फ़िर से आदिसृष्टि से पूर्व तथा आदिसृष्टि के समय और तत्पश्चात सुरति>शब्द से सृष्टि की रचना । बहुत ही सरल ढंग से ।
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नोट - सभी दोहे निश्चित कृम में हैं । बस समझ समझ कर गहराई से ग्रहण करना है ।
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साहब सब का बाप है । बेटा किसी का नाहिं ।
जो बेटा बन आवता । वह तो साहब नांहि ।
मादर पिदर न जननी जाया । गर्भवास में कबहू न आया ।
धर्मदास की कबीर साहेब से जिज्ञासा
निरंकार निरंजन नाऊ । जोत स्वरूप सुमरत सब ठाऊ ।
गावहि विद्या वेद अनूपा । जग रचना कियो ज्योति स्वरूपा ।
कबीर साहब का उत्तर
तुमसो कहौ जो नाम विचारी । ज्योति नही वह पुरुष न नारी ।
तीन लोक ते भिन्न पसारा । जगमग जोत जहाँ उजियारा ।
कबीर साहब बोले -
सतपुरष समर्थ के । उठी मौज हिये मांहि ।
सोई मौज मम रूप है । नौतम सुर्त कहाय ।
पुनि नौतम प्रगटी । मूल सुर्ती करतार ।
मूल सुर्त से प्रकटे । तेरह सुत एक नार ।
(ग्रंथ अनुराग सागर)
पुष्प मांहि रहे पुरष विदेहा । सम्पुट कमल गुप्त सों नेहा ।
इच्छ कीन अंश उपजाये । हंसन देख हर्ष बहु पाये ।
प्रथमै पुरष शब्द प्रकाशा । लोक द्वीप रच कीन निवासा ।
प्रथम समर्थ आप रहा । दूजा रहा न कोय ।
दूजा केहि विधि उपजा । पूंछत हूं गुरू सोय ।
प्रथम सुरति समर्थ कियो । घट में सहज उचार ।
ताते जामन दीनियां । सात करी विस्तार । (दीनियां = दुनियां)
प्रथम सतपुरष जो कहिया । ताकी ध्यान समाध जो रहिया ।
खुली दृष्टि जब पुरुष प्रवीना । नौतम सुर्त ताहि को चीन्हा ।
नौतम सुर्त पुरुष को भाई । नौतम सुर्त कबीर बन आई ।
तब समर्थ के श्रवण ते । मूल सुर्त भयो सार ।
शब्द कला ताते भई । पांच ब्रह्म अनुसार ।
नौतम सुर्त जब सुर्त सम्हारी । मूल सुर्त बैठी टकसारी ।
मूल सुर्त सत्यहि को जानो । जासे सब कुछ भयो उत्पानों ।
मूल सुर्त नौतम से आई । जिन यह बाजी खेल रचाई ।
बाजी कीनी अनन्त अपारा । कहां लग बरनूं वार न पारा ।
मूल सुर्त निज लखे जो कोई । सत लोक पहुंचेगा सोई ।
सात सुर्त का सकल पसारा । सात सुर्त ते कोई न न्यारा । 7
सात सुर्त का भेद बताऊं । तामें ज्ञान सकल समझाऊं ।
उतपत्ति परले वाके माही । गत सों कोई न्यारा नाहीं ।
प्रथम अमी सुर्त निज ठौरा । तहां निरन्जन कीना दौरा । 1
वहां जाय अमी ले आवे । तासों अजर बीज उपजावे ।
सोई बीज रक्त में धरही । यही विधि सों सब उत्पति करही ।
बीजहि जल कि रंग कहाया । तासों रची सकल की काया ।
दूजा मूल सुर्त तेहि संगा । घट घट माहि बनाव रंगा । 2
तीजो चमक सुर्त अवारा । नौ नाड़ी में कीन पसारा । 3
कोठा तहां बहत्तर करही । रोम रोम युक्ति सब धरही ।
चौथी शून्य सुर्त है भाई । धर्मदास मैं तुम्है लखाई । 4
पांचवी सुर्त सबन के ठांई । शुभ अरू अशुभ सुनावे दोई । 5
छठी सुर्त ठिकाना भाखे । ठांव ठांव स्वाद तेहि चाखे । 6
सो तो रहे कण्ठ के धारा । बानी भाख करे उचारा ।
सतई सुर्त रहे तन मांही । हिरदे सो कहूँ न्यारी नांही । 7
ब्रह्म स्वरूप धर तहां वह बैठा । गुप्त पसार सकल घट पैठा ।
कोई न जाने ताका मरम । ज्ञानी ध्यानी सबही भरम ।
सात सुर्त का कहां विचारा । धर्मदास कछु वार न पारा ।
सुर्त से पुरुष शब्द निर्माया । यही भेद विरले जन पावा ।
जो नहिं पावै शब्द सहिदानी । सो कस करहु लोक पहिचानी ।
In the beginning was Word. Word was with God and Word was God. बाइबल
सारशब्द से लोक बनाया । वही सार जीवन मुक्ताया ।
शब्दै धरती शब्दै आकाश । शब्दे शब्द भया प्रकाश ।
सगली सृष्टि शब्द के पीछे । नानक शब्द घटों घट आछै ।
संतमत का यही उपदेशा । पकड़ शब्द जाओ उस देशा ।
अनन्त कोटि ब्रह्मण्ड रच । सबसे रहा न्यार ।
जिन्द कहे धर्मदास सों । ताका करो विचार ।
एक ते अनंत । अनंत एक होय आया ।
परिचय भई जब एक सों । अनंतो एकै माँहि समाया ।
आस वास दुविधा सब खोई । सुरति एक कमल दल होई ।
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और फ़िर सबके बाद, बात यह भी है ?
बटक बीज जैसा आकार । पसर्यौ तीनि लोक बिस्तार । (बटक बीज = गूलर का बीज)
जहाँ का उपज्या तहाँ समाइ । सहज सुन्य में रह्यौ लुकाइ ।
बूंद जो परा समुन्द्र में । सो जानत सब कोइ ।
समुन्द्र समाना बूंद में । जानत बिरला कोइ ?
सकल साज एक बूंद में ? जानत नाहीं कोय ?
कहें कबीर जिन जिव भूले । परमपरे भर्म सोय ।
समुद्र समाना बूंद में ? बूंद मध्य विस्तार ?
कहें कबीर भेद करता का । बूझो यह टकसार ?
रामनगर गुरुवा बसा ? माया नगर संसार ।
कहं कबीर यहि दो नगर ते ? बिरले बचे विचार ।
लोकालोक अकास नहिं । झूठे लोका लोक ।
कहें कबीर आस जिन बांधो । छांडो जी का सोक ।
1 टिप्पणी:
कबीर जी का साहित्य और विचार समाज के निम्न स्तर तक जाने की आज आवश्यकता है। अगर कबीर जी का साहित्य सहज उपलब्ध होतो क्या बात हो जाये।
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