आदरणीय राजीव जी ! सादर सप्रेम नमस्कार । मेरे प्रश्नों के जवाब में आपने बहुत ही सारगर्भित जानकारियाँ दी । और मेरे ज्ञान में अभिवृद्धि की । इसके लिए अनेकानेक धन्यवाद प्रेषित करता हूँ । शुकदेव जी के प्रसंग में आपने बताया कि गर्भ से ही वे पूर्ण रूप से ज्ञान को प्राप्त किये हुए थे । लेकिन गुरु नहीं बनाने के कारण उन्हें स्वर्ग द्वार से लौटा दिया गया । यह तो वही बात हुई कि किसी का प्रमाण पत्र लेकर आओ कि u r well educated .बिना प्रमाण पत्र के तुम्हारे ज्ञान से हमें कुछ मतलब नहीं । एक बात और । ज्ञान तो मेरे विचार से स्वयं ही पूर्णता दे देता है । फिर उसे किसी स्वर्ग या अन्य किसी उच्चतर लोक में जाने का क्या प्रयोजन है ? अपने अज्ञानवश अगर मैंने उपर्युक्त बातें कही हों । तो बच्चा समझ कर माफ़ करेंगे । और अज्ञान से बाहर निकलने का रास्ता बताएँगे । इसी आशा के साथ । आपका ही - कृष्ण मुरारी ।
क्या गुरु बनाना किसी विश्वविधालय की डिग्री पाने जैसा है । शीर्षक ( ई मेल सबजेक्ट ) के साथ ।
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गर्भ योगेश्वर गुरु बिना लागा हरि की सेव । कह कबीर बैकुण्ठ से फ़ेर दिया शुकदेव ।
जीव ( मनुष्य ) अल्पज्ञ है । वह बहुत सीमित ही सोच सकता है । जबकि प्रभु की लीला अनन्त और विलक्षण है । श्रीकृष्ण के गोलोक में तैनात जय विजय नाम के दो द्वारपाल थे । एक बार श्रीकृष्ण ने उन्हें सख्त हिदायत दी
कि एक निश्चित समय तक कोई भी अन्दर न आये । दो सन्त उसी समय पहुँच गये । और श्रीकृष्ण से मिलने का बारबार आगृह करने लगे । पर जय विजय ने उन्हें अन्दर नहीं जाने दिया । उनके सख्त आसुरी व्यवहार से खिन्न होकर सन्तों ने उन्हें असुर हो जाने का शाप दिया । पर श्रीकृष्ण जैसे महात्मा की सेवा में होने के कारण इस शाप से उन्हें कोई भय नहीं हुआ । उन्हें अच्छी तरह पता था । श्रीकृष्ण इस शाप को बेअसर या क्षीण कर देंगें । लेकिन वो तब आश्चर्यचकित रह गये । जब श्रीकृष्ण ने पूरी पूरी बेरुखी दिखाई । और उनके पक्ष में किसी सहानुभूति अथवा सहयोग भावना का प्रदर्शन नहीं किया । जबकि वो पूरी वफ़ादारी से उन्हीं की आज्ञापालन कर रहे थे । तब उनके मन में श्रीकृष्ण के लिये घृणा द्वेष प्रतिशोध वैर आदि बहुत सी बदले की भावनाओं का उदय हुआ । और इसके जटिल संस्कारी बीज पङ गये । दोनों को गोलोक
से ( शाप के कारण ) गिरा दिया गया । तब वे प्रथम जन्म हिरणाकश्यप और हिरण्याक्ष असुर बने । दूसरे जन्म रावण और कुम्भकरण बने । अगले जन्म कंस और शिशुपाल बने । भगवत सत्ता के प्रति इनके घोर विरोध की कहानी सभी को मालूम ही होगी । सोचिये । एक मामूली सी घटना ने क्या गुल खिलाया । कितने बङे इतिहास को जन्म दिया । मैंने इस घटना के तार गोलोक से जोङे अवश्य है । पर इसके बीज और भी पहले से चले आ रहे होंगे । जो समय आने पर अंकुरित हो गये । ये है असली कहानी । लेकिन सोचिये । इस कहानी से कितनी अन्य ढेरों कहानियों ने जन्म लिया । कैकयी ने ये किया । मन्थरा की गलती थी । श्रवण के माता पिता का शाप था । उधर रावण और सीता ( वेदवती कन्या रूप में शाप ) का लफ़ङा अलग । शूर्पनखा ।
कौशल्या दशरथ के पूर्वजन्म में भगवान को पुत्र रूप में प्राप्त करने हेतु कङा तप । 10000 कारण तो मैं सिर्फ़ याददाश्त से ही बता सकता हूँ । अब गौर से सोचिये । इन सबका कोई 1 ही ठोस कारण आप बता सकते हैं ? कभी नहीं । ऐसे ही श्रीकृष्ण बनाम कंस लफ़ङा । और ऐसे ही हिरणाकश्यप का लफ़ङा । गौर करें । मोटे मोटे कई ग्रन्थ लिख जायें । जबकि मूल घटना वही । ये था आपकी बात का रहस्यात्मक चिंतनीय स्तर पर उत्तर । अब मुद्दे पर बात करते हैं ।
लेकिन बात शुरू करने से पहले आपको शुकदेव की जन्मकुण्डली के बारे में बतायें । महाराज शान्तनु और धीवर कन्या सत्यवती के पुत्र व्यास के पुत्र शुकदेव कैसे गर्भज्ञानी थे ? संस्कृत में शुक तोते से कहते हैं । देवत्व को प्राप्त हुआ तोता ।
एक बार पार्वती के गुरु नारद ने उनसे कहा - पार्वती शंकर तुम्हें अपनी सभी बातें नहीं बताते । कुछ बचाकर भी
रखते हैं । पार्वती हैरान रह गयीं । और बोली - नहीं नहीं मुझे सब बताते हैं । तब नारद बोले - उन्होंने तुम्हें कभी बताया कि शंकर के गले में पङी नरमुण्ड माला क्या है ? किसकी है । पार्वती फ़िर भौंचक्का रह गयीं । वाकई उन्हें यह बात मालूम नहीं थी । शंकर ने उनके पूछने पर उत्तर दिया - पार्वती ये तुम्हारे ही मुण्डों की माला है । तुम्हारे इतने जन्म हो चुके हैं । इतनी बार तुम मेरी पत्नी बनकर मृत्यु को प्राप्त हुयी हो । पार्वती और भी हैरान हुयी । बोली - मैं बार बार मर जाती हूँ । फ़िर आप क्यों नहीं मरते ? शंकर बोले - मैं अमरकथा जानता हूँ । और जो अमरकथा जानता है । उसकी मृत्यु नहीं होती । तब पार्वती को बेहद उत्सुकता हुयी कि - आखिर ये अमरकथा क्या है ? जिस समय की यह बात है । उस समय शंकर अमरनाथ
नामक स्थान पर थे । उस स्थान को उन्होंने पूर्णत जीव जन्तु रहित कर दिया था । सिर्फ़ एक तोते का विकसित अण्डा शंकर की गुफ़ा में बचा रह गया था । रात का समय था । शंकर पार्वती को अमरकथा सुनाने लगे । और इसी समय अण्डे का कवच तोङकर वह तोता बाहर आ गया था । दैवयोग से अमरकथा सुनते समय कुछ ही देर में पार्वती को नींद आ गयी । और उनकी जगह वह तोता शिशु हूँ हूँ करता हुआ हुंकार देता हुआ कथा सुनता रहा । रात से सुबह हो गयी । अमरकथा सुनाने के रस में डूबे हुये शंकर ने देखा । पार्वती तो सो रही हैं । फ़िर ये हूँ हूँ कौन कर रहा है ? तब उनका ध्यान तोते पर गया । शंकर चौंके । ये तो नियम विरुद्ध तोता अमर हुआ जा रहा था । वे त्रिशूल लेकर उसके पीछे दौङे । त्रिशूल से बचकर भागता हुआ तोता ( आत्मज्ञान
हो जाने के कारण सूक्ष्म शरीर में ) व्यास पत्नी के गर्भ में प्रविष्ट होकर छिप गया । और 12 वर्ष छिपा रहा । 12 वर्ष तक शंकर ने पहरा लगा दिया । और वहीं द्वार पर डटे रहे । फ़िर हारकर लौट गये । तब शुकदेव गर्भ से बाहर आये । और ज्ञान हो जाने के कारण 12 वर्ष के सुन्दर योग शरीर बालक में परिवर्तित हो गये । क्योंकि ज्ञान हो चुका था । ये उसी समय विरक्त भाव तपस्या करने चल दिये । पुत्र मोह में व्यास भी इनके पीछे पीछे चले । और बारबार रुकने का आगृह करने लगे । मार्ग में सरोवर में स्त्रियाँ नहा रही थी । शुकदेव को देखकर ज्यों की त्यों नग्न नहाती रहीं । मगर व्यास को देखकर वस्त्र पहन लिये । व्यास ने आश्चर्य से पूछा - मैं वृद्ध हूँ । और मेरा पुत्र युवा । फ़िर तुमने मेरी शर्म ही क्यों की ? स्त्रियों ने कहा - शुकदेव को स्त्री पुरुष अंतर का बोध ही नहीं है । ये था । शुकदेव के गर्भज्ञानी होने का रहस्य ।
एक बार पार्वती ने पूछा - महादेव मुक्ति किस किसकी हो सकती है ।
शंकर ने उत्तर दिया - पितर । यक्ष । गन्धर्व । देवता । असुर । मनुष्य इनकी मुक्ति नहीं हो सकती । केवल ध्यान परायण योगी की ही हो सकती है । जो 9 ध्वनियों और उससे भी परे 10 वीं तुरंगी ध्वनि को सुनता है । उसी की मुक्ति होती है । महादेव निर्वाणी । गिरजा सुन अमरकहानी ।
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अब आपकी शंकाओं पर बात करते हैं ।
गुरु नहीं बनाने के कारण उन्हें स्वर्ग द्वार से लौटा दिया गया - वैसे मुझे लगता है । ऊपर बहुत कुछ स्पष्ट हो गया । लेकिन फ़िर भी लगभग 2 युग जीवित रहे शुकदेव जी के जीवन रहस्य को समझना इतना सरल भी नहीं है । मैंने पहले ही बताया है । द्वैत का योग विशेष रूप से अतिरिक्त अहंकार का सृजन करता है । द्वैत में कहीं नहीं आता - ये तो घर है प्रेम का । खाला का घर नाहिं । शीश ( अहम ) उतार भूमि धरो । तब पैठो घर मांहि । जब मैं ( अहम ) था । तब हरि नहीं । अब हरि हैं । मैं नाहिं ।
अब शुकदेव को अपने पूर्व पुण्य संस्कार आदि से गर्भ स्थिति से ही उच्चतम ज्ञान की उपलब्धि ( मगर प्रारम्भिक । और अभी प्रयोग रहित ) हुयी । तो उनमें अहंकार का समावेश होना स्वाभाविक था । उनके पिता व्यास भी अच्छे ज्ञानी थे । मगर शुकदेव उन्हें भी महत्व नहीं देते थे । व्यास भी ये बात समझते थे कि पिता पुत्र का सम्बन्ध होने के कारण शुकदेव उनकी बातों पर कान नहीं देगा । पात्र अच्छा था । पर अहंकार बहुत था । ये सिलसिला चलता रहा । पर जैसा कि अटल सत्य है । आत्मज्ञान के बिना शान्ति और आंतरिक सन्तुष्टि हो ही नहीं सकती । शुकदेव को भी यही बैचेनी थी । तव व्यास ने उन्हें आत्म ज्ञानी वैदेही महाराज जनक के पास जाने की सलाह दी । जो बाल्यावस्था के गुरु अष्टावक्र जी से उस समय तक पूर्ण ज्ञान को उपलब्ध हो चुके थे । शुकदेव केवल आज्ञापालन से विवश बेमन से जनक के पास गये । क्योंकि जनक से ज्यादा श्रेष्ठ ज्ञानी तो वह खुद को ही मानते थे । जनक ने कुछ दिनों उन्हें रखकर तरह तरह के प्रयोगों द्वारा उनका कचूमर निकाल दिया । अंततः शुकदेव का अहंकार चूर चूर हो गया । और वे जनक के पैरों पर गिर पङे । जनक और शुकदेव के बीच हुये प्रयोगों का विवरण बहुत विस्तार में है । अतः बताना संभव नहीं । कुछ कुछ ऐसा ही वाकया दशरथ पुत्र राम और उनके गुरु वशिष्ठ जी के बीच हुआ । और वशिष्ठ ने राम को बहु भांति समझाया । ये सभी रोचक प्रसंग आप वशिष्ठ योग ( गीता प्रेस गोरखपुर ) में पढ सकते हैं । आत्मज्ञान पर यह भी बहुत अच्छी पुस्तक है ।
u r well educated but ? - चलिये थोङी देर को गुरु को भी एक संस्था ही मान लेते हैं । मगर बात आपसे शुरू करते हैं । परिवार संस्था । आपके पुत्र से ही कोई अनजान व्यक्ति आपके विषय में पूछे । तो वह कुछ इस तरह उत्तर देगा - आज वह नीला शर्ट पहने हैं । गोल मुँह हैं । 5 फ़ीट लम्बाई है । शरीर अच्छा है । मेरा घर ? इस रास्ते से उस रास्ते । उस रास्ते से । फ़िर उस रास्ते आदि । विवरण बहुत बङा हो सकता है । फ़िर भी सही बात समझाना बहुत मुश्किल है । अब देखिये । सर्टिफ़िकेट - पिता का नाम कृष्ण मुरारी शर्मा । निवास - इस स्थान पर । कार्य - ये । मैं उनका पुत्र । मेरा नाम ये । बहुत कम शब्दों में सटीक एकदम ठिकाने की जानकारी । नो टेंशन । और भी देखिये । एक MBBS तक के स्तर का व्यक्ति । मगर विदाउट कालेज । कहीं एप्लाई करे । तो खुद को कैसे साबित करेगा । एप्लीकेशन में क्या विवरण देगा ? जबकि एक सर्टीफ़िकेट वाला सीधा सीधा संस्था और डिग्री का नाम लिख देगा । और बिना झंझट एक स्पष्ट तस्वीर चन्द शब्दों में ही बन जायेगी । सार ये कि मनमानी जंगलराज जंगल व्यवस्था से बचने के लिये ही नाम रूप पद अनुभव जैसी चीजों का नियम है । उसी आधार पर कोई नियुक्त संभव है ।
स्वर्ग या अन्य किसी उच्चतर लोक में जाने का क्या प्रयोजन - एक बात बताईये । आपने विवाह । संतान । घर बनाना । सर्विस । ये सब क्यों किया ? ये सब एक इंसान को - स्त्री । विना विवाह संतान । रहने को आवास । और भोजन वस्त्र । घर बसाने के वगैर भी प्राप्त हो जाते हैं । फ़िर इनकी क्या आवश्यकता ? आखिर जीव किसी न किसी स्थिति में तो रहेगा ही । या फ़िर आत्म ज्ञान से सभी स्थितियों का अन्त ही हो जाये । ज्ञान से जीवात्मा सुख को । और श्रेष्ठतम को उपलब्ध होता है । आत्म ज्ञान से रहित ये 84 नरक प्रेत योनि आदि में जाता है । अब ये 5 तत्व शरीर एक दिन तो छूटना ही है । तब जीवात्मा की स्थिति अनुसार गति होनी तय है । तब वह कहीं तो जायेगा ही ? फ़िर कौन पागल होगा । जो श्रेष्ठ को छोङकर साधारण को चुनेगा । ये सब परमात्मा ही तो विभिन्न रूपों में खेल रहा है । अगर उसे खेल बेकार लगे । तो पलक झपकते ही सृष्टि खत्म । अपनी मढी में आप मैं खेलूँ । खेलूँ खेल स्वेच्छा ।
अज्ञान से बाहर निकलने का रास्ता - अज्ञान कहते किसे हैं ? किसी बात के प्रति अंधकार में होना । यानी तमोगुणी माया से आच्छादित हो जाना । प्रकाश का अभाव होना । गु कहते हैं - अंधकार को । और रू कहते हैं प्रकाश को । जो अंधकार से प्रकाश में ले जा सके । वही गुरु है । गुरु ही अज्ञान दूर कर सकता है । और गुरु का कोई विकल्प नहीं हैं ।
क्या गुरु बनाना किसी विश्वविधालय की डिग्री पाने जैसा है । शीर्षक ( ई मेल सबजेक्ट ) के साथ ।
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गर्भ योगेश्वर गुरु बिना लागा हरि की सेव । कह कबीर बैकुण्ठ से फ़ेर दिया शुकदेव ।
जीव ( मनुष्य ) अल्पज्ञ है । वह बहुत सीमित ही सोच सकता है । जबकि प्रभु की लीला अनन्त और विलक्षण है । श्रीकृष्ण के गोलोक में तैनात जय विजय नाम के दो द्वारपाल थे । एक बार श्रीकृष्ण ने उन्हें सख्त हिदायत दी
कि एक निश्चित समय तक कोई भी अन्दर न आये । दो सन्त उसी समय पहुँच गये । और श्रीकृष्ण से मिलने का बारबार आगृह करने लगे । पर जय विजय ने उन्हें अन्दर नहीं जाने दिया । उनके सख्त आसुरी व्यवहार से खिन्न होकर सन्तों ने उन्हें असुर हो जाने का शाप दिया । पर श्रीकृष्ण जैसे महात्मा की सेवा में होने के कारण इस शाप से उन्हें कोई भय नहीं हुआ । उन्हें अच्छी तरह पता था । श्रीकृष्ण इस शाप को बेअसर या क्षीण कर देंगें । लेकिन वो तब आश्चर्यचकित रह गये । जब श्रीकृष्ण ने पूरी पूरी बेरुखी दिखाई । और उनके पक्ष में किसी सहानुभूति अथवा सहयोग भावना का प्रदर्शन नहीं किया । जबकि वो पूरी वफ़ादारी से उन्हीं की आज्ञापालन कर रहे थे । तब उनके मन में श्रीकृष्ण के लिये घृणा द्वेष प्रतिशोध वैर आदि बहुत सी बदले की भावनाओं का उदय हुआ । और इसके जटिल संस्कारी बीज पङ गये । दोनों को गोलोक
से ( शाप के कारण ) गिरा दिया गया । तब वे प्रथम जन्म हिरणाकश्यप और हिरण्याक्ष असुर बने । दूसरे जन्म रावण और कुम्भकरण बने । अगले जन्म कंस और शिशुपाल बने । भगवत सत्ता के प्रति इनके घोर विरोध की कहानी सभी को मालूम ही होगी । सोचिये । एक मामूली सी घटना ने क्या गुल खिलाया । कितने बङे इतिहास को जन्म दिया । मैंने इस घटना के तार गोलोक से जोङे अवश्य है । पर इसके बीज और भी पहले से चले आ रहे होंगे । जो समय आने पर अंकुरित हो गये । ये है असली कहानी । लेकिन सोचिये । इस कहानी से कितनी अन्य ढेरों कहानियों ने जन्म लिया । कैकयी ने ये किया । मन्थरा की गलती थी । श्रवण के माता पिता का शाप था । उधर रावण और सीता ( वेदवती कन्या रूप में शाप ) का लफ़ङा अलग । शूर्पनखा ।
कौशल्या दशरथ के पूर्वजन्म में भगवान को पुत्र रूप में प्राप्त करने हेतु कङा तप । 10000 कारण तो मैं सिर्फ़ याददाश्त से ही बता सकता हूँ । अब गौर से सोचिये । इन सबका कोई 1 ही ठोस कारण आप बता सकते हैं ? कभी नहीं । ऐसे ही श्रीकृष्ण बनाम कंस लफ़ङा । और ऐसे ही हिरणाकश्यप का लफ़ङा । गौर करें । मोटे मोटे कई ग्रन्थ लिख जायें । जबकि मूल घटना वही । ये था आपकी बात का रहस्यात्मक चिंतनीय स्तर पर उत्तर । अब मुद्दे पर बात करते हैं ।
लेकिन बात शुरू करने से पहले आपको शुकदेव की जन्मकुण्डली के बारे में बतायें । महाराज शान्तनु और धीवर कन्या सत्यवती के पुत्र व्यास के पुत्र शुकदेव कैसे गर्भज्ञानी थे ? संस्कृत में शुक तोते से कहते हैं । देवत्व को प्राप्त हुआ तोता ।
एक बार पार्वती के गुरु नारद ने उनसे कहा - पार्वती शंकर तुम्हें अपनी सभी बातें नहीं बताते । कुछ बचाकर भी
रखते हैं । पार्वती हैरान रह गयीं । और बोली - नहीं नहीं मुझे सब बताते हैं । तब नारद बोले - उन्होंने तुम्हें कभी बताया कि शंकर के गले में पङी नरमुण्ड माला क्या है ? किसकी है । पार्वती फ़िर भौंचक्का रह गयीं । वाकई उन्हें यह बात मालूम नहीं थी । शंकर ने उनके पूछने पर उत्तर दिया - पार्वती ये तुम्हारे ही मुण्डों की माला है । तुम्हारे इतने जन्म हो चुके हैं । इतनी बार तुम मेरी पत्नी बनकर मृत्यु को प्राप्त हुयी हो । पार्वती और भी हैरान हुयी । बोली - मैं बार बार मर जाती हूँ । फ़िर आप क्यों नहीं मरते ? शंकर बोले - मैं अमरकथा जानता हूँ । और जो अमरकथा जानता है । उसकी मृत्यु नहीं होती । तब पार्वती को बेहद उत्सुकता हुयी कि - आखिर ये अमरकथा क्या है ? जिस समय की यह बात है । उस समय शंकर अमरनाथ
नामक स्थान पर थे । उस स्थान को उन्होंने पूर्णत जीव जन्तु रहित कर दिया था । सिर्फ़ एक तोते का विकसित अण्डा शंकर की गुफ़ा में बचा रह गया था । रात का समय था । शंकर पार्वती को अमरकथा सुनाने लगे । और इसी समय अण्डे का कवच तोङकर वह तोता बाहर आ गया था । दैवयोग से अमरकथा सुनते समय कुछ ही देर में पार्वती को नींद आ गयी । और उनकी जगह वह तोता शिशु हूँ हूँ करता हुआ हुंकार देता हुआ कथा सुनता रहा । रात से सुबह हो गयी । अमरकथा सुनाने के रस में डूबे हुये शंकर ने देखा । पार्वती तो सो रही हैं । फ़िर ये हूँ हूँ कौन कर रहा है ? तब उनका ध्यान तोते पर गया । शंकर चौंके । ये तो नियम विरुद्ध तोता अमर हुआ जा रहा था । वे त्रिशूल लेकर उसके पीछे दौङे । त्रिशूल से बचकर भागता हुआ तोता ( आत्मज्ञान
हो जाने के कारण सूक्ष्म शरीर में ) व्यास पत्नी के गर्भ में प्रविष्ट होकर छिप गया । और 12 वर्ष छिपा रहा । 12 वर्ष तक शंकर ने पहरा लगा दिया । और वहीं द्वार पर डटे रहे । फ़िर हारकर लौट गये । तब शुकदेव गर्भ से बाहर आये । और ज्ञान हो जाने के कारण 12 वर्ष के सुन्दर योग शरीर बालक में परिवर्तित हो गये । क्योंकि ज्ञान हो चुका था । ये उसी समय विरक्त भाव तपस्या करने चल दिये । पुत्र मोह में व्यास भी इनके पीछे पीछे चले । और बारबार रुकने का आगृह करने लगे । मार्ग में सरोवर में स्त्रियाँ नहा रही थी । शुकदेव को देखकर ज्यों की त्यों नग्न नहाती रहीं । मगर व्यास को देखकर वस्त्र पहन लिये । व्यास ने आश्चर्य से पूछा - मैं वृद्ध हूँ । और मेरा पुत्र युवा । फ़िर तुमने मेरी शर्म ही क्यों की ? स्त्रियों ने कहा - शुकदेव को स्त्री पुरुष अंतर का बोध ही नहीं है । ये था । शुकदेव के गर्भज्ञानी होने का रहस्य ।
एक बार पार्वती ने पूछा - महादेव मुक्ति किस किसकी हो सकती है ।
शंकर ने उत्तर दिया - पितर । यक्ष । गन्धर्व । देवता । असुर । मनुष्य इनकी मुक्ति नहीं हो सकती । केवल ध्यान परायण योगी की ही हो सकती है । जो 9 ध्वनियों और उससे भी परे 10 वीं तुरंगी ध्वनि को सुनता है । उसी की मुक्ति होती है । महादेव निर्वाणी । गिरजा सुन अमरकहानी ।
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अब आपकी शंकाओं पर बात करते हैं ।
गुरु नहीं बनाने के कारण उन्हें स्वर्ग द्वार से लौटा दिया गया - वैसे मुझे लगता है । ऊपर बहुत कुछ स्पष्ट हो गया । लेकिन फ़िर भी लगभग 2 युग जीवित रहे शुकदेव जी के जीवन रहस्य को समझना इतना सरल भी नहीं है । मैंने पहले ही बताया है । द्वैत का योग विशेष रूप से अतिरिक्त अहंकार का सृजन करता है । द्वैत में कहीं नहीं आता - ये तो घर है प्रेम का । खाला का घर नाहिं । शीश ( अहम ) उतार भूमि धरो । तब पैठो घर मांहि । जब मैं ( अहम ) था । तब हरि नहीं । अब हरि हैं । मैं नाहिं ।
अब शुकदेव को अपने पूर्व पुण्य संस्कार आदि से गर्भ स्थिति से ही उच्चतम ज्ञान की उपलब्धि ( मगर प्रारम्भिक । और अभी प्रयोग रहित ) हुयी । तो उनमें अहंकार का समावेश होना स्वाभाविक था । उनके पिता व्यास भी अच्छे ज्ञानी थे । मगर शुकदेव उन्हें भी महत्व नहीं देते थे । व्यास भी ये बात समझते थे कि पिता पुत्र का सम्बन्ध होने के कारण शुकदेव उनकी बातों पर कान नहीं देगा । पात्र अच्छा था । पर अहंकार बहुत था । ये सिलसिला चलता रहा । पर जैसा कि अटल सत्य है । आत्मज्ञान के बिना शान्ति और आंतरिक सन्तुष्टि हो ही नहीं सकती । शुकदेव को भी यही बैचेनी थी । तव व्यास ने उन्हें आत्म ज्ञानी वैदेही महाराज जनक के पास जाने की सलाह दी । जो बाल्यावस्था के गुरु अष्टावक्र जी से उस समय तक पूर्ण ज्ञान को उपलब्ध हो चुके थे । शुकदेव केवल आज्ञापालन से विवश बेमन से जनक के पास गये । क्योंकि जनक से ज्यादा श्रेष्ठ ज्ञानी तो वह खुद को ही मानते थे । जनक ने कुछ दिनों उन्हें रखकर तरह तरह के प्रयोगों द्वारा उनका कचूमर निकाल दिया । अंततः शुकदेव का अहंकार चूर चूर हो गया । और वे जनक के पैरों पर गिर पङे । जनक और शुकदेव के बीच हुये प्रयोगों का विवरण बहुत विस्तार में है । अतः बताना संभव नहीं । कुछ कुछ ऐसा ही वाकया दशरथ पुत्र राम और उनके गुरु वशिष्ठ जी के बीच हुआ । और वशिष्ठ ने राम को बहु भांति समझाया । ये सभी रोचक प्रसंग आप वशिष्ठ योग ( गीता प्रेस गोरखपुर ) में पढ सकते हैं । आत्मज्ञान पर यह भी बहुत अच्छी पुस्तक है ।
u r well educated but ? - चलिये थोङी देर को गुरु को भी एक संस्था ही मान लेते हैं । मगर बात आपसे शुरू करते हैं । परिवार संस्था । आपके पुत्र से ही कोई अनजान व्यक्ति आपके विषय में पूछे । तो वह कुछ इस तरह उत्तर देगा - आज वह नीला शर्ट पहने हैं । गोल मुँह हैं । 5 फ़ीट लम्बाई है । शरीर अच्छा है । मेरा घर ? इस रास्ते से उस रास्ते । उस रास्ते से । फ़िर उस रास्ते आदि । विवरण बहुत बङा हो सकता है । फ़िर भी सही बात समझाना बहुत मुश्किल है । अब देखिये । सर्टिफ़िकेट - पिता का नाम कृष्ण मुरारी शर्मा । निवास - इस स्थान पर । कार्य - ये । मैं उनका पुत्र । मेरा नाम ये । बहुत कम शब्दों में सटीक एकदम ठिकाने की जानकारी । नो टेंशन । और भी देखिये । एक MBBS तक के स्तर का व्यक्ति । मगर विदाउट कालेज । कहीं एप्लाई करे । तो खुद को कैसे साबित करेगा । एप्लीकेशन में क्या विवरण देगा ? जबकि एक सर्टीफ़िकेट वाला सीधा सीधा संस्था और डिग्री का नाम लिख देगा । और बिना झंझट एक स्पष्ट तस्वीर चन्द शब्दों में ही बन जायेगी । सार ये कि मनमानी जंगलराज जंगल व्यवस्था से बचने के लिये ही नाम रूप पद अनुभव जैसी चीजों का नियम है । उसी आधार पर कोई नियुक्त संभव है ।
स्वर्ग या अन्य किसी उच्चतर लोक में जाने का क्या प्रयोजन - एक बात बताईये । आपने विवाह । संतान । घर बनाना । सर्विस । ये सब क्यों किया ? ये सब एक इंसान को - स्त्री । विना विवाह संतान । रहने को आवास । और भोजन वस्त्र । घर बसाने के वगैर भी प्राप्त हो जाते हैं । फ़िर इनकी क्या आवश्यकता ? आखिर जीव किसी न किसी स्थिति में तो रहेगा ही । या फ़िर आत्म ज्ञान से सभी स्थितियों का अन्त ही हो जाये । ज्ञान से जीवात्मा सुख को । और श्रेष्ठतम को उपलब्ध होता है । आत्म ज्ञान से रहित ये 84 नरक प्रेत योनि आदि में जाता है । अब ये 5 तत्व शरीर एक दिन तो छूटना ही है । तब जीवात्मा की स्थिति अनुसार गति होनी तय है । तब वह कहीं तो जायेगा ही ? फ़िर कौन पागल होगा । जो श्रेष्ठ को छोङकर साधारण को चुनेगा । ये सब परमात्मा ही तो विभिन्न रूपों में खेल रहा है । अगर उसे खेल बेकार लगे । तो पलक झपकते ही सृष्टि खत्म । अपनी मढी में आप मैं खेलूँ । खेलूँ खेल स्वेच्छा ।
अज्ञान से बाहर निकलने का रास्ता - अज्ञान कहते किसे हैं ? किसी बात के प्रति अंधकार में होना । यानी तमोगुणी माया से आच्छादित हो जाना । प्रकाश का अभाव होना । गु कहते हैं - अंधकार को । और रू कहते हैं प्रकाश को । जो अंधकार से प्रकाश में ले जा सके । वही गुरु है । गुरु ही अज्ञान दूर कर सकता है । और गुरु का कोई विकल्प नहीं हैं ।
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