जीवन में जो भी श्रेष्ठ है । वह सिद्ध नहीं होता । इसलिए जो लोग सिद्ध करने में लगे हैं । उन्हें निकृष्ट से राजी होना पड़ेगा । वे श्रेष्ठ की यात्रा पर नहीं जा सकते । इसलिए नास्तिक निकृष्ट से राजी हो जाता है । श्रेष्ठ सिद्ध होता नहीं । जो सिद्ध होता नहीं । उसे वह मानता नहीं । जो सिद्ध हो सकता है । उसे वह मानता है । जो सिद्ध हो सकता है । वह स्थूल है । प्रेम सिद्ध नहीं होता । पत्थर सिद्ध हो जाता है । तुम पत्थर को इनकार करो । तो तुम्हारी खोपड़ी पर पत्थर मारा जा सकता है । पता चल जाएगा कि है या नहीं । लेकिन तुम प्रेमे को इनकार करो । तो तुम्हारी खोपड़ी पर प्रेम तो मारा नहीं जा सकता । उसकी तो कोई चोट न लगेगी ।
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अगर उपनिषद परम ज्ञानियों के वचन हैं । तो परम ज्ञानी बोले । नहीं तो उपनिषद लिखते कैसे ? अगर परम ज्ञानी बोलते नहीं हैं । तो उपनिषद जिन्होंने लिखे । वे परम ज्ञानी नहीं थे । साक्रेटीज कहता है कि - बोलता नहीं ज्ञानी । लेकिन यह तो कम से कम बोलना पड़ता है । इतना तो बोलना पड़ता है कि ज्ञानी मौन रहते हैं । यह कौन बोलता है ? यह कौन कहता है ? ये अपूर्व उपनिषद किसने लिखे हैं । और उपनिषद में लिखा है कि - जो बोलता । वह जानता नहीं । और जो जानता । वह बोलता नहीं । तो हम उपनिषद के ऋषियों के संबंध में क्या सोचेंगे ? ये जानते थे कि नहीं जानते थे ?
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सारे संतों ने कहा है कि श्रेष्ठ को जानना हो । तो श्रद्धा द्वार है । संदेह से तो श्रेष्ठ के द्वार बंद हो जाते हैं । जहाँ संदेह है । फिर तुमने तय कर लिया कि तुम क्षुद्र के जगत में ही जीओगे । तुमने विराट का द्वार बंद कर दिया ।
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तुम नदी के किनारे खड़े हो । नदी बह रही है । तुम प्यासे हो । तुम झुकों न । अंजुली न बनाओ । तो प्यासे के प्यासे रह जाओगे । नदी तुम्हारे ओंठों तक आने से रही । तुम्हें झुकना होगा । तुम्हें हाथ की अंजुली बनानी होगी । तुम्हें जल भरना होगा । तो नदी तुम्हारी तृप्ति करने को तैयार है ।
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बुद्ध ने कहा है - बुद्ध पुरुष इशारा करते हैं । चलना तो तुम्हें पड़ता है । पहुंचना तुम्हें पड़ता है । झेन फकीर कहते हैं - हम अंगुली बताते हैं चांद की तरफ । कृपा करके अंगुली मत पकड़ लेना । अंगुली में चाद नहीं है । लेकिन अंगुली चाद की तरफ इशारा तो कर सकती है । अंगुली में चांद नहीं है । जाना । लेकिन अंगुली इशारा कर सकती है । मगर आदमी बेईमान है । बड़ी तरकीबें हो सकती हैं ।
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जिस दिन आदमी बेसहारा हो जाता है । उसी दिन परमात्मा के सारे सहारे उसे उपलब्ध हो जाते हैं ।
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अगर लोग भले हों । तो करने में लाभ है । शायद जितने लोग आज विकृत हैं । उतने विकृत नहीं थे । इसलिए कि शायद 100 आदमी सुनते । तो एकाध लाल बुझक्कड़ हो जाता था । 99 को तो हिम्मत बढ़ती थी । 99 को तो लगता था । अगर इसको हो गया । तो हमें भी हो सकता है । अब हम लगें जोर से । अगर सारि पुत्र को हो गया । तो हमें क्यों न होगा ? 99 को तो इससे प्रेरणा मिलती थी । इसलिए घोषणा की । 99 को तो बल मिलता था । आश्वासन बढ़ता था । श्रद्धा बढ़ती थी कि हो सकता है ।
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ध्यान के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है । या जो भी मार्ग है । वे ध्यान के ही रूप हैं । प्रार्थना भी ध्यान है । पूजा भी । उपासना भी । योग भी - ध्यान है । सांख्य भी । ज्ञान भी - ध्यान है । भक्ति भी । कर्म भी - ध्यान है । संन्यास भी । ध्यान का अर्थ है - चित्त की मौन, निर्विकार, शुद्धावस्था । कैसे पाते हो इस अवस्था को ? यह महत्वपूर्ण नहीं है । बस पा लो । यही महत्वपूर्ण है । किस चिकित्सा पद्धति से स्वस्थ होते हो ? यह गौण है । बस स्वस्थ हो जाओ । यही महत्वपूर्ण है ।
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1 दुनिया में बड़ी सरल बात है । उसे खयाल में रखना । कोई आदमी कह रहा है - गुलाब का फूल बड़ा सुंदर है । इसे सिद्ध करना बहुत कठिन है कि गुलाब का फूल सुंदर है । कैसे सिद्ध करोगे ? तुम भी राजी हो जाते हो । यह बात दूसरी है । लेकिन अगर तुम कह दो कि नहीं । मैं राजी नहीं होता । प्रमाण दो कि गुलाब का फूल सुंदर क्यों है । क्यों सुंदर है ? किस कारण सुंदर है ? तो वह जो कह रहा था गुलाब का फूल सुंदर है । मुश्किल में पड़ जाएगा ।
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भक्ति का अर्थ है - प्यार । जैसे कोई राजा सागर से पार होने के लिए पुल बांध देता है । जिससे प्रत्येक प्राणी सहज से ही पार हो जाता है । इसलिए भक्ति मार्ग ही सुगम और अच्छा है ।
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