आदरणीय राजीव भाई जी को स्नेहाभिवादन..आपने आत्मज्ञान के विषय में कबीर जी को सर्वोपरि गिनाया है । कबीर के बारे मेरा ज्ञान तो इतना ही है कि वो एक फक्कड किस्म के संत थे । जो जात-पांत और उंच-नीच के भेद को नहीं मानते थे । और जिन्हें आत्मा - परमात्मा की बातों से ज्यादा सामाजिक सरोकारों से अधिक मतलब था । यहाँ तक कि आजकल के साम्यवादी भी उन्हें कोट करते हैं । और कबीर उन्हें संत से ज्यादा साम्यवाद के पक्षधर लगते हैं । कबीर की तरह ही बुद्ध भी कम्युनिस्टों की पहली पसंद हैं । क्योंकि वे भी परमात्मा के सम्बन्ध में मौन हैं । कृपा करके कबीर के जन्म , जीवन और उनकी शिक्षाओं के बारे में विस्तार से बताएं । जिससे हमारे ज्ञान में अभिवृद्धि हो । और ज्ञान के उजाले में आपने जीवन की राह को अधिक आसान बना सकें । आपका । कृष्ण मुरारी कोटा से ।
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बुद्ध परमात्मा के सम्बन्ध में मौन नहीं हैं । उन्होंने बात को अपने ढंग से कहा है । उनका मतलब है । खुद को पूरी तरह से जान लेना ही परमात्मा को जान लेना हैं । तुलसीदास ने कहा है - जेहि जानहि जाय देहु जनाई । जानत तुमहिं तुमहीं हुय जाई । यानी भेद मिट जाता है । आत्मा अपनी सभी स्थितियों उपाधियों से परे होकर अपने मूल में मिल जाता है । उसी को परमात्म स्वरूप कहते हैं ।
कबीर के बारे में अनुराग सागर के लेखों और अन्य स्थानों पर बहुत कुछ प्रकाशित हो चुका है । फ़िर भी एक नये अन्दाज में और भी जानकारी देने की कोशिश करूँगा ।
सबसे पहले वास्तविक कबीर क्या है ? इसका मतलब समझिये - काया में जो रमता वीर । कहते उसका नाम कबीर । यानी धुर ( सिर के मध्य ) से लेकर नाभि तक जो स्वांस में रमण कर रहा है । वही कबीर है । साधारण स्थिति में स्वांस मुँह में तलुये ( नाक द्वारा ) से नाभि तक आती जाती प्रतीत होती है । पर वास्तव में इसका आना जाना धुर से हो रहा है । हँस दीक्षा में सत्यनाम द्वारा साधक ज्यों ज्यों ऊपर की मंजिलें तय करता जाता है । वो इस चेतनधारा से जुङता जाता है ।
अवतार की तर्ज पर कबीर भी यदा यदा धर्मस्य ग्लानि..की तरह अज्ञान और तन्त्र मन्त्र के पाखण्डी ज्ञान का बोलबाला हो जाने पर हर युग में प्रकट होते हैं । त्रेता में इन्होंने ही हनुमान को वास्तविक राम का बोध कराया था । जबकि वे तब तक अवतारी राम को ही सब कुछ
मानते थे । रावण पत्नी मंदोदरी को भी कबीर ने ज्ञान यानी हँसदीक्षा दी थी । आज से लगभग 500 वर्ष पहले - सिकन्दर । राजा वीर सिंह । मगहर नरेश बिजली खाँ पठान आदि राजा महाराजा कबीर के शिष्य हुये ।
अवतार और सन्त कभी जन्म नहीं लेते । बल्कि प्रकट होते हैं । इसके 2 तरीके होते हैं । 1 तो अपनी इच्छा अनुसार किसी अबोध शिशु से लेकर बालक तक का शरीर बनाकर कहीं प्रकट हुये । और नाटकीय ढंग से किसी दम्पत्ति आदि को प्राप्त हो गये । और फ़िर लीला करने लगे ।
दूसरे किसी ऐसे दम्पत्ति को । जो जन्म जन्म से इस इच्छा से पुण्य तप आदि कर रहा है कि उसकी सन्तान के रूप में कोई दिव्य । भगवत । या सन्त आत्मा उत्पन्न हो । तब उचित समय आने पर जब उस स्त्री को गर्भ धारण होता है । तो सम्बन्धित आत्मा उस गर्भ के लिये संकल्प कर देती है । और गर्भस्थ शिशु बिना आत्मा के ही समय पूरा कर जन्म लेता है । जब वह उदर से बाहर आ जाता है । तब सम्बन्धित आत्मा उसमें प्रविष्ट हो जाती है । इस तरह ये लोग गर्भवास में नहीं रहते ।
वैज्ञानिक आधार पर यह बात बङी अटपटी सी लगती हैं । पर इस विलक्षण रहस्यमय सृष्टि में बहुत कुछ अनोखा है । ठीक यही तरीका कछवी अपने अण्डों को सेने में अपनाती है । कछवी रेत में अपने अण्डे देकर फ़िर उनके पास नहीं जाती । और मात्र ध्यान से पोषित करती हैं । और ये वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित बात है । दो कछवी एक साथ अण्डे दें । और उनमें से एक की मृत्यु हो जाये । तो उस कछवी के अण्डे सङ जायेंगे ।
और जिन्हें आत्मा - परमात्मा की बातों से ज्यादा सामाजिक सरोकारों से अधिक मतलब था - जैसा कि मैंने अक्सर कहा । लोगों का यह स्वभाव ही होता है कि वे अपने मतलब की बात पकङ लेते हैं । 15 वर्ष की आयु में मैं अक्सर एक बात कहता था - एक भगवान का संविधान होता है । एक देश का संविधान होता है । और एक प्रत्येक व्यक्ति अपनी अनुकूलता के आधार पर निजी संविधान बनाता है । जिससे वह खुद को झूठी तसल्ली दे सके । मजे की बात है । ये संविधान हम बालपन से ही शुरू कर देते हैं । देखिये । मैया मोरी मैं नही माखन खायो । मैया मोरी मैंनें ही माखन खायो । इस बात को थोङा स्टायल में लय से कहने पर समान शब्द बिलकुल विपरीत अर्थ कर रहे हैं ।
कबीर के बारे में मैंने हमेशा कहा । सिर्फ़ 2 लाइनों में । आरपार । और बहुत ऊँची बातें उन्होंने कही है । जैसी उपलब्ध इतिहास में ( मेरा दावा । दूसरे शब्दों में चुनौती भी । आगे प्रमाण भी देखें ) कोई कह ही नहीं पाया । यही कबीर कहते हैं - रहना नहीं देश विराना है । यह संसार कागद की पुङिया बूँद पङे गल जाना है । केहि समुझावे सब जग अँधा । सबहिं भुलाने पेट के धँधा ।
अब गौर करिये । कितनी गहन बात है । अविनाशी जीव का ये अपना देश ही नहीं है । पराया देश है । काल (
पुरुष ) और उसकी पत्नी माया का देश । जीव को उसने एक समझौते के तहत अपने धन ( युगों के तप से ) से खरीदा है । और समझौते के विरुद्ध उसे काम क्रोध आदि मायाजाल में फ़ँसाकर बँधुआ मजदूर की तरह अत्याचार करने लगा । और ये संसार । जिससे तुम मोहित हो रहे हो । इसकी हैसियत एक कागज की पुङिया समान है । जिस पर ज्ञान रूप जल की बूँद पङते ही गल जायेगा । यानी इतना तुच्छ । जिसकी एक ज्ञान बूँद के बराबर भी महत्व नहीं ।
अब दूसरी बात देखिये । किसको समझाये । सब जग अँधा हो रहा है । और सिर्फ़ पेट भरने में अपने असली लक्ष्य को भूल गया । और भी देखिये ।
तू मति जाने बावरे । मेरा है यह कोय । प्रान पिण्ड सो बंधि रहा । सो नहिं अपना होय ।
चले गये सो ना मिले । किसको पूछू जात । मात पिता सुत बान्धवा । झूठा सब संघात ।
जागो लोगों मत सुवो । ना करो नींद से प्यार । जैसा सपना रैन का । ऐसा यह संसार ।
मूरख शब्द न मानई । धर्म न सुने विचार । सत्य शब्द नहिं खोजई । जावे जम के द्वार ।
चेत सवेरे बाचरे । फिर पाछे पछिताय । तोको जाना दूर है । कहैं कबीर बुझाय ।
क्यों खोवे नर तन वृथा । पर विषयन के साथ । पांच कुल्हाड़ी मारता । मूरख अपने हाथ ।
आंखि न देखे बावरा । शब्द सुने नहिं कान । सिर के केस उज्ज्वल भये । अबहु निपट अजान ।
कबीर से ही उदाहरण बहुत से हो सकते हैं । पर वे सभी एक ही सन्देश देते हैं । साढे 12 लाख साल की 84 भोगने के बाद । जो ये दुर्लभ मानव शरीर मिला है । इसके रहते हरसंभव मोक्ष का उपाय कर लेना चाहिये । फ़िर कोई रास्ता ही न बचेगा ।
अब जैसा कि मैंने ऊपर कहा । हमें जो बात अच्छी लगती है । उसे ही गृहण कर लेते हैं । कबीर ने जात पाँत ऊँच नीच के लिये तत्कालीन स्थितियों अनुसार बात कही । पर उनके मुख्य उपदेश परमात्म प्राप्ति के लिये ही थे । जिनमें से बहुत थोङे का उदाहरण भी मैंने दिया । इसलिये आपकी बात को मैं एकदम विपरीत ढंग से कहता हूँ - कबीर को आत्मा - परमात्मा की बातों से अधिक और सामाजिक सरोकारों से बहुत कम मतलब था । वे उनकी निगाहों में तुलनात्मक मोक्ष लक्ष्य एकदन नगण्य और महत्वहीन ही थे । सिर्फ़ उसको ठीक ढंग से समझना भर होगा ।
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कबीर के जन्म जीवन और उनकी शिक्षाओं के बारे में विस्तार से नेट पर और मेरे ब्लाग पर भी बहुत सी सामग्री उपलब्ध है । अतः उसको लिखने से कोई लाभ नहीं । इसके लिये हिन्दी में " कबीर " शब्द द्वारा गूगल में सर्च कर सकते हैं ।
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बुद्ध परमात्मा के सम्बन्ध में मौन नहीं हैं । उन्होंने बात को अपने ढंग से कहा है । उनका मतलब है । खुद को पूरी तरह से जान लेना ही परमात्मा को जान लेना हैं । तुलसीदास ने कहा है - जेहि जानहि जाय देहु जनाई । जानत तुमहिं तुमहीं हुय जाई । यानी भेद मिट जाता है । आत्मा अपनी सभी स्थितियों उपाधियों से परे होकर अपने मूल में मिल जाता है । उसी को परमात्म स्वरूप कहते हैं ।
कबीर के बारे में अनुराग सागर के लेखों और अन्य स्थानों पर बहुत कुछ प्रकाशित हो चुका है । फ़िर भी एक नये अन्दाज में और भी जानकारी देने की कोशिश करूँगा ।
सबसे पहले वास्तविक कबीर क्या है ? इसका मतलब समझिये - काया में जो रमता वीर । कहते उसका नाम कबीर । यानी धुर ( सिर के मध्य ) से लेकर नाभि तक जो स्वांस में रमण कर रहा है । वही कबीर है । साधारण स्थिति में स्वांस मुँह में तलुये ( नाक द्वारा ) से नाभि तक आती जाती प्रतीत होती है । पर वास्तव में इसका आना जाना धुर से हो रहा है । हँस दीक्षा में सत्यनाम द्वारा साधक ज्यों ज्यों ऊपर की मंजिलें तय करता जाता है । वो इस चेतनधारा से जुङता जाता है ।
अवतार की तर्ज पर कबीर भी यदा यदा धर्मस्य ग्लानि..की तरह अज्ञान और तन्त्र मन्त्र के पाखण्डी ज्ञान का बोलबाला हो जाने पर हर युग में प्रकट होते हैं । त्रेता में इन्होंने ही हनुमान को वास्तविक राम का बोध कराया था । जबकि वे तब तक अवतारी राम को ही सब कुछ
मानते थे । रावण पत्नी मंदोदरी को भी कबीर ने ज्ञान यानी हँसदीक्षा दी थी । आज से लगभग 500 वर्ष पहले - सिकन्दर । राजा वीर सिंह । मगहर नरेश बिजली खाँ पठान आदि राजा महाराजा कबीर के शिष्य हुये ।
अवतार और सन्त कभी जन्म नहीं लेते । बल्कि प्रकट होते हैं । इसके 2 तरीके होते हैं । 1 तो अपनी इच्छा अनुसार किसी अबोध शिशु से लेकर बालक तक का शरीर बनाकर कहीं प्रकट हुये । और नाटकीय ढंग से किसी दम्पत्ति आदि को प्राप्त हो गये । और फ़िर लीला करने लगे ।
दूसरे किसी ऐसे दम्पत्ति को । जो जन्म जन्म से इस इच्छा से पुण्य तप आदि कर रहा है कि उसकी सन्तान के रूप में कोई दिव्य । भगवत । या सन्त आत्मा उत्पन्न हो । तब उचित समय आने पर जब उस स्त्री को गर्भ धारण होता है । तो सम्बन्धित आत्मा उस गर्भ के लिये संकल्प कर देती है । और गर्भस्थ शिशु बिना आत्मा के ही समय पूरा कर जन्म लेता है । जब वह उदर से बाहर आ जाता है । तब सम्बन्धित आत्मा उसमें प्रविष्ट हो जाती है । इस तरह ये लोग गर्भवास में नहीं रहते ।
वैज्ञानिक आधार पर यह बात बङी अटपटी सी लगती हैं । पर इस विलक्षण रहस्यमय सृष्टि में बहुत कुछ अनोखा है । ठीक यही तरीका कछवी अपने अण्डों को सेने में अपनाती है । कछवी रेत में अपने अण्डे देकर फ़िर उनके पास नहीं जाती । और मात्र ध्यान से पोषित करती हैं । और ये वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित बात है । दो कछवी एक साथ अण्डे दें । और उनमें से एक की मृत्यु हो जाये । तो उस कछवी के अण्डे सङ जायेंगे ।
और जिन्हें आत्मा - परमात्मा की बातों से ज्यादा सामाजिक सरोकारों से अधिक मतलब था - जैसा कि मैंने अक्सर कहा । लोगों का यह स्वभाव ही होता है कि वे अपने मतलब की बात पकङ लेते हैं । 15 वर्ष की आयु में मैं अक्सर एक बात कहता था - एक भगवान का संविधान होता है । एक देश का संविधान होता है । और एक प्रत्येक व्यक्ति अपनी अनुकूलता के आधार पर निजी संविधान बनाता है । जिससे वह खुद को झूठी तसल्ली दे सके । मजे की बात है । ये संविधान हम बालपन से ही शुरू कर देते हैं । देखिये । मैया मोरी मैं नही माखन खायो । मैया मोरी मैंनें ही माखन खायो । इस बात को थोङा स्टायल में लय से कहने पर समान शब्द बिलकुल विपरीत अर्थ कर रहे हैं ।
कबीर के बारे में मैंने हमेशा कहा । सिर्फ़ 2 लाइनों में । आरपार । और बहुत ऊँची बातें उन्होंने कही है । जैसी उपलब्ध इतिहास में ( मेरा दावा । दूसरे शब्दों में चुनौती भी । आगे प्रमाण भी देखें ) कोई कह ही नहीं पाया । यही कबीर कहते हैं - रहना नहीं देश विराना है । यह संसार कागद की पुङिया बूँद पङे गल जाना है । केहि समुझावे सब जग अँधा । सबहिं भुलाने पेट के धँधा ।
अब गौर करिये । कितनी गहन बात है । अविनाशी जीव का ये अपना देश ही नहीं है । पराया देश है । काल (
पुरुष ) और उसकी पत्नी माया का देश । जीव को उसने एक समझौते के तहत अपने धन ( युगों के तप से ) से खरीदा है । और समझौते के विरुद्ध उसे काम क्रोध आदि मायाजाल में फ़ँसाकर बँधुआ मजदूर की तरह अत्याचार करने लगा । और ये संसार । जिससे तुम मोहित हो रहे हो । इसकी हैसियत एक कागज की पुङिया समान है । जिस पर ज्ञान रूप जल की बूँद पङते ही गल जायेगा । यानी इतना तुच्छ । जिसकी एक ज्ञान बूँद के बराबर भी महत्व नहीं ।
अब दूसरी बात देखिये । किसको समझाये । सब जग अँधा हो रहा है । और सिर्फ़ पेट भरने में अपने असली लक्ष्य को भूल गया । और भी देखिये ।
तू मति जाने बावरे । मेरा है यह कोय । प्रान पिण्ड सो बंधि रहा । सो नहिं अपना होय ।
चले गये सो ना मिले । किसको पूछू जात । मात पिता सुत बान्धवा । झूठा सब संघात ।
जागो लोगों मत सुवो । ना करो नींद से प्यार । जैसा सपना रैन का । ऐसा यह संसार ।
मूरख शब्द न मानई । धर्म न सुने विचार । सत्य शब्द नहिं खोजई । जावे जम के द्वार ।
चेत सवेरे बाचरे । फिर पाछे पछिताय । तोको जाना दूर है । कहैं कबीर बुझाय ।
क्यों खोवे नर तन वृथा । पर विषयन के साथ । पांच कुल्हाड़ी मारता । मूरख अपने हाथ ।
आंखि न देखे बावरा । शब्द सुने नहिं कान । सिर के केस उज्ज्वल भये । अबहु निपट अजान ।
कबीर से ही उदाहरण बहुत से हो सकते हैं । पर वे सभी एक ही सन्देश देते हैं । साढे 12 लाख साल की 84 भोगने के बाद । जो ये दुर्लभ मानव शरीर मिला है । इसके रहते हरसंभव मोक्ष का उपाय कर लेना चाहिये । फ़िर कोई रास्ता ही न बचेगा ।
अब जैसा कि मैंने ऊपर कहा । हमें जो बात अच्छी लगती है । उसे ही गृहण कर लेते हैं । कबीर ने जात पाँत ऊँच नीच के लिये तत्कालीन स्थितियों अनुसार बात कही । पर उनके मुख्य उपदेश परमात्म प्राप्ति के लिये ही थे । जिनमें से बहुत थोङे का उदाहरण भी मैंने दिया । इसलिये आपकी बात को मैं एकदम विपरीत ढंग से कहता हूँ - कबीर को आत्मा - परमात्मा की बातों से अधिक और सामाजिक सरोकारों से बहुत कम मतलब था । वे उनकी निगाहों में तुलनात्मक मोक्ष लक्ष्य एकदन नगण्य और महत्वहीन ही थे । सिर्फ़ उसको ठीक ढंग से समझना भर होगा ।
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कबीर के जन्म जीवन और उनकी शिक्षाओं के बारे में विस्तार से नेट पर और मेरे ब्लाग पर भी बहुत सी सामग्री उपलब्ध है । अतः उसको लिखने से कोई लाभ नहीं । इसके लिये हिन्दी में " कबीर " शब्द द्वारा गूगल में सर्च कर सकते हैं ।
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