़ता है । उसी प्रकार पुण्य रूपी मूल का क्षय हो जाने पर स्वर्गवासी जीव पुनः पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं । इस तरह विचार पूर्वक देखा जाए । तो स्वर्ग में भी देवताओं को कोई सुख नहीं है ।
नर्क में गए हुए पापी जीवों का दुःख तो प्रसिद्ध है । उनका क्या वर्णन किया जाये । स्थावर योनि में पड़े हुए जीवों को भी बहुत दुःख भोगने पड़ते हैं । दावानल से जलना, पाला पड़ने से गलना, धूप और हवा से सूखना, कुल्हाड़ी से काटा जाना, उनके वल्कलों (छिलकों) का उतरा जाना, प्रचंड आंधी के वेग से पत्तों, डालियों और फलों का गिराया जाना तथा हाथियों और अन्य जंगली जंतुओं द्वारा कुचला जाना आदि उनके लिए महान दुःख हैं ।
सर्पों और बिच्छुओं को प्यास और भूख का कष्ट रहता है । उन्हें क्रोध का भी दारुण दुःख सहन करना पड़ता है । संसार में प्रायः दुष्ट सांप बिच्छुओं को मारा  जाता है । उन्हें जाल में फंसा कर बन्द रखा जाता है  ।
माता जी ! इस प्रकार उस योनि के जीवों को बारबार कष्ट उठाना पड़ता है । कीड़े आदि का अकस्मात जन्म होता है और अचानक ही उनकी मौत भी हो जाती है । अतः उनका दुःख भी कम नहीं है । मृगों और पक्षियों को वर्षा, सर्दी और धूप का महान कष्ट तो है ही । भूख प्यास के भारी दुःख से भी मृग सदा संत्रस्त रहते हैं । 
पशु समूह के जो दुःख हैं । उन्हें भी सुन लो । भूख प्यास तथा सर्दी गर्मी आदि का कष्ट सहना, मारा जाना, बंधन में डाला जाना और डंडे आदि से पीटा जाना, नाक का छेदा जाना, चाबुक और अंकुश की मार पड़ना आदि उनके महान क्लेश हैं । इनके अतिरिक्त बोझ ढोने का भी उन्हें  बड़ा भारी कष्ट है । कार्य की शिक्षा देते समय भी उन्हें मारा पीटा जाता है । फिर युद्ध आदि की भी पीड़ा भी सहनी पड़ती है । अपने झुण्ड से जो उनका वियोग होता  है और वे वन से जो अन्यत्र लाये जाते हैं । यह सब कष्ट अलग हैं ।
दुर्भिक्ष, दुर्भाग्य का प्रकोप, मूर्खता, दरिद्रता, नीच ऊँच का भय, मृत्यु, राष्ट्रविप्लव (एक राज्य का नाश करके दूसरे के स्थापना करना) पारस्परिक अपमान का दुःख, आपस में एक दूसरे से धन वैभव या मान प्रतिष्ठा में बढ़ जाने से कष्ट, अपनी प्रभुता का सदा स्थिर न होना, ऊंचे चढ़े हुए लोगों का नीचे गिराया जाना इत्यादि महान दुखों से यह सम्पूर्ण चराचर जगत व्याप्त है । 
जैसे इस कंधे का भार उस कंधे पर कर देने को मनुष्य विश्राम समझता है । उसी प्रकार इस लोक में एक दुःख दूसरे दुःख से ही शांत होता है । अतः एक दूसरे से ऊँची स्थिति में स्थित होते हुए इस सम्पूर्ण जगत को दुखों से भरा हुआ जानकर उसकी ओर से अत्यंत उद्विग्न हो जाना चाहिए । उद्वेग से वैराग्य होता है । वैराग्य से ज्ञान प्रकट होता है तथा ज्ञान से परमात्मा को जानकर मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।
माँ ! जैसे कौओं के अपवित्र स्थान में विशुद्ध राजहंस नहीं रह सकता । उसी प्रकार ऐसे दुखमय संसार में मैं तो कभी नहीं रम सकता ।
मैया ! जहाँ रहकर मैं बिना किसी विघ्न बाधा के आनंदपूर्वक रह सकता हूँ । वह स्थान भी बताता हूँ । सुनो ! अविद्या रूपी वन तो बड़ा भयंकर है । उसमें नाना प्रकार के कर्ममय वृक्ष खड़े हैं । वहाँ संकल्पों के डांस और मच्छर बहुत हैं । शोक ओर हर्ष ही वहाँ की सर्दी और धूप हैं । उस वन में मोह का घना अन्धकार छाया रहता है । वहां लोभ रूपी सांप और बिच्छू रहते हैं । विषयों के अनेक मार्गों से वह प्रदेश व्याप्त है । काम और क्रोध रूपी वधिक तथा लुटेरे उसमें सदा डेरा डाले रहते हैं ।
उस महा दुखमय विशाल वन को लांघ कर अब मैं एक ऐसे महान विपिन में प्रवेश कर चुका हूँ । जहाँ पहुँच कर उसके तत्व को जानने वाले ज्ञानी पुरुष न शोक करते हैं, न हर्ष ।
यहाँ किसी से भय नहीं है । किसी को भी भय नहीं है । उस विद्या रुपी वन में साथ बड़े भरी वृक्ष हैं । वहाँ सात ही पर्वत हैं । जिन्होंने तीनों लोकों को धारण कर रखा है । सात ही कुण्ड हैं और सात ही नदियाँ हैं । जो सदा ब्रह्मरूप जल बहाया करती है । 
तेज, अभयदान, अद्रोह, कौशल, अचपलता, अक्रोध और प्रिय वचन बोलना - ये ही सात पर्वत विद्यावान में स्थित हैं ।
दृण निश्चय, सबके साथ समता, मन और इन्द्रियों में संयम, गुणसंचय, ममता का अभाव, तपस्या तथा संतोष - ये सात कुण्ड हैं ।
भगवान के गुणों का विशेष ज्ञान होने से जो उनके प्रति भक्ति होती है । वह विद्या वन की पहली नदी है । वैराग्य दूसरी, ममता का त्याग तीसरी, भगवदाराधन चौथी, भाग्वादर्पण पांचवी, ब्रह्म एकत्व बोध छठी तथा सिद्धि सातवीं नदी है । ये ही सात नदियाँ वहाँ स्थित बताई गई हैं । बैकुंठ धाम के निकट इन सातों नदियों का संगम होता है ।
जो आत्मतृप्त, शांत तथा जितेन्द्रिय होते हैं । वे ही महात्मा उस मार्ग से परात्पर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं । कोई श्रेष्ठ ज्ञानीजन उन वृक्षों को प्राप्त करता है । कोई पर्वतों को, कोई कुण्डों को और कोई उन सात सरिताओं को ही प्राप्त होता है ।
माँ ! मैं ग्रहण किये हुए व्रत को धारण करने की इच्छा रख कर ब्रह्मचर्य का आचरण करता हूँ । इस ब्रह्मचर्य में ब्रह्म ही समिधा, ब्रह्म ही अग्नि तथा ब्रह्म ही कुशस्तरण है । जल भी ब्रह्म है और गुरु भी ब्रह्म ही है  - यही मेरा ब्रह्मचर्य है । विद्वान पुरुष इसी को सूक्ष्म ब्रह्मचर्य मानते हैं ।
माता ! अब मेरे गुरु का परिचय सुनो । जिन्होंने मुझे विद्या प्रदान की है । एक ही शिक्षक है । दूसरा कोई शिक्षक नहीं है । ह्रदय में विराजमान अन्तर्यामी पुरुष ही शिक्षक होकर शिक्षा देता है । उसी से प्रेरित होकर मैं झरने से बहकर जाने वाले जल की भांति  जहाँ जिस कार्य में नियुक्त होता हूँ । वहाँ वैसा ही करता हूँ । एक ही गुरु है । उनके सिवा दूसरा कोई गुरु नहीं है । जो ह्रदय में विराजमान हैं । वे गुरु हैं । उनको मैं प्रणाम करता हूँ । उन्हीं गुरु स्वरूप भगवान मुकुंद की अवहेलना करके सम्पूर्ण दानव पराभव को प्राप्त हुए हैं । एक ही बन्धु है । उसके सिवा दूसरा बन्धु नहीं है । जो ह्रदय में विराजमान है । वह परमात्मा ही बन्धु है । मैं उसे नमस्कार करता हूँ । उसी से शिक्षा प्राप्त करके सात बंधुमान भाई सप्तर्षि आकाश में प्रकाशित होते हैं । ऐसे ही ब्रह्मचर्य का भलीभांति सेवन करना चाहिए ।
अब मेरा गृहस्थ कैसा है । यह भी सुन लो । माता ! प्रकृति ही मेरी पत्नी है । किन्तु मैं कभी उसका चिंतन नहीं करता । वही सदा मेरा चिंतन किया करती है । वह मेरे सब प्रयोजनों को सिद्ध करने वाली है । 
नासिका, जिह्वा, नेत्र, त्वचा, कान, मन और बुद्धि - यह सात प्रकार की अग्नि सदा मेरी अग्निशाला में प्रज्ज्वलित रहती है । 
गंध, रस, रूप, शब्द, स्पर्श, मंतव्य और बोधव्य - ये ही सात मेरी समिधाएँ हैं । होता भी नारायण है । और ध्यान से साक्षात नारायण ही उपस्थित हो उस हविष्य का उपयोग करते हैं । ऐसे महायज्ञ द्वारा मैं अपनी इस ग्रहस्थी में उन परमेश्वर का यजन करता हूँ । किसी भी वस्तु की कामना नहीं रखता । यथापि मेरे सम्पूर्ण काम स्वयं सिद्ध हैं ।
मैं सांसारिक सम्पूर्ण दोषों से द्वेष नहीं करता तथापि कोई भी दोष मुझमें प्रकट नहीं होता । जैसे कमल के पत्ते पर जल की बूँद का लेप नहीं होता । उसी प्रकार मेरा स्वभाव राग द्वेष आदि से लिप्त नहीं होता ।
मैं नित्य हूँ व भूतों के स्वभाव का साक्षी हूँ । अनित्य भोग मुझ पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते । जैसे सूर्य की किरणें आकाश में लिप्त नहीं होती । वैसे ही मेरे भगवदर्थ किये गए निष्काम कर्मों में भोग समूह लिप्त नहीं होता (मेरे कर्मों का फल भोग सामग्री के रूप में नहीं उपस्थित होता । वे कर्म तो भगवत प्राप्ति कराने वाले हैं)
माता ! ऐसे मुझ पुत्र से तुम दुखी न हो । मैं तुम्हें उस पद पर पहुचा दूंगा । जहाँ सैकड़ों यज्ञ करके भी पहुँचना असम्भव है ।
अपने पुत्र की यह बात सुनकर इतरा को बड़ा विस्मय हुआ ।
वह सोचने लगी - अहो ! यदि मेरा पुत्र ऐसा दृढ़ निश्चय वाला विद्वान है तब तो संसार में जब इसकी ख्यति  होगी । उस समय मेरा भी महान यश फैलेगा ।
माता इस प्रकार की बातें सोच ही रही थी कि शंख चक्र गदाधारी भगवान विष्णु उस अर्चा विग्रह से साक्षात प्रकट हो गए । वे उस द्विज पुत्र की बातों से अत्यंत प्रसन्न थे । भगवान को देखते ही ऐतरेय धरती पर दंड की भांति गिर पड़े । उनके शरीर में रोमांच हो आया । नेत्रों से प्रेम के आंसू बहने लगे । वाणी गदगद हो गयी । बुद्धिमान ऐतरेय ने मस्तक पर अंजलि बाँध कर भगवान का इस प्रकार स्तवन प्रारंभ किया ।
- आप भगवान वासुदेव का हम ध्यान और नमस्कार करते हैं । आप ही प्रदुम्न, अनिरुद्ध तथा संकर्षण हैं । आपको नमस्कार है । आप केवल विज्ञानरूप तथा परमानंद मूर्ति हैं । आपको नमस्कार है । आप आत्माराम, शांत तथा आप समस्त इन्द्रियों के स्वामी (हृषिकेश) हैं ।
सबसे महान तथा अनंत शक्तियों से संपन्न हैं । आपको नमस्कार है । मन सहित वाणी के थक कर निवृत हो जाने पर जो एक मात्र अपनी कृपा से ही सुलभ होने वाले हैं । नाम और रूप से रहित चैतन्य घन ही जिनका रूप है । वे सत और असत से परे विराजमान परमात्मा हम सबकी रक्षा करें । आप परम सत्य तथा निर्मल हैं । हम आपकी उपासना करते हैं । जो षङविध ऐश्वर्य से युक्त परम पुरुष महानुभाव एवं समस्त महाविभूतियों के अधिपति हैं । उन भगवान को नमस्कार है । परमेष्ठिन ! आप सबसे उत्कृष्ट हैं । सम्पूर्ण भक्त समुदाय आपके युगल चरणार्विन्दों की बड़े लाङ प्यार से सेवा करते हैं । आपको नमस्कार है । अग्नि आपका मुख है । पृथ्वी आपके दोनों चरण है । आकाश मस्तक है । चन्द्रमा तथा सूर्य दोनों नेत्र हैं । सम्पूर्ण लोक आपका शरीर है तथा चारों दिशाएँ आपकी चार भुजाएं हैं । भगवान ! आपको नमस्कार है ।
हे स्तुति करने योग्य परमात्मन ! हे नाथ ! इस पृथ्वी पर कोई भी ऐसा प्रदेश नहीं है । जिनमें मेरा जन्म न हुआ हो । जहाँ मेरी मृत्यु न हुई हो । मैं समझता हूँ । यदि मेरे माता पिताओं की गणना की जाए तो यह विशाल पृथ्वी परमाणुओं की स्थिति में पहुँच जाएगी । असंख्य जन्मों के मेरे माता पिताओं की गणना करने के लिए पृथ्वी के परमाणु बराबर टुकड़े करने पड़ेंगे । 
देवदेव ! मेरे जो मित्र, शत्रु, अनुजीवी तथा भाई बन्धु इस संसार में हो गए हैं । उन सबको गणना करने में मैं सर्वथा असमर्थ हूँ ।
नाथ ! मैंने अपना मन बारबार आपके चरणों में समर्पित किया परन्तु मेरा दुर्जय शत्रु काम अपने क्रोध आदि सहायकों द्वारा उसे हठात अपने वश में कर लेता है । भगवन ! अब आप ही बताईए । ऐसे दशा में मैं क्या करूँ ?
सर्वव्यापी परमेश्वर ! मैं बहुत ही पीड़ित हूँ । संसार रुपी गड्ढे में गिरे हुए इस दीन पर आप दया कीजिये । दुर्गति में पड़ा हुआ प्राणी भी महात्माओं की शरण में आ जाने पर कष्ट नहीं भोगता । रोगी मनुष्यों को शरण देने वाला वैद्य है । महासागरों में डूबे हुए मनुष्य का सहारा नौका है । बालक को आश्रय देने वाले माता और पिता हैं । परन्तु भगवन ! अत्यंत घोर संसार बंधन से दुखी हुए मनुष्य को शरण देने वाले केवल आप ही हैं ।
सर्वस्वरूप सर्वेश्वर ! प्रसन्न होइये । आप ही सबके कारण हैं । पारमार्थिक सारतत्व भी आप ही हैं । महान दुःख समूह से भरे हुए, संसार रूपी गड्ढे से स्वयं ही हाथ पकड़ कर मुझे निकालिए ।
हे अच्युत ! हे उरुक्रम ! यह संसार भूख और प्यास से, वात, पित्त और कफ - इन तीन धातुओं से, सर्दी गर्मी, आंधी और वर्षा से आपस में ही एक दूसरे से तथा कभी तृप्त न होने वाली कामाग्नि तथा क्रोधाग्नि से बारबार पीड़ित होता है । इसे इस दशा में देखकर मेरा मन बहुत ही दुखी हो रहा है । मैंने अपनी शक्ति के अनुसार सम्पूर्ण जगत को धारण करने वाले परमेश्वर भगवान आप वासुदेव का स्तवन किया है । इससे सबका कल्याण हो । सम्पूर्ण जगत के समस्त दोष नष्ट हो जाएँ ।
आज मेरे द्वारा जगत्धाता वासुदेव की स्तुति हुई है । इससे इस पृथ्वी पर, अंतरिक्ष में, स्वर्गलोक में तथा रसातल में भी जो कोई प्राणी रहते हों । वे सिद्धि को प्राप्त हो जाएँ । मेरे द्वारा स्तुति पाठ करते समय जो लोग इसको सुनते हों । इस स्तोत्र का उच्चारण करते समय जो मुझे देखते हैं । वे देवता, असुर, मनुष्य तथा पशु पक्षी कोई भी क्यों न हों । सभी भगवान विष्णु के तत्वज्ञान को प्राप्त करें । 
इनके सिवा जो गूंगे तथा अन्यान्य इन्द्रियों से रहित हों । जो देख सुन न सकते हों तथा पशु पक्षी, कीड़े मकोड़े आदि भी आज भग्वातत्व ज्ञान के भागी हो जाएँ । संसार में दुखों का नाश हो जाए । समस्त प्रजा के ह्रदय में लोभ आदि दोष समुदाय निकल जाए । अपने में, अपने भाई और पुत्र में जैसा प्रेम और आत्मीयता का भाव होता है । सब लोगों का सबके प्रति वैसा ही भाव हो जाए ।
जो संसार रूपी रोग के चिकित्सक, सम्पूर्ण दोषों के निवारण में चतुर तथा परमानन्द की प्राप्ति के हेतु भूत हैं । वे भगवान विष्णु सबके ह्रदय में विराजमान हों और ऐसा होने से सब लोगों के संसार बंधन शिथिल हो जाएँ । सम्पूर्ण विश्व को धारण करने वाले भगवान वासुदेव का स्मरण करने पर मन, वाणी और शरीर द्वारा आचरित मेरे समस्त पाप नष्ट हो जाएँ ।
हे वासुदेव ! ऐसा उच्चारण करने पर अथवा भगवान विष्णु के भक्त की महिमा का कीर्तन करने पर । अथवा श्रीहरि का स्मरण करने पर समस्त पापों का नाश हो जाता है । यदि यह सत्य है । तो इस सत्य के प्रभाव से मेरा पाप नष्ट हो जाए ।
अखिलेश्वर ! आपके चरणों में पड़े हुए मुझ सेवक पर आप यह सोच कर कृपा कीजिये कि - यह बेचारा मूढ़ है । कुछ जानता नहीं । इसकी बुद्धि बहुत थोड़ी है । इसके द्वारा उद्यम भी बहुत कम हो पाता है । विषयों से इसका मन सदा क्लेश में पड़ा रहता है । इसलिए यह मुझ में नहीं लग पाता । देव ! आपकी स्तुति करने में ब्रह्मा भी समर्थ नहीं हैं । भगवन ! आप प्रसन्न होइये । 
विष्णो ! आप बड़े दयालु हैं । मुझ अनाथ पर कृपा कीजिये ।
हे अनंत ! हे पापहारी हरि ! आप पुरुषोत्तम हैं । संसार सागर में डूबे हुए मुझ दीन का उद्धार कीजिये ।
अर्जुन ! ऐतरेय के इस प्रकार स्तुति करने पर ‘विशालकाय’ भगवान वासुदेव ने आनंदमय होकर कहा - वत्स ऐतरेय ! मैं तुम्हारी भक्ति से और इस स्तुति से बहुत प्रसन्न हूँ । तुम मुझसे कोई मनोवांछित एवं दुर्लभ वर मांगो ।
ऐतरेय ने कहा - नाथ ! हरे ! मेरा अभीष्ट वर तो यही है कि घोर संसार सागर में डूबते हुए मुझ असहाय के लिए आप कर्णधार हों ।
भगवान वासुदेव बोले - वत्स ! तुम तो संसार सागर से मुक्त ही हो । जो सदा इस स्तोत्र से गुप्तक्षेत्र में स्थित हुए मुझ वासुदेव का स्तवन करेगा । उसके सम्पूर्ण पापों का नाश हो जायेगा । अतः यह ‘अघनाशन’ नाम से विख्यात होगा । जो एकादशी को उपवास करके मेरे आगे इस स्तोत्र का पाठ करेगा । वह शुद्धचित्त होकर मेरे परम धाम को प्राप्त होगा । 
जैसे सब क्षेत्रों में मुझे यह गुप्तक्षेत्र अधिक प्रिय है । उसी प्रकार सब स्तोत्रों में यह स्तोत्र मुझे विशेष प्रिय है । जिन प्राणियों के उद्देश्य से महात्मा पुरुष इस स्तोत्र का जप करते हैं । वे सब प्राणी मेरी कृपा से शान्ति, ऐश्वर्य तथा उत्तम बुद्धि प्राप्त करेंगे ।
बेटा ! तुम श्रद्धापूर्वक वैदिक धर्मों का आचरण करो । उन्हें निष्काम भाव से मुझे समर्पित कर देने पर उनके द्वारा तुम्हें बंधन प्राप्त नहीं होगा । पत्नी का पाणिग्रहण करके तुम यज्ञों द्वारा भगवान की आराधना करो और अपनी माता की प्रसन्नता बढाओ । मुझमें तीव्र ध्यान करने से तुम निसंदेह मुझे ही प्राप्त होगे ।
बुद्धि, मन, अहंकार, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्मेन्द्रियाँ - ये तेरह ग्रह हैं ।
बोधव्य, मंतव्य, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, वचन, आदान, कर्म, गमन, मलोत्सर्ग और रतिजनित आनद - ये तेरह महाग्रह हैं ।
बेटा ! अपने बुद्धि आदि शुद्ध (आसक्ति शून्य) ग्रहों के द्वारा मेरा ध्यान करते हुए पूर्वोक्त महाग्रहों को शुद्ध रूप में ग्रहण करो । भागवत प्रसाद मानकर स्वीकार करो । ऐसा करने से तुम मोक्ष को प्राप्त होगे ।
यों कहकर भगवान विष्णु पुनः वासुदेव विग्रह में ही प्रवेश कर गए ।

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326