इसके उच्चारण में जिह्वा तालु से बारबार लग लगकर छूटती भी है । जितनी जल्दी छूटती है फ़िर उतनी ही जल्दी लगती है । अर्थात स्थान को पकङती नहीं और निरन्तर गतिमान रहती है ।
क्योंकि इसकी गति में विश्राम नहीं है । इसीलिये इसकी गति अखण्ड, नित्य अतएव सत्य कहलाती है । इन्ही दोनों कारणों से ऋ अक्षर ‘सत्य’ और ‘गति’ दो अर्थों में प्रचलित है । क्योंकि इसकी गति बाहर की ओर है । इसलिये यह बाहर के अर्थ में भी आता है । इन्हीं अर्थों को ध्यान में रखकर इसके 2 रूप बनाये गये हैं ।
पहला रूप बाहर की और दानेदार गति का सूचक है । अर्थात उस आवाज का सूचक है जो जिह्वा के तालु में लगने से पैदा होती है पर बिना अकार के योग के यह स्वयं किसी रूप में नहीं आ सकता । इसलिये अकार के साथ दूसरे रूप में बनता है । ऋ जब किसी अक्षर के साथ मिलता है तो अपने पहले रूप से और जब स्वयं आता है तो दूसरे रूप से लिखा जाता है ।
ऋकार में अकार जोङने से ‘र’ शब्द होता है । ऋ के वर्णन में उसका अर्थ बाहर और सत्यगति बताया गया है । अतः रकार बाहर फ़ेंकने अर्थात देने और सत्यगति अर्थात ‘अविच्छिन्न अस्तित्व’ नाम ‘रमन’ अर्थ में लिया गया है ।
(स्वर में निरन्तरता होती है पर व्यंजन में नहीं । व्यंजन जब तक कोई स्वर न मिले । उसका स्पष्ट उच्चारण नहीं हो सकता पर स्वर निरन्तर रहता है । जब तक उसके स्थान पर अन्य स्वर न बोला जाये)
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गिनती लिखने का चलन कैसे शुरू हुआ । यह भी देखें ।
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