2 साल से भी कम उमृ में बचपन से ही सूक्ष्म शरीरों को खुली आखों से सहज ही देखना मेरे लिये साधारण अनुभव था । और मैं बहुत लम्बे समय तक इन्हें किसी को आश्चर्य सा प्रकट हुये इसलिये नहीं कहता था कि मुझे लगता था । जैसे ये मुझे दिखते हैं । औरों को भी दिखते होंगे । इसलिये मैं इन्हें सामान्य बात ही समझता था । और बचपन से ही देखते रहने के कारण कोई भय भी महसूस नहीं करता था ।
बस एक बात अलग थी कि ये सब जो दिखता था । ये क्या था । ये मेरी समझ में नहीं आता था । तब जब मैं उसे दूसरों से या बङों से पूछता था कि ये क्या था ? तब उन्हें बहुत आश्चर्य होता था । इस तरह धीरे धीरे अनुभव से मुझे समझ में आया कि - मैं कभी कभी कुछ अलग देखता हूँ । इस तरह के पात्र सत्ता के विशेष नियन्त्रण देख रेख में होते हैं । यधपि ठीक समय आने से पहले उन्हें भी खुद की स्थिति का पता नहीं होता । इसके प्रमाण हेतु बहुत से पौराणिक पात्र हैं । जो अपने को ही भूल गये थे । जैसे हनुमान । अपनी उङने की क्षमता भूल गये थे । जैसे शेषनाग के अवतार बलराम अपने को भूल गये थे । तब श्रीकृष्ण ने उन्हें याद दिलाया । इसलिये ऐसे पात्रों के साथ स्वचालित व्यवस्था ये बन जाती है कि न वे किसी को बता पाते हैं । न कोई समझ पाता है । यदि बात थोङी आकर्षित करे भी । तो बच्चा है । भृमित हो गया होगा । बातें बना रहा है । झूठ बोल रहा है आदि कहकर बात खत्म हो जाती हैं । सबसे बङी बात । योगमाया ऐसी परिस्थिति मनस्थिति बना देती है कि सब कुछ सामान्य ही लगता है । उदाहरण स्वरूप - राम के लंका विजय से लौटने के बाद ठीक 1 महीने के बराबर समय यानी 720 घण्टे का दिन रहा था । और राम से सभी जनता प्रेमवश व्यक्तिगत मिलना चाहती थी । तब राम एक ही समय में अनेक होकर सबसे मिले । फ़िर ये बेहद असाधारण बात सब भूल गये । या कहना चाहिये । उन्हें पता ही नहीं चला कि अभी कुछ ऐसा अदभुत भी हुआ था । क्योंकि यदि याद रहती । तो उनकी जिन्दगी असमंजस से भर जाती । और दिन रात सब यही सोचते रहते । यशोदा और कौशल्या को राम और श्रीकृष्ण द्वारा विराट रूप में अपने भगवत स्वरूप के दर्शन कराना । यदि उनको याद बना रहता । तो वे कभी पुत्रवत सामान्य व्यवहार नहीं कर पाती । इसलिये योगमाया ने कुछ समय के लिये जागृत हुयी अंतदृष्टि पर माया आवरण डाल दिया । फ़िर वे सामान्य हो गयीं ।
तब मेरे साथ भी समय के साथ साथ ऐसी स्थिति बनने लगी कि मैंने कहना ही छोङ दिया । वैसे भी सभी सरकारी नौकरी पेशा परिवार में थे । किसी को फ़ुरसत ही न थी कि ऐसी फ़ालतू की बातों पर ध्यान देता । और हरेक के लिये एकाकीपन भरपूर था । इससे स्वतः प्राकृतिक साधना की परिस्थितियाँ निर्मित होने लगी । अब बचपन से एक बङा फ़ासला तय करके सीधा अब से लगभग दस साल पहले की बात करते हैं । अब तक मुझे इतने अनुभव हो चुके थे कि उन्हें गिनना या याद रखना । एकदम फ़ालतू की बात थी । शरीर से बहुत बार सोने के समान कण निकलना । और चन्दन की वारिश घर में होना आदि तो कई लोगों ने देखी थी । और कई तरह से परखा भी था । पर जिसके बारे में कुछ जानकारी ही न हो । उसके बारे में कोई भी क्या कह सकता था । बात आयी गयी हो गयी ।
पर समय आ चुका था । मेरी योग यात्रा काफ़ी परिपक्व स्थिति में आ पहुँची थी । तब दस साल पहले । मैं सामान्य ही था । पर लोगों को मैं अपसेट या पागल महसूस होता है । यहाँ तक कि तमाम लोगों ने सुझाव दिया कि मुझे इलेक्ट्रिक शाटस लगवा देने से मैं सही हो जाऊँगा । और घरवाले भी ऐसा सोचने लगे । ये बात अलग है । उल्टे मैंने ही सबको यौगिक इलेक्ट्रिक शाटस लगा दिये । जिससे सब घबरा गये । हालांकि अभी भी मेरे तमाम परिचित मुझे पागल ही समझते हैं । जिसका अनुमानित कारण उन्होंने मेरा बहुत अध्ययन करना बताया । मुझे पागल समझने की वजह थी । मेरी अजीव सी बातें । और अधिकतर समय अकेले ही हँसते रहना । अकेला ही रहना ।
पर बात यौगिक रहस्यों की है । श्री महाराज जी से मेरा अभी मिलना नहीं हुआ था । मैं उनके बारे में कुछ भी जानता तक न था । और लगभग दस साल पहले अनजाने में ही मैं एक विलक्षण योग करता था । कहीं से पढा नहीं । सुना नहीं । किसी ने बताया नहीं । स्वतः स्फ़ूर्त ।
मेरी कुण्डलिनी पहले ही जागृत थी । और मैं यूँ ही अन्दाज में सिर्फ़ दाँये कान में उंगली डालकर अनहद ध्वनियाँ सुनता था । मुश्किल से तीन चार मिनट के अभ्यास से ही अति विशाल योग भूमियाँ दृश्यमान हो उठती थी । जिस किसी ने सन्तमत की किताबें पढी होंगी । उसे पता होगा । मस्तिष्क के दायें भाग की ध्वनि को सुनना वर्जित किया गया है । क्योंकि यह सिद्ध क्षेत्र है । यहाँ सब सिद्ध जगत । सिद्ध लोक आदि हैं । जिनमें अपरिपक्व साधकों को अनेक खतरे । महामायावी खेल । और कदम कदम पर मौत तक की बिसात बिछी हुयी होती है । पर उस समय न मुझे ये पता था । न कोई बताने वाला मार्गदर्शक था । दूसरे मुझे बहुत डर के बाद भी खुद मजा आता था ।
अब ये बङी रोमांचक स्थिति होती थी । मैं अपने घर के बङे आंगन में या पिछवाङे बगिया में बैठा हुआ ही ये योग करता था । और सिद्ध क्षेत्र प्रकट हो जाता था । अति विशाल सिद्ध क्षेत्र की कौन सी भूमि या स्थान प्रकट होगा । ये मेरी उस वक्त बनी तत्कालिक वासना पर निर्भर था । अब स्थिति ये हो जाती थी कि वहाँ दूसरा जगत प्रगट हो जाता था । योग में रुचि रखने वाले । और साधक गौर से समझें । मैं अपने घर में बैठा हूँ । घर के सदस्य अपने काम में लगे चहलकदमी कर रहे हैं । और मैं वहीं होते हुये भी बहुत दूर । लाखों योजन दूर के आसमानी सिद्ध क्षेत्र में हूँ । इस स्थिति की बारीकता को समझना उचित है । मैं कोई ध्यान नहीं कर रहा । कोई आँखें बन्द नहीं । कुछ नहीं कर रहा । साधारण बैठा हूँ । बस कुछ मिनट अभ्यास से एकाग्र होकर वहाँ स्थिति हो गया । अब यहाँ एक ही समय में तीन मिश्रित स्थितियाँ बनती हैं । एक - मैं सामान्य घर में बैठा हूँ । और दुनियादारी वाली सामान्य स्थिति । यानी मुझे घर के लोग । घर आदि सब नजर आ रहा है । अलौकिकता वाली कोई बात नहीं । दो - मैं सिर्फ़ अपने को संसार में अकेला अनुभव मात्र कर रहा हूँ । घर और घर के लोग आदि कुछ नजर नहीं आ रहा । और सिद्ध क्षेत्र की भूमि मुझे स्पर्श कर रही है । यानी आखों और शरीर से महज एक फ़ुट दूर । इसमें खासियत ये होती है कि सामने ही प्रकट भूमि नजर आती है । पीछे स्पष्ट अहसास होता है कि घर भी है । और प्रथ्वी आदि भी हैं । यानी दोनों मिश्रित भूमियाँ । और भी ठीक से समझें । तो पीछे का ख्याल आते ही प्रथ्वी । और सामने देखते ही सिद्ध लोक । अब मैं एक सेतु की तरह दोनों के मध्य हुआ । इस दृश्य को ठीक से समझने के लिये कल्पना करें कि आपकी आँखों के सामने अभी प्रथ्वी का दृश्य धरातल आकाश आदि सब कुछ मौजूद है । और योगस्थ होते ही यहाँ किसी सुदूर लोक की भूमि दृश्य धरातल आकाश आदि ज्यों का त्यों दिखने लगे । बिलकुल वैसा ही जैसी पूर्व में प्रथ्वी नजर आ रही थी । पूर्ण रूप में । न कि कोई छोटा सा दृश्य बन जाये । जैसे कोई जादुई शीशा या बङी स्क्रीन देख रहे हों । ऐसा नहीं ।
तीन - प्रकट भूमि में आकर्षण पैदा होते ही । प्रथ्वी गायब । और मैं उस दृश्य के अन्दर । ऐसा तभी होगा । जब सुन्नता या शून्यता गहरा जायेगी । और जब किसी सूक्ष्म लोक के प्रति खिंचाव बनेगा । तो साधक स्वतः ही उतना सूक्ष्म हो ही जायेगा । तभी प्रवेश होगा ।
अब मेरे साथ यहाँ विशेष बात जो होती थी कि मैं इसके लिये कुछ भी करता नहीं था । बस भाव गहराता था । और वैसा होने लगता था । मैं ज्यों का त्यों साधारण बैठा ही रहता । हाँ घर की आवाजें दृश्य आदि खत्म । अब उनकी जगह । उस लोक की नयी आवाजें । और वहाँ के दृश्य ।
यही से कभी कभी डर पैदा हो जाता था । जब महासूर्य । अज्ञात परिधियाँ । अनजाने लोग । मायावी क्षेत्रों के विचित्र अनुभव में रहना होता था । यहाँ मैं अपनी स्थिति को भूल गया कि मैं अपने घर में ही हूँ । और योगस्थ हूँ । बल्कि सुन्नता की स्थिति में मैं नये लोक में विचरण कर रहा हूँ । और बिलकुल वहीं के निवासियों जैसा ही हूँ । बल्कि उस समय यही लगता है कि मैं वहीं का हूँ । लेकिन जैसे ही मन में तिनका भर भी पूर्व स्मृति खुद की हुयी । डर व्याप्त होने लगा । और - ये मैं कहाँ आ गया । लगने लगा । वापिस कैसे जाऊँ । ये डर होने लगा । ये स्वाभाविक था । पर यही गङबङ थी । ठीक इसी स्थिति के एक्सप्रेसन मैं कुछ ऐसा होता था कि घर के लोग मुझे असामान्य या पागल समझते । लेकिन उधर मुझे मजा भी आ रहा होता । और मैं फ़िर उधर का भावात्मक खिंचाव होते ही फ़िर उसी भूमि में पहुँच जाता ।
प्रारम्भिक अवस्था में । योग स्थितियों में डर लगना । एक सामान्य और स्वाभाविक बात है । इसलिये सफ़ल योगियों से जब कोई नया साधक डर लगने की बात कहता है । तो उनका एक ही जबाब होता है - डर के पास रहने से डर खत्म हो जाता है ।
एकदम सही बात है । कितनी बार डरोगे । बार बार के अभ्यास से फ़िर वह खेल के समान लगेगा । पर थोङी अङचन और होती थी । दरअसल मैं सोचता था कि उसी स्थान पर दोबारा जाऊँ । जहाँ अभी गया था । तब डर नहीं लगेगा । पर ऐसा तभी तो सम्भव है । जब मैं जानकारी मैं एक एक चीज को समझ कर गया होऊँ । मैंने तो अनजाने ही उल्टा सीधा विचार किया । और शून्यता में चला गया । तब उसी स्थिति के अनुसार भूमि या लोक में पहुँचा । अब मजे की बात देखो । खुद ही सोच रहा हूँ कि कोई राक्षस कोई मायावी आदि मिले । फ़िर खुद ही डरता हूँ । जब छोटा था । तब रामलीला में राम के वन जाने तक की लीला एकदम बोरिंग लगती । लेकिन जैसे ही शूर्पनखा की नाक कटती । और रावण एण्ड कंपनी एंटर होती । मजा आने लगता । कभी कभी तो इतनी उत्तेजना हो जाती कि चिल्लाकर सीता को बता दूँ । लक्ष्मण रेखा के बाहर मत आना । लक्ष्मण को बता दूँ - सीता की बात मत मानों । वह मायावी मृग है । एक तरफ़ उन खल पात्रों के बिना मजा भी नहीं । दूसरी तरफ़ । नायकों की बुद्धि पर तरस भी आता । अरे मुझे इनकी चालाकी पता है । फ़िर इनको क्यों नहीं पता । जबकि निश्चित है । रामलीला में रावण एण्ड फ़ैमिली का ही पूरा क्रेज बनता है । वरना शायद बच्चा तो छोङो । बूढे भी रामलीला देखने न जायें ।
वही बात यहाँ भी थी । डर भी है । मजा भी है । सबसे बङी बात । मुझे ये बहुत मामूली सी बात लग रही है कि महज कान में तीन मिनट उँगली डालकर मैं ये सब अदभुत देख रहा हूँ । और उस वक्त अधिकारिक तौर पर पता न होने से मुझे ये भी पता नहीं कि मैं लाखों योजन दूर आ गया हूँ । और बृह्माण्ड की अति ऊँचाई पर सिद्ध क्षेत्र में हूँ । क्योंकि मैंने विधिवत ज्ञान हासिल नहीं किया था । द्वैत में कोई गुरु नहीं था । मेरी सारी क्रियायें हठ योग वाली थी । अति अहम वाली थी । और मजे की बात ये थी कि मुझे तब ये भी पता नहीं था कि ये जो मैं करता हूँ । वह वास्तव में " हठ योग " है । क्योंकि मैंने पहले ही कहा । ये सब बात गुरु से या विधिवत ज्ञान से ही पता चलती है । वैसी चेतावनियाँ मैं हँसी में उङा देता था । तब बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाती । मूढता पूर्वक किये हठ योग का एक ही परिणाम होता है - मौत ।
और वह मेरे पास ही टहलती रहती थी । पर दबोच क्यों नहीं पाती थी । इसमें एक रहस्य था । और दबोच भी लिया था । वो भी चार महीने निरन्तर । पर मारने वाले से बचाने वाला बङा होता है । भले ही मैं अनभिज्ञ था । पर नाम सत्ता मेरा कवच बनकर रक्षा कर रही थी । और ये सारी गतिविधियाँ मेरी पूर्व स्मृति लौटाने का हिस्सा मात्र थे । जो तान्त्रिक मान्त्रिक भक्ति युक्त मैं पिछले तीन जन्मों से था । और हर बार अन्तिम पर्चे में फ़ेल हुआ था । उससे आगे की बात होने का प्रयोजन था ।
- आप सबके अंतर में विराजमान सर्वात्मा प्रभु आत्मदेव को मेरा सादर प्रणाम ।
बस एक बात अलग थी कि ये सब जो दिखता था । ये क्या था । ये मेरी समझ में नहीं आता था । तब जब मैं उसे दूसरों से या बङों से पूछता था कि ये क्या था ? तब उन्हें बहुत आश्चर्य होता था । इस तरह धीरे धीरे अनुभव से मुझे समझ में आया कि - मैं कभी कभी कुछ अलग देखता हूँ । इस तरह के पात्र सत्ता के विशेष नियन्त्रण देख रेख में होते हैं । यधपि ठीक समय आने से पहले उन्हें भी खुद की स्थिति का पता नहीं होता । इसके प्रमाण हेतु बहुत से पौराणिक पात्र हैं । जो अपने को ही भूल गये थे । जैसे हनुमान । अपनी उङने की क्षमता भूल गये थे । जैसे शेषनाग के अवतार बलराम अपने को भूल गये थे । तब श्रीकृष्ण ने उन्हें याद दिलाया । इसलिये ऐसे पात्रों के साथ स्वचालित व्यवस्था ये बन जाती है कि न वे किसी को बता पाते हैं । न कोई समझ पाता है । यदि बात थोङी आकर्षित करे भी । तो बच्चा है । भृमित हो गया होगा । बातें बना रहा है । झूठ बोल रहा है आदि कहकर बात खत्म हो जाती हैं । सबसे बङी बात । योगमाया ऐसी परिस्थिति मनस्थिति बना देती है कि सब कुछ सामान्य ही लगता है । उदाहरण स्वरूप - राम के लंका विजय से लौटने के बाद ठीक 1 महीने के बराबर समय यानी 720 घण्टे का दिन रहा था । और राम से सभी जनता प्रेमवश व्यक्तिगत मिलना चाहती थी । तब राम एक ही समय में अनेक होकर सबसे मिले । फ़िर ये बेहद असाधारण बात सब भूल गये । या कहना चाहिये । उन्हें पता ही नहीं चला कि अभी कुछ ऐसा अदभुत भी हुआ था । क्योंकि यदि याद रहती । तो उनकी जिन्दगी असमंजस से भर जाती । और दिन रात सब यही सोचते रहते । यशोदा और कौशल्या को राम और श्रीकृष्ण द्वारा विराट रूप में अपने भगवत स्वरूप के दर्शन कराना । यदि उनको याद बना रहता । तो वे कभी पुत्रवत सामान्य व्यवहार नहीं कर पाती । इसलिये योगमाया ने कुछ समय के लिये जागृत हुयी अंतदृष्टि पर माया आवरण डाल दिया । फ़िर वे सामान्य हो गयीं ।
तब मेरे साथ भी समय के साथ साथ ऐसी स्थिति बनने लगी कि मैंने कहना ही छोङ दिया । वैसे भी सभी सरकारी नौकरी पेशा परिवार में थे । किसी को फ़ुरसत ही न थी कि ऐसी फ़ालतू की बातों पर ध्यान देता । और हरेक के लिये एकाकीपन भरपूर था । इससे स्वतः प्राकृतिक साधना की परिस्थितियाँ निर्मित होने लगी । अब बचपन से एक बङा फ़ासला तय करके सीधा अब से लगभग दस साल पहले की बात करते हैं । अब तक मुझे इतने अनुभव हो चुके थे कि उन्हें गिनना या याद रखना । एकदम फ़ालतू की बात थी । शरीर से बहुत बार सोने के समान कण निकलना । और चन्दन की वारिश घर में होना आदि तो कई लोगों ने देखी थी । और कई तरह से परखा भी था । पर जिसके बारे में कुछ जानकारी ही न हो । उसके बारे में कोई भी क्या कह सकता था । बात आयी गयी हो गयी ।
पर समय आ चुका था । मेरी योग यात्रा काफ़ी परिपक्व स्थिति में आ पहुँची थी । तब दस साल पहले । मैं सामान्य ही था । पर लोगों को मैं अपसेट या पागल महसूस होता है । यहाँ तक कि तमाम लोगों ने सुझाव दिया कि मुझे इलेक्ट्रिक शाटस लगवा देने से मैं सही हो जाऊँगा । और घरवाले भी ऐसा सोचने लगे । ये बात अलग है । उल्टे मैंने ही सबको यौगिक इलेक्ट्रिक शाटस लगा दिये । जिससे सब घबरा गये । हालांकि अभी भी मेरे तमाम परिचित मुझे पागल ही समझते हैं । जिसका अनुमानित कारण उन्होंने मेरा बहुत अध्ययन करना बताया । मुझे पागल समझने की वजह थी । मेरी अजीव सी बातें । और अधिकतर समय अकेले ही हँसते रहना । अकेला ही रहना ।
पर बात यौगिक रहस्यों की है । श्री महाराज जी से मेरा अभी मिलना नहीं हुआ था । मैं उनके बारे में कुछ भी जानता तक न था । और लगभग दस साल पहले अनजाने में ही मैं एक विलक्षण योग करता था । कहीं से पढा नहीं । सुना नहीं । किसी ने बताया नहीं । स्वतः स्फ़ूर्त ।
मेरी कुण्डलिनी पहले ही जागृत थी । और मैं यूँ ही अन्दाज में सिर्फ़ दाँये कान में उंगली डालकर अनहद ध्वनियाँ सुनता था । मुश्किल से तीन चार मिनट के अभ्यास से ही अति विशाल योग भूमियाँ दृश्यमान हो उठती थी । जिस किसी ने सन्तमत की किताबें पढी होंगी । उसे पता होगा । मस्तिष्क के दायें भाग की ध्वनि को सुनना वर्जित किया गया है । क्योंकि यह सिद्ध क्षेत्र है । यहाँ सब सिद्ध जगत । सिद्ध लोक आदि हैं । जिनमें अपरिपक्व साधकों को अनेक खतरे । महामायावी खेल । और कदम कदम पर मौत तक की बिसात बिछी हुयी होती है । पर उस समय न मुझे ये पता था । न कोई बताने वाला मार्गदर्शक था । दूसरे मुझे बहुत डर के बाद भी खुद मजा आता था ।
अब ये बङी रोमांचक स्थिति होती थी । मैं अपने घर के बङे आंगन में या पिछवाङे बगिया में बैठा हुआ ही ये योग करता था । और सिद्ध क्षेत्र प्रकट हो जाता था । अति विशाल सिद्ध क्षेत्र की कौन सी भूमि या स्थान प्रकट होगा । ये मेरी उस वक्त बनी तत्कालिक वासना पर निर्भर था । अब स्थिति ये हो जाती थी कि वहाँ दूसरा जगत प्रगट हो जाता था । योग में रुचि रखने वाले । और साधक गौर से समझें । मैं अपने घर में बैठा हूँ । घर के सदस्य अपने काम में लगे चहलकदमी कर रहे हैं । और मैं वहीं होते हुये भी बहुत दूर । लाखों योजन दूर के आसमानी सिद्ध क्षेत्र में हूँ । इस स्थिति की बारीकता को समझना उचित है । मैं कोई ध्यान नहीं कर रहा । कोई आँखें बन्द नहीं । कुछ नहीं कर रहा । साधारण बैठा हूँ । बस कुछ मिनट अभ्यास से एकाग्र होकर वहाँ स्थिति हो गया । अब यहाँ एक ही समय में तीन मिश्रित स्थितियाँ बनती हैं । एक - मैं सामान्य घर में बैठा हूँ । और दुनियादारी वाली सामान्य स्थिति । यानी मुझे घर के लोग । घर आदि सब नजर आ रहा है । अलौकिकता वाली कोई बात नहीं । दो - मैं सिर्फ़ अपने को संसार में अकेला अनुभव मात्र कर रहा हूँ । घर और घर के लोग आदि कुछ नजर नहीं आ रहा । और सिद्ध क्षेत्र की भूमि मुझे स्पर्श कर रही है । यानी आखों और शरीर से महज एक फ़ुट दूर । इसमें खासियत ये होती है कि सामने ही प्रकट भूमि नजर आती है । पीछे स्पष्ट अहसास होता है कि घर भी है । और प्रथ्वी आदि भी हैं । यानी दोनों मिश्रित भूमियाँ । और भी ठीक से समझें । तो पीछे का ख्याल आते ही प्रथ्वी । और सामने देखते ही सिद्ध लोक । अब मैं एक सेतु की तरह दोनों के मध्य हुआ । इस दृश्य को ठीक से समझने के लिये कल्पना करें कि आपकी आँखों के सामने अभी प्रथ्वी का दृश्य धरातल आकाश आदि सब कुछ मौजूद है । और योगस्थ होते ही यहाँ किसी सुदूर लोक की भूमि दृश्य धरातल आकाश आदि ज्यों का त्यों दिखने लगे । बिलकुल वैसा ही जैसी पूर्व में प्रथ्वी नजर आ रही थी । पूर्ण रूप में । न कि कोई छोटा सा दृश्य बन जाये । जैसे कोई जादुई शीशा या बङी स्क्रीन देख रहे हों । ऐसा नहीं ।
तीन - प्रकट भूमि में आकर्षण पैदा होते ही । प्रथ्वी गायब । और मैं उस दृश्य के अन्दर । ऐसा तभी होगा । जब सुन्नता या शून्यता गहरा जायेगी । और जब किसी सूक्ष्म लोक के प्रति खिंचाव बनेगा । तो साधक स्वतः ही उतना सूक्ष्म हो ही जायेगा । तभी प्रवेश होगा ।
अब मेरे साथ यहाँ विशेष बात जो होती थी कि मैं इसके लिये कुछ भी करता नहीं था । बस भाव गहराता था । और वैसा होने लगता था । मैं ज्यों का त्यों साधारण बैठा ही रहता । हाँ घर की आवाजें दृश्य आदि खत्म । अब उनकी जगह । उस लोक की नयी आवाजें । और वहाँ के दृश्य ।
यही से कभी कभी डर पैदा हो जाता था । जब महासूर्य । अज्ञात परिधियाँ । अनजाने लोग । मायावी क्षेत्रों के विचित्र अनुभव में रहना होता था । यहाँ मैं अपनी स्थिति को भूल गया कि मैं अपने घर में ही हूँ । और योगस्थ हूँ । बल्कि सुन्नता की स्थिति में मैं नये लोक में विचरण कर रहा हूँ । और बिलकुल वहीं के निवासियों जैसा ही हूँ । बल्कि उस समय यही लगता है कि मैं वहीं का हूँ । लेकिन जैसे ही मन में तिनका भर भी पूर्व स्मृति खुद की हुयी । डर व्याप्त होने लगा । और - ये मैं कहाँ आ गया । लगने लगा । वापिस कैसे जाऊँ । ये डर होने लगा । ये स्वाभाविक था । पर यही गङबङ थी । ठीक इसी स्थिति के एक्सप्रेसन मैं कुछ ऐसा होता था कि घर के लोग मुझे असामान्य या पागल समझते । लेकिन उधर मुझे मजा भी आ रहा होता । और मैं फ़िर उधर का भावात्मक खिंचाव होते ही फ़िर उसी भूमि में पहुँच जाता ।
प्रारम्भिक अवस्था में । योग स्थितियों में डर लगना । एक सामान्य और स्वाभाविक बात है । इसलिये सफ़ल योगियों से जब कोई नया साधक डर लगने की बात कहता है । तो उनका एक ही जबाब होता है - डर के पास रहने से डर खत्म हो जाता है ।
एकदम सही बात है । कितनी बार डरोगे । बार बार के अभ्यास से फ़िर वह खेल के समान लगेगा । पर थोङी अङचन और होती थी । दरअसल मैं सोचता था कि उसी स्थान पर दोबारा जाऊँ । जहाँ अभी गया था । तब डर नहीं लगेगा । पर ऐसा तभी तो सम्भव है । जब मैं जानकारी मैं एक एक चीज को समझ कर गया होऊँ । मैंने तो अनजाने ही उल्टा सीधा विचार किया । और शून्यता में चला गया । तब उसी स्थिति के अनुसार भूमि या लोक में पहुँचा । अब मजे की बात देखो । खुद ही सोच रहा हूँ कि कोई राक्षस कोई मायावी आदि मिले । फ़िर खुद ही डरता हूँ । जब छोटा था । तब रामलीला में राम के वन जाने तक की लीला एकदम बोरिंग लगती । लेकिन जैसे ही शूर्पनखा की नाक कटती । और रावण एण्ड कंपनी एंटर होती । मजा आने लगता । कभी कभी तो इतनी उत्तेजना हो जाती कि चिल्लाकर सीता को बता दूँ । लक्ष्मण रेखा के बाहर मत आना । लक्ष्मण को बता दूँ - सीता की बात मत मानों । वह मायावी मृग है । एक तरफ़ उन खल पात्रों के बिना मजा भी नहीं । दूसरी तरफ़ । नायकों की बुद्धि पर तरस भी आता । अरे मुझे इनकी चालाकी पता है । फ़िर इनको क्यों नहीं पता । जबकि निश्चित है । रामलीला में रावण एण्ड फ़ैमिली का ही पूरा क्रेज बनता है । वरना शायद बच्चा तो छोङो । बूढे भी रामलीला देखने न जायें ।
वही बात यहाँ भी थी । डर भी है । मजा भी है । सबसे बङी बात । मुझे ये बहुत मामूली सी बात लग रही है कि महज कान में तीन मिनट उँगली डालकर मैं ये सब अदभुत देख रहा हूँ । और उस वक्त अधिकारिक तौर पर पता न होने से मुझे ये भी पता नहीं कि मैं लाखों योजन दूर आ गया हूँ । और बृह्माण्ड की अति ऊँचाई पर सिद्ध क्षेत्र में हूँ । क्योंकि मैंने विधिवत ज्ञान हासिल नहीं किया था । द्वैत में कोई गुरु नहीं था । मेरी सारी क्रियायें हठ योग वाली थी । अति अहम वाली थी । और मजे की बात ये थी कि मुझे तब ये भी पता नहीं था कि ये जो मैं करता हूँ । वह वास्तव में " हठ योग " है । क्योंकि मैंने पहले ही कहा । ये सब बात गुरु से या विधिवत ज्ञान से ही पता चलती है । वैसी चेतावनियाँ मैं हँसी में उङा देता था । तब बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाती । मूढता पूर्वक किये हठ योग का एक ही परिणाम होता है - मौत ।
और वह मेरे पास ही टहलती रहती थी । पर दबोच क्यों नहीं पाती थी । इसमें एक रहस्य था । और दबोच भी लिया था । वो भी चार महीने निरन्तर । पर मारने वाले से बचाने वाला बङा होता है । भले ही मैं अनभिज्ञ था । पर नाम सत्ता मेरा कवच बनकर रक्षा कर रही थी । और ये सारी गतिविधियाँ मेरी पूर्व स्मृति लौटाने का हिस्सा मात्र थे । जो तान्त्रिक मान्त्रिक भक्ति युक्त मैं पिछले तीन जन्मों से था । और हर बार अन्तिम पर्चे में फ़ेल हुआ था । उससे आगे की बात होने का प्रयोजन था ।
- आप सबके अंतर में विराजमान सर्वात्मा प्रभु आत्मदेव को मेरा सादर प्रणाम ।
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