क्या होता है - धर्म ? और क्या अन्तर है - धर्म और सम्प्रदाय में ? धर्म " धृ " धातु से निष्पन्न है । जिसका सरल अर्थ - धारण करना है । अर्थात जिनसे लोक, परलोक, स्वास्थ्य, समाज, आदि का धारण होता है । वे सभी धर्म के अन्तर्गत समाहित होते हैं । इसीलिये धर्म या धार्मिक मूल्यों के अन्तर्गत शिष्टाचार के मापदण्ड, नैतिक नियम, लौकिक नियम, शरीर के प्रति धर्म, समाज के प्रति धर्म, अन्य प्राणियों के प्रति धर्म यहाँ तक कि पेड़ पौधे आदि वनस्पति जगत के प्रति भी धर्म के रूप में नियमों की वृहद व्याख्यायें मिलती हैं । धर्म इस शब्द की आयु ऋग्वेद से लेकर आज तक लगभग 4 000 वर्षों की है । प्रथमतः ऋग्वेद में इसका दर्शन 1 नवजात शिशु के समान होता है । जो अस्तित्व में आने के लिये हाथ पैर फैलाता जान पड़ता है । वहाँ यह " ऋत " के रूप में दृष्टिगत होता है । जो सृष्टि के अखण्ड देश काल व्यापी नियमों हेतु प्रयुक्त हुआ । वैदिक मन्त्रों का वर्गीकरण 4 संहिताओं में करने वाले वेद व्यास के अनुसार प्रकृति के साथ साथ व्यक्ति, राष्ट्र एवं लोक परलोक सबको धारण
करने का शाश्वत नियम धर्म है ।
धारणाद्धर्म इत्याहुधर्मों धारयते प्रजाः । यतस्याद्धारण संयुक्तं स धर्म इति निश्चयः। 1
वैदिक ऋषियों से लेकर वेद व्यास जैसे महाभारतकार एवं चाणक्य जैसे कूटनीतिज्ञ भी मानव की उन्नति एवं समाज की सम्यक गति का कारण धर्म को ही मानते हैं । धर्म शब्द धृ धातु ( ध ×ा धारणे ) से बना है । जिसका तात्पर्य है - धारण करना । आलम्बन देना । पालन करना । धर्म सम्पूर्ण जगत को धारण करता है । सबका पालन पोषण करता है । और सबको अवलम्बन देता है । इसलिये सम्पूर्ण जगत एकमात्र धर्म के ही बल पर सुस्थिर है । धृ धातु से बने धर्म का अर्थ वृष भी है - वर्षति अभीष्टान कामान इति वृषः । 3 अर्थात प्राणियों की
सुख शान्ति के लिए उनके अभिलाषित पदार्थों की जो वृष्टि करे । तो दूसरी ओर धर्म का नाम पुण्य भी है - पुनाति इति पुण्यम । यानी जो प्राणियों के मन बुद्धि इन्द्रियों एवं कर्म को पवित्र कर दे । मनु के अनुसार धर्म के 10 लक्षण है ।
धृतिक्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिनिन्द्रिय निग्रहः । धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम । 4 भारतीय मनीषियों की मान्यता रही है कि यह संसार नैतिक नियमों के अधीन है । और जीवन मनुष्य को नैतिक चुनाव का ही अवसर प्रदान करता है । शायद इसीलिए उन्होंने धर्म अथवा नैतिकता को अर्थशास्त्र का मूल आधार घोषित किया था । किन्तु इसका यह मंतव्य कतई नहीं है कि वे मनुष्य के जीवन में अर्थ के महत्व को स्वीकार ही नहीं करते थे । वे जिस बात पर जोर देते थे । वह यह है कि
अर्थ ( धन ) का जीवन में महत्वपूर्ण स्थान होते हुए भी यह जीवन का साधन है । साध्य नहीं । यह जीवन का 1 भाग है । संपूर्ण जीवन नहीं । यह 4 पुरुषार्थों में से केवल 1 पुरुषार्थ है । अत: वे अर्थ के उचित समन्वय पर जोर देते थे । किन्तु यदि कभी अर्थशास्त्र के नियमों एवं धर्मशास्त्र के नियमों में विरोध उत्पन्न हो जाए । तो नि:संकोच रूप से धर्मशास्त्र के नियमों को ही प्राथमिकता देनी चाहिए । इस संबंध में कौटिल्य, याज्ञवल्क्य, नारद आदि ने स्पष्ट रूप से घोषणा की थी कि - अर्थशास्त्रास्तु बलवद्धर्मशास्त्रामिति स्थिति: ( कौटिल्य । नारद 39, याज्ञ 11.21) । यही कारण था कि भारतीय चिंतन में अर्थ को धर्म की तुलना में द्वितीय स्थान दिया गया था । 4 पुरुषार्थों के क्रम में धर्म के बाद ही अर्थ का स्थान इस बात का प्रमाण है । महाभारत के शांति पर्व में नकुल व सहदेव ने धन और धर्म के बीच बहुत ही सुन्दर समन्वय का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि - धर्म युक्त धन और धन युक्त धर्म ही संसार में अच्छे परिणाम ला सकता है । इस प्रकार भारतीय चिंतक एडम स्मिथ की तरह अर्थशास्त्र को केवल " धन का विज्ञान " स्वीकार नहीं करते । हिन्दू चिंतन के अनुसार अर्थशास्त्र को धर्मशास्त्र के नियमों व मर्यादाओं के प्रकाश में ही काम करना चाहिए । जब कभी भी इस नियम का उल्लंघन हुआ । तब समाज को कष्ट उठाने पड़े । यहाँ 1 बात जो विशेष रूप से ध्यान देने की है । वह यह है कि प्राचीन भारतीय मनीषियों ने अपने विचारों को व्यावहारिक रूप देने के लिए उस समय की सामाजिक संरचना में ऐसी संस्थाओं एवं व्यवस्थाओं का विकास किया । जिनके माध्यम से नैतिक मूल्यों एवं सामाजिक आदर्शों के अनुरूप व्यवहार
करना । व्यक्ति की रोजमर्रा की दिनचर्या का अभिन्न अंग बन जाए । इस दृष्टि से हम 4 पुरुषार्थों की कल्पना, वर्णाश्रम व्यवस्था, संयुक्त परिवार प्रणाली, शिक्षा की गुरुकुल प्रणाली, पंच महायज्ञ व अन्य विभिन्न प्रकार के यज्ञ, दान, दक्षिणा, इष्टापूर्त, सर्व व्यापक बृह्म की अवधारणा, पुनर्जन्म, कर्मफल, प्रकृति के प्रति जननी भाव, दया, परोपकार, परहित एवं त्याग जैसे गुणों को महत्व, स्नेह, सहयोग, शुचिता, सात्विकता, सहभागिता एवं सर्व कल्याण की भावना पर जोर आदि भारतीय जीवन की विषेषताओं को देख सकते हैं । इस प्रकार प्राचीन चिंतन हमें उन सामाजिक नैतिक मूल्यों की याद दिलाता है । जिनके आधार पर युगानुकूल नवीन सामाजिक आर्थिक संरचना
की जानी चाहिए । इसके अनुसार - संग्रह की बजाय त्याग । स्वार्थ की बजाय सेवा । शोषण की बजाय पोषण । संघर्ष की बजाय सहयोग । घृणा की बजाय स्नेह । संपत्ति पर पूर्ण निजी या सरकारी स्वामित्व की बजाय ईश्वर स्वामित्व - इस नयी अर्थ रचना के आधार सूत्र हो सकते हैं । धार्मिकता एवं साम्प्रदायिकता का अन्तर - आईये सबसे गरमागरम विषय के सबसे जलते शब्द " धर्म " को उठाते हैं । पता नहीं हमारे महान देश भारतवर्ष के तथाकथित महान प्रबुद्ध लोग धर्म शब्द से इतना डरते क्यों हैं ? मैं तो यही समझ पाया हूँ कि देश के अधिकांश महान प्रबुद्ध लोगों ने धर्म के बारे में अंग्रेजी भाषा के " रिलीजन " के माध्यम से ही जाना है । न कि धर्म को धर्म के माध्यम से । यही कारण है कि वे धर्म को " सम्प्रदाय " के पर्यायवाची के रूप में ही जानते हैं । जबकि सम्प्रदाय धर्म का 1 उपपाद तो हो सकता है । पर मुख्य धर्म रूप नही । धर्म प्राकृतिक सनातन एवं शाश्वत तथा स्व प्रस्फुटित ( या स्व स्फूर्त ) होता है । इसे कोई प्रतिपादित एवं संस्थापित नही करता है । जबकि सम्प्रदाय किसी द्वारा प्रतिपादित तथा संस्थापित किया जाता है । आखिर धर्म ही क्यों ? संस्कृत व्याकरण के नियम " निरुक्ति " के अनुसार धर्म शब्द की व्युत्पत्ति " धृ " धातु से हुयी है । निरुक्ति के अनुसार जिसका अर्थ है - धारण करना ( मेरे अनुसार धारित या धारणीय है । अथवा धारण करने योग्य होता है ) । क्योंकि पृथ्वी हमें धारण करती है । और इसी कारण से इसे धरणी कहते हैं । अतः स्पष्ट है - धर्म का अर्थ भी धारण करना ही होगा । इसे इस प्रकार समझें " धृ + मम = धर्म '' धारण करना है । तो हमें धर्म के रूप में क्या धारण करना है ? आपको धारण करना है - अपने कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व या' फ़रायज़ और जिम्मेदारियां या ड्यूटीज एंड रेसपोंसबिलटीज ( लायेबिलटीज ) धार्मिक व्यक्ति सदैव 1 अच्छा सामाजिक नागरिक होता है । क्योंकि वह धर्म भीरु होता है । और 1 धर्म भीरु व्यक्ति सदैव सामाजिक व्यवस्था के प्रति भी भीरु अर्थात प्रतिबद्ध ही होगा । परन्तु 1 सम्प्रदायिक व्यक्ति रूढ़वादी होने के कारण केवल अपने सम्प्रदाय के प्रति ही प्रतिबद्ध होता है । इसलिए मेरी दृष्टि में धार्मिक होना । सम्प्रदायिक होने की अपेक्षा 1 अच्छी बात है । अभी तक मैंने 2 ही तथ्य कहे हैं - धर्म प्राकृतिक होता ही । जबकि सम्प्रदाय संस्थापित एवं प्रतिपादित होता है । 2 सम्प्रदायिक होने की अपेक्षा धार्मिक होना ही उचित होगा । भारत के परिपेक्ष में संप्रदाय के अलावा 1 शब्द ' पंथ ' भी प्रयोग में आता है । पंथ शब्द का अर्थ - पथ/राह/रास्ता/दिशा होता है । सम्प्रदाय एवं पंथ दोनों का भाव व उद्देश्य 1 ही होता है । परन्तु पन्थ में मुझे सम्प्रदाय की अपेक्षा गतिशीलता अनुभव होती है । मैं शब्दों के हेर फेर से फ़िर से दोहरा रहा हूँ - धर्मों को कोई उत्पन्न नही करता । वे प्राकृतिक हैं । उनकी स्थापना स्वयं प्रकृति करती है । जबकि सम्प्रदाय के द्वारा हममें से ही कोई महा मानव आगे आकर कुछ नियम निर्धारित करता है । यहाँ तक कि पूजा पद्धति भी उसमें आ जाती है । हर युग में कोई युग दृष्टा महा मानव पीर औलिया रब्बी मसीहा या पैगम्बर के रूप में सामने आता है । अथवा दूसरे शब्दों में कहें । तो प्रकृति द्वारा चुना जाता है । जो देश क्षेत्र एवं युग काल विशेष की परिस्थियों की आवश्यकताओं के परिपेक्ष्य में मानव समाज के समुदायों को उन्ही के हित में आपस में बांधे रखने के लिए एवं सामाजिक व्यवस्था को व्यवस्थित रखते हुए चलाने के लिए । जीवन के हर व्यवहारिक क्षेत्र के प्रत्येक सन्दर्भों में समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए । समाज व एक दूसरों के प्रति कुछ उत्तर दायित्व एवं कर्तव्य निर्धारित करता है । उनके परिपालन के लिए कुछ नियम प्रतिपादित करता है । और समान रूप से एक दूसरे के प्रति प्रतिबद्धता के समान नियमों को स्वीकार करने एवं उनका परिपालन करने वाले समुदाय को ही एक '' सम्प्रदाय '' कह सकते हैं । सम्प्रदाय के निर्धारित नियम व सिद्धांत किसी न किसी रूप में लिपि बद्ध या वचन बद्ध होते हैं । देश काल एवं समाज की चाहे कैसी भी कितनी ही बाध्यकारी परिस्थितियाँ क्यों न हों । उन नियमों में कोई भी परिवर्तन या संशोधन अमान्य होता है । यहाँ पर ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि जो नियम देश युग काल के सापेक्ष निर्धारित किए गए थे । वे यदि परिस्थितयों युग काल के बदलने के साथ साथ नई परिस्थितियों एवं युग काल के परिपेक्ष्य में यदि संशोधित तथा परिवर्तित नही किए जाते । तो वह रूढ़वादिता को जन्म देते हैं । और रूढ़वादिता के गर्भ से ही साम्प्रदायिकता जन्म लेती है । जय श्री राम । साभार - चक्रपाणि त्रिपाठी ।
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करने का शाश्वत नियम धर्म है ।
धारणाद्धर्म इत्याहुधर्मों धारयते प्रजाः । यतस्याद्धारण संयुक्तं स धर्म इति निश्चयः। 1
वैदिक ऋषियों से लेकर वेद व्यास जैसे महाभारतकार एवं चाणक्य जैसे कूटनीतिज्ञ भी मानव की उन्नति एवं समाज की सम्यक गति का कारण धर्म को ही मानते हैं । धर्म शब्द धृ धातु ( ध ×ा धारणे ) से बना है । जिसका तात्पर्य है - धारण करना । आलम्बन देना । पालन करना । धर्म सम्पूर्ण जगत को धारण करता है । सबका पालन पोषण करता है । और सबको अवलम्बन देता है । इसलिये सम्पूर्ण जगत एकमात्र धर्म के ही बल पर सुस्थिर है । धृ धातु से बने धर्म का अर्थ वृष भी है - वर्षति अभीष्टान कामान इति वृषः । 3 अर्थात प्राणियों की
सुख शान्ति के लिए उनके अभिलाषित पदार्थों की जो वृष्टि करे । तो दूसरी ओर धर्म का नाम पुण्य भी है - पुनाति इति पुण्यम । यानी जो प्राणियों के मन बुद्धि इन्द्रियों एवं कर्म को पवित्र कर दे । मनु के अनुसार धर्म के 10 लक्षण है ।
धृतिक्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिनिन्द्रिय निग्रहः । धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम । 4 भारतीय मनीषियों की मान्यता रही है कि यह संसार नैतिक नियमों के अधीन है । और जीवन मनुष्य को नैतिक चुनाव का ही अवसर प्रदान करता है । शायद इसीलिए उन्होंने धर्म अथवा नैतिकता को अर्थशास्त्र का मूल आधार घोषित किया था । किन्तु इसका यह मंतव्य कतई नहीं है कि वे मनुष्य के जीवन में अर्थ के महत्व को स्वीकार ही नहीं करते थे । वे जिस बात पर जोर देते थे । वह यह है कि
अर्थ ( धन ) का जीवन में महत्वपूर्ण स्थान होते हुए भी यह जीवन का साधन है । साध्य नहीं । यह जीवन का 1 भाग है । संपूर्ण जीवन नहीं । यह 4 पुरुषार्थों में से केवल 1 पुरुषार्थ है । अत: वे अर्थ के उचित समन्वय पर जोर देते थे । किन्तु यदि कभी अर्थशास्त्र के नियमों एवं धर्मशास्त्र के नियमों में विरोध उत्पन्न हो जाए । तो नि:संकोच रूप से धर्मशास्त्र के नियमों को ही प्राथमिकता देनी चाहिए । इस संबंध में कौटिल्य, याज्ञवल्क्य, नारद आदि ने स्पष्ट रूप से घोषणा की थी कि - अर्थशास्त्रास्तु बलवद्धर्मशास्त्रामिति स्थिति: ( कौटिल्य । नारद 39, याज्ञ 11.21) । यही कारण था कि भारतीय चिंतन में अर्थ को धर्म की तुलना में द्वितीय स्थान दिया गया था । 4 पुरुषार्थों के क्रम में धर्म के बाद ही अर्थ का स्थान इस बात का प्रमाण है । महाभारत के शांति पर्व में नकुल व सहदेव ने धन और धर्म के बीच बहुत ही सुन्दर समन्वय का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि - धर्म युक्त धन और धन युक्त धर्म ही संसार में अच्छे परिणाम ला सकता है । इस प्रकार भारतीय चिंतक एडम स्मिथ की तरह अर्थशास्त्र को केवल " धन का विज्ञान " स्वीकार नहीं करते । हिन्दू चिंतन के अनुसार अर्थशास्त्र को धर्मशास्त्र के नियमों व मर्यादाओं के प्रकाश में ही काम करना चाहिए । जब कभी भी इस नियम का उल्लंघन हुआ । तब समाज को कष्ट उठाने पड़े । यहाँ 1 बात जो विशेष रूप से ध्यान देने की है । वह यह है कि प्राचीन भारतीय मनीषियों ने अपने विचारों को व्यावहारिक रूप देने के लिए उस समय की सामाजिक संरचना में ऐसी संस्थाओं एवं व्यवस्थाओं का विकास किया । जिनके माध्यम से नैतिक मूल्यों एवं सामाजिक आदर्शों के अनुरूप व्यवहार
करना । व्यक्ति की रोजमर्रा की दिनचर्या का अभिन्न अंग बन जाए । इस दृष्टि से हम 4 पुरुषार्थों की कल्पना, वर्णाश्रम व्यवस्था, संयुक्त परिवार प्रणाली, शिक्षा की गुरुकुल प्रणाली, पंच महायज्ञ व अन्य विभिन्न प्रकार के यज्ञ, दान, दक्षिणा, इष्टापूर्त, सर्व व्यापक बृह्म की अवधारणा, पुनर्जन्म, कर्मफल, प्रकृति के प्रति जननी भाव, दया, परोपकार, परहित एवं त्याग जैसे गुणों को महत्व, स्नेह, सहयोग, शुचिता, सात्विकता, सहभागिता एवं सर्व कल्याण की भावना पर जोर आदि भारतीय जीवन की विषेषताओं को देख सकते हैं । इस प्रकार प्राचीन चिंतन हमें उन सामाजिक नैतिक मूल्यों की याद दिलाता है । जिनके आधार पर युगानुकूल नवीन सामाजिक आर्थिक संरचना
की जानी चाहिए । इसके अनुसार - संग्रह की बजाय त्याग । स्वार्थ की बजाय सेवा । शोषण की बजाय पोषण । संघर्ष की बजाय सहयोग । घृणा की बजाय स्नेह । संपत्ति पर पूर्ण निजी या सरकारी स्वामित्व की बजाय ईश्वर स्वामित्व - इस नयी अर्थ रचना के आधार सूत्र हो सकते हैं । धार्मिकता एवं साम्प्रदायिकता का अन्तर - आईये सबसे गरमागरम विषय के सबसे जलते शब्द " धर्म " को उठाते हैं । पता नहीं हमारे महान देश भारतवर्ष के तथाकथित महान प्रबुद्ध लोग धर्म शब्द से इतना डरते क्यों हैं ? मैं तो यही समझ पाया हूँ कि देश के अधिकांश महान प्रबुद्ध लोगों ने धर्म के बारे में अंग्रेजी भाषा के " रिलीजन " के माध्यम से ही जाना है । न कि धर्म को धर्म के माध्यम से । यही कारण है कि वे धर्म को " सम्प्रदाय " के पर्यायवाची के रूप में ही जानते हैं । जबकि सम्प्रदाय धर्म का 1 उपपाद तो हो सकता है । पर मुख्य धर्म रूप नही । धर्म प्राकृतिक सनातन एवं शाश्वत तथा स्व प्रस्फुटित ( या स्व स्फूर्त ) होता है । इसे कोई प्रतिपादित एवं संस्थापित नही करता है । जबकि सम्प्रदाय किसी द्वारा प्रतिपादित तथा संस्थापित किया जाता है । आखिर धर्म ही क्यों ? संस्कृत व्याकरण के नियम " निरुक्ति " के अनुसार धर्म शब्द की व्युत्पत्ति " धृ " धातु से हुयी है । निरुक्ति के अनुसार जिसका अर्थ है - धारण करना ( मेरे अनुसार धारित या धारणीय है । अथवा धारण करने योग्य होता है ) । क्योंकि पृथ्वी हमें धारण करती है । और इसी कारण से इसे धरणी कहते हैं । अतः स्पष्ट है - धर्म का अर्थ भी धारण करना ही होगा । इसे इस प्रकार समझें " धृ + मम = धर्म '' धारण करना है । तो हमें धर्म के रूप में क्या धारण करना है ? आपको धारण करना है - अपने कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व या' फ़रायज़ और जिम्मेदारियां या ड्यूटीज एंड रेसपोंसबिलटीज ( लायेबिलटीज ) धार्मिक व्यक्ति सदैव 1 अच्छा सामाजिक नागरिक होता है । क्योंकि वह धर्म भीरु होता है । और 1 धर्म भीरु व्यक्ति सदैव सामाजिक व्यवस्था के प्रति भी भीरु अर्थात प्रतिबद्ध ही होगा । परन्तु 1 सम्प्रदायिक व्यक्ति रूढ़वादी होने के कारण केवल अपने सम्प्रदाय के प्रति ही प्रतिबद्ध होता है । इसलिए मेरी दृष्टि में धार्मिक होना । सम्प्रदायिक होने की अपेक्षा 1 अच्छी बात है । अभी तक मैंने 2 ही तथ्य कहे हैं - धर्म प्राकृतिक होता ही । जबकि सम्प्रदाय संस्थापित एवं प्रतिपादित होता है । 2 सम्प्रदायिक होने की अपेक्षा धार्मिक होना ही उचित होगा । भारत के परिपेक्ष में संप्रदाय के अलावा 1 शब्द ' पंथ ' भी प्रयोग में आता है । पंथ शब्द का अर्थ - पथ/राह/रास्ता/दिशा होता है । सम्प्रदाय एवं पंथ दोनों का भाव व उद्देश्य 1 ही होता है । परन्तु पन्थ में मुझे सम्प्रदाय की अपेक्षा गतिशीलता अनुभव होती है । मैं शब्दों के हेर फेर से फ़िर से दोहरा रहा हूँ - धर्मों को कोई उत्पन्न नही करता । वे प्राकृतिक हैं । उनकी स्थापना स्वयं प्रकृति करती है । जबकि सम्प्रदाय के द्वारा हममें से ही कोई महा मानव आगे आकर कुछ नियम निर्धारित करता है । यहाँ तक कि पूजा पद्धति भी उसमें आ जाती है । हर युग में कोई युग दृष्टा महा मानव पीर औलिया रब्बी मसीहा या पैगम्बर के रूप में सामने आता है । अथवा दूसरे शब्दों में कहें । तो प्रकृति द्वारा चुना जाता है । जो देश क्षेत्र एवं युग काल विशेष की परिस्थियों की आवश्यकताओं के परिपेक्ष्य में मानव समाज के समुदायों को उन्ही के हित में आपस में बांधे रखने के लिए एवं सामाजिक व्यवस्था को व्यवस्थित रखते हुए चलाने के लिए । जीवन के हर व्यवहारिक क्षेत्र के प्रत्येक सन्दर्भों में समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए । समाज व एक दूसरों के प्रति कुछ उत्तर दायित्व एवं कर्तव्य निर्धारित करता है । उनके परिपालन के लिए कुछ नियम प्रतिपादित करता है । और समान रूप से एक दूसरे के प्रति प्रतिबद्धता के समान नियमों को स्वीकार करने एवं उनका परिपालन करने वाले समुदाय को ही एक '' सम्प्रदाय '' कह सकते हैं । सम्प्रदाय के निर्धारित नियम व सिद्धांत किसी न किसी रूप में लिपि बद्ध या वचन बद्ध होते हैं । देश काल एवं समाज की चाहे कैसी भी कितनी ही बाध्यकारी परिस्थितियाँ क्यों न हों । उन नियमों में कोई भी परिवर्तन या संशोधन अमान्य होता है । यहाँ पर ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि जो नियम देश युग काल के सापेक्ष निर्धारित किए गए थे । वे यदि परिस्थितयों युग काल के बदलने के साथ साथ नई परिस्थितियों एवं युग काल के परिपेक्ष्य में यदि संशोधित तथा परिवर्तित नही किए जाते । तो वह रूढ़वादिता को जन्म देते हैं । और रूढ़वादिता के गर्भ से ही साम्प्रदायिकता जन्म लेती है । जय श्री राम । साभार - चक्रपाणि त्रिपाठी ।
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