मैं अक्सर सन्तवाणी को ही स्पष्ट करता हूँ । पर क्योंकि यह डरावनी होती है । इसलिये कुछ लोगों को ये अहंकारयुक्त लगती है । इसलिये कबीर साहव की वाणी से खास प्रसंग अवलोकन हेतु प्रकाशित हैं । सभी के सरल अर्थ हैं । पर लेख बङा है । इसलिये अर्थ नहीं लिख पा रहा ।
दिवाने मन ! भजन बिना दुख पैहो ।
पहला जनम भूत का पइहो । सात जनम पछतहयो । कांटा पर का पानी पैहो । प्यासन ही मर जैहो ।
दूजा जनम सुवा का पैहो । बाग बसेरा लैहो । टूटे पंख मंडराने । अधफड प्रान गवैहो ।
बाजीगर के बानर होइ हो । लकडिन नाच नचैहो । ऊंच नीच से हाथ पसरि हो । मांगे भीख न पैहो ।
तेली के घर बैला होइ हो । आंखन ढांप ढंपैहयो । कोस पचास घरे मा चल हो । बाहर होन न पैहो ।
पंचवा जनम ऊंट का पैहो । बिन तोलन बोझ लदैहो । बैठे से तो उठन न पैहो । खुरच खुरच मर जैहो ।
धोबी घर गदहा होइ हो । कटी घास नहिं पैहो । लदी लाद आपु चढ बैठे । ले घाटे पहुंचैहो ।
पंछिन मां तो कौवा होइहो करर करर गुहरैहो । उडि के जाय बैठि मैले थल । गहरे चोंच लगैहो ।
सतनाम की हेर न करिहो । मन ही मन पछतहयो । कहे कबीर सुनो भई साधो । नरक नसेनी पैहो ।
- पहला जन्म भूत का । दूसरा तोते का । आगे बन्दर का । तेली के बैल का । फ़िर ऊँट का । तब गधा का । फ़िर कौवा का । ( सामान्य रूप नियम से मिली 84 की बात है )
सो चादर सुर नर मुनि ओढी । ओढ के मैली कीनी चदरिया । दास कबीर जतन कर ओढी । ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया ।
- सुर यानी देवता । आदमी और मुनि ने ये चदरिया शरीर ओङ के मैला कर दिया । बङे खोज का विषय है ।
केहि समुझावो सब जग अन्धा । इक दुइ होय उनहें समुझावो । सबहि भुलाने पे टके धन्धा । पानी घोड पवन असवरवा । ढरक परे जस ओस को बुन्दा । गहरी नदी अगम बहे धरवा खेवन हार के पडिगा फन्दा । घर की वस्तु नजर नहि आवत । दियना बारि के ढूंढत अन्धा । लागी आग सबे बन जरिगा । बिन गुरु ज्ञान भटक गा बन्दा । कहे कबीर सुनो भाई साधो जाय । लंगोटी झार के बन्दा ।
- कबीर साहब ! अब तो पूरा संसार ही अँधा बता दिया ।
क्यों सोया पैर पसार के । तेरे सर पर मौत खङी है ।
आज बात तू कहता कहाँ की । थोङा सा दिन रह गया बाकी । कौङी टका पास नहि राखी । चल दयो पगङी झार के । तोरी किसने बुद्धि हरी है...क्यों..
भौ सागर ये अगम अपारा । कैसे नाव लगे उस पारा । ठाङे करते सोच विचारा । नहि मल्लाह नहि गांव है । फ़िर बीते घङी घङी है...क्यों
आगे कठिन परत है झाङी । कैसे राह मिलेगी सादरी । मती भूलना निपट अनाङी । धरना पैर संभार के ।
पानी से नाव भरी है...क्यों
कह कबीर जम मांगे लेखा । मानुष जन्म नही मिलने का । करनी घटी तो जमों घर देखा । दिये नरक में डार के । मुगदर की मार परी है ...क्यों ..
मन ना रंगाए । रंगाए जोगी कपड़ा ।
आसन मारि मंदिर में बैठे । ब्रम्ह छाड़ि पूजन लगे पथरा । कनवा फड़ाय जटवा बढ़ौले । दाढ़ी बढ़ाय जोगी होई गेले बकरा । जंगल जाये जोगी धुनिया रमौले । काम जराए जोगी होए गैले हिजड़ा ।
मथवा मुड़ाय जोगी कपड़ो रंगौले । गीता बांच के होय गैले लबरा । कहहि कबीर सुनो भाई साधो । जम दरवजवा बांधल जैबे पकड़ा ।
माया महा ठगनी हम जानी । तिरगुन फांस लिए कर डोले । बोले मधुरे बानी ।
केसव के कमला वे बैठी । शिव के भवन भवानी । पंडा के मूरत वे बैठीं । तीरथ में भई पानी ।
योगी के योगन वे बैठी । राजा के घर रानी । काहू के हीरा वे बैठी । काहू के कौड़ी कानी ।
भगतन की भगतिन वे बैठी । बृह्मा के बृह्माणी । कहे कबीर सुनो भई साधो । यह सब अकथ कहानी ।
साधो ये मुरदों का गांव
पीर मरे पैगम्बर मरिहे । मरिहे जिन्दा जोगी । राजा मरिहे परजा मरिहे । मरिहे बैद और रोगी ।
चंदा मरिहे सूरज मरिहे । मरिहे धरण आकासा । चौदह भुवन के चौधरी मरिहे । इन्हू की का आसा ।
नौहू मरिहे दसहू मरिहे । मरिहे सहज अठ्ठासी । तैंतीस कोट देवता मरिहे । बड़ी काल की बाजी ।
नाम अनाम अनंत रहत है । दूजा तत्व न होइ । कहत कबीर सुनो भाई साधो । भटक मरो ना कोई ।
झूठे सुख को सुख कहे । मानत है मन मोद । जगत चबेना काल का । कुछ मुख में कुछ गोद ।
कबीर कलि खोटी भई । मुनियर मिले न कोइ । लालच लोभी मसकरा । तिनकू आदर होइ ।
ब्राह्मण गुरू जगत का । साधू का गुरू नाहिं । उरझि पुरझि करि मरि रहा । चारिउ बेदा माहिं ।
तीरथ करि करि जग मुवा । डूँघै पाणी नहाइ । रामहि राम जपंतडां । काल घसीटया जाइ ।
कबीर इस संसार को । समझांऊ के बार । पूंछ जो पकङे भेड़ की । उतरया चाहे पार ।
कबीर कहा गरबियो । काल गहे कर केस । ना जाने कहां मारिसी । के घर के परदेस ।
कहा कियो हम आइ करि । कहा कहेगे जाइ । इत के भये न उत के । चाले मूल गंवाइ ।
उजला कपड़ा पहरि कर । पान सुपारी खाहि । एक हरि के नाव बिन । बांधे जमपुरि जाहि ।
कबीरा माला मनहि की । और संसारी भीख । माला फेरे हरि मिले । गले रहट के देख ।
दुर्लभ मानुष जन्म है देह न बारम्बार । तरुवर ज्यों पत्ती झड़े बहुरि न लागे डार ।
फूटी आंख विवेक की । लखे ना सन्त असन्त । जाके संग दस बीस हैं । ताको नाम महन्त ।
जहाँ काम तहाँ नाम नहिं । जहाँ नाम नहिं वहाँ काम । दोनों कबहू नहिं मिले । रवि रजनी इक धाम ।
गर्भ योगेश्वर गुरु बिना । लागा हर का सेव । कह कबीर बैकुण्ठ से । फेर दिया शुकदेव ।
उतते कोई न आवई । तांसू पूछूं धाय । इतते ही सब जात है । भार लदाय लदाय ।
नहाये धोये क्या हुआ । जो मन मैल न जाय । मीन सदा जल में रहे । धोये बास न जाय ।
बन्धे को बन्धा मिला । छूटे कौन उपाय । अन्धे को अन्धा मिला । मारग कौन बताय ।
मूंड़ मुड़ाये हरि मिले । सब कोई लेय मुड़ाय । बार बार के मुड़ते । भेड़ न बैकुण्ठ जाय ।
मथुरा भावे द्वारिका । भावे जो जगन्नाथ । साधु संग हरि भजन बिनु । कछु न आवे हाथ ।
राम पियारा छाड़ि करि । करे आन का जाप । बेस्या केरा पूत ज्यूं । कहे कौन सू बाप
कबीर इस संसार को । समझाऊं के बार । पूंछ जो पकङे भेड़ की । उतरया चाहे पार ।
कबीर माया पापिनी फंद ले बैठी हाट । सब जग तो फंदे पडा । गया कबीर काट ।
जप तप दीसे थोथरा । तीरथ वृत बेसास । सूवा सेमल सेविया । यो जग चल्या निरास ।
कबीर कहा गरबियो । काल गहे कर केस । ना जाने कहाँ मार दे । के घर के परदेस ।
जानीता बूझा नहीं । बूझि किया नहीं गौन । अन्धे को अन्धा मिला । राह बतावे कौन ।
जा का गुरु है आंधरा । चेला खरा निरन्ध । अन्धे को अन्धा मिला । पड़ा काल के फन्द ।
गुरु लोभी शिष लालची । दोनों खेले दाव । दोनों बूड़े बापुरे । चढ़ि पाथर की नाव ।
आगे अंधा कूप में । दूजे लिया बुलाय । दोनों बूडे बापुरे । निकसे कौन उपाय ।
गुरु किया है देह का । सतगुरु चीन्हा नाहिं । भवसागर के जाल में । फिर फिर गोता खाहि ।
कबीर गुरु है घाट का । हाटू बैठा चेल । मूड़ मुड़ाया सांझ कू । गुरु सबेरे ठेल ।
कबीर बेड़ा सार का । ऊपर लादा सार । पापी का पापी गुरु । यो बूडा संसार ।
गुरुवा तो घर घर फिरे । दीक्षा हमरी लेउ । के बूडो के ऊबरो । टका परदानी देउ ।
गुरुवा तो सस्ता भया । कौड़ी अर्थ पचास । अपने तन की सुधि नहीं । शिष्य करन की आस ।
जाका गुरु है गिरही । गिरही चेला होय । कीच कीच के धोवते । दाग न छूटे कोय ।
कबीर गुरु की भक्ति बिन । राजा गर्दभ होय । माटी लदे कुम्हार की, घास न डारे कोय ।
- राजा की गति कबीर साहब के शब्दों में -
कबीर गुरु की भक्ति बिन । नारी कूकरी होय । गली गली भूँकत फिरे । टूक न डारे कोय ।
- हे भगवान ! औरत के लिये कबीर साहब यह कैसी बात कर रहे हैं ।
जो कामिनि परदे रहे । सुने न गुरुमुख बात । सो तो होगी कूकरी । फिरे उघारे गात ।
- ओह गाड ! परदे में रहने वाली यानी सुलक्षणा नारी के लिये ये क्या बोला कबीर ने । अब मैं क्या कहूँ । बस इतना मुझे पता है । गात इंगलिश में buttock होता है । और उघारे मतलब खोले हुये । कूकरी आप देख लेना । शायद कुतिया से कहा जाता है ।
शुकदेव सरीखा फेरिया । तो को पावे पार । बिनु गुरु निगुरा जो रहे । पड़े चौरासी धार ।
- हद हो गयी । शुकदेव जी जैसे ज्ञानी का ये रिजल्ट निकला । स्वर्ग जैसे मामूली तुच्छ जगह से लौटा दिया । जबकि ये पूरी पब्लिक ही स्वर्ग में जाती है । मरने के बाद लिखते हैं । स्वर्गवासी हुआ ।
निगुरा ब्राह्मण नहिं भला । गुरुमुख भला चमार । देवतन से कुत्ता भला । नित उठि भूंके द्वार ।
- देखिये कबीर जी ! क्या और किनके लिये कह रहे हैं ।
वेद थके बृह्मा थके । थाके सेस महेस । गीता हूँ कि गत नहीं । सन्त किया परवेस
- वेद । बृह्मा । शेष । शंकर । भगवत गीता इनकी कोई वैल्यू नहीं । आश्चर्य है ।
यह कलियुग आयो अबे । साधु न जाने कोय । कामी क्रोधी मसखरा । तिनकी पूजा होय ।
साधु भया तो क्या भय । माला पहिरी चार । बाहर भेष बनाइया । भीतर भरी भंगार ।
दुनिया के धोखे मुआ । चला कुटुम की कानि । तब कुल की क्या लाज है । जब ले धरा मसानि ।
- धोखे में बीता जीवन और अन्तकाल का पछतावा ।
तू मति जाने बावरे । मेरा है यह कोय । प्रान पिण्ड सो बंधि रहा । सो नहिं अपना होय ।
एक दिन ऐसा होयगा । कोय काहु का नांहि । घर की नारी को कहे । तन की नारी जांहि ।
- अन्तिम समय अपनी नारी ( पत्नी ) तो क्या शरीर की नारी ( नाङी ) भी नहीं रहेगी ।
आस पास जोधा खड़े । सबे बजाबे गाल । मंझ महल से ले चला । ऐसा परबल काल ।
- सभी शारीरिक पौरुष बल अन्त में व्यर्थ है । काल के सामने ।
सब जग डरपे काल सों । बृह्मा विष्णु महेश । सुर नर मुनि ओ लोक सब । सात रसातल सेस ।
- बृह्मा विष्णु महेश सुर नर मुनि सब लोक सात रसातल और शेष ये सब काल से डरते हैं । यानी इनकी मृत्यु होती है ।
पाहन पुजे हरि मिले । तो मैं पूजूं पहाड़ । ताते या चाकी भली । पीस खाए संसार ।
कांकर पाथर जोरि के । मस्जिद लई बनाय । ता चढ़ मुल्ला बांग दे । बहरा हुआ खुदाए ।
अरे इन दोउन राह न पाई ।
हिन्दू आपन करे बड़ाई । गागर छुअन न देई । वेश्या के पायन तर सोवे । यह देखो हिन्दुआई ।
मुसलमान के पीर औलिया । मुरगी मुरगा खाई । खाला केरी बेटी ब्याहे । घरहि में करहिं सगाई ।
दिवाने मन ! भजन बिना दुख पैहो ।
पहला जनम भूत का पइहो । सात जनम पछतहयो । कांटा पर का पानी पैहो । प्यासन ही मर जैहो ।
दूजा जनम सुवा का पैहो । बाग बसेरा लैहो । टूटे पंख मंडराने । अधफड प्रान गवैहो ।
बाजीगर के बानर होइ हो । लकडिन नाच नचैहो । ऊंच नीच से हाथ पसरि हो । मांगे भीख न पैहो ।
तेली के घर बैला होइ हो । आंखन ढांप ढंपैहयो । कोस पचास घरे मा चल हो । बाहर होन न पैहो ।
पंचवा जनम ऊंट का पैहो । बिन तोलन बोझ लदैहो । बैठे से तो उठन न पैहो । खुरच खुरच मर जैहो ।
धोबी घर गदहा होइ हो । कटी घास नहिं पैहो । लदी लाद आपु चढ बैठे । ले घाटे पहुंचैहो ।
पंछिन मां तो कौवा होइहो करर करर गुहरैहो । उडि के जाय बैठि मैले थल । गहरे चोंच लगैहो ।
सतनाम की हेर न करिहो । मन ही मन पछतहयो । कहे कबीर सुनो भई साधो । नरक नसेनी पैहो ।
- पहला जन्म भूत का । दूसरा तोते का । आगे बन्दर का । तेली के बैल का । फ़िर ऊँट का । तब गधा का । फ़िर कौवा का । ( सामान्य रूप नियम से मिली 84 की बात है )
सो चादर सुर नर मुनि ओढी । ओढ के मैली कीनी चदरिया । दास कबीर जतन कर ओढी । ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया ।
- सुर यानी देवता । आदमी और मुनि ने ये चदरिया शरीर ओङ के मैला कर दिया । बङे खोज का विषय है ।
केहि समुझावो सब जग अन्धा । इक दुइ होय उनहें समुझावो । सबहि भुलाने पे टके धन्धा । पानी घोड पवन असवरवा । ढरक परे जस ओस को बुन्दा । गहरी नदी अगम बहे धरवा खेवन हार के पडिगा फन्दा । घर की वस्तु नजर नहि आवत । दियना बारि के ढूंढत अन्धा । लागी आग सबे बन जरिगा । बिन गुरु ज्ञान भटक गा बन्दा । कहे कबीर सुनो भाई साधो जाय । लंगोटी झार के बन्दा ।
- कबीर साहब ! अब तो पूरा संसार ही अँधा बता दिया ।
क्यों सोया पैर पसार के । तेरे सर पर मौत खङी है ।
आज बात तू कहता कहाँ की । थोङा सा दिन रह गया बाकी । कौङी टका पास नहि राखी । चल दयो पगङी झार के । तोरी किसने बुद्धि हरी है...क्यों..
भौ सागर ये अगम अपारा । कैसे नाव लगे उस पारा । ठाङे करते सोच विचारा । नहि मल्लाह नहि गांव है । फ़िर बीते घङी घङी है...क्यों
आगे कठिन परत है झाङी । कैसे राह मिलेगी सादरी । मती भूलना निपट अनाङी । धरना पैर संभार के ।
पानी से नाव भरी है...क्यों
कह कबीर जम मांगे लेखा । मानुष जन्म नही मिलने का । करनी घटी तो जमों घर देखा । दिये नरक में डार के । मुगदर की मार परी है ...क्यों ..
मन ना रंगाए । रंगाए जोगी कपड़ा ।
आसन मारि मंदिर में बैठे । ब्रम्ह छाड़ि पूजन लगे पथरा । कनवा फड़ाय जटवा बढ़ौले । दाढ़ी बढ़ाय जोगी होई गेले बकरा । जंगल जाये जोगी धुनिया रमौले । काम जराए जोगी होए गैले हिजड़ा ।
मथवा मुड़ाय जोगी कपड़ो रंगौले । गीता बांच के होय गैले लबरा । कहहि कबीर सुनो भाई साधो । जम दरवजवा बांधल जैबे पकड़ा ।
माया महा ठगनी हम जानी । तिरगुन फांस लिए कर डोले । बोले मधुरे बानी ।
केसव के कमला वे बैठी । शिव के भवन भवानी । पंडा के मूरत वे बैठीं । तीरथ में भई पानी ।
योगी के योगन वे बैठी । राजा के घर रानी । काहू के हीरा वे बैठी । काहू के कौड़ी कानी ।
भगतन की भगतिन वे बैठी । बृह्मा के बृह्माणी । कहे कबीर सुनो भई साधो । यह सब अकथ कहानी ।
साधो ये मुरदों का गांव
पीर मरे पैगम्बर मरिहे । मरिहे जिन्दा जोगी । राजा मरिहे परजा मरिहे । मरिहे बैद और रोगी ।
चंदा मरिहे सूरज मरिहे । मरिहे धरण आकासा । चौदह भुवन के चौधरी मरिहे । इन्हू की का आसा ।
नौहू मरिहे दसहू मरिहे । मरिहे सहज अठ्ठासी । तैंतीस कोट देवता मरिहे । बड़ी काल की बाजी ।
नाम अनाम अनंत रहत है । दूजा तत्व न होइ । कहत कबीर सुनो भाई साधो । भटक मरो ना कोई ।
झूठे सुख को सुख कहे । मानत है मन मोद । जगत चबेना काल का । कुछ मुख में कुछ गोद ।
कबीर कलि खोटी भई । मुनियर मिले न कोइ । लालच लोभी मसकरा । तिनकू आदर होइ ।
ब्राह्मण गुरू जगत का । साधू का गुरू नाहिं । उरझि पुरझि करि मरि रहा । चारिउ बेदा माहिं ।
तीरथ करि करि जग मुवा । डूँघै पाणी नहाइ । रामहि राम जपंतडां । काल घसीटया जाइ ।
कबीर इस संसार को । समझांऊ के बार । पूंछ जो पकङे भेड़ की । उतरया चाहे पार ।
कबीर कहा गरबियो । काल गहे कर केस । ना जाने कहां मारिसी । के घर के परदेस ।
कहा कियो हम आइ करि । कहा कहेगे जाइ । इत के भये न उत के । चाले मूल गंवाइ ।
उजला कपड़ा पहरि कर । पान सुपारी खाहि । एक हरि के नाव बिन । बांधे जमपुरि जाहि ।
कबीरा माला मनहि की । और संसारी भीख । माला फेरे हरि मिले । गले रहट के देख ।
दुर्लभ मानुष जन्म है देह न बारम्बार । तरुवर ज्यों पत्ती झड़े बहुरि न लागे डार ।
फूटी आंख विवेक की । लखे ना सन्त असन्त । जाके संग दस बीस हैं । ताको नाम महन्त ।
जहाँ काम तहाँ नाम नहिं । जहाँ नाम नहिं वहाँ काम । दोनों कबहू नहिं मिले । रवि रजनी इक धाम ।
गर्भ योगेश्वर गुरु बिना । लागा हर का सेव । कह कबीर बैकुण्ठ से । फेर दिया शुकदेव ।
उतते कोई न आवई । तांसू पूछूं धाय । इतते ही सब जात है । भार लदाय लदाय ।
नहाये धोये क्या हुआ । जो मन मैल न जाय । मीन सदा जल में रहे । धोये बास न जाय ।
बन्धे को बन्धा मिला । छूटे कौन उपाय । अन्धे को अन्धा मिला । मारग कौन बताय ।
मूंड़ मुड़ाये हरि मिले । सब कोई लेय मुड़ाय । बार बार के मुड़ते । भेड़ न बैकुण्ठ जाय ।
मथुरा भावे द्वारिका । भावे जो जगन्नाथ । साधु संग हरि भजन बिनु । कछु न आवे हाथ ।
राम पियारा छाड़ि करि । करे आन का जाप । बेस्या केरा पूत ज्यूं । कहे कौन सू बाप
कबीर इस संसार को । समझाऊं के बार । पूंछ जो पकङे भेड़ की । उतरया चाहे पार ।
कबीर माया पापिनी फंद ले बैठी हाट । सब जग तो फंदे पडा । गया कबीर काट ।
जप तप दीसे थोथरा । तीरथ वृत बेसास । सूवा सेमल सेविया । यो जग चल्या निरास ।
कबीर कहा गरबियो । काल गहे कर केस । ना जाने कहाँ मार दे । के घर के परदेस ।
जानीता बूझा नहीं । बूझि किया नहीं गौन । अन्धे को अन्धा मिला । राह बतावे कौन ।
जा का गुरु है आंधरा । चेला खरा निरन्ध । अन्धे को अन्धा मिला । पड़ा काल के फन्द ।
गुरु लोभी शिष लालची । दोनों खेले दाव । दोनों बूड़े बापुरे । चढ़ि पाथर की नाव ।
आगे अंधा कूप में । दूजे लिया बुलाय । दोनों बूडे बापुरे । निकसे कौन उपाय ।
गुरु किया है देह का । सतगुरु चीन्हा नाहिं । भवसागर के जाल में । फिर फिर गोता खाहि ।
कबीर गुरु है घाट का । हाटू बैठा चेल । मूड़ मुड़ाया सांझ कू । गुरु सबेरे ठेल ।
कबीर बेड़ा सार का । ऊपर लादा सार । पापी का पापी गुरु । यो बूडा संसार ।
गुरुवा तो घर घर फिरे । दीक्षा हमरी लेउ । के बूडो के ऊबरो । टका परदानी देउ ।
गुरुवा तो सस्ता भया । कौड़ी अर्थ पचास । अपने तन की सुधि नहीं । शिष्य करन की आस ।
जाका गुरु है गिरही । गिरही चेला होय । कीच कीच के धोवते । दाग न छूटे कोय ।
कबीर गुरु की भक्ति बिन । राजा गर्दभ होय । माटी लदे कुम्हार की, घास न डारे कोय ।
- राजा की गति कबीर साहब के शब्दों में -
कबीर गुरु की भक्ति बिन । नारी कूकरी होय । गली गली भूँकत फिरे । टूक न डारे कोय ।
- हे भगवान ! औरत के लिये कबीर साहब यह कैसी बात कर रहे हैं ।
जो कामिनि परदे रहे । सुने न गुरुमुख बात । सो तो होगी कूकरी । फिरे उघारे गात ।
- ओह गाड ! परदे में रहने वाली यानी सुलक्षणा नारी के लिये ये क्या बोला कबीर ने । अब मैं क्या कहूँ । बस इतना मुझे पता है । गात इंगलिश में buttock होता है । और उघारे मतलब खोले हुये । कूकरी आप देख लेना । शायद कुतिया से कहा जाता है ।
शुकदेव सरीखा फेरिया । तो को पावे पार । बिनु गुरु निगुरा जो रहे । पड़े चौरासी धार ।
- हद हो गयी । शुकदेव जी जैसे ज्ञानी का ये रिजल्ट निकला । स्वर्ग जैसे मामूली तुच्छ जगह से लौटा दिया । जबकि ये पूरी पब्लिक ही स्वर्ग में जाती है । मरने के बाद लिखते हैं । स्वर्गवासी हुआ ।
निगुरा ब्राह्मण नहिं भला । गुरुमुख भला चमार । देवतन से कुत्ता भला । नित उठि भूंके द्वार ।
- देखिये कबीर जी ! क्या और किनके लिये कह रहे हैं ।
वेद थके बृह्मा थके । थाके सेस महेस । गीता हूँ कि गत नहीं । सन्त किया परवेस
- वेद । बृह्मा । शेष । शंकर । भगवत गीता इनकी कोई वैल्यू नहीं । आश्चर्य है ।
यह कलियुग आयो अबे । साधु न जाने कोय । कामी क्रोधी मसखरा । तिनकी पूजा होय ।
साधु भया तो क्या भय । माला पहिरी चार । बाहर भेष बनाइया । भीतर भरी भंगार ।
दुनिया के धोखे मुआ । चला कुटुम की कानि । तब कुल की क्या लाज है । जब ले धरा मसानि ।
- धोखे में बीता जीवन और अन्तकाल का पछतावा ।
तू मति जाने बावरे । मेरा है यह कोय । प्रान पिण्ड सो बंधि रहा । सो नहिं अपना होय ।
एक दिन ऐसा होयगा । कोय काहु का नांहि । घर की नारी को कहे । तन की नारी जांहि ।
- अन्तिम समय अपनी नारी ( पत्नी ) तो क्या शरीर की नारी ( नाङी ) भी नहीं रहेगी ।
आस पास जोधा खड़े । सबे बजाबे गाल । मंझ महल से ले चला । ऐसा परबल काल ।
- सभी शारीरिक पौरुष बल अन्त में व्यर्थ है । काल के सामने ।
सब जग डरपे काल सों । बृह्मा विष्णु महेश । सुर नर मुनि ओ लोक सब । सात रसातल सेस ।
- बृह्मा विष्णु महेश सुर नर मुनि सब लोक सात रसातल और शेष ये सब काल से डरते हैं । यानी इनकी मृत्यु होती है ।
पाहन पुजे हरि मिले । तो मैं पूजूं पहाड़ । ताते या चाकी भली । पीस खाए संसार ।
कांकर पाथर जोरि के । मस्जिद लई बनाय । ता चढ़ मुल्ला बांग दे । बहरा हुआ खुदाए ।
अरे इन दोउन राह न पाई ।
हिन्दू आपन करे बड़ाई । गागर छुअन न देई । वेश्या के पायन तर सोवे । यह देखो हिन्दुआई ।
मुसलमान के पीर औलिया । मुरगी मुरगा खाई । खाला केरी बेटी ब्याहे । घरहि में करहिं सगाई ।
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