29 मई 2016

ऋ अक्षर यानी सत्य और गति

बकरियों को बुलाते समय जो ‘उर्र उर्र’ करते हैं  या हारमोनियम की चौथी चाबी खोलने पर जो ध्वनि होती है या मेढक और झींगुर का जो शब्द है । वही ध्वनि ऋ अक्षर की भी है । इसे कोई रि और रु का उच्चारण भी करते हैं जो दोनों ही अशुद्ध हैं ।
इसके उच्चारण में जिह्वा तालु से बारबार लग लगकर छूटती भी है । जितनी जल्दी छूटती है फ़िर उतनी ही जल्दी लगती है । अर्थात स्थान को पकङती नहीं और निरन्तर गतिमान रहती है ।
क्योंकि इसकी गति में विश्राम नहीं है । इसीलिये इसकी गति अखण्ड, नित्य अतएव सत्य कहलाती है । इन्ही दोनों कारणों से ऋ अक्षर ‘सत्य’ और ‘गति’ दो अर्थों में प्रचलित है । क्योंकि इसकी गति बाहर की ओर है । इसलिये यह बाहर के अर्थ में भी आता है । इन्हीं अर्थों को ध्यान में रखकर इसके 2 रूप बनाये गये हैं ।
पहला रूप बाहर ‌की और दानेदार गति का सूचक है । अर्थात उस आवाज का सूचक है जो जिह्वा के तालु में लगने से पैदा होती है पर बिना अकार के योग के यह स्वयं किसी रूप में नहीं आ सकता । इसलिये अकार के साथ दूसरे रूप में बनता है । ऋ जब किसी अक्षर के साथ मिलता है तो अपने पहले रूप से और जब स्वयं आता है तो दूसरे रूप से लिखा जाता है ।
ऋकार में अकार जोङने से ‘र’ शब्द होता है । ऋ के वर्णन में उसका अर्थ बाहर और सत्यगति बताया गया है । अतः रकार बाहर फ़ेंकने अर्थात देने और सत्यगति अर्थात ‘अविच्छिन्न अस्तित्व’ नाम ‘रमन’ अर्थ में लिया गया है ।
(स्वर में निरन्तरता होती है पर व्यंजन में नहीं । व्यंजन जब तक कोई स्वर न मिले । उसका स्पष्ट उच्चारण नहीं हो सकता  पर स्वर निरन्तर रहता है । जब तक उसके स्थान पर अन्य स्वर न बोला जाये)
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गिनती लिखने का चलन कैसे शुरू हुआ । यह भी देखें ।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326