16 अगस्त 2012

सिख धर्म में भी वंशवाद है - चन्द्रमोहन

राजीव भाई ! लिखना तो बहुत कुछ चाहता था । परन्तु अभी थोङी समय की पाबन्दी है । परन्तु जल्दी ही आपको मेल भेजूँगा । बाकी आप वंशवाद की बात करते हैं । तो मैं आपसे question पूछता हूँ कि - सिख धर्म में भी तो ऐसा ही कुछ था । चन्द्रमोहन जैन ।
चन्द्रमोहन जी द्वारा भेजे गये 2 लिंक
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अगर आप यकीन करें । तो कल ही अशोक से मेरी एक लम्बी बात हुयी । जिसमें अन्य बातों के साथ यह ( सिख धर्म में गुरुओं का वंशवाद ) चर्चा भी थी । अशोक ने कहा - वास्तव में तो लोग सिख शब्द का मतलब ही नहीं जानते । सिख पंजाबी भाषा में शिष्य से ही कहते हैं । फ़िर अशोक ने अपने वृहद अध्ययन के अनुसार बाइबिल ( ईसाई मत )

कुरआन ( इस्लाम ) सिख धर्म हिन्दू धर्म की बुराईयों कुरीतियों अंधविश्वासों की जो बखिया उधेङी । मैं गारंटी से कह सकता हूँ कि - अच्छे से अच्छे धर्माचार्य उसके सामने से भागते ही नजर आते । लेकिन ( हमारी ) ये बात सिर्फ़ परदे में ही नहीं रहेगी । अभी वह राधास्वामी मत का तथ्यात्मक निष्पक्ष इतिहास आपके लिये तैयार कर रहा है । इसके बाद इस्लाम । बाइबिल । सिख धर्म । हिन्दू धर्म पर चौंकाने वाले ऐसे तथ्य आपके सामने आयेंगे । जो संभवतः अधिकतर लोगों को पता नहीं होते ।
बाकी देखिये । इस ब्लाग का उद्देश्य ही धर्म का शोधन और आत्म ज्ञान की चर्चा करना है । इसलिये सभी को अपना अपना पक्ष रखने की आजादी है । 
पुरातन काल से ही धार्मिक विद्वान आपस में चर्चा करके शुद्ध सार को आम जन तक पहुँचाते रहे हैं । इसलिये

इस तरह की चर्चा का उद्देश्य किसी व्यक्ति या धर्म पर कीचङ उछालना न होकर उसके अच्छे बुरे पहलूओं को जनता के सामने लाना है । जिससे धर्म का सही शुद्ध स्वरूप भृमित लोगों को पता चले ।
इसलिये चन्द्रमोहन जी ! आपका इस चर्चा में हिस्सा लेना हमारे लिये बङी खुशी की बात है । हम तहेदिल से आपका स्वागत करते हैं । आप जहाँ हम गलती पर हों । वह भी निडरता से कहें । जहाँ दूसरे हों । वह भी निडरता से कहें । रामचरित मानस के उत्तर काण्ड में भगवान राम कहते हैं -
जो कछु मिथ्या भाषों भाई । तो मोहि बरजहु भय बिसराई ।
बङे भाग मानुष तन पावा । सुर दुर्लभ सद ग्रन्थन गावा ।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा । जेहि न पाय परलोक संवारा ।
- हे भाईयो ! यदि मैं कुछ गलत बोलूँ । तो भय रहित होकर मुझे टोक देना । देवताओं को दुर्लभ यह मनुष्य शरीर बङे भाग्य ( पूर्व जन्मों के पुण्य ) से मिला है । ये साधनों का धाम ( आगे के लियें अच्छी स्थितियाँ इससे बना सकते हो ) और मोक्ष का द्वार ( 10 वाँ द्वार । मष्तिष्क के बीच

में होने वाली झींगुर कीट जैसी आवाज ) है । इसलिये इसे यूँ ही नष्ट करने के बजाय परलोक ( आगे का जीवन ) बना लो ।
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मैं विज्ञान का जितना अधिक अध्ययन करता हूं । उतना ही भगवान पर विश्वास बढता जाता है - अलबर्ट आइंस्टिन ।
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वायुरनिलममृतमथेदम भस्मान्तं शरीरं । ॐ कृतो स्मर कृतं स्मर कृतो स्मर कृतं स्मर ।
प्राण वायु के कारण वायु में विलीन हो जाने के बाद यह शरीर राख हो जाने वाला है । अतः मृत्यु के समय परमात्मा का स्मरण करना चाहिये । और अपने किये कर्मों को याद करना चाहिये ।
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Jagessar Das - Maya and the desires in the mind hang on even as the body is approaching death. Kabir Saheb said - मन ही से मुक्ति मन ही से बंधन and मन के मते न चलिये मन के मते अनेक । जो मन पर असवार है सो साधु कोई एक. So we need to control the mind and its various desires and longings.
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Ashok Kumar - दास साहब ! मैं आपकी बात से पूर्णतया सहमत हूँ । परन्तु एक बात और भी है कि - मन हठ धर्मी से नियंत्रण में कभी नहीं आता । बल्कि और बलवान

हो जाता है । आपके द्वारा जो कह रहा है कि - हमें मन और त्रिश्नाओं पर नियंत्रण करने की आवश्यकता है । वह भी मन ही है ।
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कर्म शून्य ( पाप नष्ट ) होने पर सदगुरू से भेंट होती है - स्व धर्म आचरण से वैराग्य की प्राप्ति होती है । फिर जैसे जाली में वायु नहीं बाँधी जा सकती । वैसे ही संसार में जो देह आदि जाल फैलाया है । उसमें वह पुरुष नहीं उलझता । पकने पर फल जैसे डंठल को पकड़े नहीं रह सकता । वैसे ही उस पुरुष की आसक्ति सब विषयों के विषय में निर्बल हो जाती है । जैसे कोई हाथ के जलते ही उसे पीछे खींच लेता है । वैसे ही वह बुद्धि को विषय मात्र से पीछे पलटा कर हृदय के एकांत में प्रवेश 

करता है । तथा वह अपने चित्त को एकता की मुट्ठी में दे उसे आत्मा का चस्का लगा देता है । उस समय अग्नि को राख में दाब देने से जैसे धुंआ बंद हो जाता है । वैसे ही उसकी इस लोक की और परलोक की इच्छा आप ही आप बंद हो जाती है । इस प्रकार मन का नियमन करने से वासना अपने आप नष्ट हो जाती है ।
आगे श्लोक 18 / 49 - 50 में भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं - हे पांडव ! उसे उक्त भूमिका प्राप्त होते ही उसका सम्पूर्ण विपरीत ज्ञान नष्ट हो जाता है । तथा उसका अंत:करण केवल ज्ञान का ही आश्रय लेता है । जमा किया हुआ पानी जैसे खर्च करते करते समाप्त हो जाता है । वैसे ही वह प्रारब्ध का भोग भोगता रहता है । और नया कर्म तो वह कुछ भी उत्पन्न नहीं कर सकता । कर्म करने से जब इस प्रकार साम्य दशा हो जाती है । तब हे वीरेश ! उसे श्रीगुरु आप ही आप आ मिलते हैं । चन्द्रमा जैसे पूर्णमासी की भेंट होते ही अपनी न्यूनता छोड़ देता है । वही स्थिति - हे वीरोत्तम ! गुरु कृपा के बल उसकी हो जाती है । फिर जितना अज्ञान हो । सब गुरु कृपा से नष्ट हो जाता है । तथा रात्रि के संग जैसे अन्धकार का भी नाश हो जाता है । वैसे ही अज्ञान के पेट में जो कर्म कर्ता और कार्य रुपी त्रिपुटी रहती है । वह मानों गर्भिणी अवस्था में ही नष्ट हो जाती है । इस प्रकार अज्ञान के नाश के साथ संम्पूर्ण कर्म का नाश हो जाता है । और वह ज्ञाता या ज्ञेय के परे जाकर चिदाकार हो जाता है ।
हे वीरेश ! जैसे दर्पण को मुख के प्रतिबिम्ब सहित अलग करने से देखने वाला । बिना देखे ही रह जाता है । वैसे
ही अज्ञान चला जाता है । तो उसके साथ ज्ञान भी नहीं रहता । और फिर क्रिया रहित ज्ञान स्वरूप ही शेष रह

जाता है । उसकी स्वभावत: कोई क्रिया नहीं रहती । इसलिए उसका नाम निष्क्रिय है । जैसे वायु के बंद होते ही तरंग विलीन हो केवल समुद्र ही रह जाता है । वैसे ही वह स्वयं भी अपना स्वरूप है । तथापि वह भी मिथ्या हो 
विलीन हो जाता है । इस प्रकार जो निष्कर्मता उत्पन्न होती है । वही " नैष्कर्म्य सिद्धि " जानो । सब सिद्धियों में स्वभावत: श्रेष्ठ यही है । गंगा के लिए जैसे समुद्र प्रवेश श्रेष्ठ है । वैसे ही ज्ञान से अपना अज्ञान मिटा देना । और फिर उस ज्ञान को भी लील बैठना । ऐसी दशा के अतिरिक्त और कुछ निष्पन्न नहीं हो सकता । इसलिए उस दशा को परम सिद्धि कहते हैं । 
परन्तु जिस किसी की ऐसी स्थिति नहीं होती कि - कानों पर उपदेश  वचन पड़ते ही वह बृह्म स्वरूप हो जाय । जिसने स्व कर्म रुपी अग्नि में काम्य और निषिद्ध कर्म रुपी ईंधन के रूप से प्रथम रज और तम दोनों को जला डाला है । पुत्र वित्त ( धन ) और परलोक इन तीनों की इच्छा जिसके घर की दासी बन गई है । जो इन्द्रियाँ विषयों में स्वच्छंद प्रवेश कर पाप मय हो गई थी । उन्हें जिसने संयम रुपी तीर्थ में नहलाया है । और सब स्व धर्म रुपी फल ईश्वर को अर्पण कर अटल वैराग्य पद प्राप्त कर लिया है । इस प्रकार आत्म साक्षात्कार में परिणित होने वाली ज्ञान की उत्कर्ष दशा का लाभ कराने वाली सब 

सामग्री जिसने प्राप्त कर ली है । और उसी समय उसे सदगुरु की भेंट हो गई है । और उन्होंने भी उसे किसी बात से वंचित नहीं रखा । उसे इस बात की दृढ प्रतीति अवश्य हो जाती है कि - बृह्म एक है । और अन्य सब भृम है । परन्तु उस बृह्म से एक ही बृह्म स्वरूप हो रहना । कृम से ही प्राप्त हो सकता है । साभार - फ़ेसबुक गीतावाणी पेज से ।

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