जीसस को मरे 2 000 साल हो गए । क्रिश्चियन सोचता है कि मैं अपने विचार कर रहा हूं । वह 2 000 साल पहले जो आदमी छोड़ गया है - तरंगें । वे अब तक पकड़ रही हैं । महावीर या बुद्ध या कृष्ण, कबीर, नानक । अच्छे या बुरे कोई भी तरह के डाइनेमिक लोग जो छोड़ गए हैं । वह तुम्हें पकड़ लेता है । तैमूर लंग ने अभी भी पीछा नहीं छोड़ा है । दिया है मनुष्यता का । और न चंगीज खां ने पीछा छोड़ा है । न कृष्ण, न सुकरात, न सहजो ने, न तिलोमा । न राम, न रावण । पीछा वे छोड़ते ही नहीं । उनकी तरंगें पूरे वक्त होल रही है । तुम्हारी मनस्थिति जैसी हो । या जिस हालात में हो । वहीं तरंग को पकड़ उसमें सराबोर हो जाती है । सही मायने में तुम तुम हो ही नहीं । तुम 1 मात्र उपकरण बनकर रहे गये हो - मात्र रेडियो ।
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जागना ही अपने होने की पहली शर्त है । ध्यान जगाने की कला का नाम है । ध्यान तुम्हारी आंखों को खोल पहली बार तुम्हें ये संसार दिखाता है । सपने के सत्य में । जागरण के सत्य में क्या भेद है ?
केवल - ध्यान ।
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प्रेम के बिना जीवन 1 ऐसे वृक्ष के समान है । जिस पर न कोई फूल हो । न फल । सुना है । कृष्ण भोजन करने बैठे हैं । और रुक्मणि उन्हें पंखा झल रही है । अचानक वे थाली छोड्कर उठ खड़े हुए । और द्वार की तरफ भागे । रुक्मणि ने पूछा - क्या हुआ है ? कहां भागे जा रहे हैं ? लेकिन शायद उन्हें इतनी जल्दी थी कि वे उत्तर देने को भी नहीं रुके । द्वार तक गये भागते हुए । फिर द्वार पर जाकर रुक गये । थोड़ी देर में लौट आये । और भोजन करने वापस बैठ गये । रुक्मणि ने कहा - मुझे बहुत हैरानी में डाल दिया आपने । एक तो पलल की भांति उठकर भागे बीच भोजन में । और मैंने पूछा । तो उत्तर भी नहीं दिया । फिर द्वार तक जाकर वापस भी लौट आये । क्या था प्रयोजन ?
कृष्ण ने कहा - बहुत जरूरत आ गयी थी । मेरा 1 प्यारा 1 राजधानी से गुजर रहा था । राजधानी के लोग उसे पत्थर मार रहे थे । उसके माथे से खून बह रहा था । उसका सारा शरीर लहूलुहान हो गया था । उसके कपड़े उन्होंने फाड़ डाले थे । भीड़ उसे घेरकर पत्थरों से मारे डाल रही थी । और वह खड़ा हुआ गीत गा रहा था । न वह गालियों के उत्तर दे रहा था । न वह पत्थरों के उत्तर दे रहा था । जरूरत पड़ गयी थी कि मैं जाऊं । क्योंकि वह कुछ भी नहीं कर रहा था । वह बिलकुल बेसहारा खड़ा था । मेरी एकदम जरूरत पड़ गयी ।
रुक्मणि ने पूछा - लेकिन आप द्वार तक जाकर वापस लौट आये ?
कृष्ण ने कहा - जब तक मैं द्वार तक पहुंचा । तब सब गड़बड़ हो गयी । वह आदमी बेसहारा न रहा । उसने पत्थर अपने हाथ में उठा लिये । अब वह खुद ही पत्थर का उत्तर दे रहा है । अब मेरी कोई जरूरत नहीं है । इसलिये मैं वापस लौट आया हूं । अब उस आदमी ने खुद ही अपना सहारा खोज लिया है । अब वह बेसहारा नहीं है ।
यह कहानी सच हो कि झूठ । इस कहानी के सच और झूठ होने से मुझे कोई प्रयोजन नहीं है । लेकिन 1 बात मैं अपने अनुभव से कहता हूं कि जिस दिन आदमी बेसहारा हो जाता है । उसी दिन परमात्मा के सारे सहारे उसे उपलब्ध हो जाते हैं । लेकिन हम इतने कमजोर हैं । हम इतने डरे हुए लोग हैं कि हम कोई न कोई सहारा पकड़े रहते हैं । और जब तक हम सहारा पकड़े रहते हैं । तब तक परमात्मा का सहारा उपलब्ध नहीं हो सकता है । स्वतंत्र हुए बिना सत्य की उपलब्धि नहीं है । और सारी जंजीरों को तोड़े बिना कोई परमात्मा के द्वार पर अंगीकार नहीं होता है ।
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क्या यही ज़िंदगी है ? या इससे भी आगे कुछ है ? क्या फायदा रोटी रोज खा लो । फिर भूख लगा लो । फिर रोटी रोज खा लो । फिर भूख लगा लो ? हर रोटी नई भूख ले आती है । हर भूख नई रोटी की मांग ले आती है । यह तो 1 वर्तुल हुआ । जिसमें हम घूमते चले जाते हैं । इससे सार क्या है । तुमने कभी सोचा ?
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