शंकराचार्य परकाय प्रवेश विद्या के निष्णात साधक थे । जब मंडन मिश्र और शंकराचार्य का शास्त्रार्थ हुआ तो ये तय हुआ कि इनमें से जो हारेगा वो दूसरे का शिष्य बन जायेगा ।
मण्डन मिश्र भारत के विख्यात विद्धान और ग्रहस्थ थे । उनकी पत्नी सरस्वती भी अत्यन्त विद्धान थी । शंकराचार्य संन्यासी थे और उन्होंने शास्त्रार्थ के माध्यम से भारत विजय करने के उद्देश्य से अनेक यात्रायें की थी ।
मगर वे सर्वश्रेष्ठ तभी माने जा सकते थे । जब वे महा विद्वान मण्डन मिश्र को पराजित करते । इन दोनों के शास्त्रार्थ का निर्णय कौन करता ? क्योंकि कोई सामान्य विद्वान तो इसका निर्णय नही कर सकता था ।
अतः शंकराचार्य के अनुरोध पर निर्णय के लिये मिश्र की पत्नी सरस्वती का ही चयन किया गया । यह शास्त्रार्थ 21 दिन चला और आखिरकार मण्डन मिश्र हार गये । यह देखकर सरस्वती ने निर्णय दिया कि मिश्र जी हार गये हैं अतः वे शंकराचार्य का शिष्यत्व स्वीकार करें और संन्यास दीक्षा लें । यह कहकर वह विद्वान पत्नी निर्णायक पद से नीचे उतरी और शंकराचार्य से कहा - मैं मण्डन मिश्र की अर्धांगिनी हूं । अतः अभी तक मिश्र जी की आधी ही पराजय हुयी है । जब आप मुझे भी पराजित कर देंगे तब मिश्र जी की पूरी पराजय मानी जायेगी ।
यह बात एकदम सही थी । अबकी बार मण्डन मिश्र निर्णायक बने । सरस्वती तथा शंकराचार्य में शास्त्रार्थ होने लगा ।
21 वें दिन जब सरस्वती को लगा कि अब उसकी पराजय होने ही वाली है ।
तब उसने शंकराचार्य से कहा - अब मैं आपसे अंतिम प्रश्न पूछती हूं और इस प्रश्न का भी उत्तर यदि आपने दे दिया तो हम अपने आपको पराजित मान लेंगे और आपका शिष्यत्व स्वीकार कर लेंगे । शंकराचार्य के हाँ कर देने पर सरस्वती ने कहा - सम्भोग क्या है । यह कैसे किया जाता है और इससे संतान का निर्माण किस प्रकार हो जाता है ?
यह सुनते ही शंकराचार्य प्रश्न का मतलब और उसकी गहराई समझ गये ।
यदि वे इसी हालत में और इसी शरीर से सरस्वती के प्रश्न का उत्तर देते तो उनका संन्यास धर्म खन्डित होता है । क्योंकि संन्यासी को बाल बृह्मचारी को संभोग का ज्ञान होना असम्भव ही है । अतः संन्यास धर्म की रक्षा करने के लिये उत्तर देना सम्भव ही नहीं था और बिना उत्तर दिये हार तय थी । लिहाजा दोनों ही तरफ़ से नुकसान था ।
कुछ देर विचार करते हुये शंकराचार्य ने कहा - क्या इस प्रश्न का उत्तर अध्ययन और सुने गये विवरण के आधार पर दे सकता हूँ या इसका उत्तर तभी प्रमाणिक माना जायेगा । जबकि उत्तर देने वाला इस प्रक्रिया से व्यवहारिक रूप से गुजर चुका हो ।
तब सरस्वती ने उत्तर दिया कि - व्यवहारिक ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान होता है । यदि आपने इसका व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त किया है । अर्थात किसी स्त्री के साथ यौन क्रिया आदि कामभोग किया है तो आप निसंदेह उत्तर दे सकते हैं ।
शंकराचार्य जन्म से ही संन्यासी थे अतः उनके जीवन में कामकला का व्यावहारिक ज्ञान धर्म संन्यास धर्म के सर्वथा विपरीत था ।
अतः उन्होंने उस वक्त पराजय स्वीकार करते हुये कहा कि - मैं इसका उत्तर 6 महीने बाद दूंगा । तब शंकराचार्य ने मंडन मिश्र की पत्नी से छ्ह माह का समय लिया और अपने शिष्यों के पास पहुँचकर कहा कि - मैं 6 महीने के लिये दूसरे शरीर में प्रवेश कर रहा हूँ तब तक मेरे शरीर की देखभाल करना । यह कहकर उन्होनें अपने सूक्ष्म शरीर को उसी समय मृत्यु को प्राप्त हुये 1 राजा के शरीर में डाल दिया ।
मृतक राजा अनायास उठकर बैठ गया ।
राजा के अचानक जीवित हो उठने पर सब बहुत खुश हुये । लेकिन राजा की 1 रानी जो अलौकिक ज्ञान के विषय में जानती थी । उसे मरकर जीवित हुये राजा पर शक होने लगा ।
क्योंकि पुनर्जीवित होने के बाद राजा केवल कामवासना में ही रुचि लेता था और तरह तरह के प्रयोग सम्भोग के दौरान करता था । रानी को इस पर कोई आपत्ति न थी पर जाने कैसे वह भांप गई कि राजा के शरीर में जो दूसरा है । वो अपना काम समाप्त करके चला जायेगा ।
तब इस हेतु उसने अपने विश्वस्त सेवकों को आदेश दिया - जाओ, आसपास गुफ़ा आदि में देखो । कोई लाश ऐसी है जो संभालकर रखी गयी हो या जिसकी कोई सुरक्षा कर रहा हो । ऐसा शरीर मिलते ही नष्ट कर देना ।
उधर राजा के शरीर में शंकराचार्य ने जैसे ही ध्यान लगाया । उन्हें खतरे का आभास हो गया और वो उनके पहुँचने से पहले ही राजा के शरीर से निकलकर अपने शरीर में प्रविष्ट हो गये ।
इस तरह शंकराचार्य ने कामकला का ज्ञान प्राप्त किया । इस प्रकार सम्भोग का व्यवहारिक ज्ञान लेकर शंकराचार्य पुनः अपने शरीर में आ गये । इस तरह से जिस शरीर से उन्होंने संन्यास धर्म स्वीकार किया था उसको भी खन्डित नहीं होने दिया ।
इसके बाद पुनः मन्डन मिश्र की पत्नी सरस्वती को उसके संभोग विषयक प्रश्न का व्यवहारिक ज्ञान से उत्तर देकर उन पर विजय प्राप्त की और उन दोनों पति पत्नी को अपनी शिष्यता प्रदान की और अपने आपको भारत का शास्त्रार्थ विजेता सिद्ध किया ।