श्री सदगुरु महाराज जी की जय । पूछने को बहुत कुछ है महाराज । पर आपके ब्लॉग पर जानकारी के खजाने खुले हुए हैं । आवश्यकता है । तो केवल खंगालने मात्र की । बाकी कोई शंका वगैरह होती है । तो आप श्री की फोन द्वारा कृपा उपलब्ध है ही । महाराज ये कृपा शब्द का आजकल के तथाकथित गुरु लोग बड़े धड़ल्ले से प्रयोग कर रहे हैं । तथा शब्द के इतने प्रचलन से मुझ आलसी और निक्कमे पर बहुत गहरा असर हुआ है । कृपा कर इस कृपा शब्द का शाब्दिक और तात्विक अर्थ बताने की कृपा करें । तथा यह भी कि इस कृपा के प्रमुख घटक क्या क्या हैं । इसकी प्राप्ति का सरलतम मार्ग क्या है ?
दूसरा - एक सच्चे शिष्य के क्या क्या गुण होते हैं । शिष्य का आचरण तथा व्यवहार अपने घर पत्नी तथा बच्चों के प्रति कैसा होना चाहिए । हम प्राय
सदगुरु के बारे में पूछते है कि सदगुरु के कौन कौन से गुण होते हैं ? परन्तु आप बतायें कि - सदगुरु अपने शिष्य में किन गुणों की आशा रखते हैं ( यदि कोई आशा न भी रखते हों तो भी ) उनका प्रिय बनने के कारक कौन कौन से हैं ? आपकी अति कृपा होगी ।
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आजकल के नकली ( झूठे । ज्ञान से रहित । सिर्फ़ भेष धरे ) कतली ( कत्ल आदि करके बाबा भेष में छुपे ) फ़सली ( कुम्भ । एकादशी । दशहरा आदि धार्मिक पर्वों पर गेरुआ पहन कर धन कमाने हेतु बाबा बने ) बाबाओं ने कृपा शब्द का बेहद गलत प्रयोग करते हुये लालची और वासनाओं की गन्दगी में बिजबिजाते कीङे के समान कुमार्गी मनुष्य को और भी पथ भृष्ट कर दिया है । आप थोङा भी विचार करें । तो कृपा शब्द के अनेक भावों में एक प्रमुख भाव ये भी है कि - आप कितनी भी गलतियाँ करें । भगवान आपके सभी अपराध क्षमा कर देता है । जैसा कि - ईसाई पाप करो । और कनफ़ेसन कर लो । जैसा फ़ार्मूला लेकर चलते हैं । प्रार्थना कर दो भाई ! भगवान का बेटा ? सब माफ़ करा देगा ।
सोचिये । कृपा या दया याचना आपको हमेशा ही कमजोर बनाती है । अभी की नहीं कह सकता । पहले परीक्षाओं में कृपांक देने का चलन था । यदि परीक्षार्थी 1-2 अंकों से फ़ेल हो रहा होता था । तो साल बचाने हेतु 1-
2 अंको की कृपा कर दी जाती थी । कोई डिवीजन में भी घुमा फ़िराकर ऐसी कृपा हो जाती थी । यानी आप 98% पूर्ण थे । 1-2 % की कमी थी । वो योग्यता अनुसार आगे पूरा कर लेंगे । इस स्थिति में तो बात ठीक भी लगती है । पर एकदम फ़िसड्डी नालायक गंवार छात्र पर कृपा करना एक तरह से उसके साथ घोर अन्याय ही करना है । तब ठीक यही है कि वह अपने साथियों को आगे बढता देख पछताये । और जी तोङ अथक मेहनत करने को प्रेरित हो । अब विचार करें । तो कृपा न करके रूखा कठोर और उसकी स्थिति अनुसार उचित व्यवहार करना ही उस पर असली कृपा हुयी । वह आगे के लिये बहुतों के लिये उदाहरण भी बना ।
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यहाँ तक 2 aug 2012 को लिखा था । कल 3 aug 2012 शाम 4 बजे हमारे एक शिष्य का फ़ोन आया । उनके
परिवार में एक 33 वर्ष की अविवाहित लङकी है । उसे अजीव बीमारी है । शरीर के किसी भी भाग में हाथ पैर रीङ सिर पेट आदि में यकायक असहनीय दर्द होने लगता है । इसके अलावा सभी सामान्य है । बीमारी बहुत छोटी उमृ से ही है । अतः घर वालों ने शादी भी नहीं की । लङकी गरीब घर से है । वे इलाज नहीं करा सकते । उनके एक सम्पन्न रिश्तेदार ( भाई ) ने अपने पास रख लिया है । धीरे धीरे 4 लाख रुपया ( अब तक ) खर्च हो गया । कल ही फ़ोन करने से पूर्व 6500 के टेस्ट हुये । डाक्टरों ने काफ़ी खून ही टेस्ट हेतु निकाल लिया ।
- समझ में नहीं आता । फ़ोन कर्ता ने कहा - पैसे का दुख नहीं होता । पर लङकी जब दर्द से तङपती है । तो हमसे ठीक से ( उसका दुख देख कर ) खाना भी नहीं खाया जाता । डाक्टर हैरान है । अनेकों जाँच के बाद भी कोई रोग नहीं निकलता ।
फ़ोन कर्ता ने यह सब प्रसंग वश बताया है । यूँ ही औपचारिक बात छिङ गयी । उसका कोई उद्देश्य नहीं । उसे
अगले क्षणों की कोई कल्पना नहीं । वैसे सुनते सुनते ही मुझे समझ आ गया । यह पाप कर्म का भोग संस्कार है । इसकी दवा नहीं हो सकती । रोग संस्कार की ही दवा हो पाती है । भोग की कभी नहीं ।
आज मौसम अच्छा है । मैं खिङकी से बाहर हरियाली देख रहा हूँ । आसमान में बादल छाये हुये हैं । मैं फ़ोन पर लङकी का विवरण सुन रहा हूँ । खिङकी से बाहर 200 फ़ुट दूर ऊँचाई पर एक बहुत बङा दायरा सा बन गया है । जिसमें लङकी एक सफ़ेद कुत्ते को मारती नजर आ रही है । मैं उत्सुकता से वह सब देखता रहता हूँ । हालांकि मेरे लिये इसमें कुछ भी नया और दिलचस्प नहीं है ।
करीब 20 मिनट हो गये । फ़ोन कभी का कट चुका है । मैं सोच रहा हूँ - बताऊँ । या ना बताऊँ । फ़िर जाने क्यों मन नहीं मानता । विवश हो जाता हूँ ।
- ये लङकी । आखिर मैं फ़ोन मिलाकर कहता हूँ - पूर्व जन्म में कुत्तों को बहुत मारती थी । हमारे सम्पर्क में आने वाले कुत्ते अक्सर हमारे पूर्वज होते हैं । वे अपना संस्कारी कर्जा लेने आते हैं । दुर्व्यवहार करने पर वे सम्बन्धित
व्यक्ति को बददुआ या शाप दे देते हैं । ये दैविक ( पुरखों की ) बाधा है । डाक्टरी दवा काम नहीं करेगी । आप लङकी के हाथ से सफ़ेद कुत्ते को जब जब नजर आये । रोटी खिलाने को कहें । सफ़ेद कुत्ता न होने पर कैसे भी रंग के कुत्ते को खिला दे । वैसे अब तुम टेंशन फ़्री हो जाओ । फ़ायदा अभी से हो जायेगा । रोटी खिलायेगी । तब खिलाती रहेगी ।
- हैरानी है । हमारे मंडल का शिष्य बोला - अब मुझे कुछ कुछ समझ आ रहा है । मैंने अक्सर देखा । हमारे कई लोगों के साथ होने पर भी कुत्ते सिर्फ़ इसी को काटने दौङते । इसी पर भौंकते ।
उन्हें हैरानी थी । इतनी रहस्यमय लाइलाज सी बीमारी का इलाज सिर्फ़ 1-2 रोटी खिलाना । फ़िर शाम 7 बजे फ़ोन आया - हाँ गुरुजी ! मैंने जब बताया । लङकी भी कह रही थी । वह जब अपने घर में थी । तब भी कुत्ता रोटी के लिये उसी के पास बार बार आता था । कुत्तों का उसके प्रति सामान्य से हट कर व्यवहार था । पर कुछ समझ में नहीं आता था ।
अगर आगे की बात मैं स्पष्ट न करूँ । तो निसंदेह आपके दिमाग में मेरी छवि एक सुपरमेन एक शक्तिमान एक महागुरु या अलौकिक शक्तियों के ज्ञाता की बनेगी । पर वास्तव में मैं जानता हूँ कि - मैं एकदम 0 हूँ । ये दरअसल तंत्र का खेल है । ये एक tight बिज्ञान है । और मैं सिर्फ़ निमित्त हूँ । फ़ोन कर्ता हमारे यहाँ कुछ समय से शिष्य हैं । ऐसा कभी कोई जिक्र तक नहीं हुआ । न ही पहले मुझे कुछ पता था । ये शिष्य एकदम सात्विक प्रवृति के हैं । अच्छे भक्त हैं । लङकी बहुत समय से उनकी ( उनके परिवार सहित ) सेवा में है । ये लङकी इन्हीं के पूर्व जन्म के भाई की लङकी है । और इस जन्म में मौसी की लङकी । इस खेल की खास शुरूआत आज से 10 लाख वर्ष पूर्व । और बीच में एक पङाव 20 हजार वर्ष पूर्व । और अभी इस मनुष्य जन्म में ( बीच का समय अन्य 84 की योनियाँ ) हुयी । सोचिये । बीमारी कब की । और दवा कब हुयी ? लङकी के कुछ अच्छे संस्कारों से वह भक्त परिवार में ( रहने ) आयी । वह भक्त महाराज जी की शरण में आया । फ़िर मुझसे जिक्र हुआ । मुझे रहस्य और निदान प्रकट हुआ । फ़िर बताने की प्रेरणा हुयी । बताया । अब बताईये । उसकी इस अनोखी लीला में कृपा का कौन सा बिज्ञान कौन सा नियम आप तय करेंगे ? कोई भी कङियाँ आपको सीधे सीधे जुङती नजर आ रही हैं । ये मैंने बहुत संक्षिप्त में बताया । वरना केस के हर पहलू पर गौर करें । तो बहुत पेचीदा मामला है ।
अब आप पाप और भोग संस्कार का गणित बिज्ञान समझें । सिर्फ़ इसी जन्म को लें । तो 33 साल सजा भोगने के बाद यकायक ऐसा प्रसंग बना । और मुझे इलाज बताने का मौन आदेश सा हुआ । अन्य कुछ रहस्यमय क्रियायें घटित हुयीं । और सजा उसी क्षण समाप्त हो गयी । आगे क्या भविष्य होगा । सच कहूँ । तो मुझे भी कुछ पता नहीं । निसंदेह ही जनमानस की आम मानसिकता के अनुसार ( उसके परिचितों में ) इस बात की काफ़ी चर्चा होगी । मुझसे बिना पूछे ही वे मुझे सिद्ध अहा महा बाबा घोषित कर देंगे । जिसने लाख रुपये का इलाज 1-2 रोटी से और रोग बताते ही तुरन्त कर दिया । पर हकीकत में मुझे इसके अलावा कुछ नहीं पता ।
और ऐसी ( मेरी नहीं उसकी ) कृपा किसी किसी के साथ ही होती है । बल्कि कहना चाहिये । समय आने पर खुद होती है । इसलिये इसको कृपा कह भी सकते हैं । और नहीं भी कह सकते हैं । उसकी सेवा आदि कर्म से भोग क्षीण हुआ । समय आया । और 400 किमी दूर लङकी थोङी सी शेष औपचारिकता के बाद मेरे द्वारा लगभग रोग मुक्त हो गयी । जबकि उसने मेरा चित्र तक नहीं देखा । श्री महाराज जी के भी कभी दर्शन आदि नहीं । हमारी शिष्य भी नहीं । सच तो ये है । खुद मुझे पता नहीं था कि आज कुछ ऐसा होगा । सोचिये । कितना जटिल उलझा हुआ बिज्ञान है । जबकि कई लोगों से पूर्व में मैंने कहा - अभी तुम्हें 3 साल लग जायेंगे । श्री महाराज जी ने भी कहा - इसका अभी 15 साल संघर्ष का समय और है ।
सोचिये । अगर मनुष्य की सोच के अनुसार ? कृपा होती । तो निर्मल बाबा । कुमार स्वामी और अन्य बाबाओं के फ़ार्मूले के अनुसार तो सभी के वारे न्यारे हो जाते । फ़िर कर्म फ़ल के दण्ड विधान का कोई मतलब ही न था । जबकि श्री महाराज जी स्पष्ट कहते हैं - काया से जो पातक होई । बिन भुगते छूटे नहीं कोई । मैं एकदम सच कह रहा हूँ । मेरे अपने काम सामान्य अन्दाज में बनते बिगङते रहते हैं । मेरे घर वाले भी सजा से नहीं बचते । जबकि मेरे ही द्वारा अनेकों लोगों पर कृपा हुयी है । अनेक अलौकिक अनुभूतियाँ सिर्फ़ नेट से जुङे लोगों की ही हैं । इसलिये मैं स्व महानता की कोई गलतफ़हमी कभी नहीं पालता । एक डाक्टर लोगों को ठीक करता है । तो वह सिर्फ़ उस मर्ज का जानकार होता है । सहायक होता है । भगवान नहीं । जैसा लोग सोचते हैं । रोग को भोग दवा देती है । डाक्टर नहीं । वह सिर्फ़ दवा बताता है । बाकी दवा खाना और तमाम अन्य प्रयत्न मरीज को करने होते हैं । इसलिये इस लङकी के जीते जागते उदाहरण से कृपा का बिज्ञान समझें । और लाटरी खुलने के समान कृपा होने की मूर्खतापूर्ण सोच कभी न पालें । क्योंकि लाटरी भी भाग्यवानों की ही खुलती हैं । भाग्यहीनों की नहीं । और भाग्य पुण्य से निर्मित होता है । वो पुण्य फ़ल ही होता है । इसीलिये किसी ने एकदम सही कहा है - किस्मत से ज्यादा और समय से पहले कुछ नहीं मिलता । इसलिये सतकर्मों से किस्मत बनाईये । किस्मत बदलिये । और किस्मत का स्वरूप ही इस आधार पर बनता है कि - इससे पूर्व आप किस मत के थे ?
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आजकल कुछ अतिरिक्त कार्यों में व्यस्त हूँ । अभी ये इस मेल का पूर्ण उत्तर नहीं है । ये ताजा प्रसंग आपको बताना उचित लगा । इसलिये अभी इसी मेल पर और भी विस्तार से समाधान होगा । साथ ही स्वपनिल तिवारी के कई ( सभी ) प्रश्न अभी बाकी हैं । आशा है । जल्द ही समय मिले ।