मेरा नाम गुलशन है । मैं रायबरेली का रहने वाला हूँ आपका ब्लॉग मेरे मन में चल रहे सवालों के जवाब आसानी से दे देते है । इससे मेरे मन का भृम समाप्त हो जाता है । प्रसून जी का व्यक्तित्व सम्मान के योग्य है । कहानियाँ और लेख अच्छे मार्ग दर्शक है । साहिब बंदगी ।
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जय गुरुदेव । 29 प्रश्न - श्री स्वामी जी महाराज ! मन को कैसे स्थिर किया जाय ?
उत्तर - मन को स्थिर करने के लिये मन को प्रतिदिन श्री स्वामी जी महाराज के नाम के भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । आरती । दर्शन । ध्यान में नियमित नियमानुसार लगाना चाहिये । प्रतिदिन ध्यान करना चाहिये । ध्यान करने का सुन्दर समय है । सुबह का बृह्म मूहूर्त । बृह्म मूहूर्त में उठकर निश्चित रूप से ध्यान । सुमिरन करना चाहिये । ऐसे नियम के साथ थोडा शास्त्र पाठ । यानी अपने श्री सदगुरू देव जी महाराज की लिखी पुस्तकों का अध्ययन करने से मन सहज ही एकाग्र हो जाता है । ध्यान के बाद कम से कम आधा घण्टा गुरू भाव में चुपचाप बैठना जरूरी है । ध्यान के तुरन्त बाद मन को किसी सांसारिक कार्य में नहीं लगाना चाहिये । उसमें बहुत हानि होती है ।
जय गुरुदेव !
1 मैं तो ध्यान के बाद तुरंत उठ जाता हूँ । क्योंकि सुबह इतना टाइम नहीं होता है । तो क्या इससे हानि होगी ?
2 मेरे पास श्री स्वामी जी महाराज की आरती नहीं है । कृपया आप मुझे मेल कर दे ।
3 मैं अभी नया साधक हूँ । मुझे ये बताये कि दिन में काम करते हुए भजन कैसे करें ।
4 श्री स्वामी जी महाराज कहते है कि - अपने परिवार की अच्छी व्यवस्था करें । उनके अच्छे खाने पीने व अच्छी पढाई की व्यवस्था करें । तो क्या इन सबको ईश्वर से चाहना । या कामना करना गलत है । यदि वो अभी इतना करने के योग्य नहीं है । क्योंकि परिवार की जिम्मेदारी भी तो निभानी है ।
5 कृपया मुझे ये भी बताये कि मेरा ध्यान सही राह पर चल रहा है । या नहीं ? मैं ध्यान के प्रारंभ में आँखों व कानों को अपनी उंगलियों व अंगूठे से बंद करता हूँ । तो मुझे सर की नसों की सनसनाहट की अलावा एक ध्वनि सुनाई देती है । वो क्या है ? आप तो ये आसानी से जान सकते है । भैया मेरे ज्यादातर प्रश्न व्यक्तिगत होते हैं । फिर भी समय निकाल कर जवाब देने की कृपा करें । मेरे और भी प्रश्न हैं । जो बाद में मेल करूँगा । गुरूजी की कृपा से मुझे अपने मन व वासना पर काफी नियंत्रण लगने लगा है । विष्णु ।
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ध्वनि के केंद्र में स्नान करो - ध्वनि के केंद्र में स्नान करो । मानो किसी जलप्रपात की अखंड ध्वनि में स्नान कर रहे हो । या कानों में अंगुली डालकर नादों के नाद, अनाहत को सुनो । इस विधि का प्रयोग कई ढंग से किया जा सकता है । 1 ढंग यह है कि कहीं भी बैठकर इसे शुरू कर दो । ध्वनियां तो सदा मौजूद हैं । चाहे बाजार हो । या हिमालय की गुफा । ध्वनियां सब जगह हैं । चुप होकर बैठ जाओ ।
और ध्वनियों के साथ 1 बड़ी विशेषता है । 1 बड़ी खूबी है । जहां भी, जब भी कोई ध्वनि होगी । तुम उसके केंद्र होगे । सभी ध्वनियां तुम्हारे पास आती हैं । चाहे वे कहीं से आएं । किसी दिशा से आएं । आंख के साथ । देखने के साथ यह बात नहीं है । दृष्टि रेखाबद्ध है । मैं तुम्हें देखता हूं । तो मुझसे तुम तक 1 रेखा खिंच जाती है । लेकिन ध्वनि वर्तुलाकार है । वह रेखाबद्ध नहीं है । सभी ध्वनियां वर्तुल में आती हैं । और तुम उनके केंद्र हो । तुम जहां भी हो । तुम सदा ध्वनि के केंद्र हो । ध्वनियों के लिए तुम सदा परमात्मा हो - समूचे ब्रह्मांड का केंद्र । हरेक ध्वनि वर्तुल में तुम्हारी तरफ यात्रा कर रही है ।
यह विधि कहती है - ध्वनि के केंद्र में स्नान करो । अगर तुम इस विधि का प्रयोग कर रहे हो । तो तुम जहां भी हो । वहीं आंखें बंद कर लो । और भाव करो कि सारा ब्रह्मांड ध्वनियों से भरा है । तुम भाव करो कि हरेक ध्वनि तुम्हारी ओर बही आ रही है । और तुम उसके केंद्र हो । यह भाव भी कि - मैं केंद्र हूं । तुम्हें गहरी शांति से भर देगा । सारा ब्रह्मांड परिधि बन जाता है । और तुम उसके केंद्र होते हो । और हर चीज, हर ध्वनि तुम्हारी तरफ बह रही है । मानो किसी जलप्रपात की अखंड ध्वनि में स्नान कर रहे हो । अगर तुम किसी जलप्रपात के किनारे खड़े हो । तो वहीं आंख बंद करो । और अपने चारों ओर से ध्वनि को अपने ऊपर बरसते हुए अनुभव करो । और भाव करो कि तुम उसके केंद्र हो । अपने को केंद्र समझने पर यह जोर क्या है ? क्योंकि केंद्र में कोई ध्वनि नहीं है । केंद्र ध्वनि शून्य है । यही कारण है कि तुम्हें ध्वनि सुनाई पड़ती है । अन्यथा नहीं सुनाई पड़ती । ध्वनि ही ध्वनि को नहीं सुन सकती । अपने केंद्र पर ध्वनि शून्य होने के कारण तुम्हें ध्वनियां सुनाई पड़ती हैं । केंद्र तो बिलकुल ही मौन है । शांत है । इसीलिए तुम ध्वनि को अपनी ओर आते । अपने भीतर प्रवेश करते । अपने को घेरते हुए सुनते हो । अगर तुम खोज लो कि - यह केंद्र कहां है ? तुम्हारे भीतर वह जगह कहां है ? जहां सब ध्वनियां बहकर आ रही हैं । तो अचानक सब ध्वनियां विलीन हो जाएंगी । और तुम निर्ध्वनि में । ध्वनि शून्यता में प्रवेश कर जाओगे । अगर तुम उस केंद्र को महसूस कर सको । जहां सब ध्वनियां सुनी जाती हैं । तो अचानक चेतना मुड़ जाती है । 1 क्षण तुम निर्ध्वनि से भरे संसार को सुनोगे । और दूसरे ही क्षण तुम्हारी चेतना भीतर की ओर मुड़ जाएगी । और तुम बस ध्वनि को, मौन को सुनोगे । जो जीवन का केंद्र है । और 1 बार तुमने उस ध्वनि को सुन लिया । तो कोई भी ध्वनि तुम्हें विचलित नहीं कर सकती । वह तुम्हारी ओर आती है । लेकिन वह तुम तक पहुंचती नहीं है । वह सदा तुम्हारी ओर बह रही है । लेकिन वह कभी तुम तक पहुंच नहीं पाती । 1 बिंदु है । जहां कोई ध्वनि नहीं प्रवेश करती है । वह बिंदु तुम हो ।
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अकेला होना मनुष्य का स्वभाव है । अकेला होना मनुष्य की नियति है । और जब तक तुम अकेले होने को स्वीकार न करोगे । तब तक बेचैनी रहेगी । लाख उपाय कर लो कि अकेलापन मिट जाए । नहीं मिटेगा । नहीं मिटेगा । क्योंकि अकेलापन तुम्हारे भीतर की आंतरिक अवस्था है । तुम्हारा स्वभाव है । ऊपर ऊपर होता । निकाल कर अलग कर देते ।
ओशो
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प्रेम और प्रेम में बहुत भेद है । क्योंकि प्रेम बहुत तलों पर अभिव्यक्त हो सकता है । जब प्रेम अपने शुद्धतम रूप में प्रकट होता है - अकारण, बेशर्त । तब मंदिर बन जाता है । और जब प्रेम अपने अशुद्धतम रूप में प्रकट होता है - वासना की भांति । शोषण और हिंसा की भांति । ईर्ष्या द्वेष की भांति । आधिपत्य । पजेशन की भांति । तब कारागृह बन जाता है । कारागृह का अर्थ है - जिससे तुम बाहर होना चाहो । और हो न सको । कारागृह का अर्थ है - जो तुम्हारे व्यक्तित्व पर सब तरफ से बंधन की भांति बोझिल हो जाए । जो तुम्हें विकास न दे । छाती पर पत्थर की तरह लटक जाए । और तुम्हें डुबाए । कारागृह का अर्थ है - जिसके भीतर तुम तड़फड़ाओ मुक्त होने के लिए । और मुक्त न हो सको । द्वार बंद हों । हाथ पैरों पर जंजीरें पड़ी हो । पंख काट दिए हों । कारागृह का अर्थ है - जिसके ऊपर और जिससे पार जाने का उपाय न सूझे । मंदिर का अर्थ है - जिसका द्वार खुला हो । जैसे तुम भीतर आए हो । वैसे ही बाहर जाना चाहो । तो कोई प्रतिबंध न हो । कोई पैरों को पकड़े न । भीतर आने के लिए जितनी आज़ादी थी । उतनी ही बाहर जाने की आज़ादी हो । मंदिर से तुम बाहर न जाना चाहोगे । लेकिन बाहर जाने की आज़ादी सदा मौजूद है । कारागृह से तुम हर क्षण बाहर जाना चाहोगे । और द्वार बंद हो गया । और निकलने का मार्ग न रहा ।
मंदिर का अर्थ है - जो तुम्हें अपने से पार ले जाए । जहां से अतिक्रमण हो सके । जो सदा और ऊपर, और ऊपर ले जाने की सुविधा दे । चाहे तुम प्रेम में किसी के पड़े हो । और प्रारंभ अशुद्ध रहा हो । लेकिन जैसे जैसे प्रेम गहरा होने लगे । वैसे वैसे शुद्धि बढ़ने लगे । चाहे प्रेम शरीर का आकर्षण रहा हो । लेकिन जैसे ही प्रेम की यात्रा शुरू हो । प्रेम शरीर का आकर्षण न रहकर 2 मनों के बीच का खिंचाव हो जाए । और यात्रा के अंत अंत तक मन का खिंचाव भी न रह जाए । 2 आत्माओं का मिलन बन जाए । जिस प्रेम में अंततः तुम्हें परमात्मा का दर्शन हो सके । वह तो मंदिर है । और जिस प्रेम में तुम्हें तुम्हारे पशु के अतिरिक्त किसी की प्रतीति न हो सके । वह - कारागृह है । और प्रेम दोनों हो सकता है । क्योंकि तुम दोनों हो । तुम पशु भी हो । और परमात्मा भी । तुम 1 सीढ़ी हो । जिसका 1 छोर पशु के पास टिका है । और जिसका दूसरा छोर परमात्मा के पास है । और यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है कि तुम सीढ़ी से ऊपर जाते हो । या नीचे उतरते हो । सीढ़ी 1 ही है । उसी सीढ़ी का नाम प्रेम है । सिर्फ दिशा बदल जाएगी । जिन सीढ़ियों से चढ़कर तुम मेरे पास आए हो । उन्हीं सीढियों से उतर कर तुम मुझसे दूर भी जाओगे । सीढियां वही होंगी । तुम भी वही होओगे । पैर भी वही होंगे । पैरों की शक्ति जैसा आने में उपयोग आई है । वैसे ही जाने में भी उपयोगी होगी । सब कुछ वही होगा । सिर्फ तुम्हारी दिशा बदल जाएगी । 1 दिशा थी । जब तुम्हारी आंखें ऊपर लगी थीं । आकाश की तरफ । और पैर तुम्हारी आंखों का अनुसरण कर रहे थे । दूसरी दिशा होगी । तुम्हारी आंखें जमीन पर लगी होंगी । नीचाईयों की तरफ । और तुम्हारे पैर उसका अनुसरण कर रहे होंगे । ओशो
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जय गुरुदेव । 29 प्रश्न - श्री स्वामी जी महाराज ! मन को कैसे स्थिर किया जाय ?
उत्तर - मन को स्थिर करने के लिये मन को प्रतिदिन श्री स्वामी जी महाराज के नाम के भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । आरती । दर्शन । ध्यान में नियमित नियमानुसार लगाना चाहिये । प्रतिदिन ध्यान करना चाहिये । ध्यान करने का सुन्दर समय है । सुबह का बृह्म मूहूर्त । बृह्म मूहूर्त में उठकर निश्चित रूप से ध्यान । सुमिरन करना चाहिये । ऐसे नियम के साथ थोडा शास्त्र पाठ । यानी अपने श्री सदगुरू देव जी महाराज की लिखी पुस्तकों का अध्ययन करने से मन सहज ही एकाग्र हो जाता है । ध्यान के बाद कम से कम आधा घण्टा गुरू भाव में चुपचाप बैठना जरूरी है । ध्यान के तुरन्त बाद मन को किसी सांसारिक कार्य में नहीं लगाना चाहिये । उसमें बहुत हानि होती है ।
जय गुरुदेव !
1 मैं तो ध्यान के बाद तुरंत उठ जाता हूँ । क्योंकि सुबह इतना टाइम नहीं होता है । तो क्या इससे हानि होगी ?
2 मेरे पास श्री स्वामी जी महाराज की आरती नहीं है । कृपया आप मुझे मेल कर दे ।
3 मैं अभी नया साधक हूँ । मुझे ये बताये कि दिन में काम करते हुए भजन कैसे करें ।
4 श्री स्वामी जी महाराज कहते है कि - अपने परिवार की अच्छी व्यवस्था करें । उनके अच्छे खाने पीने व अच्छी पढाई की व्यवस्था करें । तो क्या इन सबको ईश्वर से चाहना । या कामना करना गलत है । यदि वो अभी इतना करने के योग्य नहीं है । क्योंकि परिवार की जिम्मेदारी भी तो निभानी है ।
5 कृपया मुझे ये भी बताये कि मेरा ध्यान सही राह पर चल रहा है । या नहीं ? मैं ध्यान के प्रारंभ में आँखों व कानों को अपनी उंगलियों व अंगूठे से बंद करता हूँ । तो मुझे सर की नसों की सनसनाहट की अलावा एक ध्वनि सुनाई देती है । वो क्या है ? आप तो ये आसानी से जान सकते है । भैया मेरे ज्यादातर प्रश्न व्यक्तिगत होते हैं । फिर भी समय निकाल कर जवाब देने की कृपा करें । मेरे और भी प्रश्न हैं । जो बाद में मेल करूँगा । गुरूजी की कृपा से मुझे अपने मन व वासना पर काफी नियंत्रण लगने लगा है । विष्णु ।
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ध्वनि के केंद्र में स्नान करो - ध्वनि के केंद्र में स्नान करो । मानो किसी जलप्रपात की अखंड ध्वनि में स्नान कर रहे हो । या कानों में अंगुली डालकर नादों के नाद, अनाहत को सुनो । इस विधि का प्रयोग कई ढंग से किया जा सकता है । 1 ढंग यह है कि कहीं भी बैठकर इसे शुरू कर दो । ध्वनियां तो सदा मौजूद हैं । चाहे बाजार हो । या हिमालय की गुफा । ध्वनियां सब जगह हैं । चुप होकर बैठ जाओ ।
और ध्वनियों के साथ 1 बड़ी विशेषता है । 1 बड़ी खूबी है । जहां भी, जब भी कोई ध्वनि होगी । तुम उसके केंद्र होगे । सभी ध्वनियां तुम्हारे पास आती हैं । चाहे वे कहीं से आएं । किसी दिशा से आएं । आंख के साथ । देखने के साथ यह बात नहीं है । दृष्टि रेखाबद्ध है । मैं तुम्हें देखता हूं । तो मुझसे तुम तक 1 रेखा खिंच जाती है । लेकिन ध्वनि वर्तुलाकार है । वह रेखाबद्ध नहीं है । सभी ध्वनियां वर्तुल में आती हैं । और तुम उनके केंद्र हो । तुम जहां भी हो । तुम सदा ध्वनि के केंद्र हो । ध्वनियों के लिए तुम सदा परमात्मा हो - समूचे ब्रह्मांड का केंद्र । हरेक ध्वनि वर्तुल में तुम्हारी तरफ यात्रा कर रही है ।
यह विधि कहती है - ध्वनि के केंद्र में स्नान करो । अगर तुम इस विधि का प्रयोग कर रहे हो । तो तुम जहां भी हो । वहीं आंखें बंद कर लो । और भाव करो कि सारा ब्रह्मांड ध्वनियों से भरा है । तुम भाव करो कि हरेक ध्वनि तुम्हारी ओर बही आ रही है । और तुम उसके केंद्र हो । यह भाव भी कि - मैं केंद्र हूं । तुम्हें गहरी शांति से भर देगा । सारा ब्रह्मांड परिधि बन जाता है । और तुम उसके केंद्र होते हो । और हर चीज, हर ध्वनि तुम्हारी तरफ बह रही है । मानो किसी जलप्रपात की अखंड ध्वनि में स्नान कर रहे हो । अगर तुम किसी जलप्रपात के किनारे खड़े हो । तो वहीं आंख बंद करो । और अपने चारों ओर से ध्वनि को अपने ऊपर बरसते हुए अनुभव करो । और भाव करो कि तुम उसके केंद्र हो । अपने को केंद्र समझने पर यह जोर क्या है ? क्योंकि केंद्र में कोई ध्वनि नहीं है । केंद्र ध्वनि शून्य है । यही कारण है कि तुम्हें ध्वनि सुनाई पड़ती है । अन्यथा नहीं सुनाई पड़ती । ध्वनि ही ध्वनि को नहीं सुन सकती । अपने केंद्र पर ध्वनि शून्य होने के कारण तुम्हें ध्वनियां सुनाई पड़ती हैं । केंद्र तो बिलकुल ही मौन है । शांत है । इसीलिए तुम ध्वनि को अपनी ओर आते । अपने भीतर प्रवेश करते । अपने को घेरते हुए सुनते हो । अगर तुम खोज लो कि - यह केंद्र कहां है ? तुम्हारे भीतर वह जगह कहां है ? जहां सब ध्वनियां बहकर आ रही हैं । तो अचानक सब ध्वनियां विलीन हो जाएंगी । और तुम निर्ध्वनि में । ध्वनि शून्यता में प्रवेश कर जाओगे । अगर तुम उस केंद्र को महसूस कर सको । जहां सब ध्वनियां सुनी जाती हैं । तो अचानक चेतना मुड़ जाती है । 1 क्षण तुम निर्ध्वनि से भरे संसार को सुनोगे । और दूसरे ही क्षण तुम्हारी चेतना भीतर की ओर मुड़ जाएगी । और तुम बस ध्वनि को, मौन को सुनोगे । जो जीवन का केंद्र है । और 1 बार तुमने उस ध्वनि को सुन लिया । तो कोई भी ध्वनि तुम्हें विचलित नहीं कर सकती । वह तुम्हारी ओर आती है । लेकिन वह तुम तक पहुंचती नहीं है । वह सदा तुम्हारी ओर बह रही है । लेकिन वह कभी तुम तक पहुंच नहीं पाती । 1 बिंदु है । जहां कोई ध्वनि नहीं प्रवेश करती है । वह बिंदु तुम हो ।
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अकेला होना मनुष्य का स्वभाव है । अकेला होना मनुष्य की नियति है । और जब तक तुम अकेले होने को स्वीकार न करोगे । तब तक बेचैनी रहेगी । लाख उपाय कर लो कि अकेलापन मिट जाए । नहीं मिटेगा । नहीं मिटेगा । क्योंकि अकेलापन तुम्हारे भीतर की आंतरिक अवस्था है । तुम्हारा स्वभाव है । ऊपर ऊपर होता । निकाल कर अलग कर देते ।
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प्रेम और प्रेम में बहुत भेद है । क्योंकि प्रेम बहुत तलों पर अभिव्यक्त हो सकता है । जब प्रेम अपने शुद्धतम रूप में प्रकट होता है - अकारण, बेशर्त । तब मंदिर बन जाता है । और जब प्रेम अपने अशुद्धतम रूप में प्रकट होता है - वासना की भांति । शोषण और हिंसा की भांति । ईर्ष्या द्वेष की भांति । आधिपत्य । पजेशन की भांति । तब कारागृह बन जाता है । कारागृह का अर्थ है - जिससे तुम बाहर होना चाहो । और हो न सको । कारागृह का अर्थ है - जो तुम्हारे व्यक्तित्व पर सब तरफ से बंधन की भांति बोझिल हो जाए । जो तुम्हें विकास न दे । छाती पर पत्थर की तरह लटक जाए । और तुम्हें डुबाए । कारागृह का अर्थ है - जिसके भीतर तुम तड़फड़ाओ मुक्त होने के लिए । और मुक्त न हो सको । द्वार बंद हों । हाथ पैरों पर जंजीरें पड़ी हो । पंख काट दिए हों । कारागृह का अर्थ है - जिसके ऊपर और जिससे पार जाने का उपाय न सूझे । मंदिर का अर्थ है - जिसका द्वार खुला हो । जैसे तुम भीतर आए हो । वैसे ही बाहर जाना चाहो । तो कोई प्रतिबंध न हो । कोई पैरों को पकड़े न । भीतर आने के लिए जितनी आज़ादी थी । उतनी ही बाहर जाने की आज़ादी हो । मंदिर से तुम बाहर न जाना चाहोगे । लेकिन बाहर जाने की आज़ादी सदा मौजूद है । कारागृह से तुम हर क्षण बाहर जाना चाहोगे । और द्वार बंद हो गया । और निकलने का मार्ग न रहा ।
मंदिर का अर्थ है - जो तुम्हें अपने से पार ले जाए । जहां से अतिक्रमण हो सके । जो सदा और ऊपर, और ऊपर ले जाने की सुविधा दे । चाहे तुम प्रेम में किसी के पड़े हो । और प्रारंभ अशुद्ध रहा हो । लेकिन जैसे जैसे प्रेम गहरा होने लगे । वैसे वैसे शुद्धि बढ़ने लगे । चाहे प्रेम शरीर का आकर्षण रहा हो । लेकिन जैसे ही प्रेम की यात्रा शुरू हो । प्रेम शरीर का आकर्षण न रहकर 2 मनों के बीच का खिंचाव हो जाए । और यात्रा के अंत अंत तक मन का खिंचाव भी न रह जाए । 2 आत्माओं का मिलन बन जाए । जिस प्रेम में अंततः तुम्हें परमात्मा का दर्शन हो सके । वह तो मंदिर है । और जिस प्रेम में तुम्हें तुम्हारे पशु के अतिरिक्त किसी की प्रतीति न हो सके । वह - कारागृह है । और प्रेम दोनों हो सकता है । क्योंकि तुम दोनों हो । तुम पशु भी हो । और परमात्मा भी । तुम 1 सीढ़ी हो । जिसका 1 छोर पशु के पास टिका है । और जिसका दूसरा छोर परमात्मा के पास है । और यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है कि तुम सीढ़ी से ऊपर जाते हो । या नीचे उतरते हो । सीढ़ी 1 ही है । उसी सीढ़ी का नाम प्रेम है । सिर्फ दिशा बदल जाएगी । जिन सीढ़ियों से चढ़कर तुम मेरे पास आए हो । उन्हीं सीढियों से उतर कर तुम मुझसे दूर भी जाओगे । सीढियां वही होंगी । तुम भी वही होओगे । पैर भी वही होंगे । पैरों की शक्ति जैसा आने में उपयोग आई है । वैसे ही जाने में भी उपयोगी होगी । सब कुछ वही होगा । सिर्फ तुम्हारी दिशा बदल जाएगी । 1 दिशा थी । जब तुम्हारी आंखें ऊपर लगी थीं । आकाश की तरफ । और पैर तुम्हारी आंखों का अनुसरण कर रहे थे । दूसरी दिशा होगी । तुम्हारी आंखें जमीन पर लगी होंगी । नीचाईयों की तरफ । और तुम्हारे पैर उसका अनुसरण कर रहे होंगे । ओशो
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