28 मई 2016

विपस्सना

विपस्सना कैसे की जाती है ?
विपस्सना मनुष्य जाति के इतिहास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ध्यान-प्रयोग है । जितने व्यक्ति विपस्सना से बुद्धत्व को उपलब्ध हुए । उतने किसी और विधि से कभी नहीं ।
विपस्सना अपूर्व है । विपस्सना शब्द का अर्थ होता है - देखना, लौटकर देखना ।
बुद्ध कहते थे - इहि पस्सिको, आओ और देखो । बुद्ध किसी धारणा का आग्रह नहीं रखते । बुद्ध के मार्ग पर चलने के लिए ईश्वर को मानना न मानना, आत्मा को मानना न मानना आवश्यक नहीं है । बुद्ध का धर्म अकेला धर्म है इस पृथ्वी पर जिसमें मान्यता, पूर्वाग्रह, विश्वास इत्यादि की कोई भी आवश्यकता नहीं है । बुद्ध का धर्म अकेला वैज्ञानिक धर्म है ।
बुद्ध कहते - आओ और देख लो । मानने की जरूरत नहीं है । देखो, फिर मान लेना । और जिसने देख लिया, उसे मानना थोड़े ही पड़ता है मान ही लेना पड़ता है । और बुद्ध के देखने की जो प्रक्रिया थी, दिखाने की जो प्रक्रिया थी, उसका नाम है - विपस्सना ।
विपस्सना बड़ा सीधा सरल प्रयोग है । अपनी आती जाती श्वास के प्रति साक्षीभाव । श्वास जीवन है । श्वास से ही तुम्हारी आत्मा और तुम्हारी देह जुड़ी है । श्वास सेतु है । इस पार देह है, उस पार चैतन्य है, मध्य में श्वास है । यदि तुम श्वास को ठीक से देखते रहो, तो अनिवार्य रूपेण, अपरिहार्य रूप से, शरीर से तुम भिन्न अपने को जानोगे । श्वास को देखने के लिए जरूरी हो जायेगा कि तुम अपनी आत्मचेतना में स्थिर हो जाओ ।
बुद्ध कहते नहीं कि आत्मा को मानो । लेकिन श्वास को देखने का और कोई उपाय ही नहीं है । जो श्वास को देखेगा, वह श्वास से भिन्न हो गया, और जो श्वास से भिन्न हो गया वह शरीर से तो भिन्न हो ही गया । क्योंकि शरीर सबसे दूर है उसके बाद श्वास है उसके बाद तुम हो । अगर तुमने श्वास को देखा तो श्वास के देखने में शरीर से तो तुम अनिवार्य रूपेण छूट गए ।
शरीर से छूटो, श्वास से छूटो, तो शाश्वत का दर्शन होता है । उस दर्शन में ही उड़ान है, ऊंचाई है, उसकी ही गहराई है । बाकी न तो कोई ऊंचाइयां हैं जगत में, न कोई गहराइयां हैं जगत में । बाकी तो व्यर्थ की आपाधापी है ।
फिर श्वास अनेक अर्थों में महत्वपूर्ण है । यह तो तुमने देखा होगा, क्रोध में श्वास एक ढंग से चलती है, करुणा में दूसरे ढंग से । दौड़ते हो, एक ढंग से चलती है आहिस्ता चलते हो, दूसरे ढंग से चलती है । चित्त ज्वरग्रस्त होता है, एक ढंग से चलती है तनाव से भरा होता है, एक ढंग से चलती है और चित्त शांत होता है, मौन होता है, तो दूसरे ढंग से चलती है । 
श्वास भावों से जुड़ी है । भाव को बदलो, श्वास बदल जाती है़ । श्वास को बदल लो, भाव बदल जाते हैं । जरा कोशिश करना । क्रोध आये, मगर श्वास को डोलने मत देना । श्वास को थिर रखना, शांत रखना । श्वास का संगीत अखंड रखना । श्वास का छंद न टूटे । फिर तुम क्रोध न कर पाओगे । तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे, करना भी चाहोगे तो क्रोध न कर पाओगे । क्रोध उठेगा भी तो भी गिर गिर जायेगा । क्रोध के होने के लिए जरूरी है कि श्वास आंदोलित हो जाये । श्वास आंदोलित हो तो भीतर का केंद्र डगमगाता है । नहीं तो क्रोध देह पर ही रहेगा । देह पर आये क्रोध का कुछ अर्थ नहीं है, जब तक कि चेतना उससे आंदोलित न हो । चेतना आंदोलित हो, तो जुङ गये ।
फिर इससे उल्टा भी सच है - भावों को बदलो, श्वास बदल जाती है । तुम कभी बैठे हो सुबह उगते सूरज को देखते नदी तट पर । भाव शांत हैं । कोई तरंगें नहीं चित्त में । उगते सूरज के साथ तुम लवलीन हो । लौटकर देखना, श्वास का क्या हुआ ? श्वास बड़ी शांत हो गयी । श्वास में एक रस हो गया, एक स्वादछंद बंध गया श्वास संगीतपूर्ण हो गयी । 
विपस्सना का अर्थ है शांत बैठकर, श्वास को बिना बदले खयाल रखना प्राणायाम और विपस्सना में यही भेद है । प्राणायाम में श्वास को बदलने की चेष्टा की जाती है, विपस्सना में श्वास जैसी है वैसी ही देखने की आकांक्षा है । जैसी है - ऊबड़ खाबड़ है, अच्छी है, बुरी है, तेज है, शांत है, दौड़ती है, भागती है, ठहरी है, जैसी है ।
बुद्ध कहते हैं - तुम अगर चेष्टा करके श्वास को किसी तरह नियोजित करोगे, तो चेष्टा से कभी भी महत फल नहीं होता । चेष्टा तुम्हारी है । तुम ही छोटे हो । तुम्हारी चेष्टा तुमसे बड़ी नहीं हो सकती । तुम्हारे हाथ छोटे हैं । तुम्हारे हाथ की जहां जहां छाप होगी, वहां वहां छोटापन होगा ।
इसलिए बुद्ध ने यह नहीं कहा है कि - श्वास को तुम बदलो । बुद्ध ने प्राणायाम का समर्थन नहीं किया है । बुद्ध ने तो कहा - तुम तो बैठ जाओ । श्वास तो चल ही रही है । जैसी चल रही है बस बैठकर देखते रहो । जैसे राह के किनारे बैठकर कोई राह चलते यात्रियों को देखे कि नदी तट पर बैठ कर नदी की बहती धार को देखे । तुम क्या करोगे ? आई एक बड़ी तरंग तो देखोगे और नहीं आई तरंग तो देखोगे । राह पर निकली कारें, बसें, तो देखोगे नहीं निकलीं, तो देखोगे । गाय भैंस निकलीं, तो देखोगे । जो भी है,गाय भैंस निकलीं, तो देखोगे । जो भी है, जैसा है, उसको वैसा ही देखते रहो । जरा भी उसे बदलने की आकांक्षा आरोपित न करो । बस शांत बैठ कर श्वास को देखते रहो । देखते देखते ही श्वास और शांत हो जाती है । क्योंकि देखने में ही शांति है ।
और निर्चुनाव, बिना चुने देखने में बड़ी शांति है । अपने करने का कोई प्रश्न ही न रहा । जैसा है ठीक है । जैसा है शुभ है । जो भी गुजर रहा है आंख के सामने से, हमारा उससे कुछ लेना देना नहीं है । तो उद्विग्न होने का कोई सवाल नहीं, आसक्त होने की कोई बात नहीं । जो भी विचार गुजर रहे हैं, निष्पक्ष देख रहे हो । श्वास की तरंग धीमे धीमे शांत होने लगेगी । श्वास भीतर आती है, अनुभव करो स्पर्शनासापुटों में । श्वास भीतर गयी, फेफड़े फैले अनुभव करो फेफड़ों का फैलना । फिर क्षण-भर सब रुक गया । अनुभव करो उस रुके हुए क्षण को । फिर श्वास बाहर चली, फेफड़े सिकुड़े, अनुभव करो उस सिकुड़ने को । फिर नासापुटों से श्वास बाहर गयी । अनुभव करो उत्तप्त श्वास नासापुटों से बाहर जाती । फिर क्षण भर सब ठहर गया, फिर नयी श्वास आयी ।
यह पड़ाव है । श्वास का भीतर आना, क्षण भर श्वास का भीतर ठहरना, फिर श्वास का बाहर जाना, क्षण भर फिर श्वास का बाहर ठहरना, फिर नयी श्वास का आवागमन, यह वर्तुल है । वर्तुल को चुपचाप देखते रहो । करने की कोई भी बात नहीं, बस देखो । यही विपस्सना का अर्थ है ।
क्या होगा इस देखने से ? इस देखने से अपूर्व होता है । इसके देखते देखते ही चित्त के सारे रोग तिरोहित हो जाते हैं । इसके देखते देखते ही, मैं देह नहीं हूं, इसकी प्रत्यक्ष प्रतीति हो जाती है । इसके देखते देखते ही, मैं मन नहीं हूं, इसका स्पष्ट अनुभव हो जाता है । और अंतिम अनुभव होता है कि मैं श्वास भी नहीं हूं । फिर मैं कौन हूं ? 
फिर उसका कोई उत्तर तुम दे न पाओगे । जान तो लोगे, मगर गूंगे का गुड़ हो जायेगा । वही है उड़ान । पहचान तो लोगे कि मैं कौन हूं, मगर अब बोल न पाओगे । अब अबोल हो जायेगा । अब मौन हो जाओगे । गुनगुनाओगे भीतर भीतर, मीठा मीठा स्वाद लोगे, नाचोगे मस्त होकर, बांसुरी बजाओगे पर कह न पाओगे ।
और विपस्सना की सुविधा यह है कि कहीं भी कर सकते हो । किसी को कानों कान पता भी न चले । बस में बैठे, ट्रेन में सफर करते, कार में यात्रा करते, राह के किनारे, दुकान पर, बाजार में, घर में, बिस्तर पर लेटे किसी को पता भी न चले । क्योंकि न तो कोई मंत्र का उच्चार करना है, न कोई शरीर का विशेष आसन चुनना है । धीरे धीरे इतनी सुगम और सरल बात है और इतनी भीतर की है, कि कहीं भी कर ले सकते हो । और जितनी ज्यादा विपस्सना तुम्हारे जीवन में फैलती जाये उतने ही एक दिन बुद्ध के इस अदभुत आमंत्रण को समझोगे - इहि पस्सिको आओ और देख लो ।
बुद्ध कहते हैं - ईश्वर को मानना मत । क्योंकि शास्त्र कहते हैं मानना तभी जब देख लो । 
बुद्ध कहते हैं - इसलिए भी मत मानना कि मैं कहता हूं । मान लो तो चूक जाओगे । देखना, दर्शन करना । और दर्शन ही मुक्तिदायी है । 
मान्यताएं हिंदू बना देती हैं । मुसलमान बना देती हैं । ईसाई बना देती हैं । जैन बना देती हैं । बौद्ध बना देती हैं । 
दर्शन तुम्हें परमात्मा के साथ एक कर देता है ।
फिर तुम न हिंदू हो । न मुसलमान, न ईसाई, न जैन, न बौद्ध फिर तुम परमात्ममय हो । और वही अनुभव पाना है । वही अनुभव पाने योग्य है । ओशो
पाली भाषा में ‘आन’ का अर्थ है श्वास लेना और ‘अपान’ का अर्थ है श्वास छोड़ना और ‘सति’ का अर्थ है ‘के साथ मिल कर रहना’
गौतम बुद्ध ने हज़ारों वर्ष पूर्व ध्यान की यह विधि सिखाई थी । साँस तो हम सभी लेते हैं । परन्तु इस क्रिया के प्रति जागरूक नहीं होते । ‘आनापानसति’ में व्यक्ति को अपना पूरा ध्यान और जागरूकता अपनी सामान्य श्वसन-प्रक्रिया पर रखने की आवश्यकता होती है । यह आवश्यक है कि हम साँस पर सजगतापूर्वक अपनी निगाह टिकाकर रखें । साँस की क्रिया तो स्वाभाविक रूप से चलती रहनी चाहिए । साँस को किसी भी रूप में रोकना नहीं है । हमें अपनी ओर से इसकी गति में किसी भी प्रकार का परिवर्तन लाने का प्रयास नहीं करना है । जब मन इधर उधर भागने लगे तो तुरन्त विचारों पर रोक लगाकर पुनः अपने ध्यान को श्वास की सामान्य लय पर ले आना चाहिए । स्वयं को शिथिल छोड़कर मात्र प्रेक्षक बन जाना चाहिए । इससे हमारी चेतना का विस्‍तार होता है तथा हमारी जागरूकता बढ जाती है ।

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