क्या आप जानते हैं । जब भी कोई सच्चा सन्त आपसे आत्मा की आत्मज्ञान की बात करता है । तो यकायक आप चौंक से उठते हैं । झंकृत हो उठते हैं । कुछ भूला सा । कुछ खोया सा याद आता है । कोई हूक सी अन्दर उठती है । और आप बैचेन से होकर सब कुछ जानने को उतावले हो उठते हैं । लेकिन ये सब एक क्षणिक टंकार के समान ध्वनि आपके अन्दर होकर रह जाती है । और फ़िर आप - यों ? क्यों ? क्या ? लेकिन ? किन्तु ? परन्तु ? में उलझकर रह जाते हैं । तब अचानक चौंके भी आप ही थे । और फ़िर संशय भी आप ही करने लगे । ये क्या रहस्य है ?
अगर बात में कोई दम नहीं था । एकदम फ़ुल्ली फ़ालतू थी । तो फ़िर चौंके क्यों ? कोई आपको अन्दर से बिना ठोस हकीकत कैसे चौंका सकता है ? और फ़िर संशय क्यों करने लगे । आईये इसी रहस्य पर बात करते हैं ।
मान लीजिये । एक बच्चा ( जीवात्मा । सोहं ) कुम्भ के मेले में ( संसार । त्रिलोक ) फ़ँसकर छुटपन ( जन्म जन्म से ) से ही परिवार ( सतलोक । हँस जीव का असली घर ) से बिछुङ ( माया । वासना ) गया । बस उस बच्चे के गले में एक लाकेट ( स्वांस में गूँजता उसका नाम । उसके घर का पता । और नक्शा ) उसकी असली पहचान और
निशानी के तौर पर रह गया । जाहिर है । इस लाक्ड लाकेट ( आज्ञाचक्र । बृह्माण्डी द्वार ) की चाबी और नक्शे का रहस्य वहीं ( सतलोक ) का कोई ( गुरु । सतगुरु । सन्त ) ज्ञानी ( रहस्य जानने वाला ) बता सकता है । तो ये भूल जाना माया ( आत्मा पर चङे इच्छा आवरण ) की स्थिति है ।
अब ऐसा नहीं कि इस देश ( मृत्युलोक । त्रिलोक ) के राष्ट्रपति ( काल पुरुष ) को यह सत्य ( कि जो ये जीव बना दीन हीन ( वासना से क्षीण हुआ ) सा भटक ( 84 में ) रहा है । ये बहुत शक्तिशाली और धनी है ) मालूम नहीं । अच्छी तरह मालूम है । पर वह जानता है कि एक एक आत्मा ( क्योंकि चेतन गुण और अमरत्व सिर्फ़ इसी के पास है ) कितनी मूल्यवान है । इसलिये उसने इस जीव को सदा फ़ँसाये रखने के इतने वासनात्मक और
आकर्षक इन्तजाम किये हैं कि उन सबको बता पाना बहुत कठिन है । बस पूरा खेल सिर्फ़ यही है ।
अब आईये । फ़िर से पहली वाली बात करते हैं । आप चौंके इसलिये कि आपके अन्दर कहीं गहराई में एक क्षीण सी चमक अब भी है कि - आप दरअसल ये हैं ही नहीं । और इसलिये आप घनचक्कर से बने रहते हैं कि ये सब चक्कर क्या हैं ? who am i ? आखिर मैं वास्तव में कौन हूँ ?
और दूसरा कारण भी है । जन्म जन्म हो गये आपको सुख शान्ति तलाशते । पर कभी नहीं मिली । गौर करिये । सुख शान्ति आनन्द । यानी ये आपके अन्दर कहीं छिपी हैं । यही खो गयी है । इसी की आपको सदा तलाश रही है । अन्दर कहीं आपको अहसास है । आप आनन्द स्वरूप है । नित नूतन हैं । अमर अजर हैं । और आनन्द का विपक्ष या विलोम शब्द है ही नहीं । इसलिये जब सन्त ने कहा - तुम न मन हो । न शरीर हो । बल्कि आत्मा हो । तो आप यकायक बुरी तरह चौंक गये । ऐसा लगा कि जन्म जन्मान्तर के बाद आपके देश का कोई आपको मिल
गया । और गौर करें । इसमें कोई संशय भाव नहीं था । आत्मा में संशय नाम की चीज तक नहीं है । संशय दरअसल संसार का पर्यायवाची है । ये थी पहली बात । जो मेरे ख्याल से स्पष्ट हुयी । अब आईये दूसरी बात करते हैं ।
फ़िर अचानक ही आप संशय करने लगे । उस आपके ही परम हितैषी निस्वार्थी परमार्थी सन्त पर बिना वजह शंका करने लगे । तरह तरह के प्रश्न पूछने लगे । तर्क कुतर्क करने लगे । बहस करने लगे । ऐसा क्यों हुआ । आपको बताता हूँ । क्योंकि दरअसल ये विरोधी क्रियायें आप कर ही नहीं रहे । इसको करने वाला कोई और ही है ? कौन है वो ? बोलो बोलो कौन है वो ?
दरअसल आप चौंके थे । वो आपका विवेक था । जो क्षणिक जागृत हुआ था । और जो जीव की ज्ञानरहित वासनात्मक स्थिति में सोया रहता है । लेकिन जैसे ही कोई सन्त आपके सम्मुख आया । और आपका ध्यान शाश्वतता की ओर गया । कालपुरुष और उसकी मनमोहिनी पत्नी माया सतर्क हो गये । जहाँ तक हो सके । इस जीव को भृमित रखो । और काल फ़ाँस से निकलने न दो । लेकिन इन दोनों ने ये किया कैसे ? यही बताता हूँ ।
कालपुरुष । यमराय । राम ( दशरथ पुत्र ) । श्रीकृष्ण । खुदा । पहला पुरुष ( लगभग ) । मन । ये सब एक ही
हस्ती के नाम रूप हैं । योगमाया । महामाया । माया । महादेवी । आदि शक्ति । आध्याशक्ति । इच्छाशक्ति । अष्टांगी । पहली औरत ( पूर्णतया ) । सीता । राधा । ये भी सब एक ही हस्ती के नाम हैं ।
अब इनके तीन पुत्र कृमशः - बृह्मा ( रजोगुण ) विष्णु ( सतोगुण ) शंकर ( तमोगुण ) इनके भी छोटे बङे अलग अलग सबके हजार हजार नाम रूप हैं । ये मियाँ बीबी और इनके दो या तीन बच्चे । होते हैं घर में अच्छे । ही इस त्रिलोकी सृष्टि के सर्वेसर्वा हैं ।
अब मजे की बात ये है कि ये 5 मायावी प्रचार करते हैं कि त्रिलोकी में भी भक्तियोग सिद्धांत है । जबकि थोङा सा भी ध्यान से देखा जाये । तो त्रिलोकी के संविधान में कहीं भक्तियोग है ही नहीं । सिर्फ़ कर्मयोग ही है । प्रमाण और उदाहरण - त्रिलोकी में 4 प्रकार की
मुक्ति का प्रावधान है । ध्यान दें - मुक्ति । मुक्त नहीं । और यही ( यदि भक्ति कहें तो ) सबसे बङा फ़ल है । इससे बङा फ़ल द्वैत में है ही नहीं । क्या ? आप विष्णु । शंकर । बृह्मा । के समकक्ष और उतने ही बङे लोक और अधिकारों के मालिक बन सकते हैं । साफ़ शब्दों में कहा जाये । तो त्रिलोकी की भक्ति ? द्वारा कोई भी जीव सेम - विष्णु । शंकर । बृह्मा । का पद और वैसा ही लोक प्राप्त कर सकता है । ध्यान रहे । द्वैत भक्ति में कोई भी पुरुष भक्त - कालपुरुष । राम । श्रीकृष्ण । कभी भी किसी भी हालत में नहीं बन सकता । और न ही कोई स्त्री - अष्टांगी या उसके अन्य पद रूप अधिकार प्राप्त कर पायेगी ।
अब और भी मजे की बात देखिये । इसको ये 5 जन्म मरण से मुक्ति और मोक्ष बताते हैं । जबकि खुद का ठिकाना
नहीं है । अपने बच्चों के भी सगे नहीं हैं । ध्यान दें - विष्णु । शंकर । बृह्मा । तीनों बच्चों ने ही अपनी माँ ( माया जिसने प्रचारित कर रखा है । वही सब कुछ है ) से अमर होने का ( उसी वर्तमान शरीर और स्थिति का ) वरदान माँगा । उसने स्पष्ट मना कर दिया । ये हरगिज नहीं मिल सकता । कैसे दे सकती है ? खुद कालपुरुष और अष्टांगी भी अमर नहीं हैं । अमर होना छोङिये । निश्चित आयु से ज्यादा आयु भी नहीं ।
और भी ध्यान दें । विष्णु । शंकर । बृह्मा आदि की पूजा करने वाले रावण आदि बहुत से अन्य असुरों तथा समय समय पर तमाम अन्य तपस्वियों ने इनसे अमरता का वरदान माँगा । जिसके लिये साफ़ मना कर दिया गया । अब बताईये । प्रमाणित हो गया । द्वैत में भक्ति योग नहीं है । तपस्या रूपी जितना कर्म किया । उतना फ़ल मिला । जब उनको ही 84 में फ़ेंक दिया जाता है । तो फ़िर आप पर रियायत क्यों कर होगी ? फ़िर ये मुक्ति कहाँ हुयी ?
अब अद्वैत का सबसे छोटा नियम देखिये । इसमें - नर्क । 84 । और प्रेतयोनि का कोई कालम ही नहीं है । इसमें मेहनत करने से आप राम । श्रीकृष्ण । कालपुरुष । अष्टांगी जैसी उपाधियाँ तो प्राप्त कर ही सकते हैं । अच्छी मेहनत करने पर इससे कहीं उच्चतम स्थितियों को प्राप्त कर सकते हैं । और फ़िर परम लक्ष्य अमरता को भी प्राप्त कर सकते हैं ।
तो जैसे ही आप सत्य ( आत्मा ) की तरफ़ आकर्षित हुये । काल चौंक गया । डर गया । काल ( मन ) विशेष रूप
से ( उस समय ) प्रभावी हो गया । उसने जीव को आवेशित कर दिया । ध्यान रहे । उसे मालूम है कि वो इस अजर अमर अविनाशी जीव को न मार सकता है । न जला सकता है । न काट सकता है । उसके मूल का किसी प्रकार से अहित नहीं कर सकता है । बस डरा सकता है । धमका सकता है । भृमित कर सकता है । सो उसने वही किया । पर आत्मा की चमक का प्रभाव भी मामूली नहीं होता । जीव फ़िर भी सन्त की तरफ़ आकर्षित हुआ । तब इसकी पत्नी माया भी सक्रिय हो गयी । और उसने धन वैभव वासना कामवासना का जाल उस पर ( वैसे तो ये जाल है ही । पर इस समय विशेष रूप से ) बारबार फ़ेंकना शुरु किया ।
पर सन्तों के सामने माया की दाल भी नहीं गलती । तब इसके तीनों पुत्र भी सक्रिय हो गये । और तीन गुणों - सत रज तम के द्वारा जीव को पाप पुण्य अच्छा बुरा स्वर्ग नरक आदि भय दिखाने लगे । लेकिन अपनी असली पहचान के
प्रति प्रयत्नशील करोंङों जन्मों से भटकता जीव जब फ़िर भी इनके झाँसे में नहीं आया । तब इनके चमचे अन्य ( चिल्लर ) देवी देवता भी सक्रिय ( उस समय विशेष ) हो उठे । और विभिन्न दैवीय परेशानियों द्वारा उस भक्त को विचलित करने लगे ।
अब सार समझिये । जब भी आप सच्चे आत्मज्ञान की तरफ़ उन्मुख हुये । ये 5 और इनकी विशाल सेना आप पर कङी चौकसी करने लगी । और आप अंतर्द्वन्द के झूले में झूलते हुये कभी इनको तो कभी सन्त को सच मानने लगे ।
लेकिन कालपुरुष अच्छी तरह जानता था । इतनी व्यवस्था भी काफ़ी नहीं । इतने इन्तजाम के बाद भी बच्चा अपने असली मम्मी पापा को याद करेगा ही । तब उसने नकली आत्मज्ञान का प्रपंच फ़ैलाकर उन पर विशेष कालदूतों को नियुक्त कर दिया । आज इतना ही ।
अगर बात में कोई दम नहीं था । एकदम फ़ुल्ली फ़ालतू थी । तो फ़िर चौंके क्यों ? कोई आपको अन्दर से बिना ठोस हकीकत कैसे चौंका सकता है ? और फ़िर संशय क्यों करने लगे । आईये इसी रहस्य पर बात करते हैं ।
मान लीजिये । एक बच्चा ( जीवात्मा । सोहं ) कुम्भ के मेले में ( संसार । त्रिलोक ) फ़ँसकर छुटपन ( जन्म जन्म से ) से ही परिवार ( सतलोक । हँस जीव का असली घर ) से बिछुङ ( माया । वासना ) गया । बस उस बच्चे के गले में एक लाकेट ( स्वांस में गूँजता उसका नाम । उसके घर का पता । और नक्शा ) उसकी असली पहचान और
निशानी के तौर पर रह गया । जाहिर है । इस लाक्ड लाकेट ( आज्ञाचक्र । बृह्माण्डी द्वार ) की चाबी और नक्शे का रहस्य वहीं ( सतलोक ) का कोई ( गुरु । सतगुरु । सन्त ) ज्ञानी ( रहस्य जानने वाला ) बता सकता है । तो ये भूल जाना माया ( आत्मा पर चङे इच्छा आवरण ) की स्थिति है ।
अब ऐसा नहीं कि इस देश ( मृत्युलोक । त्रिलोक ) के राष्ट्रपति ( काल पुरुष ) को यह सत्य ( कि जो ये जीव बना दीन हीन ( वासना से क्षीण हुआ ) सा भटक ( 84 में ) रहा है । ये बहुत शक्तिशाली और धनी है ) मालूम नहीं । अच्छी तरह मालूम है । पर वह जानता है कि एक एक आत्मा ( क्योंकि चेतन गुण और अमरत्व सिर्फ़ इसी के पास है ) कितनी मूल्यवान है । इसलिये उसने इस जीव को सदा फ़ँसाये रखने के इतने वासनात्मक और
आकर्षक इन्तजाम किये हैं कि उन सबको बता पाना बहुत कठिन है । बस पूरा खेल सिर्फ़ यही है ।
अब आईये । फ़िर से पहली वाली बात करते हैं । आप चौंके इसलिये कि आपके अन्दर कहीं गहराई में एक क्षीण सी चमक अब भी है कि - आप दरअसल ये हैं ही नहीं । और इसलिये आप घनचक्कर से बने रहते हैं कि ये सब चक्कर क्या हैं ? who am i ? आखिर मैं वास्तव में कौन हूँ ?
और दूसरा कारण भी है । जन्म जन्म हो गये आपको सुख शान्ति तलाशते । पर कभी नहीं मिली । गौर करिये । सुख शान्ति आनन्द । यानी ये आपके अन्दर कहीं छिपी हैं । यही खो गयी है । इसी की आपको सदा तलाश रही है । अन्दर कहीं आपको अहसास है । आप आनन्द स्वरूप है । नित नूतन हैं । अमर अजर हैं । और आनन्द का विपक्ष या विलोम शब्द है ही नहीं । इसलिये जब सन्त ने कहा - तुम न मन हो । न शरीर हो । बल्कि आत्मा हो । तो आप यकायक बुरी तरह चौंक गये । ऐसा लगा कि जन्म जन्मान्तर के बाद आपके देश का कोई आपको मिल
गया । और गौर करें । इसमें कोई संशय भाव नहीं था । आत्मा में संशय नाम की चीज तक नहीं है । संशय दरअसल संसार का पर्यायवाची है । ये थी पहली बात । जो मेरे ख्याल से स्पष्ट हुयी । अब आईये दूसरी बात करते हैं ।
फ़िर अचानक ही आप संशय करने लगे । उस आपके ही परम हितैषी निस्वार्थी परमार्थी सन्त पर बिना वजह शंका करने लगे । तरह तरह के प्रश्न पूछने लगे । तर्क कुतर्क करने लगे । बहस करने लगे । ऐसा क्यों हुआ । आपको बताता हूँ । क्योंकि दरअसल ये विरोधी क्रियायें आप कर ही नहीं रहे । इसको करने वाला कोई और ही है ? कौन है वो ? बोलो बोलो कौन है वो ?
दरअसल आप चौंके थे । वो आपका विवेक था । जो क्षणिक जागृत हुआ था । और जो जीव की ज्ञानरहित वासनात्मक स्थिति में सोया रहता है । लेकिन जैसे ही कोई सन्त आपके सम्मुख आया । और आपका ध्यान शाश्वतता की ओर गया । कालपुरुष और उसकी मनमोहिनी पत्नी माया सतर्क हो गये । जहाँ तक हो सके । इस जीव को भृमित रखो । और काल फ़ाँस से निकलने न दो । लेकिन इन दोनों ने ये किया कैसे ? यही बताता हूँ ।
कालपुरुष । यमराय । राम ( दशरथ पुत्र ) । श्रीकृष्ण । खुदा । पहला पुरुष ( लगभग ) । मन । ये सब एक ही
हस्ती के नाम रूप हैं । योगमाया । महामाया । माया । महादेवी । आदि शक्ति । आध्याशक्ति । इच्छाशक्ति । अष्टांगी । पहली औरत ( पूर्णतया ) । सीता । राधा । ये भी सब एक ही हस्ती के नाम हैं ।
अब इनके तीन पुत्र कृमशः - बृह्मा ( रजोगुण ) विष्णु ( सतोगुण ) शंकर ( तमोगुण ) इनके भी छोटे बङे अलग अलग सबके हजार हजार नाम रूप हैं । ये मियाँ बीबी और इनके दो या तीन बच्चे । होते हैं घर में अच्छे । ही इस त्रिलोकी सृष्टि के सर्वेसर्वा हैं ।
अब मजे की बात ये है कि ये 5 मायावी प्रचार करते हैं कि त्रिलोकी में भी भक्तियोग सिद्धांत है । जबकि थोङा सा भी ध्यान से देखा जाये । तो त्रिलोकी के संविधान में कहीं भक्तियोग है ही नहीं । सिर्फ़ कर्मयोग ही है । प्रमाण और उदाहरण - त्रिलोकी में 4 प्रकार की
मुक्ति का प्रावधान है । ध्यान दें - मुक्ति । मुक्त नहीं । और यही ( यदि भक्ति कहें तो ) सबसे बङा फ़ल है । इससे बङा फ़ल द्वैत में है ही नहीं । क्या ? आप विष्णु । शंकर । बृह्मा । के समकक्ष और उतने ही बङे लोक और अधिकारों के मालिक बन सकते हैं । साफ़ शब्दों में कहा जाये । तो त्रिलोकी की भक्ति ? द्वारा कोई भी जीव सेम - विष्णु । शंकर । बृह्मा । का पद और वैसा ही लोक प्राप्त कर सकता है । ध्यान रहे । द्वैत भक्ति में कोई भी पुरुष भक्त - कालपुरुष । राम । श्रीकृष्ण । कभी भी किसी भी हालत में नहीं बन सकता । और न ही कोई स्त्री - अष्टांगी या उसके अन्य पद रूप अधिकार प्राप्त कर पायेगी ।
अब और भी मजे की बात देखिये । इसको ये 5 जन्म मरण से मुक्ति और मोक्ष बताते हैं । जबकि खुद का ठिकाना
नहीं है । अपने बच्चों के भी सगे नहीं हैं । ध्यान दें - विष्णु । शंकर । बृह्मा । तीनों बच्चों ने ही अपनी माँ ( माया जिसने प्रचारित कर रखा है । वही सब कुछ है ) से अमर होने का ( उसी वर्तमान शरीर और स्थिति का ) वरदान माँगा । उसने स्पष्ट मना कर दिया । ये हरगिज नहीं मिल सकता । कैसे दे सकती है ? खुद कालपुरुष और अष्टांगी भी अमर नहीं हैं । अमर होना छोङिये । निश्चित आयु से ज्यादा आयु भी नहीं ।
और भी ध्यान दें । विष्णु । शंकर । बृह्मा आदि की पूजा करने वाले रावण आदि बहुत से अन्य असुरों तथा समय समय पर तमाम अन्य तपस्वियों ने इनसे अमरता का वरदान माँगा । जिसके लिये साफ़ मना कर दिया गया । अब बताईये । प्रमाणित हो गया । द्वैत में भक्ति योग नहीं है । तपस्या रूपी जितना कर्म किया । उतना फ़ल मिला । जब उनको ही 84 में फ़ेंक दिया जाता है । तो फ़िर आप पर रियायत क्यों कर होगी ? फ़िर ये मुक्ति कहाँ हुयी ?
अब अद्वैत का सबसे छोटा नियम देखिये । इसमें - नर्क । 84 । और प्रेतयोनि का कोई कालम ही नहीं है । इसमें मेहनत करने से आप राम । श्रीकृष्ण । कालपुरुष । अष्टांगी जैसी उपाधियाँ तो प्राप्त कर ही सकते हैं । अच्छी मेहनत करने पर इससे कहीं उच्चतम स्थितियों को प्राप्त कर सकते हैं । और फ़िर परम लक्ष्य अमरता को भी प्राप्त कर सकते हैं ।
तो जैसे ही आप सत्य ( आत्मा ) की तरफ़ आकर्षित हुये । काल चौंक गया । डर गया । काल ( मन ) विशेष रूप
से ( उस समय ) प्रभावी हो गया । उसने जीव को आवेशित कर दिया । ध्यान रहे । उसे मालूम है कि वो इस अजर अमर अविनाशी जीव को न मार सकता है । न जला सकता है । न काट सकता है । उसके मूल का किसी प्रकार से अहित नहीं कर सकता है । बस डरा सकता है । धमका सकता है । भृमित कर सकता है । सो उसने वही किया । पर आत्मा की चमक का प्रभाव भी मामूली नहीं होता । जीव फ़िर भी सन्त की तरफ़ आकर्षित हुआ । तब इसकी पत्नी माया भी सक्रिय हो गयी । और उसने धन वैभव वासना कामवासना का जाल उस पर ( वैसे तो ये जाल है ही । पर इस समय विशेष रूप से ) बारबार फ़ेंकना शुरु किया ।
पर सन्तों के सामने माया की दाल भी नहीं गलती । तब इसके तीनों पुत्र भी सक्रिय हो गये । और तीन गुणों - सत रज तम के द्वारा जीव को पाप पुण्य अच्छा बुरा स्वर्ग नरक आदि भय दिखाने लगे । लेकिन अपनी असली पहचान के
प्रति प्रयत्नशील करोंङों जन्मों से भटकता जीव जब फ़िर भी इनके झाँसे में नहीं आया । तब इनके चमचे अन्य ( चिल्लर ) देवी देवता भी सक्रिय ( उस समय विशेष ) हो उठे । और विभिन्न दैवीय परेशानियों द्वारा उस भक्त को विचलित करने लगे ।
अब सार समझिये । जब भी आप सच्चे आत्मज्ञान की तरफ़ उन्मुख हुये । ये 5 और इनकी विशाल सेना आप पर कङी चौकसी करने लगी । और आप अंतर्द्वन्द के झूले में झूलते हुये कभी इनको तो कभी सन्त को सच मानने लगे ।
लेकिन कालपुरुष अच्छी तरह जानता था । इतनी व्यवस्था भी काफ़ी नहीं । इतने इन्तजाम के बाद भी बच्चा अपने असली मम्मी पापा को याद करेगा ही । तब उसने नकली आत्मज्ञान का प्रपंच फ़ैलाकर उन पर विशेष कालदूतों को नियुक्त कर दिया । आज इतना ही ।
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