01 नवंबर 2011

गृहस्थ योग और सेक्स

सत्यकीखोज के सभी पाठकों को सोहन गोदारा की तरफ से दीपावली की घणी घणी राम राम सा । राजीव जी ! मैं निमित्त या माध्यम ही सही ।  मेरी वजह से पाठकों को बहुत ही ज्ञानवर्धक जानकारी उपलब्ध हुई । ये जानकर बहुत अच्छा लगा ।
राजीव जी ! मैं आपसे ये जानना चाहता हूँ कि - गृहस्थ बङा है । या योग ? मेरा मतलब है कि गृहस्थी में रहकर जो परमात्मा का भजन करता है । उसका दर्जा बङा है । या जो योगी सन्यासी होकर परमात्मा को भजता है उसका । ये जरा खुलकर समझा दीजिये । धन्यवाद । आपका ही सोहन गोदारा । टिब्बी । हनुमानगढ । राजस्थान । ई मेल से ।
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दुकानदार बङा है । या ग्राहक । राम बङा है । या रावण । माया बङी है । या भक्ति ? ये प्रश्न मुझसे सिर्फ़ सोहन जी ने ही नहीं बल्कि अब तक बहुत लोगों ने किया है । और मुझे इस प्रश्न पर बहुत ही आश्चर्य होता है । आम जनता में कब यह गलत धारणा बन गयी कि गृहस्थ और योग दो एकदम अलग चीजें हैं । और इनमें कुछ छोटा बङा है । देखिये । तमाम ज्ञान वार्ता में सन्त समाज माया को ठगिनी और दुष्टा बताता है । और तब उस योग स्थिति में

वह सत्य भी है । पर बाद में सन्त अन्य स्थिति में कहते हैं - जो माया को झूठा कहें । उनका झूठा ज्ञान । माया से ही होत हैं । तीर्थ पुण्य औ दान ।
अब ये ठीक अपनी ही कही बात का खण्डन सा लग रहा है । पर वास्तव में सत्य नहीं है । सत्य सिर्फ़ समझने भर का है । योग स्थिति में यानी कोई साधु योग ध्यान के समय भी इनमें मानसिक उलझा रहता है । तो माया बाधक है । पर सामान्य चर्या में शरीर निर्वाह की स्थिति आने पर माया आवश्यक हो जायेगी । तब पत्नी भी होगी । बच्चे भी होगें । हास परिहास सब होगा । क्योंकि अति का योग भी निरन्तर नहीं किया जा सकता ।
श्री राम गुरुकुल से शिक्षा ज्ञान प्राप्त कर निकल रहे हैं - गुरु गृह पढन गये रघुराई । अल्पकाल विधा सब पाई । वशिष्ठ जी कहते हैं - हे राम ! अब इस शिक्षा को जीवन में चरितार्थ करके दिखाओ । दाम्पत्य राज आदि का उचित निर्वाह करके आदर्श प्रस्तुत करो ।
पर तीवृ ज्ञान का प्रवाह राम को क्षणिक वैरागी बना रहा है । वो कहते हैं - गुरुदेव ! संसार व्यर्थ है । स्वप्न मात्र है । मुझे स्त्री और राज अभिलाषा से भला क्या प्रयोजन ।
तब वशिष्ठ जी कहते हैं - नहीं राम ! कहने से अर्थात बातों से काम नहीं चलेगा । इसको जीवन में सिद्ध करके दिखाओ । अर्थात जिस प्रकार कीचङ में खिला कमल भी गन्दगी से लिप्त नहीं होता । यदि तुम वासनात्मक संसार में रहते हुये भी उससे निर्लिप्त रहे । तव ही योग को सफ़ल समझो ।
सबसे पहले तो मुझे यही समझ में नहीं आता कि कौन से ऐसे योगी साधु हुये हैं । जो पत्नी प्रेमिका स्त्री अथवा सम्भोग आदि से दूर रहे हों । ये सब उनके जीवन में कभी न कभी घटित हुये । फ़िर ये धारणा कब और कैसे बन गयी । बङे आश्चर्य की बात है । आत्मज्ञानी सन्तों में कबीर नानक रैदास स्वामी रामतीर्थ मीरा आदि सभी विवाहित और बाल बच्चों वाले थे । अन्य योग पुरुषों में भगवान कृष्ण राम दुर्वासा शंकर विष्णु आदि जितने भी महत्वपूर्ण हुये हैं । सभी विवाहित और प्रेमी की भूमिका में भी रहे । गृहस्थ भी थे । नारद जैसे महर्षि कई बार विवाहित हुये ।

कुछेक अपवाद जो होते हैं । तो जैसे सामान्य जीवन में भी बहुत से मनुष्य अविवाहित या स्त्री प्रेम संस्कार वश प्राप्त नहीं कर पाते । या फ़िर किसी कारणवश उनका ऐसा स्वभाव ही नहीं होता । वही स्वभाव वाली बात किसी साधु पर भी लागू होती है कि वह अपने देही जीवन को किस तरह जीता है । और योगी जीवन को किस तरह । विवाह न करने से या स्त्री से दूर रहने से कोई उसमें लाल तो नहीं लग जाते । गुणवान स्त्री होने पर वास्तव में योगी के लिये बेहद सहायक होती है । वह मात्र सेवा भाव से अपना बहुत बङा उद्धार पाती है । याद करिये । चेतन पुरुष ने अपने अर्धांग से स्त्री को सर्वप्रथम प्रकट किया । तब इनके संयोग से हुयी अँश संतति भी स्त्री और पुरुष ही थी । यानी भाई और बहन । अब गौर करिये । एक स्त्री । एक पुरुष ।  और उनके अपने ही समान शरीरी दो संतान । बहुत गहराई से सोचिये । अभी भी सिर्फ़ ये ही दो दो हैं । फ़िर बाकी सम्बन्ध सामाजिक रचना हेतु निर्मित हुये । समाज गठन तथा आंतरिक गुणों की विभिन्नता और विकास के लिये इनके दूर दूर विवाह जैसे सम्बन्ध नियम बने । जो जीन की उच्च गुणवत्ता के लिये बेहद आवश्यक है । तो योग से गृहस्थ आरम्भ हुआ । और गृहस्थ के जरिये ही योग हुआ ।

कबीर जैसे अपवाद प्रकट पुरुषों को छोङकर हजारों लाखों साधु तपस्वी गृहस्थ से ही तो उत्पन्न हुये हैं । तब ये एक दूसरे के पूरक हैं । और अपनी अपनी जगह दोनों ही बङे हैं । मैंने हमेशा इस बात का विरोध किया है कि कोई भी स्थिति गलत है । मीरा और स्वपच जैसे उच्च कोटि के सन्त शुरूआत में किसी आम इंसान जैसी प्रेमी प्रेमिका भावना से भक्ति की शुरूआत करते हैं । और अकल्पनीय  ऊँचाई पर जाते हैं । उतनी ऊँचाई । जिसके बाद कुछ है ही नहीं ।
पति पत्नी । प्रेमी प्रेमिका । योगी अथवा गृहस्थ । ये सभी प्राप्तियाँ कोई अपने चाहने से यकायक नहीं कर सकता । इनके पीछे बहुत जन्मों के संस्कार काम करते हैं । जिसे जीव अहम मूल से निर्मित होने के कारण मानता है कि - ये सब मैं कर रहा हूँ । पर वास्तव में ये सब हो रहा है । अदृश्य में विभिन्न घटकों के मिलने से दृश्य में चित्र बन रहा है । इसलिये सामान्य जीवन हो । या फ़िर योग जीवन । सभी परिस्थियाँ पिछले संस्कारों से आकार लेती हैं । जब तक जीवात्मा पूर्णतयाः संस्कार मुक्त नहीं हो जाता । तब तक परवश परिस्थितियों में ही जीना होगा ।
अब एक अपने से ही जुङा उदाहरण लीजिये । आप जैसे भाव से और जिस भाव के स्तर ‍% से मुझसे जुङे हैं । वो भी हमारे आपके पूर्व संस्कार वश ही है । हरेक को लग रहा होगा । जैसा मुझे लग रहा है । वैसा ही अन्य सबको भी लग रहा होगा । पर यह सही नहीं है । हरेक के भाव और % में बहुत अंतर है । तब अच्छा या बुरा । उसके अन्दर 


वैसी ही घटना घटित हो रही है । आप किसी से प्रेम करिये । नफ़रत करिये । वो घटना उससे ज्यादा आपके अन्दर घटित होगी । क्योंकि मूल भाव आपके अन्दर बन रहा है । ये आश्चर्यजनक है कि प्रेम के संस्कार का % बहुत कम होता है । तुलनात्मक % नफ़रत के ।
और प्रेम करने वालों की अपेक्षा आपसी द्वैष नफ़रत ईर्ष्य़ा आगामी जन्म के पारिवारिक सम्बन्धों को अधिक जन्म देता है । और फ़िर अगले जन्मों के पारिवारिक सम्बन्धों में फ़ूट वैमनस्य के रूप में नजर आता है । निकटतम सम्बन्धों से असंतुष्टि की स्थिति बनती है । किसी भी परिवार को देख लीजिये । उसका निर्माण इन्ही घटकों से हुआ नजर आयेगा । तुलसी रामायण में अन्य धर्म गृंथों में साफ़ लिखा है । जलन भाव उचित कारण से हो । अथवा अकारण ही क्यों न हो । यह क्षय रोग TB को जन्म देता है । सोचिये । इसका नाम ही है । जलन । तब जलेगा कौन । स्वयँ ईर्ष्यालु ही । क्योंकि जलन भाव खुद उसके अन्दर ही तो है ।
इसलिये इन विभिन्न परिस्थितियों के आधार पर - गृहस्थी में रहकर जो परमात्मा का भजन करता है । या जो

योगी सन्यासी होकर परमात्मा को भजता है । ये दोनों ही महत्वपूर्ण है । और अपनी अपनी जगह बङे हैं । गृहस्थ जब डांवाडोल होकर असंतुलन को प्राप्त होता है । तब सन्यासी उसको अपने स्तर से सहारा देता है । सन्यासी जब डांवाडोल होता है । तब गृहस्थ उसको सहारा देता है । भटकाव परिस्थितियों में दोनों एक दूसरे को उसकी भूमिका याद दिलाते हैं ।
इसलिये खास यही है । जीवात्मा जिन संस्कारों से जुङा है । उसको भुगतना ही होगा । तब वह योगी हो । या गृहस्थ । दोनों ही परिस्थितियों में अच्छी भक्ति कर सकता है । सुदामा ब्राह्मण अपनी अति गरीब परिस्थिति में ही बहुत अच्छी स्थिति को प्राप्त करता है । भक्त नरसी प्राप्त करते हैं । और बहुत से योगी साधु व्यर्थ जीवन गंवा देते हैं । इसलिये बन्धु ! ये बङा विलक्षण खेल है । जिसे शब्दों में बाँधना । नियम में बाँधना बहुत कठिन है ।
आये हैं सो जांएगे ।  राजा रंक फकीर ।  एक सिंहासन चढ़ चले ।  एक बंधे  जंजीर ।
तिनका कबहु ना निंदिये ।  जो पांव तले होय ।  कबहु उड़ आंखो पड़े ।  पीर घनेरी होय ।
लूट सके तो लूट ले ।  राम नाम की लूट । पाछे फिर पछताओगे ।  प्राण जाहिं जब छूट ।
पांच पहर धन्धे गया ।  तीन पहर गया सोय । एक पहर हरि नाम बिन ।  मुक्ति कैसे होय ।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326