मीरदाद - पाप के विषय में तुम्हे बता दिया गया है । और यह तुम जान जाओगे कि मनुष्य पापी कैसे बना ? तुम्हारा कहना है । और वह सारहीन भी नहीं है कि परमात्मा का प्रतिबिम्ब और प्रति रूप मनुष्य यदि पापी है । तो स्पष्ट है कि पाप का स्रोत स्वयं परमात्मा ही है । इस तर्क में भोले भाले लोगों को 1 जाल है । और तुम्हे मेरे साथियो, मैं जाल में फँसने नहीं दूँगा । इसलिए इस जाल को मैं तुम्हारे रास्ते से हटा दूँगा । ताकि तुम इसे अन्य मनुष्यों के रास्ते से हटा सको । परमात्मा में कोई पाप नहीं । क्या सूर्य का अपने प्रकाश में से मोमबत्ती को प्रकाश देना पाप है ? न ही मनुष्य में पाप है । क्या 1 मोमबत्ती के लिये धूप में जलकर अपने आपको मिटा देना । और इस प्रकार सूर्य के साथ मिल जाना पाप है ? लेकिन पाप है उस मोमबत्ती में । जो अपना प्रकाश बिखेरना नहीं चाहती । और जब उसे जलाया जाता है । तो दियासलाई तथा दियासलाई जलाने वाले हाथ को कोसती है । पाप है उस मोमबत्ती में । जिसे धूप में जलने में शर्म आती है । और जो इसीलिये सूर्य से छिपा लेना चाहती है । मनुष्य ने प्रभु के विधान का उलंघन करके पाप नहीं किया । बल्कि पाप किया है उस विधान के प्रति । अपने अज्ञान पर पर्दा डालकर । हाँ, पाप तो अंजीर पत्ते के आवरण से अपनी नग्नता छिपाने में था । क्या तुमने मनुष्य के पतन की कथा नहीं पढ़ी ? जो शब्दों की दृष्टि से
सरल और संक्षिप्त । परन्तु अर्थ की दृष्टि से गहरी और महान है ? क्या तुमने नहीं पढ़ा कि जब परमात्मा, मनुष्य परमात्मा में से नया नया निकला था । तो किस प्रकार वह शिशु परमात्मा जैसा था - निश्चेष्ट, गतिहीन, सृजन में असमर्थ ? क्योंकि परमात्मा के सभी गुणों से युक्त होते हुए भी वह सब शिशुओं की तरह अपनी अनंत शक्तियों और योग्यताओं को प्रयोग में लाने में ही नहीं । बल्कि उन्हें जानने में भी असमर्थ था । 1 सुंदर शीशी में बन्द अकेले बीज की तरह था मनुष्य अदन की वाटिका में । शीशी में पड़ा बीज बीज ही रहेगा । और जब तक उसे उसकी प्रकृति के अनुकूल मिटटी में दवाया न जाये । और उसका खोल फूट न जाये । उसके अन्दर बन्द चमत्कार सजीव होकर प्रकाश में नहीं आयेगा । परन्तु मनुष्य के पास उसकी प्रकृति के अनुकूल कोई मिटटी नहीं थी । जिसमें वह अपने आपको रोपता । और अंकुरित हो जाता । उसके चेहरे को किसी अन्य समरूपी चेहरे में अपनी झलक नहीं मिलती थी । उसके मानवी कान को कोई अन्य मानव स्वर सुनाई नहीं देता था । उसका मानव स्वर किसी अन्य मानव कण्ठ में गूँजकर नहीं लौटता था । उसके एकाकी ह्रदय के साथ 1 सुर होने के लिए कोई अन्य ह्रदय नहीं था । इस संसार में, जिसे उपयुक्त जोड़ों के रूप में अपनी यात्रा पर रवाना किया गया था । मनुष्य अकेला था । बिलकुल अकेला । वह अपने लिए 1 अजनबी था । उसके करने के लिये अपना कोई काम नहीं था । और न ही था उसके लिए निर्धारित कोई मार्ग । अदन उसके लिये वही था । जो किसी शिशु के लिये 1 आरामदेह पालना होता है - निष्क्रिय आनंद की 1 अवस्था । वह उसके लिए सब प्रकार की सुख सुविधा का स्थान था । नेकी और बदी के ज्ञान का वृक्ष । तथा जीवन का वृक्ष । दोनों उसकी पहुँच में थे । फिर भी वह उनके फल तोड़ने और चखने के लिए हाथ नहीं बढ़ाता था । क्योंकि उसकी रूचि और उसकी संकल्प शक्ति । उसके विचार तथा उसकी कामनाएँ । यहाँ तक कि उसका जीवन भी । सब उसके अंदर बंद पड़े थे । और इस प्रतीक्षा में थे कि उन्हें कोई धीरे धीरे खोले । उन्हें स्वयं खोलना उसके लिए सम्भव नहीं था । अतएव उसे अपने अंदर से ही अपने लिए 1 साथी पैदा करने के लिए विवश किया गया । 1 ऐसा हाथ । जो उसके बंधन खोलने में उसका सहायक बने । उसे सहायता और कहाँ से मिल सकती थी सिवाय अपने अंदर के ? जो दिव्यत्व से संम्पन
होने के कारण सहायता से भरपूर था ? और यह बात अत्यन्त महत्वपूर्ण है ।
किसी नई मिटटी और सांस से नहीं बनी थी - हौवा । बल्कि आदम की अपनी ही मिटटी और सांस थी । उसकी हड्डी में से 1 हड्डी । उसके मांस में से मांस का 1 टुकड़ा । कोई अन्य जीव रंगमंच पर प्रकट नहीं हुआ था । बल्कि स्वयं उसी 1 आदम को युगल बना दिया गया था - 1 पुरुष आदम । और 1 स्त्री आदम । इस प्रकार उस अकेले, दर्पण रहित चेहरे को 1 साथी और 1 दर्पण मिल जाता है । और वह नाम जो पहले किसी मानव स्वर में नहीं गूँजा था । अदन की वीथिकाओं में ऊपर नीचे सर्वत्र मधुर स्वरों में गूँजने लगता है । और वह ह्रदय जिसकी उदास धड़कन 1 सूने वक्ष में दबी पड़ी थी । 1 साथी वक्ष में 1 साथी ह्रदय के अंदर अपनी गति महसूस करने और धड़कन सुनने लगता है । इस प्रकार चिंगारी रहित फौलाद का उस चकमक पत्थर से मेल हो जाता है । और उसमे से बहुत सी चिंगारियाँ पैदा कर देता है । इस प्रकार अनजली मोमबत्ती दोनों सिरों से जला दी जाती है ।
मोमबत्ती 1 है । बत्ती 1 है । और रोशनी भी 1 है । यद्यपि वह देखने में 2 अलग अलग सिरों से पैदा हो रही है । इस प्रकार शीशी में पड़े बीज को वह मिटटी मिल जाती है । जिसमें अंकुरित होकर वह अपने रहस्य प्रकट कर सकता है । इस प्रकार अपने आप से अनजान एकत्व द्वैत को जन्म देता है । ताकि द्वैत में निहित संघर्ष और विरोध के द्वारा उसे अपने एकत्व का ज्ञान कराया जा सके । इस प्रक्रिया में भी मनुष्य अपने परमात्मा का सही प्रतिबिम्ब है । उसका प्रतिरूप है ।
क्योंकि परमात्मा आदि चेतना अपने आपमें से शब्द को प्रकट करता है । और शब्द तथा चेतना दोनों दिव्य ज्ञान में 1 हो जाते हैं । द्वैत कोई दण्ड नहीं है । बल्कि एकत्व की प्रकृति में निहित 1 प्रक्रिया है । उसकी दिव्यता के प्रकट होने का 1 आवश्यक साधन । कैसा बचपना है । और किसी तरह सोचना । कैसा बचपना है यह विश्वास करना कि इतनी बड़ी प्रक्रिया से उसका मार्ग 3 बीसी और 10 सालों या 3 बीसी 10 लाख सालों में भी तय करवाया जा सकता है । आत्मा का परमात्मा बनना क्या कोई मामूली बात है ?
क्या परमात्मा इतना कठोर और कंजूस मालिक है कि देने के लिए उसके पास पूरा अनन्त काल होते हुए भी वह
मनुष्य को फिर से 1 होकर, अपने ईश्वरत्व तथ परमात्मा के साथ अपनी एकता का पूरी तरह ज्ञान प्राप्त करके वापस अपने मूलधाम अदन में पहुँचने के लिए केवल सत्तर बर्ष का इतना कम समय प्रदान करे ? लंबा है द्वैत का मार्ग । और मूर्ख हैं वे । जो इसे तिथि पत्रों से नापते हैं । अनन्त काल सितारों के चक्कर नहीं गिनता । जब निष्क्रिय, गतिहीन, सृजन में असमर्थ आदम को 1 से 2 कर दिया गया । तो वह तुरंत क्रियाशील, गतिमान, तथा सृजन और सन्तानोत्पादन में समर्थ हो गया ।
2 कर दिए जाने पर आदम का पहला काम क्या था ? वह था नेकी और बदी के ज्ञान के वृक्ष का फल खाना । और इस प्रकार अपने सारे संसार को अपने जैसा ही 2 कर देना । अब सब कुछ वैसा न रहा था । जैसा पहले था - निष्पाप और निश्चिन्त । बल्कि सब कुछ अच्छा या बुरा । लाभकारी या हानिकारक । सुखकर या कष्टकर हो गया था । 2 विरोधी दलों में बँट गया था । जबकि पहले 1 था । और जिस सांप ने हौवा को नेकी और बदी का स्वाद चखने के लिए फुसलाया था । क्या वह उस सक्रिय किन्तु अनुभवहीन द्वैत की गहरी आवाज नहीं थी ? जो कुछ करने तथा अनुभव प्राप्त करने के लिए अपने आपको प्रेरित कर रहा था ? यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इस आवाज को पहले हौवा ने सुना । और उसका कहा माना । क्योंकि हौवा मानो सान का पत्थर थी । अपने साथी में छिपी शक्तियों को प्रकट करने के लिए बनाया गया उपकरण । इस प्रथम मानव कथा में चोरी से अदन के पेड़ों में से अपना मार्ग बना रही । इस प्रथम स्त्री की सजीव कल्पना के लिये क्या तुम अक्सर रुक नहीं गये । 1 ऐसी स्त्री की कल्पना । जो घबराई हुई थी । जिसका ह्रदय पिंजरे में बन्द पक्षी की तरह फड़फड़ा रहा था । जिसकी आँखें चारों तरफ देख रहीं थीं कि कहीं कोई ताक तो नहीं रहा है । और जिसके मुंह में पानी भर आया था । जब उसने अपना कांपता हुआ हाथ उस लुभावने फल की ओर बढ़ाया था ? क्या तुमने अपनी सांस रोक नहीं ली । जब उसने वह फल तोड़ा । और उसके कोमल गूदे में अपने दांत गड़ा दिये । ऐसी क्षणिक मिठास का स्वाद लेने के लिये । जो स्वयं उसके और उसकी संतान के लिये कड़वाहट में बदलने बाली थी ?
क्या तुमने जी जान से नहीं चाहा कि जब हौवा अपना विवेक शून्य कार्य करने ही बाली थी । परमात्मा उसी समय प्रकट होकर उसकी उन्मत धृष्टता को रोक देता । बजाय बाद में प्रकट होने के जैसा कि कहानी में होता है ? और जब हौवा ने वह गुनाह कर ही लिया । तो क्या तुमने नहीं चाहा कि आदम के पास इतना विवेक और साहस होता कि वह अपने आपको हौवा का सह अपराधी बनने से रोक लेता ?
किन्तु न तो परमात्मा ने हस्तक्षेप किया । न आदम ने अपने आपको रोका । क्योंकि परमात्मा नहीं चाहता था कि उसका प्रतिरूप उससे भिन्न हो । यह उसकी इच्छा और योजना थी कि मनुष्य अपनी खुद की इच्छा और योजना को संजोये । और दिव्य ज्ञान द्वारा अपने आपको 1 करने के लिये द्वैत का लंबा रास्ता तय करे । जहाँ तक आदम का सवाल है । वह चाहता भी तो अपनी पत्नी के दिये फल को खाने से अपने आपकी रोक नहीं सकता था । वह फल खाने के लिये बाध्य था । केवल इसलिये कि उसकी पत्नी वह फल खा चुकी थी । क्योकि दोनों 1 शरीर थे । और दोनों एक दूसरे के कर्मों के लिये उत्तरदायी थे ।
क्या परमात्मा मनुष्य के नेकी और बदी का फल खाने से अप्रसन्न और क्रुद्ध हुआ ? यह सम्भव नहीं था । क्योकि परमात्मा जानता था कि मनुष्य फल खाये बिना नहीं रह सकेगा । और वह चाहता था कि मनुष्य फल खाये । किन्तु वह यह भी चाहता था कि मनुष्य पहले ही जान ले कि खाने का परिणाम क्या होगा । और उसमें परिणाम का सामना करने की शक्ति हो । और मनुष्य में वह शक्ति थी । और मनुष्य ने फल खाया । और मनुष्य ने परिणाम का सामना किया ।
और वह परिणाम था - मृत्यु । क्योंकि प्रभु इच्छा से क्रियाशील 2 बनने में मनुष्य कि क्रिया रहित एकता समाप्त हो गई । अतएव मृत्यु कोई दण्ड नहीं है । बल्कि जीवन का 1 पक्ष है । द्वैत का ही 1 अंश है । क्योकि द्वैत की प्रकृति है । सब वस्तुओं को 1 से 2 का रूप दे देना । प्रत्येक वस्तु को 1 परछाईं प्रदान कर देना ।
इसलिए आदम ने अपनी परछाईं पैदा कर ली हौवा के रूप में । और अपने जीवन के लिये दोनों ने 1 परछाईं पैदा कर ली । जिसका नाम है - मृत्यु । परन्तु आदम और हौवा मृत्यु की छाया में रहते हुये भी प्रभु के जीवन में
परछाईं रहित जीवन जी रहे हैं ।
द्वैत 1 निरंतर संघर्ष है । और संघर्ष यह भ्रम पैदा करता है कि 2 विरोधी पक्ष अपने आपको मिटा देने पर तुले हैं । विरोधी दिखने वाले पक्ष वास्तव में एक दूसरे के पूरक हैं । एक दूसरे के साधक हैं । और कन्धे से कन्धा मिलाकर 1 ही उद्देश्य के लिये, सम्पूर्ण शांति, एकता और दिव्य ज्ञान से उत्पन्न होने वाले संतुलन के लिये कार्यरत हैं । परन्तु भ्रम की जड़ ज्ञानेन्द्रियों में जमी हुई है । और वह जब तक बना रहेगा । जब तक ज्ञानेन्द्रियां हैं ।
इसलिए आदम की आँखें खुलने के बाद प्रभु ने जब उसे बुलाया । तो उसने उत्तर दिया - मैंने बाग़ में तेरी आवाज सुनी । और मैं डर गया । क्योंकि मैं नंगा था । और मैंने अपने आपको छिपा लिया ।
आदम ने यह भी कहा - जो स्त्री तूने मुझे साथी के रूप में दी थी । उसने मुझे वृक्ष का फल दिया । और मैंने खाया ।
हौवा और कोई नहीं थी । आदम का अपना ही हाड मांस थी । फिर भी आदम के इस नवजात मैं पर विचार करो । जो आँख खुलने के बाद अपने आपको हौवा से, परमात्मा से, और परमात्मा की समूची रचना से भिन्न, पृथक और स्वतन्त्र समझने लगा ।
1 भ्रम था यह - मैं । उस अभी अभी खुली आँख का 1 भ्रम था । परमात्मा से पृथक हुआ यह व्यक्तित्व । इसमें न सार था । न यथार्थ । इसका जन्म इसलिये हुआ था कि इसकी मृत्यु के माध्यम से मनुष्य अपने वास्तविक अहम को पहचान ले । जो परमात्मा का अहम है । यह भ्रम तब लुप्त होगा । जब बाहर की आँख के सामने अँधेरा छा जाएगा । और अंदर की आँख के सामने प्रकाश हो जाएगा । और इसने यद्यपि आदम को चकरा दिया । फिर भी इसने उसके मन में 1 प्रबल जिज्ञासा उत्पन्न कर दी । और उसकी कल्पना को लुभा लिया ।
मनुष्य के लिये । जिसे किसी भी अहम का अनुभव न हुआ हो । 1 ऐसा अहम पा लेना । जिसे वह पूरी तरह अपना कह सके । सचमुच 1 बहुत बड़ा प्रलोभन था । और उसके मिथ्याभिमान के लिये बहुत बड़ा प्रोत्साहन भी । और आदम अपने इस भ्रामक अहम के प्रलोभन और बहकावे में आ गया । यद्यपि वह इसके लिये लज्जित था । क्योंकि वह अवास्तविक था । नग्न था । फिर भी वह इसे त्यागने के लिये तैयार नहीं था । वह तो इसे अपने पूरे ह्रदय से और अपने नये मिले समूचे कौशल से पकडे बैठा था । उसने अंजीर के पत्ते सीकर जोड़ लिये । तथा अपने लिए 1 आवरण तैयार कर लिया । जिससे वह अपने नग्न व्यक्तित्व को ढक ले । और उसे परमात्मा की सर्व-वधि दृष्टि से बचाकर अपने ही पास रखे ।
इस प्रकार अदन, आनंदपूर्ण भोलेपन की अवस्था । अपने आप से बेखबर एकता, पत्तों का आवरण 1 से 2 बने मनुष्य के हाथ से निकल गई । और मनुष्य तथा दिव्य जीवन के वृक्ष के बीच ज्वाला की तलवारें खड़ी हो गईं ।
मनुष्य नेकी और बदी के दोहरे द्वार से अदन से बाहर आया था । वह दिव्य ज्ञान के इकहरे द्वार से अदन के अंदर जाएगा । वह दिव्य जीवन के वृक्ष की ओर पीठ किये निकला था । उस वृक्ष की ओर मुंह किये प्रवेश करेगा । जब वह अपने लम्बे कठिन सफ़र पर रवाना हुआ था । तो अपनी नग्नता पर लज्जित था । और अपनी लज्जा को छिपाये रखने के लिये आतुर । जब वह अपनी यात्रा के अंत में पहुँचेगा । तो उसकी पवित्रता आवरण मुक्त होगी । और उसे अपनी नग्नता पर गर्व होगा ।
परन्तु ऐसा तब तक नहीं होगा । जब तक कि पाप मनुष्य को पाप से मुक्त न कर दे । क्योकि पाप स्वयं अपने विनाश का कारण सिद्ध होगा । और पाप आवरण के सिवाय और कहाँ है ? हाँ, पाप और कुछ नहीं है । सिवाय उस दीवार के । जो मनुष्य ने अपने और परमात्मा के बीच में खड़ी कर ली है । अपने क्षण भर अहम और अपने स्थायी अहम के बीच । वह ओट जो शुरू में अंजीर के मुट्ठी भर पत्ते थी । अब 1 विशाल परकोटा बन गई है । क्योंकि जब मनुष्य ने अदन के भोलेपन को उतार फेंका । तबसे वह अधिकाधिक पत्ते जमा करने और आवरण पर आवरण सीने में जी जान से जुटा हुआ है ।
आलसी लोग अपने मेहनती पड़ोसियों द्वारा फेंके गए चीथड़ों से अपने आवरणों के छेदों पर पैबन्द लगा लगाकर संतोष कर लेते हैं । पाप की पौशाक पर लगाया गया हर पैबन्द पाप ही होता है । क्योंकि वह उस लज्जा को स्थायी बनाने का साधन होता है । जिसे परमात्मा से अलग होने पर मनुष्य ने पहली बार और बड़ी तीव्रता के साथ महसूस किया था । क्या मनुष्य अपनी लज्जा पर विजय पाने के लिये कुछ कर रहा है ?
अफ़सोस, उसके सब उद्यम लज्जा पर लादे गए लज्जा के ढेर हैं । आवरणों पर चढ़े और आवरण हैं ।
मनुष्य की कलाएं और विद्याएं आवरणों के सिवाय और क्या हैं ?
उसके साम्राज्य राष्ट्र, जातीय अलगाव, और युद्ध के मार्ग पर चल रहे धर्म । क्या ये आवरण की पूजा के सम्प्रदाय नहीं हैं ? उसके उचित और अनुचित, मान और अपमान, न्याय और अन्याय के नियम । उसके असंख्य सामजिक सिद्धांत और रूढ़ियाँ । क्या वे आवरण नहीं हैं ? उसके द्वारा अमूल्य का मूल्यांकन और उसका अमित को मापना । असीम को सीमांकित करना । क्या यह सब उस लुंगी पर और पैबन्द लगाना नहीं है । जिस पर पहले ही कई पैबन्द लगे हुए हैं । पीड़ा से भरे सुखों के लिए उसकी अमिट भूख । निर्धन बना देने वाले धन के लिए उसका लोभ । दास बना देने वाले प्रभुत्व के लिए उसकी प्यास । और तुच्छ बना देने वाली शान के लिए उसकी लालसा । क्या ये सब आवरण नहीं हैं ?
नग्नता को ढकने के लिये अपनी दयनीय आतुरता में मनुष्य ने बहुत अधिक आवरण पहन लिये हैं । जो समय के साथ उसकी त्वचा इतने कसकर चिपक गए हैं कि अब वह उनमे और अपनी त्वचा में भेद नहीं कर पाता । और मनुष्य साँस लेने के लिये तड़पता है । वह अपनी अनेक त्वचाओं से छुटकारा पाने के लिये प्रार्थना करता है । अपने बोझ से छुटकारा पाने के लिये मनुष्य अपने उन्माद में सब कुछ करता है । लेकिन वही 1 काम नहीं करता । जो वास्तव में उसे उसके बोझ से छुटकारा दिला सकता है । और वह है - उस बोझ को फेंक देना । वह अपनी अतिरिक्त त्वचाओं से मुक्त होना चाहता है । पर अपनी पूरी शक्ति से उनसे चिपका हुआ है । वह आवरण मुक्त होना चाहता है । पर साथ ही चाहता है कि पूरी तरह कपडे पहने रहे ।
निवारण होने का समय समीप है । और मैं अतिरिक्त त्वचाओं को । आवरणों को । उतार फेंकने में तुम्हारी सहायता करने के लिए आया हूँ । ताकि त्वचाओं को उतार फेंकने में तुम भी संसार के उन सब लोगों की सहायता कर सको । जिनमें तड़प है । मैं तो केवल विधि बताता हूँ । किन्तु अपनी त्वचा को उतार फेंकने का काम हर 1 को स्वयं ही करना होगा । चाहे वह कितना ही कष्टदायी क्यों न हो ।
अपने आपसे अपने बचाव के लिये किसी चमत्कार की प्रतीक्षा न करो । न ही पीड़ा से डरो । क्योंकि आवरण रहित ज्ञान तुम्हारी पीड़ा को स्थायी आनंद में बदल देगा । फिर यदि दिव्य ज्ञान की नग्नता में तुम्हारा अपने आपसे सामना हो । और यदि परमात्मा तुम्हें बुलाकर पूछे - तुम कहाँ हो ? तो तुम शर्म महसूस नहीं करोगे । न तुम डरोगे । न ही तुम परमात्मा से छिपोगे । बल्कि तुम अडोल, बन्धन मुक्त, दिव्य शांति से युक्त खड़े रहोगे । और परमात्मा को उत्तर दोगे - हमारे प्रभु, हमारी आत्मा, हमारे अस्तित्व, हमारे एकमात्र अहम । हमें देखिये । लज्जा, भय, और पीड़ा से हम नेकी और बदी के लम्बे, विषम और टेढ़े मेढ़े उस रास्ते पर चलते रहे हैं । जिसे
आपने हमारे लिये समय के आरम्भ में निर्धारित किया था । निज घर के लिए महाविरह ने हमारे पैरों को प्रेरणा दी । और विश्वास ने हमारे ह्रदय को थामे रखा । और अब दिव्य ज्ञान ने हमारे बोझ उतार दिये हैं । हमारे घाव भर दिये हैं । और हमें वापस आपकी पावन उपस्थिति में ला खड़ा किया है । नेकी और बदी से मुक्त । जीवन और मृत्यु के आवरणों से मुक्त । द्वैत के सभी भ्रमों से मुक्त । आपके सर्वग्राही अहम के सिवाय । और हर अहम से मुक्त । अपनी नग्नता को छिपाने के लिये । कोई आवरण पहने बिना । हम लज्जा मुक्त, प्रकाशमान भयरहित होकर आपके सम्मुख खड़े हैं । देखिये । हम 1 हो गये हैं । देखिये, हमने आत्मविजय प्राप्त कर ली है । और परमात्मा तुम्हें अनन्त प्रेम से गले लगा लेगा । और तुम्हे सीधे अपने दिव्य जीवन वृक्ष तक ले जायेगा । यही शिक्षा थी मेरी नूह को । यही शिक्षा है मेरी तुम्हें ।
नरौंदा - यह बात भी मुर्शिद ने तब कही थी । जब हम अँगीठी के पास बैठे थे । पाप और आवरण । अध्याय 32