कहा है - सुरति फंसी संसार में । तासो हुय गयो दूर । सुरति मान थिर करो । तो आठों पहर हजूर । यानी परमात्मा कहीं दूर नहीं है । परमात्मा कहीं खोया भी नहीं हैं । परमात्मा को कहीं खोजने भी नहीं जाना है । वह तो हमारे बहुत पास है । बस तुम्ही संसार में खोये हुये हो । अपने को भूलकर भटक रहे हो । खुद को भूलकर हैरान हो रहा है । दुनियां में फ़ंसकर वीरान हो रहा है । कबीर साहब ने कहा था । ना मैं काशी । ना मैं कावा । ना हूं मैं कैलाश में । मुझको कहां खोजे है । बन्दे मैं तो तेरे पास में । कबीर की ये बात जानते तो बहुत लोग हैं । मानते भी बहुत लोग हैं । पर सवाल है कि इतने पास होते हुये भी वो मिलता क्यों नहीं है ? कितने ही ऋषि मुनि हिमालय आदि की कन्दराओं में तप कर करके गल गये । पर वो किसी को नहीं मिला
। इसके पीछे 1 ही बात है । कहूं वस्तु रखी । कहीं खोजो । तो वस्तु न आवे हाथ । वस्तु तभी पाईये । जब भेदी होवे साथ । यानी जिन्होंने उसे पाया है । और जो उसका तरीका जानते हैं । परमात्मा का भेद जानने वालों को संत कहा गया है । और उसकी प्राप्ति का एकमात्र साधन हमारे घट ( शरीर ) में अखन्ड गुंजायमान । वो अविनाशी नाम ( ढाई अक्षर का महामन्त्र ) है । जो अपने भक्तों के लिये परमात्मा ने संतो को दिया है । या यूं कहे । उस परम रहस्य का राज केवल पहुंचे हुये संत ही जानते हैं । और जब वो देखते हैं कि संसार के कलेशों से तंग आ गया कोई जीव वापस प्रभु की शरण में जाना चाहता है । तो वो विधिवत ( संतमत दीक्षा द्वारा नाम देना या प्रकट करना । ) उसे नामदान देते हैं । तब संसार में फ़ैली हुयी सुरती के सिमटते ही जीव वापस अपने आनन्दधाम और वास्तविक घर सतलोक की यात्रा भजन अभ्यास से करने लगता है । यानी उसे दिव्य अनुभव होने लगते हैं । और अब तक संसार की कलेश में फ़ंसा जीव अनोखी शांति का अनुभव करता है । निज अनुभव तोहे कहूं खगेसा । बिनु हरि भजन न मिटे कलेशा । अब
सुरति क्या है ? हमारे अन्तःकरण में 4 बिंदु होते है । 1 मन 2 बुद्धि 3 चित्त 4 अहम । इन्हीं से हम संसार के सभी कार्य करते हैं । वास्तव में ठीक ठीक कहा जाय । तो संसार का वजूद ही इन्हीं से है । अन्यथा तो संसार मिथ्या है । शास्त्रों में कहा है । बृह्म सत्य । जगत मिथ्या । अज्ञानता बश हम यही सत्य मान लेते हैं कि संसार ही सत्य है । वास्तव में अहम यानि । मैं । भाव और मन । बुद्धि । चित्त से ही संसार का होना सत्य लगता है । लेकिन जब ये चारों आप ( मन । बुद्धि । चित्त । अहम ) 1 करना सीख जाते हैं । तो इन चारों के 1 होने पर उसे सुरति कहते हैं । आजकल प्रचलित योग ध्यान में इसी को एकाग्र किया जाता है । पर सच बात ये है कि सुरति शब्द साधना एकदम अलग ज्ञान है । यह गूढ़ रहस्य है । और केवल संतों की कृपा से ही प्राप्त हो सकता है ।
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सभी संतों ने । बुद्ध पुरुषों ने । सत्य को अपने अंदर ही पाया । फिर कहीं भी बाहर समर्पण पर इतना जोर क्यों दिया गया है ? अपने स्वभावानुसार या भटक कर शायद कभी कहीं और सत्य की झलक मिल भी जाए । पर बाहर तो अंधे गुरु भी मौजूद हैं । जो रात को दिन और दिन को रात कहेंगे ?
- इसे समझना जरूरी है । समर्पण बाहर होता ही नहीं । समर्पण भीतर की घटना है । गुरु बाहर हो । समर्पण भीतर
की घटना है । समझो । तुम किसी के प्रेम में पड़ गए । तो प्रेमी तो बाहर होता है । लेकिन प्रेम तो तुम्हारे भीतर की घटना है । वह तो तुम्हारे हृदय में जलता है । प्रेमी मर भी जाए । तो भी प्रेम जारी रह सकता है । जारी रहेगा ही । अगर था । प्रेमी की राख भी न बचे । तो भी प्रेम अहर्निश गूंजता रहेगा । धड़कन धड़कन में श्वास श्वास में बहता रहेगा । प्रेम पात्र तो बाहर होता है । प्रेम भीतर होता है । समर्पण का पात्र तो बाहर होता है । गुरु बाहर होता है । लेकिन समर्पण तो भीतर होता है । वह घटना बाहर की नहीं है । और गुरु भी तभी तक बाहर दिखाई पड़ता है । जब तक हमने समर्पण नहीं किया । जिस दिन तुमने समर्पण किया । गुरु भी भीतर है । बाहर भीतर का भेद ही गिर गया । सीमा ही टूट गई । समर्पण करते ही । जैसे ही तुमने अपनी सुरक्षा की दीवाल तोड़ दी । सब तरह से गुरु तुम्हारे भीतर बह आता है । इसलिए तो हमने गुरु को परमात्मा कहा है । और भीतर छुपी आत्मा को परम गुरु कहा है । इससे बड़ी पहेलियां पैदा हो जाती हैं । पश्चिम के बहुत से लोग जब भारत के शास्त्रों का अध्ययन करते हैं । तो उनको लगता है कि ये तो बिलकुल पहेलियां हैं । इनमें कोई व्यवस्था नहीं है । कोई तर्कबद्धता नहीं है । कहीं कहते हो - गुरु बाहर । कहीं कहते हो - गुरु भीतर । लेकिन ये सभी बातें सच हैं । भारत की भी मजबूरी है । क्योंकि भारत सत्य को ही कहना चाहता है । वह जैसा है । उलझन भी भला खड़ी हो जाती हो । लेकि
न हम सत्य को वैसा ही कहना चाहते हैं । जैसा है । जब तक शिष्य समर्पित नहीं है । तब तक गुरु बाहर है । वस्तुतः तब तक गुरु गुरु ही नहीं है । इसलिए बाहर है । तुम क्या सोचते हो । तुम्हारे समर्पण के पहले कोई गुरु हो सकता है ? 1 स्त्री रास्ते से जा रही है । क्या तुम्हें प्रेम न हुआ हो इसके प्रति । तो क्या तुम इसे प्रेयसी कह सकते हो कि यह मेरी प्रेयसी है । अभी हालांकि मेरा प्रेम नहीं हुआ ? तो लोग तुम्हें पागल कहेंगे । जिसके प्रति समर्पण नहीं हुआ । क्या तुम उसे गुरु कह सकते हो ? वह किसी और का गुरु होगा । वह किसी और की प्रेयसी होगी । लेकिन तुम्हारा इससे क्या लेना देना ? तुम्हारा तो गुरु तभी घटता है । जब तुम्हारा समर्पण होता है । और यह बड़े मजे की बात है कि अगर तुम सच में ही समर्पण कर दो । तो तुम्हें कोई गुरु भटका नहीं सकता । वस्तुतः सचाई तो यह है कि अगर समर्पण करने वाला शिष्य मिल जाए । तो भटका हुआ गुरु भी रास्ते पर आ जाएगा । समर्पण इतनी बड़ी घटना है । जब तुम्हें रास्ते पर ला सकता है - समर्पण । तो गुरु को भी ला सकता है । लेकिन कठिनाई ऐसी है कि सदगुरु को भी शिष्य नहीं मिलते । असदगुरु को शिष्य मिलना तो बहुत मुश्किल है । अनुयायियों की बात नहीं कर रहा हूं । शिष्य की बात कर रहा हूं । जिसको नानक ने सिक्ख कहा है । सिक्ख शिष्य का अपभ्रंश है । लेकिन सिक्खों की बात नहीं कर रहा हूं । नानक के सिक्ख । वह बात ही और है । जब तुम्हारे भीतर शिष्यत्व का भाव जन्मता है । तब कोई तुम्हारे लिए गुरु होता है । और अगर तुम्हारा समर्पण पूरा हो । तो तुम बिलकुल फिक्र ही छोड़ दो कि गुरु कुगुरु है कि सदगुरु है कि क्या है । तुम चिंता ही छोड़ो । समर्पण
इतनी बड़ी घटना है कि वह तुम्हें तो बदलेगी ही । उस गुरु को भी बदल डालेगी । समर्पण का मतलब है - अटूट श्रद्धा । समर्पण का अर्थ है - बेशर्त आस्था । समर्पण का अर्थ है । गुरु कहे - मरो । तो मरने की तैयारी । जीओ तो जीने की तैयारी । क्या तुमने इतना बुरा आदमी दुनिया में देखा है । जो अटूट श्रद्धा को धोखा दे सके ? अखंड श्रद्धा को धोखा देने वाला आदमी कभी पृथ्वी पर हुआ ही नहीं । हां अगर तुम्हें कोई धोखा दे पाता है तो इसलिए कि तुम्हारी श्रद्धा अखंड नहीं । तुम भी बेईमान । गुरु भी बेईमान । तुम भी रत्ती रत्ती देते हो । वह भी समझता है कि तुम कैसे दे रहे हो । वह भी छीनने की कोशिश करता है । और तुम सोचते हो कि यह गुरु बेईमान है । ठीक गुरु नहीं है । भटका देगा । अगर समर्पण किया । तो भटक जाएंगे । तुम समर्पण नहीं करना चाहते । तुम हजार बहाने खोजते हो । तुम डरे हो । और तब तुम पक्का समझो कि तुम्हें सदगुरु तो मिलने वाला ही नहीं है । तुम्हें कोई चालबाज ही मिलेगा । तुम्हारे भीतर का यह जो संदेह है । यह तुम्हें किसी असदगुरु से ही मिला सकता है । संदेह का और असदगुरु का मिलना हो सकता है । श्रद्धा और असदगुरु का मिलना होता ही नहीं । या तो गुरु भाग खड़ा होगा श्रद्धावान शिष्य को पाकर । और या बदल जाएगा । तुम कभी किसी पर श्रद्धा करके तो देखो । श्रद्धा बड़ी क्रांतिकारी कीमिया है । जिस पर तुम श्रद्धा करोगे । उसे तुम बदलना शुरू कर दोगे । छोटे बच्चे घर में
पैदा होते हैं । मां बाप को बदल देते हैं । छोटे बच्चे पर ध्यान रखना पड़ता है । तो बाप को सिगरेट नहीं पीनी । शराब नहीं पीनी । कहीं यह छोटा बच्चा बिगड़ न जाए । छोटा बच्चा भी इतना छोटा नहीं है । जितना श्रद्धा से भरा हुआ शिष्य होता है । उसकी सरलता का तो मुकाबला ही नहीं है । वह इतना सरल होता है कि गुरु भी डरने लगेगा कि इतनी सरलता को धोखा देना ? इतनी सरलता को धोखा देने वाला कोई शैतान पैदा ही कभी नहीं हुआ । तुम उस भय को छोड़ो । तुम यह चिंता ही मत करो । तुम सिर्फ समर्पण की फिक्र करो । अगर तुम समर्पण कर सकते हो । तो मैं तुमसे कहता हूं कि तुम पत्थर के प्रति भी समर्पण कर दो । तो भी क्रांति घटेगी । आदमी की तो बात और, पत्थर के प्रति भी और क्रांति हो जाएगी । क्रांति समर्पण से होती है । अब इस बात को भी समझ लो । गुरु थोड़ी क्रांति करता है । शिष्य को लगता है । गुरु ने की । यह उसका निरहंकार भाव है । अगर तुम गुरु से पूछो । तो गुरु ऊपर इशारा करेगा । कहेगा - उसने की । क्योंकि वह भी जानता है । गुरु ने नहीं की । परमात्मा ने की । जीसस 1 गांव से गुजरते हैं । 1 बाजार में बड़ी भीड़ है । और 1 स्त्री आती है । उसे कोढ़ हो गया है । वह बीमार है । उसे गांव के बाहर फेंक दिया गया है । वह डरती है जीसस के सामने आने में भी । लेकिन उसे पक्की श्रद्धा है कि अगर वह जीसस का स्पर्श कर ले । तो वह ठीक हो जाएगी । लेकिन उसे डर है कि वह भीड़ गांव में उसे अंदर भी आने देगी ? तो वह किसी तरह छिपी भीड़ के अंदर प्रवेश कर जाती है । वह जीसस के सामने जाने में डरती है । वह उनसे प्रार्थना करने में डरती है । यह भी कोई बात है कहने की ? इस काम में भी उनको लगाना क्या उचित है ? वह सिर्फ किनारे से । भीड़ से आकर जीसस का कपड़े का 1 कोना छू लेती है । जीसस
चौंक कर खड़े हो जाते हैं । उन्होंने कहा - किसने मुझे इतनी श्रद्धा से छुआ ? और उस स्त्री का सर्वांग बदल गया है । उसी स्त्री ने अपने शरीर को देखा होगा । भरोसा न कर सकी । उसने कहा - लेकिन मैं बदल गई । जीसस ने कहा - तू अपनी श्रद्धा के कारण बदली है । मेरा इसमें कुछ हाथ नहीं । धन्यवाद देना हो । तो परमात्मा को धन्यवाद देना । करने वाला सभी वही है । यही तो कबीर कहते हैं कि - गुरु प्रसाद से हुआ । गुरु से पूछें । तो रामानंद यह न कहेंगे । रामानंद राम की तरफ बताएंगे । राम की कृपा से हुआ । राम की कृपा से कहने का मतलब यह है कि कोई भी नहीं कर रहा है । समर्पण के भीतर ही घटना घटती है । कोई करने वाला नहीं है । तुम इस चिंता में मत पड़ो कि समर्पण बाहर है । समर्पण भीतर है । और इस चिंता में भी मत पड़ो कि जब तक हमें पक्का न हो जाए । जब तक अदालत सर्टिफिकेट न दे दे कि यह आदमी ईमानदार है कि सच्चा गुरु है । कौन अदालत देगी ? किस अदालत के बस के भीतर है ? कौन सर्टिफिकेट देगा ? कौन प्रमाणित करेगा ? और तुम अपनी बुद्धि से कैसे खोज कर पाओगे ? तुममें इतनी ही बुद्धि होती तो गुरु की जरूरत ही क्या थी ? तुम कैसे पहचानोगे । कौन सदगुरु है । कौन नहीं है ? तुम इस उलझन में ही मत पड़ो । तुम पत्थर को भी पकड़ लो । पत्थर
के स्पर्श से भी तुम्हारा रोग चला जाएगा । असली सवाल हृदय का है । असली सवाल समर्पण का है । असली सवाल आस्था का है । तो मैं तुमसे कहता हूं । न तो गुरु करता है । न शिष्य करता है । श्रद्धा करवाती है । श्रद्धा से होता है । समर्पण में होता है । गुरु भी बहाना है । वह बहाना है । ताकि तुम श्रद्धा कर सको । अन्यथा तुम्हें मुश्किल होगा । बिना बहाने के श्रद्धा करनी मुश्किल होगी । तुम्हें कोई सहारा चाहिए । कोई निमित्त चाहिए । अन्यथा तुम कैसे श्रद्धा करोगे ? अगर तुम बिना किसी में श्रद्धा किए भी श्रद्धा कर सको । मात्र श्रद्धा कर सको । तो भी घटना घट जाएगी । लेकिन तब मुश्किल होता जाएगा । वह ऐसे ही होगा कि बिना प्रेयसी के और प्रेम । बिना प्रेमी के प्रेम । बस प्रेम । कोई है ही नहीं । जिसको प्रेम करना है । मगर प्रेम का भाव । कठिन होगा । होता तो है । हो सकता है । प्रेम तुम्हारी भाव दशा बन सकती है । इसलिए तो बुद्ध जैसे लोग कहते हैं - कोई जरूरत नहीं है । तुम सिर्फ प्रेम से भर जाओ । घटना घट जाएगी । प्रेम अग्नि है । श्रद्धा महा अग्नि है । क्योंकि श्रद्धा प्रेम का निखरे से निखरा रूप है । नवनीत है । ओशो
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वीर्य को जबरदस्ती रोक लेने से ब्रह्मचर्य का कोई संबंध है ? ब्रह्मचर्य तो 1 ऐसे आनंद की घटना है । जब आपका अस्तित्व के साथ संभोग शुरू हो गया । और इसलिए व्यक्ति के साथ संभोग की कोई जरूरत नहीं रह जाती । यह जरा कठिन है समझना । और अगर मैं कहूं । तो बहुत बेचैनी होगी । संत वैसा व्यक्ति है । जिसका अस्तित्व के साथ संभोग शुरू हो गया । वहां कोयल कूकती है । तो उसका पूरा शरीर संभोग के आनंद को अनुभव करता है । वह वृक्ष में फूल खिलते हैं । तो उसके पूरे शरीर पर जैसी संभोग में आपको थिरक अनुभव होती है । उसका रोआं रोआं वैसा थिरकता है । और नाचता है । सुबह सूरज उगता है । रात चांद आकाश में होता है । तो हर घड़ी संभोग की समाधि उसे उपलब्ध होती रहती है । उसका रोआं रोआं संभोग में समर्थ हो गया है । आपका केवल जननेंद्रिय संभोग में समर्थ है । इस संबंध में 1 बात समझ लेनी जरूरी है । कभी खयाल भी नहीं आया होगा । हमने
शिव की प्रतिमा, शिवलिंग निर्मित की है । शिव जैसे पूरे के पूरे लिंग हैं । इसका मतलब यह होता है । इसका मतलब होता है । शिव के पास न आंखें हैं । न हाथ हैं । न पैर हैं । मात्र लिंग है । सिर्फ जननेंद्रिय है । यह संतत्व की आखिरी दशा है । जब व्यक्ति का पूरा शरीर जननेंद्रिय हो गया । इसका प्रतीक अर्थ यह हुआ कि अब वह पूरे शरीर के साथ जगत के साथ संभोग में रत है । अब यह संभोग लोकल नहीं है । यह जननेंद्रिय और जननेंद्रिय का मिलना नहीं है । अब यह अस्तित्व और अस्तित्व का मिलना है । शिव का शिवलिंग हमने निर्मित करके जगत को 1 ऐसी धारणा दी है । जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है ।
शिवलिंग का अर्थ है - 1 ऐसी दशा । जब तुम्हारा पूरा शरीर रोएं रोएं से संभोग अनुभव कर सकता है । तभी तुम्हें जननेंद्रिय के संभोग से छुटकारा मिलेगा । और ब्रह्मचर्य उपलब्ध होगा । तो ब्रह्मचर्य भोग से मुक्ति नहीं है । परम भोग का आस्वाद है । लेकिन भोग इतना परम हो जाता है कि तु्म्हें उसे करने की अलग से जरूरत नहीं होती । हवा का झोंका आता है । तो तुम्हारा रोआं रोआं उस पुलक को अनुभव करता है । जो प्रेमी अपनी प्रेयसी के स्पर्श से अनुभव करेगा ।
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प्रेम - प्रेम सबसे बड़ी कला है । उससे बड़ा कोई ज्ञान नहीं है । सब ज्ञान उससे छोटे हैं । क्योंकि और सब ज्ञान से तो तुम जान सकते हो बाहर बाहर से । प्रेम में ही तुम अंतर्गृह में प्रवेश करते हो । और परमात्मा अगर कहीं छिपा है । तो परिधि पर नहीं । केंद्र में छिपा है ।
और 1 बार जब तुम 1 व्यक्ति के अंतर्गृह में प्रवेश कर जाते हो । तो तुम्हारे हाथ में कला आ जाती है । वही कला सारे अस्तित्व के अंतर्गृह में प्रवेश करने के काम आती है । तुमने अगर 1 को प्रेम करना सीख लिया । तो तुम उस 1 के द्वारा प्रेम करने की कला सीख गए । वही तुम्हें 1 दिन परमात्मा तक पहुंचा देगी । इसलिए मैं कहता हूं कि - प्रे
म मंदिर है । लेकिन तैयार मंदिर नहीं है । 1-1 कदम तुम्हें तैयार करना पड़ेगा । रास्ता पहले से पटा पटाया तैयार नहीं है । कोई राजपथ है नहीं कि तुम चल जाओ । चलोगे 1-1 कदम । और चल चल कर रास्ता बनेगा - पगडंडी जैसा । खुद ही बनाओगे । खुद ही चलोगे । इसलिए मैं प्रेम के विरोध में नहीं हूं । मैं प्रेम के पक्ष में हूं । और तुमसे मैं कहना चाहूंगा कि अगर प्रेम ने तुम्हें दुख में उतार दिया हो । तो अपनी भूल स्वीकार करना । प्रेम की नहीं । क्योंकि बड़ा खतरा है । अगर तुमने प्रेम की भूल स्वीकार कर ली । तो यह मैं जानता हूं कि तुम साधु संतों की बातों में पड़ कर छोड़ दे सकते हो - प्रेम का मार्ग । क्योंकि वहां तुमने दुख पाया है । तुम थोड़े सुखी भी हो जाओगे । लेकिन आनंद की वर्षा तुम पर फिर कभी न हो पाएगी । कैसे तुम चढ़ोगे ? तुम सीढ़ी ही छोड़ आए । गिरने के डर से तुम सीढ़ी से ही उतर आए । चढ़ोगे कैसे ? गिरोगे नहीं । यह तो पक्का है । जिसको हम सांसारिक कहते हैं । गृहस्थ कहते हैं । वह गिरता है सीढ़ी से । जिसको हम संन्यासी कहते हैं - पुरानी परंपरा धारणा से । वह सीढ़ी छोड़कर भाग गया । मैं उसको संन्यासी कहता हूं । जिसने सीढ़ी को नहीं छोड़ा । अपने को बदलना शुरू किया । और जिसने प्रेम से ही । प्रेम की घाटी से ही । धीरे धीरे प्रेम के शिखर की तरफ यात्रा शुरू की । कठिन है । जीवन की संपदा मुफ्त नहीं मिलती । कुछ चुकाना पड़ेगा । अपने से ही पूरा चुकाना पड़ेगा । अपने को ही दांव पर लगाना पड़ेगा । और प्रेम जितनी कसौटी मांगता है । कोई चीज कसौटी नहीं मांगती । इसलिए कमजोर भाग जाते हैं । और भागकर कोई कहीं नहीं पहुंचता । प्रेम के द्वार से गुजरना ही होगा । हां उसके पार जाना है । वहीं रुक नहीं जाना है । ओशो
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प्रेम - अगर प्रेम में उतर गये ।
तो प्रेम की समझ तो आ जायेगी । लेकिन अध्ययन नहीं हो सकेगा । अध्ययन के लिये दूरी चाहिये । और तटस्थता चाहिये । और फासला चाहिये । प्रेम के लिये दूरी मिटनी चाहिये । सब फासले गिरने चाहिये । तब प्रेम की समझ का तो उदय होगा । लेकिन उस समझ को हम अध्ययन नहीं कह सकते । ओशो
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आत्मा का कोई घर नही था ।
वह दूसरे के घर में आया है । जैसे कोई किसी बड़े शहर में घूमने आता है । जिस समय व्यक्ति अपने शरीर को अपनी आत्मा में स्थित कर लेता है । तो शरीर उसके घर की पहचान करा देता है । वह अपने घर चला जाता है ।
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प्रेम की कला सीखो । यह कोई संपति नहीँ है ।
ये कला है । वृक्ष को देखो । तो प्रेम से देखो । कैसा हरा है । कैसे फूल खिले हैँ । ज़रा पास जाओ । वृक्ष को छुओ । और तुम पाओगे । भीतर कोई सोया था । जागने लगा । चाँद सितारोँ को देखो । पत्थर पहाड़ों को देखो । सरोवर सागर को देखो । मगर प्रेम से । प्रेम तुम्हारी शैली बन जाये । ओशो
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100 साल बाद लोग बिलकुल ठीक ढंग से ये जान पायेंगे कि मुझे ग़लत क्यों समझा गया । क्योंकि मैं रहस्यवाद और अतर्क की शुरुआत हूं । मैं अतीत से जुड़ा हुआ नहीं हूं । अतीत मुझे समझ न पायेगा । केवल भविष्य मुझे जान पायेगा ।
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पंच कोश five bodies
1 अन्नमय कोश food body - पृथ्वी earth
2 प्राणमय कोश energy body - अग्नि fire
3 मनोमय कोश mental body - जल water
4 विज्ञानमय कोश intuitive body - वायु air
5 आंनदमय कोश bliss body - आकाश ethar