19 दिसंबर 2010

आत्म दर्शन की पहली सीढ़ी ध्यान है

आप हमेशा कहते हैं कि - प्रेम ही परमात्मा है । प्रेम और परमात्मा का क्या संबंध है ?
- मैं जब कहता हूँ । प्रेम ही परमात्मा है । तब मैं यही कह रहा हूं कि - वे 2 नहीं हैं । इसलिए संबंध की बात ही मत पूछो । संबंध तो 2 में होता है । प्रेम ही परमात्मा है । प्रेम कहो । या परमात्मा कहो । 1 ही बात कही जाती है । और ज्यादा अच्छा होगा । तुम प्रेम ही कहो । क्योंकि परमात्मा के नाम पर इतनी घृणा फैलायी गयी है । परमात्मा के नाम पर आदमी ने इतनी हत्या की है । इतना अनाचार किया । अत्याचार किया है । इतना व्यभिचार किया है कि अब अच्छा होगा कि हम प्रेम शब्द को ही परमात्मा के सिंहासन पर पूरा विराजमान कर दें ।
प्रेम ही परमात्मा है । संबंध की तो पूछो मत । तुम यह पूछ रहे हो कि दोनों के बीच क्या संबंध है ? तुमने 2 तो मान ही लिया । नहीं । परमात्मा प्रेम से अलग कुछ भी नहीं है । जहां तुम्हारा प्रेम आया । जहा तुम्हारा प्रेम का प्रकाश पड़ा । वहीं परमात्मा प्रगट हो जाता है । इसीलिए तो तुम जिसको प्रेम करते हो । उसमें दिव्यता दिखायी पड़ने लगती है । प्रेम दिव्यता को अनावृत करता है । उघाड़ता है । तुम 1 साधारण स्त्री को प्रेम करो । साधारण पुरुष को प्रेम करो । तुम्हारे घर 1 बेटे का जन्म हो । उसको प्रेम करो । और अचानक तुम पाओगे कि जिस तरफ तुम्हारे प्रेम की दृष्टि गयी । वहीं दिव्यता खड़ी हो जाती है ।
यही तो प्रेमियों की अड़चन है । क्योंकि जहां उन्हें दिव्यता दिखायी पड़ जाती है कभी । फिर सिद्ध नहीं होती । तो बड़ी अड़चन खड़ी होती है । जिस स्त्री में तुमने दैवीय रूप देखा था । या जिस पुरुष में तुमने परमात्मा की झलक पायी थी । फिर जीवन के व्यवहार में वैसी झलक खो जाती है । नहीं बचती । तो पीड़ा होती है । लगता है । धोखा दिया गया । कोई धोखा नहीं दे रहा है । सिर्फ तुम्हारे पास जो प्रेम की आंख है । अभी इतनी स्थिर नहीं है कि तुम सदा किसी व्यक्ति में परमात्मा देख सको । जब जब तम्हारी आंख बंद हो जाती है । परमात्मा दिखायी पड़ना बंद हो जाता है । तो प्रेम शुरुआत में तो बड़ा दिव्य होता है । सभी प्रेम दिव्य होते हैं । फिर सभी पतित हो जाते हैं । क्योंकि आंखों की आदत नहीं है इतना खुला रहने की । जिस दिन तुम सारे जगत को प्रेम कर पाओगे । उस दिन सारे जगत में परमात्मा प्रगट हो जाएगा ।
मैं तुमसे कहता हूं ? प्रेम ही परमात्मा है ।
आ गया नूर जर्रे जर्रे पर । सितारे भी चमक उठे हैं कुछ और ।
रोशनी चांद की भी बढ़ गयी है । महककर फूल इठलाए हैं कुछ और ।
प्रेम की लहर के आते ही । प्रेम का झोंका आ जाए । आ गया नूर जर्रे जर्रे पर । तो 1 अदभुत प्रकाश कण कण पर दिखायी पड़ने लगता है । तुमने प्रेमी को चलते देखा ? जैसे जमीन की कशिश उस पर काम नहीं करती । जैसे वह उड़ा जाता है । जैसे उसे पंख लग गए हैं । तुमने प्रेमी की आंखें देखीं ? जैसे उनमें दीए जलने लगे हैं । तुमने प्रेमी का चेहरा देखा ? रोशन । कोई दिव्य आभा प्रगट होने लगती है ।
आ गया नूर जर्रे जर्रे पर । सितारे भी चमक उठे हैं कुछ और ।
रोशनी चांद की भी बढ़ गयी है । महककर फूल कुछ इठलाए हैं और ।
तुम्हारी आंख की 1 जुंबिश ने । जिंदगी ही मेरी बदल डाली ।
लबों से तुमने जो इकरार किया । शर्म आंखों की बढ़ गयी है कुछ और । जब निगाहें मिली थीं पहली बार । निकलता सा लगा दिल पहलू से ।
तुम्हारी आंखों की गहराई में । हर घड़ी डूबने लगा था कुछ और ।
इस खामोश मुहब्बत ने कभी । सुकून से हमें जीने न दिया ।
हंसकर जब भी कभी देखा तुमने । दिल की बेचैनी बढ़ गयी कुछ और ।
बड़ा एहसान तुमने मुझ पर किया । तड़पते दिल को सहारा देकर ।
कबूल करके यह खामोश सदा । बढ़ाया प्यार मेरी राहों में कुछ और ।
आ गया नूर जर्रे जर्रे पर । सितारे भी चमक उठे हैं कुछ और ।
रोशनी चांद की भी बढ़ गयी है । महककर फूल कुछ इठलाए हैं और ।
यह तो साधारण प्रेम की बात । यह तो उस प्रेम की बात । जो 2 मनुष्यों के बीच घट जाता है । उस प्रेम की तो बात ही क्या कहें । जो मनुष्य और समस्त के बीच घटता है । मैं उसी प्रेम की बात कर रहा हूं । 2 मनुष्यों के बीच जो घटता है । यह तो 2 बूंदों का मिलन है । और मनुष्य और अनंत के बीच जो घटता है । वह बूंद का सागर से मिलन है । 2 बूंदें मिलकर भी तो बहुत बड़ी नहीं हो पातीं । तुमने देखा । कभी कभी कमल के पत्ते पर 2 ओस की बूंदें सरककर 2 हो जाती हैं । तो भी बूंद तो बूंद ही रहती है । 1 बूंद बन गयी 2 की जगह । कोई बड़ा विराट तो नहीं घट जाता । थोड़ी सीमा बड़ी हो जाती है । तुम थोड़े आधे आधे थे । प्रेमी से मिलकर तुम थोड़े थोड़े पूरे हो जाते हो । तुम अकेले अकेले थे । प्रेमी से मिलकर तुम अकेले नहीं रह जाते । प्रेम का मार्ग - प्रार्थना का मार्ग । तुम देखो । हिंदू हैं । तो सीता राम की साथ साथ मूर्ति बनायी है कि राधा कृष्ण की कि शिव पार्वती की । ये प्रतीक हैं - ये मूर्तियां । प्रतीक हैं इस बात की कि जो प्रेम मनुष्य और मनुष्य के बीच घटता है । उसी प्रेम को फैलाना है । उसी प्रेम को इतना बड़ा करना है कि मनुष्य और अनंत के बीच घट जाए । ध्यान के मार्ग पर इसकी जरूरत नहीं होती । इसलिए महावीर अकेले खड़े हैं । इसलिए बुद्ध अकेले बैठे हैं । ध्यान के मार्ग पर दूसरे की जरूरत नहीं है । प्रेम के मार्ग पर दूसरे की जरूरत है । प्रेम तो दूसरे के बिना फलित ही न हो सकेगा । इसलिए ध्यान के मार्ग पर परमात्मा की धारणा की भी जरूरत नहीं है । लेकिन प्रेम के मार्ग पर तो परमात्मा की धारणा अनिवार्य है । अपरिहार्य है । तो जब मैं तुमसे कहता हूं । प्रेम परमात्मा है । तो मैं भक्त की भाषा बोल रहा हूं । तुम्हें जो रुच जाए । तुम्हें जो ठीक पड़ जाए । अगर तुम्हें ऐसा लगता हो कि प्रेम में तुम सरलता से पिघल पाते हो । तुम्हारी आंखों से आंसुओ की धार बहने लगती है सुगमता से । तुम्हारा दिल डोलने लगता है । तुम नाचने लगते हो । तुम्हारा मन मयूर नाचने लगता । तुम्हारे भीतर 1 छंद पैदा होता है । 1 स्फुरणा होती है । रोआ रोआ किसी रोमाच से पुलकित हो जाता है । अगर तुम्हारे भीतर प्रेम का भाव रोमांच लाता हो । तो पहचान लेना कि तुम्हारे लिए भक्ति ही द्वार है । अगर तुम्हें प्रेम का शब्द खाली निकल जाता हो । प्रेम के शब्द से कुछ न होता हो । न आंख में आंसू झलकते हों । न हृदय में कोई धड़कन होती हो । न रोमांच होता हो । अगर प्रेम का शब्द खाली खाली निकल जाता हो । कोरा कोरा । इस शब्द में कोई प्राण ही न मालूम पड़ते हों । तो तुम इस बात को छोड़ देना । फिर कोई जरूरत नहीं है । हमेशा खयाल रखना । जो मार्ग तुम्हारे लिए न हो । उस पर श्रम मत करना । क्योंकि वह सारा श्रम व्यर्थ जाएगा । जिद मत करना । ऐसा मत कहना कि मैंने तो चुन लिया । इसी पर अटका रहूंगा । मेरे पास बहुत से लोग आते हैं । वे कहते हैं - हम बहुत दिन से प्रार्थना कर रहे हैं । कुछ परिणाम नहीं हुआ । तो हमने कोई पाप किए हैं ? हमने कोई पिछले जन्मों में बुरे कर्म किए हैं ? जब मैं देखता हूं गौर से । तो यह पाता हूं कि न तो कोई पाप किए हैं । क्या पाप करोगे तुम ? पाप करने को हैं क्या बहुत ? यह पाप करने की धारणा भी कर्ता का ही हिस्सा है । करने वाला तो परमात्मा है । तुम क्या पाप करोगे । क्या पुण्य करोगे । यह कर्म का जो हमारा सिद्धात है कि कर्म किए । यह भी कर्ता का ही हिस्सा है । यह अज्ञान का ही बोध है । न तो तुमने कुछ पाप किए । न पुण्य किए हैं । जो उसने करवाया है । करवाया है । जो हुआ है । हुआ है । फिर तुम क्यों अटके हो ? अटके इसलिए हो कि तुम उस द्वार से प्रवेश करने की कोशिश कर रहे हो । जो तुम्हारा द्वार नहीं है । प्रार्थना तो कर रहे हो वर्षों से । लेकिन प्रार्थना तुम्हारा द्वार नहीं है । फिर समझाने को तुम सोच लेते हो कि पाप किए होंगे । इसलिए बाधा पड़ रही है । नहीं कोई बाधा पड़ती । तुम ध्यान से तलाशो । अगर प्रार्थना से नहीं मिल रहा है तो । कुछ लोग हैं । जो ध्यान पर लगे हुए हैं । कुछ नहीं हो रहा है । उनको मैं कहता है - तुम प्रार्थना से तलाशो । मेरी नजर मार्ग पर नहीं है । मेरी नजर तुम पर है । मेरे लिए यह बात बहुत अर्थ पूर्ण नहीं है कि - तुम किस मार्ग से पहुंचते हो । मेरे लिए यही बात अर्थ पूर्ण है कि - तुम पहुंचते हो । पहुंच जाओ । किसी वाहन पर सवार होकर - घोड़े कि हाथी पर कि पैदल कि बैलगाड़ी में । कैसे भी पहुंच जाओ । वाहन की बहुत चिंता मत करो । वाहन तुम्हारे लिए है । तुम वाहन के लिए नहीं हो । अब तक पृथ्वी पर मार्गों पर बहुत जोर दिया गया । तुम भक्त से पूछो । तो वह भक्त की ही बात को कहेगा । वह कहेगा - सिर्फ भक्ति से ही पहुंच सकते हो । वह आधी बात सच कह रहा है । आधे लोग भक्ति से पहुंच सकते हैं । तुम ध्यानी से पूछो । ज्ञानी से पूछो । वह कहता है - ध्यान के मार्ग से ही कोई पहुंचता है । भक्ति के मार्ग से कैसे पहुंचोगे । वह सब कपोल कल्पना है । वह भी आधी बात सच कह रहा है । आधे लोग ध्यान से पहुंचे हैं । आधे लोग भक्ति से पहुंचे हैं । और लोग उस मार्ग पर चलने की चेष्टा करते रहे । जो उनका नहीं था । जिस मार्ग के साथ उनके हृदय का मेल नहीं बैठता था । वे कभी नहीं पहुंचते हैं । वे भटकते ही रहे हैं । तुम अगर भटक रहे हो । तो बहुत संभावना यही है कि तुम ऐसे द्वार से प्रवेश कर रहे हो । जो तुम्हारा द्वार नहीं है । तो जब मैं कहता हूं - प्रेम परमात्मा है । तो मेरा अर्थ है । उन आधे लोगों के लिए । जो प्रेम से ही प्रवेश पा सकेंगे । यह उनके लिए कह रहा हूं । सबको इसे मान लेने की जरूरत नहीं है । जिनको यह बात न जमती हो । वे इसे छोड़ दें ।
मगर हम बडे परेशान होते हैं । कभी कभी हम ऐसी बातों के लिए परेशान होते हैं । जिनका कोई प्रयोजन नहीं होता है ।
कल 1 मित्र, बुद्धिमान मित्र, रात मिलने आए । प्रश्न पूछा । तो अजीब सा प्रश्न पूछा । प्रश्न यह पूछा कि - परशुराम को अवतार क्यों कहा जाता है । क्योंकि उन्होंने तो सिर्फ हिंसा की । मारकाट की । पृथ्वी को क्षत्रियों से खाली कर दिया । विध्वंस ही विध्वंस । उनको अवतार क्यों कहा जाता है ? अब पहली तो बात यह कि क्या लेना देना - परशुराम से । तुम्हें अवतार न जंचते हों । क्षमा करो । उनको जाने दो । कोई परशुराम तुम पर मुकदमा नहीं चलाएंगे कि तुमने हमें अवतार क्यों नहीं माना । भूलो । क्या लेना देना परशुराम से । हुए भी कि नहीं हुए । इसका भी कुछ पक्का नहीं है । तुम क्यों अड़चन ले रहे हो ? अब दूर से, दिल्ली से चलकर मुझसे मिलने आए हैं । और मिलकर पूछा यह ।
फिर अगर ऐसा लगता है कि परशुराम का मामला हल ही करना होगा । तभी तुम आगे बढ़ सकोगे । जो कि मेरी समझ में नहीं आता कि क्यों । परशुराम से क्या प्रयोजन है । बुद्धि की खुजलाहट है । नहीं जंचती बात । नहीं जंचती । अब उन पर अहिंसा का प्रभाव होगा । महावीर और बुद्ध का प्रभाव होगा । उनके मन में यह बात जंचती होगी कि अवतारी पुरुष तो अहिंसक होना चाहिए । कुछ कल्याण का काम करे । विध्वंस । इसको अवतार क्यों कहना ? तो तुम्हें अगर महावीर और बुद्ध की बात ठीक जमती है । तो महावीर और बुद्ध के मार्ग वाले परशुराम को अवतार कहते भी नहीं । तुम फिकर छोड़ो । लेकिन अगर तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम्हारी गांठ परशुराम से बंधी है । और तुम्हारा मन मानने का करता है कि होने तो चाहिए अवतार । और फिर ये और दूसरी धारणाएं बाधा डालती हैं । तो दूसरी धारणाओं को छोड़ो । फिर समझने की कोशिश करो । हिंदू विचार तो समस्त जगत को दैवीय मानता है । दिव्य मानता है । हिंसा भी । और अहिंसा भी । सृजन भी । और विध्वंस भी । वह भक्त की धारणा है । भक्त कहता है - भगवान हजार रूप में प्रगट होता है । सब रूप उसके । कभी वह विध्वंसक के रूप में भी प्रगट होता है । क्योंकि विध्वंस किसका ? उसका ही । वही कर्ता है । हम तो कोई कर्ता नहीं हैं । कभी वह बुद्ध की तरह प्रगट होता है - करुणा का सागर । और कभी वह परशुराम की तरह प्रगट होता है - फरसे को हाथ में लिए हुए । अति कठोर । कभी वह चट्टान की तरह प्रगट होता है । और कभी फूल की तरह भी । चट्टान भी वही है । और फूल भी वही है । दोनों वही है । फिर उसका प्रयोजन ? वही जाने । अगर हमारी समझ में नहीं पड़ता । क्योंकि हमें लगता है । हमारे मूल्य के विपरीत जाती है यह बात कि कोई आदमी हिंसा कर रहा है । तो इस हिंसा का क्या प्रयोजन ? कभी कभी हिंसा का भी प्रयोजन है । कभी कभी बुराई से भी लड़ना होता है । और कभी कभी हिंसा से लड़ने का 1 ही उपाय होता है - हिंसा । क्षत्रिय तो हिंसा का प्रतीक है । जब हम कहते हैं - परशुराम ने सारी दुनिया को क्षत्रियों से खाली कर दिया । तो हम इतना ही कह रहे हैं कि - परशुराम ने सारी दुनिया को हिंसा से खाली कर दिया । मगर क्षत्रियों से जूझना हो । तो क्षत्रिय होकर ही जूझा जा सकता है । और कोई उपाय नहीं है । वे तो तलवार की भाषा ही समझते हैं । अब तुमको ऊपर से तो देखने में लगेगा कि परशुराम हिंसक हैं । अगर भीतर गौर से इस प्रतीक में झांकोगे । तो पता लगेगा कि परशुराम ने दुनिया से हिंसा को मिटाने का जैसा वृहत आयोजन किया । वैसा न बुद्ध ने किया । न महावीर ने । बुद्ध और महावीर तो समझाते रहे कि - भई, हिंसा मत करो । परशुराम तो लेकर फरसा और जूझ पड़े कि मिटा ही डालेंगे । हिंसा की जड़ों को काट डालेंगे । मगर 1 मजे की बात देखते हो । न बुद्ध के और महावीर के समझाने से हिंसा जाती है । न परशुराम के 18 बार क्षत्रियों को काट डालने से हिंसा जाती है । तो इसमें 1 और गहरा सत्य छिपा है कि इस जगत से द्वंद्व कभी नष्ट होता ही नहीं । बुराई और भलाई साथ साथ हैं । हिंसा अहिंसा साथ साथ हैं । करुणा कठोरता साथ साथ हैं । ऐसा कभी भी नहीं होगा कि तुम 1 को काटकर गिरा दोगे । बुद्ध महावीर समझाकर न गिरा सके । और परशुराम ने तो बड़ी चेष्टा की । भयंकर चेष्टा की । बड़ा श्रम लिया कि सारे क्षत्रिय काटते गए कि - न रहेगा बांस । न बजेगी बासुरी । मगर फिर फिर हिंसा उभर आयी । इस जगत से द्वंद्व नष्ट नहीं होने वाला । यह कथा का गहरा अर्थ है । तो फिर क्या करें ? तुम द्वंद्व के बाहर हो सकते हो । जगत से द्वंद्व नहीं मिटने वाला । तुम द्वंद्व के बाहर हो सकते हो । जगत से द्वंद्व कभी नहीं मिटेगा । हाँ । तुम जब चाहो । तब द्वंद्व से बाहर सरक जाओ । और उस सरक जाने की कला ही है - साक्षी भाव । तुम साक्षी हो जाओ । न अहिंसक । न हिंसक । न इधर । न उधर । तुम मध्य में खड़े होकर बीच से निकल जाओ । तुम कह दो कि - अब मैं कर्ता नहीं हूं । लेकिन व्यर्थ के प्रश्नों में मत उलझो । व्यर्थ के बौद्धिक प्रश्नों में मत उलझो ।
अगर ध्यान में रुचि है । तो ध्यान में डूब जाओ । फिर प्रेम के संबंध में प्रश्न ही मत पूछो । समय कहां है । व्यर्थ क्यो समय गंवाते हो ? कल का पक्का नहीं है । 1 क्षण बाद का पक्का नहीं है । अगर प्रेम की बात जंचती है । तो ध्यान की बात भूलो । और प्रेम में डुबकी ले लो । समय नहीं है ज्यादा । लेकिन मैं अक्सर देखता हूं कि लोग इस तरह की बातों में बड़ा श्रम लगाते हैं । अब जिन मित्र ने यह पूछा । वह निश्चित ही चिंतित हैं । चिंता जरा व्यर्थ मालूम होती है । लेकिन वह चिंतित हैं । इसमें कोई शक नहीं है । और प्रामाणिक उनकी परेशानी मालूम होती है । उनके चेहरे पर बड़े बल पड़ गए हैं । परशुराम को अवतार क्यों कहा जाता है ? मुझसे बात करने के बाद भी । मेरे समझाने के बाद भी । उन्होंने कहा कि - अभी तो ज्यादा समय नहीं है आपके पास । फिर कभी आऊंगा । मगर उनको अभी बात जंची नहीं है । यह बात नहीं जंची कि - यह व्यर्थ है । इसे छोड़ें । इससे क्या लेना देना । मतलब । अभी वह सोच विचार जारी रखेंगे । परशुराम न हुए । रोग हो गए । और परशुराम ने हिंसा की । या नहीं की । तुम परशुराम को पकड़कर अपने जीवन के साथ जो हिंसा कर रहे हो । वह तुम्हारी समझ में नहीं आती । जिससे प्रयोजन न हो । उसके संबंध में विचार करने की भी जरूरत नहीं । इतना भी क्यों अपनी शक्ति, अपनी ऊर्जा को व्यय करो । तो यदि तुम्हारे जीवन में प्रेम है । और तुम्हें लगता है कि प्रेम में तुम्हें सुविधा मिलेगी । सुगम मालूम होता है - उतरो । फिर तुम पाओगे कि - प्रेम में जैसे जैसे उतरे । परमात्मा में उतरे । 1 दिन तुम पाओगे कि - प्रेम की पराकाष्ठा ही परमात्मा है । न हो रस प्रेम में । तो इस तरह के प्रश्नों में मत उलझो । तुम ध्यान में उतरो । और 2 के अतिरिक्त तीसरा कोई मार्ग नहीं है । इसलिए निर्णय करना बहुत कठिन नहीं है । अच्छा ही है कि - 2 ही मार्ग हैं । 2 ही मार्ग के रहते भी तुम निर्णय नहीं कर पा रहे । अगर और बहुत ज्यादा मार्ग होते । तो बड़ी अड़चन हो जाती । फिर तो निर्णय कभी न हो पाता । दोनों पर प्रयोग करके देख लो । कभी कभी ऐसा भी होता है कि अनिर्णय की स्थिति होती है । ऐसा भी लगता है कि - प्रेम ठीक । ऐसा भी लगता है - ध्यान ठीक । तो दोनों पर प्रयोग करके देख लो । 1 वर्ष पूरा का पूरा भक्ति में डुबा दो । मिल गया तो ठीक । फिर दूसरे पर प्रयोग करने की जरूरत न रह जाएगी । लेकिन पूरा लगा दो । न मिला । तो भी एक बात तय हो जाएगी कि - यह मेरा मार्ग नहीं है । अधूरे अधूरे कुनकुने लोगों को बड़ी तकलीफ है । न तो कभी हृदय पूर्वक किया है । इसलिए तय ही नहीं हो पाता कि - मेरा मार्ग है । या नहीं है । मैं तुमसे कहता हूं । जो भी तुम पूरे रूप से कर लोगे । उसमें से निर्णय बाहर आ जाएगा । पूर्ण कृत्य निर्णायक होता है । या तो दिखेगा । यह मेरा मार्ग है । फिर तो चल पड़े । फिर तो लौटने की कोई जरूरत न रही । या दिख जाएगा कि - यह मेरा मार्ग नहीं है । तो भी झंझट मिट गयी । दूसरा फिर तुम्हारा मार्ग है । फिर कोई अड़चन न रही । हर हालत में निर्णय आ जाएगा ।
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बुद्ध सदा कहते थे - अपने पर दया करो । वह नहीं कहते थे - दूसरों पर दया करो । दूसरों पर तुम कैसे दया करोगे ? जब तक अपने पर ही दया नहीं की । जो आदमी अपने पर ही नाराज है । वह पूरे संसार से नाराज रहेगा । और जो आदमी अपने पर दया करता है । वह किसी पर नाराज न रहेगा । जिसने अपने को प्रेम करना सीख लिया । वह सारे संसार को प्रेम करना सीख लेगा ।
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मेरा सन्यासी हँसता गाता होना चाहिए । उदास नहीं । जिसने जन्म मृत्यु का मर्म समझ लिया । फिर क्या उदासी ? फिर तो जीवन उत्सव हो गया । आनन्द हो गया । फिर तो बस नदी सा बहना हो गया । सम्पूर्ण समर्पण हो गया । जन्म मृत्यु जीवन रुपी धागे के 2 छोर हैं । इनके बीच का उत्सव बोधत्व है । सन्यास है । जीवन का सम्पूर्ण संज्ञान यही है कि आप अपने जीवन को कितने उत्सव के साथ जीते हैं । विपरीत परिस्थतियों में भी । कठिनतम को भी । सन्यास भाव सहज और आसान बना देता है । सन्यास का अर्थ कतई हिमालय पर जाने से नहीं हो सकता । क्योंकि सच्चा सन्यासी कभी गैर जिम्मेदार नहीं हो सकता । इसी जीवन में । इन्ही सम्बन्धो के साथ । अपने कर्तव्य को हँसते खेलते पूरा करना । और वो भी बुद्धत्व के साथ । अर्थात सांसारिक कटुता, लोभ, मोह, क्रोध, जय, पराजय के भाव पर विजय करके सम भाव से जीवन जीना । बुद्धत्व का भाव तो और भी गहरा है । जीवन उत्सव तो है ही । साथ में कल्याण का भाव भी है । परम के प्रति परम आभार का भाव भी है । और इसी आत्म दर्शन की पहली सीढ़ी ध्यान है । पता नहीं । कब ये ध्यान नृत्य पूर्ण हो जाता है । 

2 टिप्‍पणियां:

Ramlal Upadhyay ने कहा…

आत्मदर्शन की उपयुक्त सरल विधान ... सादर

बेनामी ने कहा…

आत्मदर्शन का अत्यंत सरल व्याख्या . . . सादर

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