24 दिसंबर 2016

जानना

यह पूरा लेख सिर्फ़ ‘जानें बिनु न होइ परतीती’ चौपाई का महत्व दर्शाने हेतु है । हमारी कोई भी आराधना/उपासना तब तक सार्थक नहीं । जब तक अंतःदर्शन आदि भक्ति प्रमाण प्रत्यक्ष न हों । अतः रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड का यह अंश किसी सार सिद्धांत या विज्ञान सार की भांति है । केवल इतने मात्र को पूर्णरूपेण समझ लेने पर ‘स्वयं को जानने’ की ठोस भूमि तैयार हो जाती है ।

जानें बिनु न होइ परतीती । बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ।
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई । जिमि खगपति जल कै चिकनाई ।
बिना (अंतःदर्शन आदि) जाने प्रतीत (महसूस, अनुभव) नहीं होती एवं बिना प्रतीत के प्रीत (लगाव, निष्ठा) नहीं होती । बिना प्रीति के दृढ़ता से भगति (जुङाव) नहीं होती । जैसे जल और चिकनाई परस्पर मिले हुये भी प्रथक ही रहते हैं ।
बिनु गुर होइ कि ग्यान, ग्यान कि होइ बिराग बिनु ।
गावहिं बेद पुरान सुख, कि लहिअ हरि भगति बिनु ।  
बिना गुरु के ज्ञान और बिना ज्ञान के वैराग नहीं होगा और ज्ञान के बिना सुख संभव नहीं है ।
कोउ बिश्राम कि पाव, तात सहज संतोष बिनु ।
चलै कि जल बिनु नाव, कोटि जतन पचि पचि मरिअ ।  
सहजता और संतोष के बिना विश्राम नहीं होगा । जैसे पानी के बिना नाव चल नहीं सकती ।
बिनु संतोष न काम नसाहीं । काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं ।
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा । थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा ।

बिना संतोष के इच्छाओं की समाप्ति नहीं होगी और इच्छाओं के रहते सुख संभव नहीं ।
बिनु बिग्यान कि समता आवइ । कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ ।
श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई । बिनु महि गंध कि पावइ कोई ।
रहस्य को जाने बिना समता नहीं होगी । जैसे आकाश के बिना स्थान तथा बिना श्रद्धा के धर्म नहीं होगा जैसे की प्रथ्वी के गुण बिना गंध नही हो सकती ।
बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा । जल बिनु रस कि होइ संसारा ।
सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई । जिमि बिनु तेज न रूप गोसाई ।
बिना तप के प्रकाशित होना संभव नही जैसे कि जल के बगैर रस । सेवा भाव के बिना शील संभव नहीं और तेज के बिना रूप ।
निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा । परस कि होइ बिहीन समीरा ।
कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा । बिनु हरि भजन न भव भय नासा ।
स्वयं सुखी हुये बिना मन स्थिर नही होगा जैसे के वायु के बिना स्पर्श । विश्वास के बिना सिद्धि नहीं और बिना ‘हरि भजन’ के ‘भवभय’ का नाश नहीं होगा ।
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु ।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु ।  
अतः बिना विश्वास के भक्ति नहीं और भक्ति के बिना राम प्रसन्न नहीं होगें और राम के प्रसन्न हुये बिना सपने में भी विश्राम नहीं होगा ।
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तब ते मोहि न ब्यापी माया । जब ते रघुनायक अपनाया ।
जब से मैं राम को जान गया (एक हो गया) तब से माया का प्रभाव समाप्त हो गया ।
निज अनुभव अब कहउँ खगेसा । बिनु हरि भजन न जाहि कलेसा ।
अतः हे गरुण ! मेरा अनुभव है कि ‘हरि भजन’ बिना कलेश नहीं जाता ।

10 दिसंबर 2016

कैसे जीता रवि से कवि ?

प्रथमदृष्टया यह आत्मज्ञान के बेहद गूढ़ दृष्टांतों में से है और जिनको समाधि में प्रत्यक्ष होने वाले दृश्यों और खाली अन्तःकरण का अभी अनुभव नही है । उनके लिये समझना कठिन ही है । फ़िर भी ‘एकात्मा सर्वाय’ होने से यह ‘चेतना’ को गहरे में ‘कहीं’ झंकृत अवश्य करेगा । इसी आशा के साथ !
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एक राजा ने दो निपुण चित्रकारों (रवि और कवि) की प्रतिभा परीक्षा ली । 
उसने दोनों चित्रकारों से कहा - आमने सामने स्थित इन दो गज का फ़ासला रखने वाली दोनों दीवारों पर आप लोग अलग अलग चित्रकारी करिये ।
राजा की आज्ञा होते ही दोनों दीवारों के मध्य पर्दा तान दिया गया । जिससे वे चित्रकार एक दूसरे का कार्य न देख सकें ।
चित्रकार प्रतियोगिता सम्पन्न करने में लग गये । वे प्रतिदिन आते और अपनी अपनी दीवार पर काम करने के पश्चात चले जाते ।
नियत अवधि बीतने पर राजा साहब अपने सभासदों के साथ चित्रकारों की कला देखने उनके स्थान पर पधारे ।
पहले रवि की दीवार से पर्दा उठाया गया । सभी दर्शक दंग रह गये ।
- अ हा..अ हा । करते हुये बोले - चीन के चित्र भला इससे बढ़कर क्या होंगे ?
तुरा दीदा व मानी रा शुनीदा ।
शुनीदा कै बुबुद मानिंदे दीदा ।
(मैंने तुझको तो देखा है और मानी का केवल नाम सुना है । भला सुना हुआ देखे के बराबर कैसे होगा)
सभी कहने लगे - यह तो हद ही हो गयी । इससे अच्छा चित्रण हो ही नही सकता । रवि चित्रकार ही यह प्रतियोगिता जीतेगा । महाभारत की समस्त घटनाओं को नये सिरे से सजीव ही कर दिया । चित्र जैसे बोल पङने ही वाले थे । इससे बढ़कर तो ख्याल (कल्पना) भी नही हो सकता ।
रवि को पूरे अंक मिलने चाहिये । इनाम इसी को दिया जाना चाहिये । अब कोई आवश्यकता ही शेष नही कवि की कारीगरी देखने की । कमाल है भाई कमाल है ।
त्रप्त तो स्वयं राजा साहब भी ऐसे हो गये थे कि जी नही चाहता था कि कवि की चित्रकारी देखने का कष्ट उठायें ।
किन्तु कवि ने स्वयं ही पर्दा उठा दिया ।
पर्दा उठने की देर थी कि चारो ओर घोर आश्चर्य से निस्तब्धता छा गयी । राजा साहब और अन्य श्रीमन्त लोग दाँतों तले उंगली दबाकर रह गये । कुछ पल के लिये भीतर का स्वांस भीतर और बाहर का बाहर ही रह गया । जिधर देखो सबके सब जङवत और विस्मित से खङे थे ।
आखिर क्या हुआ ! कवि ने ऐसा क्या सितम कर दिया, क्या गजब ढाया उसने ?
ओहो ऐसी अदभुत सफ़ाई..दृष्टि फ़िसली सी जा रही थी । देखो तो सही, दीवार के दो गज भीतर घुसकर चित्र बना आया ।
- हाय जालिम ने मार डाला । क्या ही ठीक निकला यह वाक्य - जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि ।
रवि से कवि कैसे जीता ?
दोनों दीवारों का अन्तर लगभग दो गज का था । तय समयावधि के भीतर रवि तो अपनी दीवार पर रंग रोगन चढ़ाता रहा और इतने समय में कवि अपनी दीवार की सफ़ाई एकाग्रचित्त होकर करता रहा । यहाँ तक कि उसने दीवार एकदम स्वच्छ (दर्पण) बना दी । अतः इस झलकती ढलकती दीवार के मुकाबले रवि की दीवार खुरदरी और भद्दी लगती थी । इसलिये रवि की सब मेहनत एक सफ़ाई की बदौलत कवि ने मुफ़्त हासिल कर ली ।
और दृक शास्त्र (optics) के प्रसिद्ध सिद्धांत के अनुसार जितना अन्तर दीवारों के मध्य में था । उतने ही अन्तर पर कवि की दीवार के भीतर (रवि के) चित्र दिखाई देते थे ।
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ऐ अपरा विद्या के विद्यार्थियो ! ह्रदय पटल पर रवि की भांति चित्रकारी कहाँ तक पङे करोगे । सतह ही सतह (प्रथ्वी तल) पर विविध भांति के रूप कहाँ तक भरोगे । धंसे हुये (crammed) विविध वर्ण मस्तिष्क में कब तक रंग जमायेंगे और बिखरे हुये विचार ठूंस ठूंस कर भरे हुये कब तक काम आयेंगे ।
(आत्म) शिक्षा का अर्थ है - भीतर से बाहर निकालना (खाली करना, होना) न कि बाहर से भीतर ठूंसना । शिक्षा के मुख्य उद्देश्य को कब तक गङबङ करोगे ?
क्यों नहीं कवि की तरह उस पवित्रता (purity) और आत्मज्ञान दिलाने वाली विद्या की ओर चित्त देते ।
(मैं अपने घायल चित्त को हरदम नाखूनों से छीलता हूँ जिसमें यार (परमात्मा) के ख्याल के अतिरिक्त प्रत्येक ख्याल को चित्त से बाहर निकाल दूँ)

ओ मौत !

सन्त गोस्वामी तुलसीदास के कुल में जन्में स्वामी रामतीर्थ जी महाराज (22 अक्टूबर1873-27 अक्टूबर1906) आत्मज्ञानियों में एक विशाल तेज पुंज की भांति ही है । 
इनका जन्म कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा संवत 1930 (सन 1873) को दीपावली के दिन ग्राम मुरारीवाला जिला गुजरांवाला में एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण पण्डित हीरानन्द गोस्वामी (पिता) के परिवार में हुआ था । इनके बचपन का नाम तीर्थराम था । परिवार की आर्थिक स्थिति खराब ही थी ।
बाल्यावस्था में ही इनका विवाह कर दिया गया था । इनके दो पुत्र और एक पुत्री थी ।
आर्थिक तंगी के उन्हीं हालातों में उन्होंने अपने पुरुषार्थ के बल पर पंजाब यूनिवर्सिटी से M.A की पढ़ाई पूरी की और ‘फ़ोरमैन कालेज’ में दो वर्ष तक गणित के अध्यक्ष रहे । उनका पांडित्य अंग्रेजी में भी बेहद प्रसिद्ध था ।
‘उपनिषदों के महावाक्यों का साक्षात्कार कैसे हो सकता है और वेदांत शास्त्र केवल पुस्तकों और वाणी का विषय नही है । किन्तु हर घङी अनुभव का विषय है ।’
इसी भावना के बलवती होने पर नौकरी, घरबार, स्त्री, पुत्र, पिता आदि सबको छोङकर सन्यास ले लिया और पूर्णता प्राप्त करके ही रुके ।
दिसम्बर 1901 में स्वामी रामतीर्थ मथुरा आये और फ़िर आगरा, लखनऊ, फ़ैजाबाद आदि स्थानों में ‘मोहनिद्रा’ में सोते जीवों को जगाया ।
मोहनिशा सब सोबनहारा ।
देखिअ सपन अनेक प्रकारा । 
कार्तिक 1962 में स्वामी रामतीर्थ हरिद्वार से वशिष्ठ आश्रम को गये ।
उन्होंने कहा - मनुष्य इसलिये नही बनाया गया कि इसी चिन्ता फ़िक्र में ‘मेरा जीवन कैसे चलेगा, मेरा क्या होगा’ मर जाये । उसको इतना सन्तोष तो चाहिये । जितना मछलियों, पक्षियों और वृक्षों को होता है । वे धूप अथवा वृष्टि की शिकायत नही करते । किन्तु प्रकृति के साथ एक होकर रहते हैं । कहो - मैं ही यह मेघ हूँ जो बरस रहा है । मैं ही बिजली होकर तङकता हूँ । मैं ही गर्जता हूँ, मैं कैसा सुन्दर बलवान भयंकर हूँ ।
इस प्रकार ‘शिवोऽहं’ स्वतः ह्रदय से निकले ।
न पश्योमृत्युपश्यति न रोगंनो,
तदुःखतां सर्वमाप्नो तिसर्वशः । 
ब्रह्मवेत्ता मृत्यु, रोग, दुःख को नही देखता । वह सर्व को सर्व प्रकार से व्याप्त करता है । 
प्यारे ब्रह्म ! दृश्य में विश्वास मृत्यु है । तेरा सत्य स्वरूप अमृत आनन्द है । तेरा आत्मा-रसास्वाद अनुभव से आ सकता है ।
जिसे अधिष्ठान रूपी रस्सी का साक्षात्कार है उसे भासने वाले सर्प से बाधा नही । जिसने अधिष्ठान रूपी शक्ति को जान लिया । उसे दृश्यमान रजत नही खींचता । जिसे ‘केवल सत’ का अनुभव हो गया । उसे मुँह देखी दुनियां का भय, स्तुति चलायमान नही कर सकती ।
इस दुनियां में जो कुछ दिखाई देता है वह तमाशा ही है ।
‘अरे तमाशा देखने वाले ! तमाशा हो नही जाना ।’

है मौत दुनियां में बस गनीमत,
खरीदो राहत को मौत के भाव ।
न करना चूं तक यही है मजहब,
खङे हैं रोम और गला रुके है ।
जिसे हो समझे कि जाग्रत है, 
यह ख्वाबे गफ़लत है सखत ए जां ।
क्लोरोफ़ार्म हैं सब मतालिब, (मतालिब-अर्थ, वासनायें)
खङे हैं रोम और गला रुके है ।
ठगों को कपङे उतार दे दो,
लुटा दो असबावो-मालो जर सब ।
खुशी से गरदन पर तेरा धर तब,
खङे हैं रोम और गला रुके है ।
न बाकी छोङेंगे इल्म कोई,
थे इस इरादे से जम के बैठे ।
है पिछला लिखा पढ़ा भी गायब,
खङे हैं रोम और गला रुके है ।

सन 1906 ई. में स्वामी रामतीर्थ वशिष्ठ आश्रम से टिहरी आये और वही गंगा तट पर रहने लगे ।
वहाँ उन्होंने कार्तिक बदी 13 संवत 1963 (सन 1906) को दीपावली के दिन ही मृत्यु के नाम एक सन्देश ‘खुद मस्ती’ पर लिखा और उसको समाप्त कर गंगास्नान को गये और फ़िर कभी न लौटे ।
(वे गंगा में बढ़ते गये और गहरे पानी में खुद को लहरों के हवाले कर जीवित ही ‘जल समाधि’ ले ली)
उनके अन्तिम कथन थे -
अच्छा जी कुछ भी कहो, राम तो हर रंग में रमता राम है । हर जिस्म में प्राण हर प्राण की जान है । सब में सब कुछ है परन्तु इस वक्त कलम बनकर लिख रहा है । सूरज बनकर चमक रहा है । गोलीगंगी (जिसको लोग श्री गंगाजी कहते हैं) बनकर गा रहा है । पर्वत बनकर सब्ज दुशाले ओढ़े कुम्भकरण की तरह पैर पसारे सुषुप्ति में लिपट रहा है ।
पर अपनी एक सूरत बहुत ही ज्यादा भारी है । मैं हवा हूँ बेहिस्सों-हरकत बेजान ।
मेरी सत्ता पाये बिना पत्ता नही हिल सकता, मुझ बिन सब दीमक की तरह सो जाता है । जली हुयी रस्सी की तरह रह जाता है । 
काम बिगङने लगा, मैं किसको इल्जाम दूँ ? मेरे बिना और कुछ हो भी ।
ओ मौत ! बेशक उङा दे इस एक जिस्म को, मेरे और अजसाम ही मुझे कुछ कम नही । सिर्फ़ चांद की किरणें चांदी की तारें पहन कर चैन से काट सकता हूँ ।
पहाङी नदी नालों के भेस में गीत गाता फ़िरूंगा । वहरे अमवाज (समुद्री लहरें) के लिबास में लहराता फ़िरूंगा । मैं ही वादे-खुशखराम (प्रातःकालीन शीतल सुगन्धित वायु) नसीमे-मस्ताना गाम हूँ । मेरी यह सूरते-सैलानी हर वक्त रवानी में रहती है ।
इस रूप में पहाङों से उतरा, मुर्झाते पौधों को ताजा किया, गुलों को हँसाया, बुलबुल को रुलाया, दरवाजों को खङखङाया, सोतों को जगाया, किसी का आँसू पौंछा किसी का घूंघट उङाया । इसको छेढ़ उसको छेढ़ तुझको छेढ़..वह गया..वह गया । न कुछ साथ रखा न किसी के हाथ आया ।    
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न केनचद्विक्रीता विक्रीता इव संस्थिताः ।
वत मूढ़ा वयं सर्वे जानाना अपिशांवरम । योगवाशिष्ठ
- यद्यपि किसी ने हमें बेचा नही तथापि बिके हुये के समान स्थिति
है । खेद की बात है कि जानकर भी यह माया है, हम मूढ़ हो गये हैं ।

08 दिसंबर 2016

फ़क्कङ साधु की मौज

एक साधु की गुदढ़ी (कन्था) चोरी हो गयी । चोरी क्या हो गयी, हँसी हँसी में वहीं के एक कांस्टेबल ने छुपा ली । साधु पुलिस स्टेशन के आसपास ही रहता था ।
मौज में आकर रिपोर्ट लिखाने गया - अरे मैं लुट गया ! लुट गया ! गरीब बेचारा लुट गया ।
थानेदार - तुम्हारा क्या चोरी हो गया ?
साधु - सब कुछ ! एक तो रजाई गयी है ।
- और क्या ? - चादर ।
- और क्या ? - कोट और अंगरखा ।
- और क्या ? - तकिया ।
- और क्या ? - आसन ।
थानेदार - कुछ और भी ?
साधु - हाँ छतुरी भी चली गयी ।
थानेदार - बस इतना ही कि कुछ और भी ?
साधु - हजूर !

थानेदार - और भी कुछ, खूब स्मरण कर लो ।
साधु - और...और...और..(बताता गया)
वह कांस्टेबल जिसने चोरी की थी, पास ही खङा था । 
चोरी गये सामान की इतनी लम्बी लिस्ट सुनकर बेबस सा हँसा और गाली देकर बोला - और.. और.. और..बोले जाता है । तेरा चोरी गया माल ‘बस’ होगा कि नहीं । तेरी झोपङी है कि सौदागर की कोठी ? इतना (माल) असबाव कहाँ से आ गया ?
इतना कहकर कांस्टेबल साधु की गुदढ़ी उठा लाया और बोला - हजूर, बस इसका इतना माल चोरी हुआ है और इसने दर्जनों चीजें गिना दी ।
थानेदार (साधु से) - क्या तुम पहचान सकते हो कि ये गुदढ़ी तुम्हारी है ?
साधु - हाँ मेरी है और किसकी है ।
इतना कहकर झटपट गुदढ़ी कन्धे पर डाल थाने से बाहर दौङ गया ।
थानेदार ने सिपाहियों को आज्ञा दी - इसे फ़टाफ़ट पकङो, जाने न पाये ।
और साधु को धमका कर कहा - तेरा चालान होगा बाबा, तूने झूठी रिपोर्ट लिखाई । हमें धोखा देने की कोशिश की ।
फ़क्कङ साधु जो देह और प्राण की चिन्ता एवं पाप-पुण्य के बन्धन से बिलकुल मुक्त था ।
भय और आशा से आबद्ध (थानेदार) की रुष्टता को क्या समझता ।
मुस्करा कर बोला - हम झूठ नही बोलते हैं ।

यह कहकर उसने गुदढ़ी को ओढ़कर दिखाया और बोला - यह देखो मेरी रजाई ।
उसी गुदढ़ी को नीचे बिछाकर बोला - यह देखो मेरा बिछौना ।
उसी गुदढ़ी को सिर के ऊपर तानकर बोला - यह देखो मेरी छतुरी ।
गुदढ़ी को तह करके नीचे डाला और ऊपर बैठता हुआ बोला - यह मेरा आसन, आदि आदि ।
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वह व्यक्ति जिसने विश्व के आश्रयदाता (ब्रह्म) का जाना है, उसका तो सभी कुछ ब्रह्म ही ब्रह्म हो गया । 
सम्बन्धी और निकटवर्ती है तो ब्रह्म !
शासक और शासित हैं तो ब्रह्म !
प्रेम करने वाले या वैर रखने वाले हैं तो ब्रह्म !
माता, बहन, भाई, हैं तो ब्रह्म !
उसके बाग और बिटप ब्रह्म !
उसकी लेखनी और कृपाण ब्रह्म !
उसके लिये तो ब्रह्म ही साधु की गुदढ़ी है । सारा घरबार जायदाद ब्रह्म है ।
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काला हरना जंगल चरना, ओह भी छलबल खूब करे ।
काला हस्ती रहे फ़ौजन में, फ़ौजन का श्रंगार करे ।
काला बादल लरजे गरजे, जहाँ पङे तहाँ छल्ल करे ।
काला खांडा रहे म्यान में, जहाँ पङे दो टूक करे ।
काली ढाल मर्द के कन्धे, जहाँ लढ़े तहाँ ओट करे ।
काला नाग बांबी का राजा, जिसका काटा तुरत मरे ।
काला डोल कुंयें के अन्दर, जिसका पानी शान्त करे ।
काली भैंस बजर का बट्ट, दूध शक्ति बल अधिक करे ।
काला तवा रसोई भीतर, खाकर रोटी खलक जिये ।
काली कोकिल कूके हूके, जिसका शब्द तन मन हरे ।
काला है तेरे नैनन सुरमा, तू काले का नाम धरे ।
काला है तेरे नैनन तारा, तू काले का नाम धरे ।
काले तेरे बाल सांप से, तू काले का नाम धरे ।
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गोरी री तुम गोरम गोरी, बात करे गुरु ज्ञान की चेरी ।
दाँत दामिनी चमक दमक में, नैन बने जानों आम की कैरी ।
इतना गुमान कहा करे राधा, खोल घूंघट मुख देखन दे री ।

05 दिसंबर 2016

दानवराज

इलूमिनाती (लैटिन इलूमिनातुस का बहुवचन) ‘प्रबुद्ध’ एक ऐसा नाम है जो कई समूहों, दोनों ऐतिहासिक और आधुनिक और दोनों वास्तविक और काल्पनिक को संदर्भित करता है । ऐतिहासिक तौर पर यह विशेष रूप से बवारियन इलूमिनाती को संदर्भित करता हैं जो 1 मई 1776 को स्थापित की गई एक प्रबुद्धता-युग गुप्त समिति है । (विकीपीडिया)
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मुझे मात्र किसी देश के आर्थिक व्यवहार पर नियंत्रण चाहिए, उस देश में कौन शासन करता है इसकी मुझे कोई परवाह नही - Rothschild
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#The_Mechanism_of_Zionism
#The_Big_Bank_Theory.
आचार्य चाणक्य के अनुसार दूसरों के पास अपना धन रखने वाला घोर मूर्ख होता है । उन्होंने वर्णन किया है -
उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणाम ।
तडागोदरसंस्थानां परीस्रव इवाम्भसाम । 
अर्थ - हमारे द्वारा कमाए गए धन का suitable Use करना ही धन की रक्षा के समान है । इसी
प्रकार किसी तालाब या बर्तन में भरा हुआ जल यदि उपयोग न किया जाए तो सड़ जाता है । व्यक्ति धन कमाता है तो उसका सदुपयोग करना चाहिए । काफी लोग धन को अत्यधिक collect करके रखते हैं, उसका उपयोग नहीं करते हैं ।
जैसा आज सभी लोग बैंक को अपनी पूरी संपत्ति दे रहे हैं । अगर Safety के अलावा देखें तो ये सिर्फ ‘ब्याज’ (interest) के लिये होता है और भारतीय तो इतने मूर्ख हैं कि पैसे के साथ साथ
gold को भी बैंक+gold companies को दे देते हैं ।
Dual nature - हमारे पैसों पर बैंक हमें 1-2.5% तक ब्याज देता है । जबकि अगर हम ही इससे loan मांगे तो भयंकर कागजी कार्रवाई के साथ 9-12% ब्याज चुकानी पङेगी ।
मतलब लगभग 4 गुना ब्याज ।
दरअसल Banking system बहुत vital role play करता है zionism में ।
ये Mechanism_of_Zionism का महत्वपूर्ण लिंक है ।
1 हर साल सैकङों गरीब किसान loan के बाद चुका नहीं पाते और आत्महत्या के शिकार होते हैं । बैंक फिर घर-खेत की कुर्की कर लेते हैं । यानि पैसों के बदले जमीन मिली ।
2 Economic control = nation control
3 Cashless society को बढ़ावा देने के साथ ही पब्लिक को digital करते हैं यानि पूरा कंट्रोल
computer पर ।
4 Cashless society = full invisible control by bank mafias.
Cashless future - आज आप ज्यादातर बैंको में बिना account के draft नहीं बनवा सकते । Account जरूरी है । ये होगा तो आदमी कुछ पैसा भी रखेगा ।
पैसा अंदर, कार्ड बाहर, हो गये Cashless
अब आपके पैसे पर computer का राज है ।
Banking system की पिक्चर को Superhit करने में debit+credit card का hero जितना
योगदान है ।
1 Credit card से आप कर्जा ले सकते हैं, तुरन्त shopping करके कर्ज में डुबकी लगाओ ।
2 कार्ड होगा तो fast+huge shopping होगी । Manufacturing industry चमकेंगी ।
3 credit card से कोई भूखा नही मरेगा, सबको कर्ज मिलता है ।
4 इस कार्ड का रसगुल्ला मीठा तो है लेकिन डायबिटीज जल्दी करता है । आदत बुरी चीज होती है ।
पहला आधुनिक बैंक इटली में 1406 में स्थापित किया गया था, इसका नाम बैंको दि सैन जिओर्जिओ (सेंट जॉर्ज बैंक) था । ब्याज बैंक की oxygen होती है ।
आज लगभग हर बैंक Jacob Rothschild banking system पर आधारित है ।
भारत में RBI प्रमुख कठपुतली है rothschild की ।
Rothschild Banking Dynasty के संस्थापक Mayer Amschel Rothschild ने कहा था -  ‘मुझे मात्र किसी देश के आर्थिक व्यवहार पर नियंत्रण चाहिए, उस देश में कौन शासन करता है इसकी मुझे कोई परवाह नही ।’
यहाँ आप ध्यान दीजिए ।
The Rothschilds पूरी दुनियां के 200 से अधिक देशों को मात्र Money Power से control करते हैं । बाकी उस देश में कौन सा शासक शासन कर रहा है उसकी इनको कोई चिंता नही

इनकी सफलता का रहस्य है ‘Fractional Reserve Banking System’ 
अब आपको Zionism का Basic समझ आ गया होगा ।
इन सभी समस्याओं के मूल हैं - Israeli bank mafia
मात्र 20,000 Sq. Km area + 90 लाख जनसंख्या वाला देश Israeli ये दुनियां के राजाओं का देश है । आप इस देश के आकार पर मत जाईए क्योंकि यहूदी हमेशा 100 साल आगे की प्लानिंग बनाकर चलते हैं । ये लोग Mind Game के Expert हैं । इतने बडे अमेरिका को इतना छोटा इजरायल वहाँ अपने यहूदी बंधुओं के सहयोग से control करता है ।
(sayanim) और अमेरिका Israel के लिए दुनियां का नेता बने घूमते रहता है । US अपने लिए कुछ भी नहीं करता । वो सब कुछ Israeli Banker Mafias के लिए करता है । इन बैंकर माफियाओं का उद्देश्य है विश्व के लोगों को नास्तिक बनाकर अपना एक नया धर्म स्थापित करके New World Order लाना ।
इसके लिए ये लोग भारत के पीछे हाथ धोकर पङे है क्योंकि कलियुग में धर्म का आखिरी चरण मात्र भारत में ही सुरक्षित है ।
हमारी परिवार व्यवस्था को तोङने के लिए हमारे समाज में Lesbian, Gay, लिव इन रिलेशनशिप जैसे भद्दे कर्म की विचारधारा, स्त्री-पुरुष समानता की विचारधारा घुसेङने वाली यही Israeli Banker Mafias है । 
ये लोग दानव है । ये लङाई धर्म और अधर्म के बीच है ।
International Politics + industrial control -  
संयुक्त राष्ट्रसंघ (U.N) विश्व आरोग्य संस्था (WHO) UNICEF जैसी बडी संस्थाएँ इनकी बपौती
हैं । क्योंकि इनके संस्थापक भी यही लोग है । इसलिए ये संस्था वही निर्णय करती है जो इन Bankster Mafias के हित में होता है ।
U.S Army+NATO को कई बार मजाकिया तौर पर Israel की राष्ट्रीय सेना भी कहा जाता है । #NATO और अमेरिकी सेना दुनियां भर में अपने Base बनाकर पूरे विश्व को अपने नियंत्रण मे ले रही है ।
अमेरिका की Federal Reserve, Switzerland की Swiss Banks, इंग्लैंड की Bank Of England, भारत की Reserve Bank Of India सहित विश्व के अन्य सभी देशों के Central बैंकों पर इन यहूदी बैंकर माफियाओं का कब्जा है ।
इन Banksters के हाथ में बङी बङी Multinational Companies जैसे कि Pepsi, Coca Cola, McDonalds, KFC, MONSANTO, Cargill, Pharma Companies, GAZPROM, Schulmberger, De Beers सहित सभी बङी बहुराष्ट्रीय कंपनियां इनके नियंत्रण में हैं । 
ज्ञात रहे इन बङी कंपनियों में विश्व में Gold, Diamond, लोखंड, गैस, तेल के उत्पादन क्षेत्रों में Monopoly रखने वाली कंपनियों का समावेश होता है । इस प्रकार से विश्व में मौजूद प्राकृतिक संसाधनों पर इनका पूरा control है ।
ये चंद मुठ्ठी भर लोग विश्व की 7 अरब की आबादी पर नियंत्रण करते हैं ।
पहले ये माफिया विश्व के देशों को जबरदस्ती WTO, GATT जैसी भयंकर संधियों पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर करते हैं । इस प्रकार के संधियों में जो शर्तें होती हैं । वो शर्तें हमेशा MNCs के हित में ही होती है । उन देशों को Loan देने के बहाने उन देशों को कर्ज के मायाजाल मे फंसा देते हैं । फिर बाद में वहाँ की कठपुतली सरकार द्वारा उस देश के प्राकृतिक संसाधनों की लूट मचाना शुरु कर देते हैं । उसके संसाधनों पर नियंत्रण कर लेते हैं ।
यदि किसी देश की सरकार इन बैंकर माफियाओं की आज्ञा मानने से मना करती है तो ये लोग अपने नियंत्रण की Print-Social-Electronics Media के उपयोग द्वारा उस सरकार के खिलाफ दुष्प्रचार करवाते हैं । उस देश के विपक्ष को भी इस काम में अपने पाले में ले लेते हैं
Example - इराक में सद्दाम हुसैन, Egypt के राष्ट्रपति होस्नी मुबारक, Libya के तानाशाह
मुअम्मर गद्दाफी को बैंकर माफियाओं की disrespect (आज्ञा की अवहेलना) करने के कारण सत्ता से दूर होना पङा और उनमें से सद्दाम हुसैन + गद्दाफी को मौत के घाट भी इन्ही बैंकर माफियाओं ने उतारा था ।
जो नेता इन Banksters का विरोध करेगा उसको मौत के घाट उतार दिया जायेगा । ये काम CIA, Mossad-Sayanim, MI6 जैसी जासूसी संस्थाओं द्वारा करवाया जाता है ।
जैसा पहले कहा गया है ‘अगर आप बैंक लूटना चाहते हैं तो आप बंदूक खरीद लें और अगर पूरे शहर को लूटना है तो एक बैंक खोल लें ।’
अंत में एक सवाल - कर्ज का मर्ज नहीं होता । भारत से लेकर अमेरिका तक कर्ज में है ।
कहा जाता है कि दुनियां पर सैकङों trillion का कर्ज है । ये कर्ज किसने चढ़ा रखा है ? 
जवाब जरूर दें ।
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आभार : Venkatesh Bhrugu
Statutory warning : share करें, बिना साभार किये कापी पेस्ट का लाभ उठाकर bank mafia की तरह लोभी न बनें । धन्यवाद !
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एक अत्यंत नीच रहस्यमय दुनिया - इलुमिनाटी 1
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एक अत्यंत नीच रहस्यमय दुनिया - इलुमिनाटी 2
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03 दिसंबर 2016

आत्मबोध के सूत्र

षट संपत्ति आदि तप से पापविहीन, शान्तचित्त, वैराग्यवान मुमुक्ष पुरुषों को आवश्यक यह आत्मबोध विधिपूर्वक वर्णित है । 
दूसरे साधनों से ज्ञान ही एक स्वयं मोक्ष का साधन है । बिना ज्ञान के मोक्ष सिद्ध नही होता ।
(जैसे बिना अग्नि के रसोई)
विरोध न रखने से कर्म अज्ञान को दूर नही कर सकता । ज्ञान ही अज्ञान का नाश करता है । 
(जैसे तेज गहन अंधकार को)
आत्मा अज्ञान से ढका हुआ सा है । अज्ञान के दूर होते ही अकेला और स्वयं प्रकाशित होता है ।
(जैसे बादल हटने से सूर्य)
जीवात्मा अज्ञान से मलीन है । ज्ञान के अभ्यास से ही निर्मल होता है । ज्ञान हो जाने पर ज्ञान का अभ्यास स्वयं नाश हो जाता है ।
(जैसे जल को निर्मली)
राग द्वेष से भरा हुआ संसार स्वपन (के बराबर) ही है । अपने समय में (अज्ञान में संसार, नींद में स्वपन) सच्चा ही मालूम होता है । किन्तु ज्ञान होने, जानने पर झूठा ही हो जाता है ।
(जैसे अंधेरे में रस्सी का सर्प)
जब तक सबका आधार अद्वितीय ब्रह्म नही जाना जाता तब तक संसार सत्य ही मालूम होता है ।
(जैसे सीप में चांदी)
अनेकानेक प्रकार के जीव नित्यस्वरूप सच्चिदानन्द में बंधे हुये सं-कल्पित (ही) हैं ।
(जैसे सुवर्ण में कङे)
इन्द्रियों का स्वामी सर्वव्यापी परमात्मा अनेक प्रकार की उपाधियों में मिलकर उनके भेद से जुदा सा मालूम होता है और उन उपाधियों का नाश होते ही अकेला (ही) दीख पङता है ।
(जैसे आकाश)
जाति, (ग्रहस्थ, सन्यास आदि) आश्रम, नाम आदिक अनेक प्रकार की उपाधि के वश से ही आत्मा में कल्पित हैं ।
(जैसे जल में मीठा, खारी तथा नीला, सफ़ेद रंग)
पञ्चीकरण महाभूत से उत्पन्न, कर्मों का समूह, सुख दुख भोगने का घर ‘शरीर’ कहाता है । 
पाँच प्राण, दस इन्द्रियां, मन, बुद्धि इन 17 तत्वों से युक्त अपञ्चीकरण महाभूत से उत्पन्न सुख दुःख आदि भोगों का साधन करने वाला ‘सूक्ष्म शरीर’ है । 
कहने में न आने वाला अनादिकाल की माया से भरा हुआ ‘कारण शरीर’ कहाता है ।
आत्मा इन तीनों उपाधियों (शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर) से अलग ‘निरुपाधि’ है ।
आत्मा निर्मल है । अन्नमय आदि पाँच कोशों के संयोग से उस उस धर्म वाला सा स्थित जान पङता है ।
(जैसे नीले आदि वस्त्रों के साथ स्फ़टिक मणि)
कोशों से युक्त निर्मल अन्तरात्मा को युक्ति से विचार पूर्वक ग्रहण करना चाहिये ।
(जैसे कूटने से भूसी आदि से मिले धान्य को)
तो भी सब में रहता हुआ आत्मा सब में नही मालूम होता ।
(जैसे निर्मल दर्पण में प्रतिबिम्ब)
देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, प्रकृति इन सबसे विलक्षण इनके कार्यों का साक्षी आत्मा सदैव ही राजा के समान है । 
अज्ञानियों का आत्मा इन्द्रियों के मेल होने में व्यापारी सा दिखाई देता है । 
(जैसे दौङते हुये बादलों में दौङता चन्द्र) 
देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि ये सब चैतन्यात्मा का आसरा लेकर अपने अपने कार्यों में लगते हैं ।
(जैसे सूर्योदय पर जीव)
देह, इन्द्रिय, गुण, कर्म ये सब निर्मल सच्चिदानन्द परमात्मा में अज्ञान से कल्पित हैं ।
(जैसे आकाश में श्यामता)
मन की उपाधि का (कर्ता भोक्तापन आदि) आत्मा में अज्ञान से कल्पना किया जाता है ।
(जैसे जल का हिलना, जल में चन्द्र प्रतिबिम्ब)
सुख दुःख इच्छा आदि राग जो कि बुद्धि में उसके होते ही रहते हैं । सुषुप्ति अवस्था में उस बुद्धि के नाश हो जाने पर नही रहते । इसलिये ये बुद्धि के ही धर्म हैं आत्मा के नहीं ।
जैसे सूर्य का प्रकाशपना, जल की शीतलता, अग्नि की उष्णता स्वभाव से है । ऐसे ही आत्मा का सत्य, शाश्वत होना, ज्ञान, आनन्दस्वरूप, निर्मल होना ये स्वाभाविक है ।
आत्मा का सत्य चैतन्य का अंश और बुद्धि के सुख, दुःख, इच्छा आदि कार्य ये दोनों मिलकर अज्ञान से ‘मैं जानता हूँ, सुखी हूँ दुःखी हूँ’ ऐसे व्यवहार चलते हैं ।
आत्मा के विकार नही है और बुद्धि के ज्ञान नही होता । जीवात्मा सब मलीनता को जान के ‘मैं करता हूँ, मैं देखता हूँ’ ऐसा मोहित होता है ।
रस्सी को सर्प की तरह, आत्मा को जीव जानकर भय प्राप्त होता है । यदि ‘मैं जीव नही आत्मा ही हूँ’ ऐसा जाने तो निर्भय होता है ।
एक ही आत्मा बुद्धि और इन्द्रियों को प्रकाशित करता है । उन जङों से आत्मा प्रकाशित नही होता ।
(जैसे दीपक घङे को)
आत्मा ज्ञानरूप होने से अपने जानने पर दूसरे के जानने की इच्छा नहीं होती । जैसे दीपक को दूसरे दीपक की इच्छा नहीं होती । ऐसे ही आत्मा स्वयं प्रकाश करता है ।
‘नेति नेति’ इस वेदवाक्य से सब उपाधियों का निषेध कर ‘तत्वमसि’ महावाक्य से जीवात्मा परमात्मा की एकता जाने ।
विद्यमान शरीर आदिक जो दिखाई पङता है बुलबुले की भांति नाशवान जाने और मैं इनसे विलक्षण निर्मल ब्रह्म हूँ ऐसा जाने ।
जन्म, मरण, बुढ़ापा, दुबला होना आदि देह में हैं मुझ में नहीं हैं । क्योंकि मैं उससे अन्य हूँ और बिना इन्द्रिय वाला हूँ । इससे शब्द, स्पर्श आदि विषयों का संग भी मेरा नही है ।
मन रहित होने से राग, द्वेष, दुःख, भय आदि मुझ में नहीं हैं । मैं प्राणरहित मनरहित निर्मल रूप हूँ ।
इस आत्मा से प्राण, मन, समस्त इन्द्रियां, आकाश, वायु, अग्नि, जल और संसार के धारण करने वाली प्रथ्वी उत्पन्न होती है । 
सत, रज, तम गुण से रहित, आना जाना जैसी क्रियाओं से रहित, संकल्प विकल्प से रहित, मायिक दोषों से रहित, जन्म आदि षट विकारों से रहित, निराकार, सदा मुक्तस्वरूप, निर्मल ही हूँ ।
मैं आकाश की तरह सब में बाहर भीतर रहने वाला, नाशरहित, सदा सब में बराबर निर्दोष, सबसे अलग, निर्मल, अचल हूँ ।
सदा स्वच्छ, मुक्त, एक अखण्ड आनन्द जो सत्य, अनन्त, ज्ञानरूप परब्रह्म है, वह ही मैं हूँ ।
ऐसी प्रतिदिन की अभ्यास वाली यह वासना कि - मैं ब्रह्म ही हूँ । अज्ञान के विक्षेपों को दूर करती है ।
(जैसे रसायन रोगों को)
एकान्त स्थान में आसन पर बैठ वैराग्यवान व जितेन्द्रिय हो एकाग्रचित्त कर उस अनन्त अद्वितीय परमात्मा का ध्यान करे ।
सुन्दर बुद्धि वाला पुरुष बुद्धि से सब दिखते हुये संसार को आत्मा में ही लीन करके सदा निर्मल आकाश की तरह एक परमात्मा का ध्यान करे ।
आत्मज्ञानी पुरुष सब नाम वर्ण आदि छोङ के पूरे चैतन्यानन्द रूप से रहता है ।
जानने वाला व जानने की वस्तु और जिसके द्वारा जाना जाये, ये भेद परमात्मा में नही है । सच्चिदानन्द रूप होने से अपने आप ही प्रकाशित होता है ।
इस प्रकार सदा अरणिरूपी आत्मा में मंथनरूपी ध्यान करने से उत्पन्न हुयी अग्निरूपी अभ्यास की गति सारे ईंधनरूपी अज्ञान को भस्म करती है ।
पहले घोर अन्धकार के दूर करते अरुण (ललाई) की तरह ज्ञान से अज्ञान दूर होता है फ़िर सूर्य की तरह आत्मा अपने आप ही उदय होता है ।
निरन्तर रहता हुआ भी आत्मा अज्ञान से न रहने के ही बराबर है और उस अज्ञान के दूर होते पहले ही से रहता हुआ सा मालूम होता है ।
(जैसे गले का आभूषण)
भ्रम से ठूंठ में मनुष्य की तरह ब्रह्म में जीवत्व किया गया है । जीव का तत्व स्वरूप उस ब्रह्म के देखने से अज्ञान से हुआ जीवभाव दूर हो जाता है ।
अपना तत्वरूप जान लेने से उत्पन्न हुआ ज्ञान शीघ्र ही ‘मैं, मेरा, यह’ अज्ञान दूर करता है ।
(जैसे ज्ञान होने पर दिशा का भ्रम)
अच्छे प्रकार का ब्रह्मज्ञानी योगाभ्यास में लगा हुआ ज्ञानदृष्टि से अपने ही में सबको स्थित और सब एक आत्मा है, ऐसा देखता है ।
यह सब संसार आत्मा ही है । आत्मा से अन्य कुछ नही है । जैसे मिट्टी और घङे आदि मिट्टी ही हैं । ऐसे ही सबको अपनी आत्मा ही देखता है ।
और उस ब्रह्म का जानने वाला पहले के नाम वर्ण आदि उपाधि और गुणों को छोङ देवें सच्चिदानन्द रूप होने से जीता ही हुआ मुक्तिरूप हो जाता है ।
(जैसे कीङा भ्रमर)
योगाभ्यास करने वाला मोहरूपी समुद्र को उतर राग द्वेष आदि राक्षसों को मार शान्ति से भरा हुआ अपनी आत्मा ही में आराम करता हुआ विराजमान होता है ।
बाहर के झूठे सुखों का लगाव छोङ आत्मसुख से युक्त अपने अंतस में ही घङे में रखे दीपक की तरह साफ़ प्रकाशता है ।
नाम वर्ण आदि उपाधियों में रहता हुआ भी मुनि उनके धर्मों से आकाश की तरह नहीं लिपटता है । सब कुछ जानता हुआ भी अज्ञानी की तरह रहे और बिना लगाव वायु की तरह आचरण करे ।
मनन करने वाला उपाधियों के दूर होने से भगवान में पूरी तरह लीन होता है ।
(जैसे जल में जल, आकाश में आकाश और अग्नि में अग्नि)
जिस आत्म लाभ से अधिक दूसरा लाभ नही, जिस सुख से अधिक दूसरा सुख नहीं । जिस ज्ञान से अधिक दूसरा ज्ञान नहीं । वही ‘ब्रह्म है’ ऐसा विचार करे ।
जिस आत्मा को देखकर और देखना नही रहता व जिस आत्मरूप हो जाने पर फ़िर होना नही होता व जिसका ज्ञान होने से और जानना नही रहता । वही ‘ब्रह्म है’ ऐसा विचार करे ।
जो एक, नित्य, अनन्त, अद्वितीय, सच्चिदानन्द ऊपर नीचे तिरछे पूर्ण है । वही ‘ब्रह्म है’ ऐसा विचार करे ।
जो अविनाशी, एक, अखंड, आनन्दरूप, बारबार नेति नेति रूप से वेदान्त द्वारा समझाया जाता है । वही ‘ब्रह्म है’ ऐसा विचार करे ।
उस अखन्ड आनन्दरूप परमात्मा के लव मात्र आनन्द का आसरा लेकर सब ब्रह्मा आदिक क्रम से अधिकाधिक आनन्दित होते हैं ।
सारी वस्तु उस परमात्मा से मिली हुयी है और सब व्यवहार में भी उसका मेल है । इसलिये ब्रह्म सर्वत्र है ।
(जैसे सभी दूध में घी)
जो बहुत बारीक अणु नही है, स्थूल नही है, छोटा नही है, बङा नही है, न जन्म लेता है न मरता है और रूप गुण वर्ण नाम आदि नही है । वही ‘ब्रह्म है’ ऐसा विचार करे ।
जिस परमात्मा के प्रकाश से सूर्य आदि प्रकाशित होते हैं और जिस सूर्य आदि के प्रकाश से वह नही प्रकाशित होता है । जिससे यह सब संसार सुशोभित है । वही ‘ब्रह्म है’ ऐसा विचार करे ।
परमब्रह्म अपने आप भीतर बाहर व्याप कर सारे संसार को प्रकाशित करता हुआ जलते हुये अग्नि से लोहे के गोले सा प्रकाशित होता है ।
ब्रह्म संसार से विलक्षण है । ब्रह्म से अन्य कुछ भी नही है । यदि ब्रह्म से अन्य मालूम हो तो झूठ है ।
(जैसे निर्जल स्थान में जल की तरह सूर्य की किरण)
जो जो दिखाई सुनाई पङता है । वह ब्रह्म से अन्य नही होता है और वह तत्वज्ञान से अद्वितीय सच्चिदानन्द ब्रह्म ही है ।
ज्ञान दृष्टि वाला सच्चिदानन्द परमात्मा को सब में रहता हुआ देखता है । अज्ञान दृष्टि वाला नही देखता है ।
(जैसे अन्धा प्रकाश करते हुये सूर्य को)
वेदान्त श्रवण मनन आदि से जगाये हुये ज्ञान रूपी अग्नि से जले हुये सब मलीनताओं से छूटा हुआ जीव सोने की तरह अपने आप चमचमाता है ।
आत्मा ज्ञानरूपी सूर्य है । आकाशरूपी ह्रदय में उदय हो अंधकाररूपी अज्ञान को दूर कर सब में व्याप्त होकर सबको धारण करते व सबको प्रकाशित करते सुशोभित होता है ।
जो विचार त्यागी पुरुष स्थान समय आदि को बिना देखे शीत उष्ण आदि को दूर करने वाले सब में रहने वाले मायारहित, नित्य, आनन्दरूप अपने आत्मतीर्थ को सेवन करता है । वह सब कुछ जानने वाला सब में रहता हुआ मुक्त होता है ।
श्री परमहंस परिब्राजकाचार्य श्री मच्छंकराचार्य ‘आत्मबोध’

29 नवंबर 2016

किसको कहूँ अब क्या करूँ ?

इश्क-हकीकी को बयान करती ये दो सूफ़ी रचनायें किसकी हैं, ये तो ज्ञात नही । पर ये आत्मा के उस ‘चरम बिन्दु’ को उपलब्ध होने को अवश्य सूचित करती हैं । जब ‘मैं और तू’ का पर्दा बहुत झीना होकर ‘खुद और खुदा’ ही रह जाता है ।





तमाशा ए जहान है, और भरे हैं सब तमाशाई ।
न सूरत अपने दिलवर सी, कहीं अब तक नजर आई ।
न उसका देखने वाला, न मेरा पूछने वाला ।
इधर ये बेकसी अपनी, उधर उसकी ये तनहाई । (बेकसी-मजबूरी)
मुझे ये धुन, कि उसके तालवों में नाम हो जाये । (तालवों-जिज्ञासुओं)
उसे ये कद कि, पहले देख लो है यह भी सौदाई । (कद-ख्याल, हठ)
मुझे मतलूब दीदार उसका, इक खिल्वत के आलम में । (मतलूब-जरूरत) (खिल्वत-एकान्त)
उसे मंजूर मेरी आजमायश, मेरी रुसवाई ।
मुझे घङका, कि आजुर्दा न हो मुझ से कुच्छ दिल में । (आजुर्दा-नाराज)
उसे शिकवा कि, क्यों तूने तबियत अपनी भटकाई ।
मैं कहता हूँ कि, तेरा हुसन आलम-सोज है जाना । (आलम-सोज-जगत)
वह कहता है कि, क्या हो गर करूँ मैं जुल्फ़ आराई । (जुल्फ़ आराई-सजाना)
मैं कहता हूँ कि, तुझ पर इक जमाना जान देता है ।
वह कहता है कि, हाँ बेइन्तहा है मेरे शैदाई । (शैदाई-आशिक)
मैं कहता हूँ कि, दिलवर ! मैं नहीं हूँ क्या तेरा आशिक ।
वह कहता है कि, मैं तो रखता हूँ ऐसी ही रानाई । (रानाई-सुन्दरता)
मैं कहता हूँ कि, तू नजरों से मेरी क्यों हुआ ओझल ।
वह कहता है, यही अपनी अदा मुझको पसन्द आई ।
मैं कहता हूँ, कि तेरा ये हुस्न और देखूँ न मैं उसको ।
वह कहता है कि, मैं खुद देखता हूँ अपनी जेवाई । (जेवाई-खूबसूरती)
मैं कहता हूँ कि, हद पर्दा की आखर तावकै परदा । (तावकै-आत्मवेत्ता)
वह कहता है कि, कोई जब तक न हो अपना शनासाई । (शनासाई-जुदाई सहना)
मैं कहता हूँ कि अब मुझ को नही है ताव फ़ुर्कत की ।
वह कहता है कि, आशिक हो के कैसी ना-शिकेवाई ।
मैं कहता हूँ कि, सूरत अपनी दिखला दीजिये मुझको ।
वह कहता है कि, सूरत मेरी किसको देगी दिखलाई ?
मैं कहता हूँ कि, जाना अब तो मेरी जान जाती है ।
वह कहता है कि, दिल में याद कर क्यों कर थी वह आई ?
मैं कहता हूँ कि, इक झलकी है काफ़ी मेरी तसकीं को । (तसकीं-तसल्ली)
वह कहता है कि, वामे-तूर पर थी क्या निदा आई । (वामेतूर-ज्ञान का शिखर । निदा-आवाज)
मैं कहता हूँ कि, मुझ बेसबर को किस तौर सबर आये ।
वह कहता है कि, मेरी याद की लज्जत नही पाई ।
मैं कहता हूँ कि, ये दाम-ए-इश्क बेढव तू ने फ़ैलाया । (दाम-ए-इश्क-इश्क का फ़ंदा)
वह कहता है कि, मेरी खुदपसन्दी मेरी खुदराई । (खुदराई-स्वयं बनाई हुयी)
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इक ही दिल था, सो भी दिलवर ले गया अब क्या करूँ ।
दूसरा पाता नहीं, किसको कहूँ अब क्या करूँ ।
ले चुका था जाने जाना, जां को पहिले हाथ से ।
फ़िर भी हमले कर रहा, किसको कहूँ अब क्या करूँ ।
हम तो दर पर मुन्तजर थे, तिशन-ए-दीदार के । 
पहुँचते बिसमिल किया, किसको कहूँ अब क्या करूँ ।
याद्दाश्त के लिये, रहता था फ़ोटो जिस्मो जां ।
वह भी जायल कर दिया, किसको कहूँ अब क्या करूँ ।
यार के मुँह पर झरोखे, से नजर इक जा पङी ।
देखते घायल हुआ, किसको कहूँ अब क्या करूँ ।
आप को भी कत्ल कर, फ़िर आप ही इक रह गये ।
वाह नजाकत आपकी, किसको कहूँ अब क्या करूँ ।
(तिशन-ए-दीदार-दर्शन के प्यासे) (जायल-नष्ट)

23 नवंबर 2016

स्वर वायु

- क्या शब्द के साथ अर्थ का कोई स्वाभाविक सम्बन्ध है ?
- शब्द के साथ अर्थ का क्या सम्बन्ध है ? केवल निरुक्तकार लोग ही इस विद्या को जानते थे ।
आत्मा बुध्या समेत्यार्थान मनो युङ्क्ते विवक्षया ।
मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम । पा.6
आत्मा बुद्धि को माध्यम बनाकर विषयों का संकलन करके अभिव्यक्त करने की इच्छा से मन को प्रेरित करती है । मन कायाग्नि को आहत करता है । तत्पश्चात कायाग्नि प्राणवायु को प्रेरित करता है । शरीर में रहने वाली प्राणवायु फ़ेफ़ङों के माध्यम से घूमती हुयी अर्थात कायाग्नि से आहत प्राणवायु जब ह्रदय के अन्तःभाग में भ्रमण करती है तो वह मन्द ध्वनि को उत्पन्न करती है । जो प्रातःसवन (यज्ञादिक्रियोचित) होता है ।
उसके बाद वह प्राणवायु मूर्धा में टकराकर वापस मुख में आकर सभी वर्णों को उच्चारण करने का सामर्थ्य प्रदान करती है । यही विवक्षा है । इसी को परा, पश्यन्ती, मध्यमा, बैखरी वाक नाम दिया गया है ।

परा शब्दब्रह्म की शान्त अवस्था है । इसे परापश्यन्ती या पराप्रकृति भी कहा गया है । परापश्यन्ती शब्दब्रह्म की जागरणोन्मुखी स्थिति है । एवं पराप्रकृति शब्दब्रह्म की सुषुप्ति अवस्था को कहा गया है ।
स एष जीवो विवरप्रसूतिः प्राणेन घोषेण गुहां प्रविष्टः ।
मनोमयं सूक्ष्ममुपेत्यरूपं मात्रास्वरो वर्ण इति स्थिविष्ट ।  
ॐकार रूपी अनाहत नाद स्वरूप सूक्ष्मा वाक नामक प्राण के साथ मूलाधार चक्र में प्रवेश करता है । वह प्राण स्वभाव अव्यक्त सप्तस्वर वाला घोष ध्वनि के साथ होता है । यही परा वाक है ।
इसके बाद वही प्राणवायु मणिपूर चक्र (नाभि) में आकर पश्यन्ती वाक का मनोमय सूक्ष्म रूप धारण करता है ।
इसके पश्चात कंठप्रदेश में स्थित विशुद्ध नामक चक्र में मध्यमा वाक के रूप में व्यक्त होता है ।
फ़िर क्रमशः मुख में आकर हस्व दीर्घ आदि मात्रा उद्दातादि स्वर अकारककारादि वर्ण रूप स्थूल बैखरी वाक का रूप बन जाता है ।
इस प्रकार आत्मा ही अव्यक्त से व्यक्त होकर परा, पश्यन्ती, मध्यमा एवं बैखरी रूप में प्रकट होता है । 

15 नवंबर 2016

ईश्वर - कुछ प्रसिद्ध तथ्य

ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः । 
- ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं ।
ओमित्येतदक्षरमपश्यत ।
- ॐ इस ‘अक्षर’ को देखता है ।
स हि सर्ववित सर्वकर्ता, ईद्दशेश्वर सिद्धिः सिद्धा ।
- वह शक्ति निसंदेह सर्वज्ञ और सर्वकर्ता है । इस प्रकार ईश्वर की सिद्धि सिद्ध करते हैं ।
शास्त्रयोनित्वात । (वेदान्त सूत्र)
- शास्त्र योनि होने से उस परमात्मा की सिद्धि है ।
स एव पूर्वेपामपि गुरु, कालेनानवच्छेदात । (पतंजलि योगसूत्र)
- वह पूर्वजों का भी गुरु है । जो काल के फ़ेर में नही आता अर्थात परमेश्वर है ।
- ईश्वर जैसा विषय जो ‘सपर्य्यगाच्छुकमकायमव्रणम’ कहलाता है । उसे भी मनुष्य जानते हैं और बङी खूबी से प्रमाणित करते हैं । यद्यपि वे उससे कभी मिले नही । 

- जब मैं बहुत दूर और गहराई तक सोचता हूँ तो ज्ञात होता है कि ईश्वर सम्बन्धी ज्ञान मनुष्य आप ही आप अपने ह्रदय में पैदा नही कर सकता । क्योंकि वह अनन्त है हमारा मन शान्त है । वह व्यापक है हम एकदेशीय हैं और भी इसी प्रकार समझिये । इससे यह बात स्पष्ट है कि मूल विचारों को हमने स्वयं नही बनाया । किन्तु परमात्मा ने आदिपुरुषों के ह्रदयों में अपने हाथ से छाप लगा दी है ।
दार्शनिक - डिस्कार्टीज (हिस्ट्री आफ़ नेचरलिस)
- अनेक बङे बङे विद्वानों ने कहा है कि उस समय भी कोई नवीन धर्म प्रवर्तक नही हुआ । जब आर्यों सेमेटिकों और तुरानियों ने नया धर्म व नयी सभ्यता का आविष्कार किया था । ये धर्म प्रवर्तक भी केवल धर्म के पुनरुद्धारक थे, मूल शिक्षक नही ।
ब्ले वेटसकी (सीक्रेट डाक्ट्रिन)
- आदिसृष्टि से लेकर आज तक कोई भी बिलकुल नया धर्म हुआ ही नही ।
मैक्समूलर (चिप्स फ़्राम ए जर्मन वर्कशाप)
- अनेक जन्म जन्मान्तरों में प्राणियों ने नाना प्रकार की योनियों में प्रवेश किया है । अवसर आने पर वही संस्कार जाग्रत हो जाते हैं । जैसे प्राणी जल में पङते ही तथा सोते समय संकट में पङते ही तैरने  और उङने लगता है । किन्तु मनुष्य अपनी देह के साथ बिना सिखाये कुछ भी नही कर सकता ।
- चौपङ के प्रसिद्ध खेल का संकेत है गोट भी मर जाने पर 84 घरों में घूमकर पकती अर्थात छुटकारा पाती है ।
- मैं अपने ज्ञान के नेत्रों से देख रहा हूँ कि आर्यावर्त अपनी राजनीति, अपनी सरकार, अपने आचार और धर्म मिश्र, ईरान, यूनान और रोम को दे रहा है । मैं जैमिनि और व्यास को सुकरात और अफ़लातून से पहले पाता हूँ । प्राचीन भारत के महत्व का अनुभव प्राप्त करने के लिये योरोप में प्राप्त किया हुआ विज्ञान और अनुभव किसी काम का नही, इसलिये हमें आर्यावर्त का प्राचीन महत्व जानने के लिये ऐसा यत्न करना चाहिये । जैसा कि एक बच्चा नये सिरे से पाठ पढ़ता है ।
जेकालियट (योरोपिय विद्वान)
- if there is any paradise in the world. i should point out to india.
यदि प्रथ्वी पर कही स्वर्ग है तो मैं कहूँगा - वह भारतवर्ष है ।
मैक्समूलर (what does india teach us)

29 अक्टूबर 2016

दैवी-विधान सत्य और सब मिथ्या

राम किसी मिशन (खुदाई पैगाम, पंथ आदि) का दावा नही करता । यह कर्म सम्पूर्ण परमात्मा का ही है । हमें भगवान बुद्ध तथा अन्य लोगों के आदर्श और उदाहरणों से क्या करना है । हमारे मनों को तो दैवी-विधान की प्रत्यक्ष आज्ञाओं का पालन करना चाहिये । किन्तु भगवान बुद्ध और ईसामसीह भी अपने अनुयाईयों और मित्रों से त्यागे गये ।
इस प्रकार सात वर्ष के वनवास में से पिछले दो वर्ष बुद्ध भगवान ने नितान्त एकान्त में व्यतीत किये और तब एक दीप्तमान ज्योति प्राप्त (अनुभव) हुयी । जिसके बाद शिष्य लोग बुद्ध भगवान के पास एकत्र होने लगे । और बुद्ध भगवान ने भी आनन्द से उन्हें अपने पास आने दिया ।
प्यारे सदाशयवान ! माननीय सम्मतिदाताओं के मत और विचारों से प्रभावित मत हों । यदि इनके विचार ईश्वरीय नियमाकूल होते तो आज तक इन्होंने हजारों बुद्ध भगवान उत्पन्न कर दिये होते ।
धीरे धीरे किन्तु दृढ़तापूर्वक जिस प्रकार मधु में फ़ंसी हुयी मक्खी अपनी टांगे मधु से निकाल लेती है । इसी प्रकार रूप और व्यक्तिगत आसक्ति के एक एक कण को हमें अवश्य दूर करना होगा । सब संबन्ध एक दूसरे के बाद छिन्न भिन्न करने होंगे । सब बन्धन चट से तोङने होंगे । जब तक कि अन्तिम ईश्वर कृपा मृत्यु के रूप में आकर सारे अनिच्छित त्यागों की पूर्णाहुति न कर दे ।

दैवी-विधान का चक्र बङी निर्दयता से घूमता फ़िरता है । जो इस विधान (नियम) को आचरण में लाता है । वही इस पर आरूढ़ होता है अर्थात वही उस पर अनुशासन रखता है और जो अपनी इच्छा को दैवेच्छा के विरुद्ध खङा करता है । वह अवश्य कुचला जाता है और दारुण पीङायें झेलता है ।
दैवी-विधान त्रिशूल है । यह क्षुद्र अहंकार (अहंभाव) को छेद देता है । जो जानबूझ कर इस त्रिशूल रूपी सूली पर चढ़ता है । उसके लिये यह जगत स्वर्गवाटिका हो जाता है । अन्य सबके लिये यह जगत भ्रष्ट स्वर्ग है । 
यह दैवी-विधान अग्नि है । जो सबके सांसारिक स्नेह को भस्म कर देती है । मूढ़ मन को झुलसा देती है । और इससे बढ़कर अंतःकरण को शुद्ध करती तथा आध्यात्मिक रोग के सर्व प्रकार के कीङों को नष्ट कर देती है ।
धर्म इतना विश्व व्यापक (सार्वलौकिक) है और हमारे जीवन से इतना मार्मिक संबन्ध रखता है जितना कि भोजन क्रिया । सफ़ल नास्तिक व्यक्ति मानों अपने ही भीतर की इस पाचन विधि को नही जानता है ।
दैवी-विधान हमें छुरे की नोक के जोर से धार्मिक बनाता है । कोङे लगाकर हमें जगाता है । इस विधान से निस्तारा (छुटकारा) नही ।
दैवी-विधान सत्य है और अन्य सब मिथ्या है । समस्त रूप और व्यक्ति दैवी-विधान के सागर में केवल बुलबुले से हैं । 
सत्य की व्याख्या ऐसे की गयी है कि - सत्य वह है जो (एकरूप, एकरस) निरन्तर रहे । अथवा रहने का आग्रह करे ।
अब इस नाम रूप मय संसार में ये सब संबन्ध, देहें  व पदार्थ, संस्थायें और सभायें कोई भी ऐसा नहीं, जो इस त्रिशूल के विधान के समान सदा एकरस रह सके ।

20 अक्टूबर 2016

पासवर्ड का एक यूज यह भी

एक बार एक अजनबी ने एक 8 साल की लङकी से कहा - बेटा तुम मेरे साथ चलो । तुम्हारी मम्मी ने तुम्हें बुलाया है । उनकी तबियत खराब है और उन्होंने मुझे तुम्हें
लेने भेजा है ।
लङकी ने कहा - ठीक है, मैं आपके साथ चलूंगी पर मेरी माँ ने आपको एक ‘पासवर्ड’ बताया होगा । जो सिर्फ़ उन्हें और मुझे ही पता है । आप पहले वह पासवर्ड मुझे बतायें ।
अजनबी सकपकाया और वहाँ से खिसक लिया ।

दरअसल इस बच्ची और उसकी माँ ने तय किया हुआ था कि अगर कभी बच्ची को लेने किसी 
अजनबी को भेजने की नौबत आई । तो माँ उसे पासवर्ड बतायेगी और बच्ची भी पासवर्ड 
को जान लेने के बाद ही उस अजनबी के साथ जायेगी । 
देखा कितना आसान तरीका है, बच्चों को किसी दुर्घटना से बचाने का । आप भी अपने बच्चों के
साथ ऐसा पासवर्ड तय कर सकते हैं ।

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सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय 
सहज योग (क्रिया योग) ध्यान, समाधि
जनहितार्थ में प्रकाशित - मुक्तमंडल आगरा

आवश्यक जानकारियां

यद्यपि यह ब्लाग पूर्णतया आध्यात्म (आत्मज्ञान, ध्यान, क्रियायोग, समाधि) केन्द्रित है । तथापि ‘सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय’ भी इसका उद्देश्य है । अतः आवश्यक सूचनायें और उपयोगी जानकारी भी समय समय पर साझा/प्रकाशित की जाती रही हैं ।   




                                                         सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय 
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                                              जनहितार्थ में प्रकाशित - मुक्तमंडल आगरा

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12 अक्टूबर 2016

अदल कबीर गुरु प्रणाली

कबीर साहिब का चेतावनी युक्त सुन्दर भजन जो जीवन की निस्सारता और निजत्व के सदा स्मरण कर निज घर वापसी का आह्वान करता है ।

क्या सोया उठ जाग मन मेरा, भई भजन की बेरा रे ।
रंगमहल तेरा पङा रहेगा, जंगल होगा डेरा रे ।
सौदागर सौदा को आया, हो गया रैन बसेरा रे ।
कंकर चुन चुन महल बनाया, लोग कहें घर मेरा रे ।
ना घर मेरा ना घर तेरा, चिङिया रैन बसेरा रे ।
अजावन का सुमिरण कर लें, शब्द स्वरूपी नामा रे ।
भंवर गुफ़ा से अमृत चुवे, पीवे सन्त सुजाना रे ।
अजावन वे अमर पुरुष हैं, जावन सब संसारा रे ।
जो जावन का सुमिरन करिहै, पङो चौरासी धारा रे ।
अमरलोक से आया बन्दे, फ़िर अमरापुरु जाना रे ।
कहें कबीर सुनो भाई साधो, ऐसी लगन लगाना रे ।
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श्री गुरु रामानन्द जू, तिनके दास कबीर ।
तत्वा जीवा शिष्य भये, तिनके ज्ञान गंभीर ।
सत्वा जीवा शिष्य भये, तिनहुँ के मतिमान ।
‘पुरुषोत्तम’ जीवा भये, अति पुनीत परधान ।
‘कुन्तादास’ तिनके भये, सकल ज्ञान के धाम ।
सुखानन्द सुख रूप ही, रत विचार गत काम ।
‘सम्बोधदास’ पुनि तिनके, शिष्य भये बुध भूप ।
‘देवादास’ सु देवही, जिनकी कथा अनूप ।
‘विश्वरूपदास’ जु भये, सो तो जगदाधार ।
‘विक्रोधदास’ जु कोपगत, विगत सदा मद मार ।
‘ज्ञान मुकुन्ददास’ भये, सुगति देत सब काहु ।
‘सुरूपदास’ सब शिष्य को, जगजीवन लाहु ।
‘निर्मलदास’ निर्मल मति, ‘कोमलदास’ मृदुचित्त ।
‘गणेशदास’ जु विघ्न हरि, शरणागत को चित्त ।
‘गुरुदयालदास’ जु भये, सो वैराग्य निधान ।
‘घनश्यामदासो भये, घनश्याम इव मान ।
‘भरतदास’ विश्व के भरण, ‘मोहनदास’ सुखैन ।
‘रघुवरदास’ रघुवर सम, सब जग मंगल दैन ।
‘दयालदास’ भये जगत, विदित दया आगार ।
‘ज्ञानीदास’ उदार मति, दीनन करत उद्धार ।
‘केशवदास’ केशव सम, सब विभूति के खान ।
शान्त चित्त सो सन्त हित, सदा सन्त परमान ।
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भक्ति भावना को जाग्रति करती यह विनती भक्ति भाव को प्रगाढ़ करती है और गहरे ध्यान में ले जाने में सहयोग करती है । पठनीय ही नही, संग्रहणीय भी ।

सुरति करो मेरे साईयां, हम हैं भव जल माहिं ।
आपहि से बहि जायेंगे, जो नही पकङो बांह ।
मैं अपराधी जन्म का, नख शिख भरा विकार ।
तुम दाता दुख भंजना, मेरी करो उबार ।
अवगुण मेरे बाप जी, बख्सो गरीब निवाज ।
जो मैं पूत कपूत हौं, तउ पिता कों लाज ।
मुझ में औगुण तुझहि गुण, तुझ गुण अवगुण मुझ्झ ।
जो मैं बिसरूँ तुझ्झ को, तुम नहि बिसरो मुझ्झ ।
साहिब तुम मत बिसरो, लाख लोग मिल जायं ।
हम सम तुम्हरे बहुत हैं, तुम सम हमरे नायं ।
साहिब तुम दयाल हो, तुम लगि मेरी दौर ।
जैसे काग जहाज को, सूझै और न ठौर ।
अब के जब साईं मिलें, सब दुख आँखों रोय ।
चरणों ऊपर सिर धरूँ, कहूँ जो कहना होय ।
अन्तर्यामी एक तुम, आतम के आधार ।
जो तुम छोङो साथ को, कौन उतारे पार ।
कर जोरे विनती करूं, भवसागर है अपार ।
बन्दा ऊपर महर करो, आवागवन निवार ।

इश्क शरा दा वैरी

आओ मित्रो, हमें मिलो हमारा दुख सुख जानो । स्वपन में हम एक दूसरे से बिछुङ गये थे । अब तुम्हारा कोई पता नही लग पा रहा है । 
मेरे स्वामी, मैं वन में अकेली हूँ और तरह तरह के (धार्मिक) लुटेरों से लुट रही हूँ । मुल्ला और काजी तरह तरह के कर्मकांडी राह दिखाते हैं । जिससे दीन (इस्लाम) और धर्म (हिन्दू) सम्बन्धी भ्रम पैदा होते हैं । ये तो चिङीमार ठग की भांति हैं जो संसारी जीवों को फ़ंसाने को जाल बिछाते हैं ।
ये लोग बाहरी कर्मकांड और शरीअत को धर्म (आंतरिक अध्यात्म) बताते हैं और इस तरह से पैरों में जंजीरें डाल देते हैं । खुदा के इश्क के दरबार में कोई धर्म (सम्प्रदाय) के विषय में प्रश्न नही पूछता । सच कहूँ तो सच्चे इश्क का शरीअत से वैर है । 
प्रिय का देश नदी (भवजल) के पार है । नदी में लोभ की तरह तरह की लहरें उठ रही हैं । सतिगुरु (मुर्शिद) नाव लेकर खङे हैं । उसी के सहारे पार हो सकते हो । तब नाव में चढ़ने में देरी क्यों कर रहे हो ?
बुल्लेशाह कहते हैं कि (नाव में चढ़ जाओ) तुम्हें प्रिय अवश्य मिलेंगे । दिल में भरोसा रखो, प्रिय तो तुम्हारे पास ही है । तब तुम भरी दोपहरी के समय उसे खोजने की भूल क्यों कर रहे हो ?
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आ मिल यारा सार लै मेरी, मेरी जान दुखां ने घेरी ।
अन्दर ख्वाव बिछोङा होया, खबर न पैंदी तेरी ।
सुज्जी वन विच लुट्टी साइयां, चोर-शंग ने घेरी ।
मुल्लां काजी राह बतावण, दीन धरम दे फ़ेरे ।
एह तां ठग ने जग दे झांवर, लावण जाल चुफ़ेरे ।
करम शरां दे धरम बतावण, संगल पावण पैरी ।
जात मजब एह इश्क न पुछदा, इश्क शरा दा वैरी ।
नदियों पार ए मुलक सजण दा, लोभ लहर ने घेरी ।
सतिगुरु बेङी पङी खलोत, तैं क्यों लाई ए देरी ।
बुल्ले शाह शौह तैंनूं मिलसी, दिल नू देह दलेरी ।
प्रीतम पास ते टोलणा किस नूं, भुलिओ सिखर दुपहरी ।

11 अक्टूबर 2016

कुण्डलिनी जागरण हेतु

भारत जैसे महान देश में आज महान शाश्वत आध्यात्मिक विज्ञान ‘कुण्डलिनी जागरण’ और मन्त्र तन्त्र के नाम पर जो हँसी मजाक सा प्रचलित हो गया है । उसे देखकर हँसी और रोना ही आता है । विभिन्न प्राचीन हिन्दू धर्म ग्रन्थों से अपनी अपनी अल्प बुद्धि से व्यवसायी प्रवृत्ति के लोगों ने खुद के विद्वान होने का लबादा ओढ कर ऐसी ऐसी सत्यानाशी पुस्तकों का सृजन किया । जिनसे आम जनमानस किसी भी प्रकार से लाभान्वित होने के बजाय भारी भृम और अज्ञानता के महासागर में और डूब गया ।
महाकुण्डलिनी शक्ति को इन तुच्छ बुद्धि लोगों ने कोई ऐसा योग ज्ञान या साधारण क्रियात्मक ज्ञान समझ लिया (और लोगों को समझा दिया) मानों ये किसी छोटे मोटे उपकरण को नियन्त्रित संचालित करना मात्र हो ।
वास्तव में कुण्डलिनी महामाया योग शक्ति है । जिसे योगमाया शक्ति भी कहते हैं । जिसका सीधा सा अर्थ है कि विभिन्न पिंडी (शरीर या विराट) चक्रों को चक्र अनुसार ऊर्जा और शक्ति (से जोङने) देने वाली - एक इकाई, एक तन्त्र, एक बृह्माण्डिय स्थिति और प्रतीक गो रूप (शरीर इन्द्रिय रूप) में महादेवी भी । जो परम चेतना से शक्ति लेकर समग्र परिपथ को जरूरत अनुसार चेतना का वितरण करती है ।
मनुष्य शरीर और विराट (पुरुष में स्थिति) सृष्टि का सरंचना रूपी ढांचा आंतरिक और बाह्य रूप से एकदम समान ही है । फ़र्क केवल इतना है कि इस माडल में - असंख्य लोक लोकान्तर, असंख्य शून्य, असंख्य क्षेत्र, असंख्य मार्ग, असंख्य स्थितियां, असंख्य दरवाजे आदि विभिन्न स्थितियों पर स्थिति हैं और एक अदभुत तन्त्र द्वारा लाक्ड है । 
यह भी एक बेहद अदभुत बात है कि वहाँ (पूरी अखिल सृष्टि में कहीं भी) कोई दरवाजा और कोई ताला नहीं है । फ़िर भी एक क्षेत्र स्थिति से दूसरी स्थिति या क्षेत्र बङे चमत्कारिक तरीके से लाक्ड है । और विभिन्न चेतन पुरुषों (जैसे - दिव्य, बृह्म, सिद्ध, योगी, तांत्रिक आदि आदि अपनी प्राप्त स्थिति या पद के अनुसार ही किसी भी क्षेत्र या एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में विचरण आदि कर सकते हैं ।
जैसे इस प्रथ्वी पर ही एक राज्य या देश से दूसरे राज्य या देश में जाने रहने कार्य करने की स्थिति में तमाम प्रशासनिक औपचारिकताओं और कागजी कार्यवाही की प्रक्रिया से गुजरना होता है । ठीक ऐसा ही शासन प्रशासनिक नियम इस विराट सृष्टि की विभिन्न गतिविधियों पर लागू होता है । और इन सबकी आज्ञा अधिकार पत्र आदि देने का मुख्य अधिकार उस क्षेत्र विशेष के द्वैत या अद्वैत सत्ता द्वारा नियुक्त सिर्फ़ समर्थ गुरु को ही प्राप्त होता है ।
अतः आपको आश्चर्य हो सकता है । अलग अलग स्थितियों क्षेत्रों और पद ज्ञान के अनुसार समर्थ आंतरिक पहुँच वाले गुरुओं की संख्या अनगिनत होती है । विराट के इन अनगिनत गुरुओं में भी इस प्रथ्वी पर देहधारी होकर प्रकट रूप गुरु गिने चुने ही होते हैं । क्योंकि अलौकिक ज्ञान किसी भी युग में इतने बङे पैमाने पर कभी नहीं फ़ैलता कि हजारों की संख्या में सच्चे गुरुओं की आवश्यकता हो । उदाहरण के तौर पर इस समूची प्रथ्वी के लिये इस घोर कलिकाल में भी 500 गुरु अधिकतम कहे जा सकते हैं । 
लेकिन बेहद आश्चर्यजनक रूप से किसी भी एक समय में देहधारी सदगुरु सिर्फ़ एक ही होता है । यानी सदगुरु कभी भी दो या अधिक नहीं हो सकते । सिर्फ़ समय के देहधारी सदगुरु में ही ये सामर्थ्य होती है कि वह किसी को भी (उसकी पात्रता अनुसार) परमात्मा से मिला सकता है । या साक्षात्कार करा सकता है । जबकि इस प्रथ्वी पर काल माया के जाल से अनेकानेक नकली पाखंडी सदगुरु पैदा हो जाते हैं । जो सदगुरु तो बहुत दूर सही अर्थों में छोटे मोटे गुरु या तांत्रिक मांत्रिक भी नहीं होते । तब कुण्डलिनी जैसे महाज्ञान को रेवङियों की तरह बाँटने वालों के लिये क्या कहा जाये । क्या ऐसा संभव है ? कदापि नहीं ।
जैसा कि मैंने ऊपर कहा । मनुष्य का और इस विराट सृष्टि का ढांचा एकरूप ही है । पर मनुष्य (जीवात्मा) माया के आवरण में ढका होने से (बद्ध) अल्पज्ञ और अल्प शक्ति वाला है । क्योंकि इसका परिपथ समस्त ज्ञान विज्ञान या ऊर्जा स्रोतों से नहीं जुङा है । अतः जब कभी इसमें पुण्य कर्मफ़ल और भक्तिफ़ल आदि के फ़लस्वरूप जागरूकता, चैतन्यता का उदय होता है । तब यह अपने उत्थान और उद्धार हेतु प्रत्यनशील हो उठता है । ऐसा होते ही यह तत सम्बन्धी अलौकिक ज्ञान के सत साहित्य और सन्त समागम आदि से जुङने लगता है और कृमशः ही अलौकिक ज्ञान को जानने हेतु उन्मुख हो उठता है ।
संक्षेप में देखा जाये । तो यहीं से कुण्डलिनी ज्ञान की शुरूआत होने लगती है और कृमशः झूठे सच्चे गुरुओं से गुजरता हुआ मनुष्य असली, नकली और सार, असार का फ़र्क जानने लगता है । और फ़िर सच्चे सन्तों का शरणागति होने लगता है । इसलिये कुण्डलिनी या धारणा ध्यान समाधि जैसे योग बिना सच्चे गुरु के कभी संभव नहीं हैं । चाहें खुद के प्रयास से इसको सिद्ध करने में आप कितने ही जन्म क्यों न लगा दें ।
अलग अलग स्तर और पहुँच के गुरुओं के अनुसार कुण्डलिनी जागरण के तरीके भी भिन्न भिन्न से हो जाते हैं । और इस विषय से पूर्णतया अनभिज्ञ शिष्य किसी मामूली ऊर्जा आवेश या योग क्रिया को कुण्डलिनी जागरण समझने की भूल कर जाते हैं । जबकि किसी भी एक चक्र पर कुण्डलिनी का जागरण आपकी कल्पना से बहुत अधिक ऊर्जा पैदा करता है और ऐसे अलौकिक अनुभवों से शिष्य गुजरता है कि उसे ध्यान मस्ती का एक अदभुत नशा सा छाने लगता है और ये मैं सिर्फ़ मूलाधार चक्र की ही बात कर रहा हूँ ।
तब क्या ऐसे किसी व्यक्ति या गुरु को आपने देखा है या सुना है ? या फ़िर आप कैसे तय कर पायेंगे कि आपकी कुण्डलिनी पूर्ण हो गयी या सिर्फ़ एक ही चक्र खुला है । जबकि आपका गुरु सिर्फ़ मूलाधार चक्र का ही सिद्ध गुरु हो । आप पुस्तकों के आधार पर ये मिथ्या भ्रामक कल्पना कतई न करें कि मूलाधार जाग्रत हुआ तो आपको गुदा लिंग स्थान के आसपास ही विभिन्न अनुभूतियां होंगी । कोई छोटा अलौकिक आवेश भी आपके मष्तिष्क ह्रदय और पूरे शरीर में ही ऊर्जा सी दौङा देता है । 
तब आसानी से ये भृम हो सकता है कि आपकी कुण्डलिनी पूर्ण रूप से जाग्रत हो गयी और आप भारी भृम में उत्थान के बजाय तेजी से विनाश की ओर अग्रसर होने लगते हैं । क्योंकि निचले मंडल सिद्ध स्थितियां हैं । जिनमें भोग विलासिता का बाहुल्य है और जो आपको बहुत तेजी से कुमार्गी बनाता हुआ अन्त में नर्क जैसे परिणाम को देता है । क्योंकि सिद्धि और अलौकिक शक्ति बिना अच्छे गुरु और सटीक ज्ञान के आपको निर्माण की बजाय विध्वंस की ओर उन्मुख करती है । सरल शब्दों में खुद के द्वारा खुद का ही पतन । अतः ये मार्ग बङी सावधानी का है ।

अभी और भी जुङेगा ।

दान की महत्ता

सर्वप्रथम तो मैं यही स्पष्ट कर दूँ कि हम किसी से कोई दान आदि नही लेते और न ही किसी संस्था विशेष, व्यक्ति विशेष या (धर्म) गुरु विशेष को दान देने का ही आग्रह (और सिफ़ारिश) करते हैं । 
फ़िर भी इस पेज पर बेव डिजायनर की चूक से लिख गया Donate Us दरअसल ‘दान महत्ता’ शब्द होना चाहिये था । जो कि अवसर और डिजायनर का संयोग बनने पर ठीक किया जायेगा ।
फ़िर भी दान एक ऐसा सृष्टिगत कार्य है । जिसकी बेहद महत्ता है और जो बहु जीवन के पक्षों पर सूक्ष्म अवलोकन करने से स्वयं ही समझ में आ जाता है कि - दान क्या है और उसका क्या महत्व है ?
गांठी दाम न बांधहि । नहि नारी से नेह ।
कहि कबीर उन सन्तन की । हम चरनन की खेह ।
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सबसे पहली बात तो यही है कि कोई भी दान हम तभी कर सकते हैं । जबकि वैसा करने लायक हमारी स्थिति और वैसी ही धर्मार्थ भावना का संयोग बने । अन्यथा दान का हो पाना संभव ही नही ।
दान या पुण्यार्थ कार्यों में सिर्फ़ बङे मूल्यांकन वाले जैसे धन, जमीन, वस्तु, वस्त्रादि ही नहीं बल्कि प्यासे को पानी, भूखे को भोजन, नंगे को वस्त्र और जरूरत मन्द को शारीरिक, मानसिक मदद करना भी दान की ही श्रेणी में आता है ।

एक बात (या सूत्र) सदैव ध्यान में रखें कि परस्पर जीव पूरक सृष्टि में आप किसी के लिये ‘एक तिनका’ जैसा भी कुछ सहयोग या कोई कार्य नही कर सकते । क्योंकि कोई भी जो कुछ भी करेगा । वह अभी या भविष्य में सिर्फ़ ‘उसी के लिये’ होगा ।
कंचन दीया करन ने । द्रोपदी दीया चीर ।
जो दीया सो पाईया । ऐसे कहे कबीर ।
अतः जैसा कि मैंने कहा ‘परस्पर जीव पूरक सृष्टि’ में आप कुछ भी, कर भी तभी सकते हैं । जब सृष्टिकर्ता आपको इसका अवसर और साधन उपलब्ध करायेगा और ऐसा वह तभी करता है । जब इससे पूर्व के धन का आपने परमार्थिक सदुपयोग किया हो । अन्यथा अवसर बनेगा ही नही ।  
धर्म किये धन ना घटे । नदी ना घट्टै नीर ।
अपनी आँखों देखि ले । यों कथि कहहिं कबीर ।
सनातन आदि परम्परा से ही धर्मार्थ विषय का कहना है कि - एक रोटी के चार भाग किये जाने चाहिये । एक अतिथि के लिये, एक भिक्षुक के लिये, एक परिवार हेतु और शेष एक ग्रहस्वामी हेतु । ये नियम है । एक रोटी का अर्थ यहाँ एक दिन के उपार्जन से है । अतः सीधी सी बात है कि हमें 25% दान (भिक्षुक आदि) और 25% जागतिक व्यवहार (अतिथि आदि) हेतु करना चाहिये । भिक्षुक, जरूरत मन्द को किया हुआ ही आगे फ़लित होकर पुण्य फ़ल के रूप में प्राप्त होता है और अतिथि आदि को किया हुआ आगे के जागतिक व्यवहार में संस्कार बनकर लौटता है ।
सहज मिले तो दूध है । माँगि मिलै सौ पानि ।
कहैं कबीर वह रक्त है । जामे ऐंचातानि ।
यह वह दान हुआ जो हम सामान्य और निगुरा अवस्था में करते हैं ।
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गुरु धारण करने पर - अज्ञान से ज्ञान भूमि में आ जाने पर यानी निगुरा से सगुरा हो जाने की स्थिति में (यदि सच्चा गुरु मिल जाये) आप यदि समर्पित शिष्य की श्रेणी में आ जाते हैं । तो फ़िर जीवन के 4 पुरुषार्थों में से धर्म और मोक्ष की आपकी चिन्ता गुरु की हो जाती है । शेष दो पुरुषार्थ काम (नाओं पर नियन्त्रण) और अर्थ का संचालन, उपार्जन और निस्तारण आपके मुख्य कर्तव्य रह जाते हैं । मतलब अब आपको परलोक के लिये जप, तप, तीर्थ, वृत, दान आदि कुछ नहीं करना । बल्कि शास्त्र और धर्मग्रन्थ सम्मत उपार्जित का दसवां भाग 10% गुरु को स्थिति अनुसार अर्पित करते रहना है ।
अनमांगा उत्तम कहा । मध्यम माँगि जो लेय ।
कहैं कबीर निकृष्टि सो । पर घर धरना देय ।
गुरु को ये धन क्यों, इसका क्या उपयोग और क्या प्राप्ति - इस पर दरअसल बहुत विस्तार से लिखना होगा । परन्तु संक्षेप में, यह धन गुरु स्थान, खानपान की व्यवस्था और स्थान सम्बन्धी अन्य परमार्थिक कार्यों में व्यय होता है । फ़िर भी आप ये न समझें कि आप इस व्यवस्था में कुछ सहयोग कर रहे हैं । मैंने पहले ही कह दिया है - एक बात (या सूत्र) सदैव ध्यान में रखें कि परस्पर जीव पूरक सृष्टि में आप किसी के लिये ‘एक तिनका’ जैसा भी कुछ सहयोग या कोई कार्य नही कर सकते ।
प्रीति रीति सब अर्थ की । परमारथ की नहिं ।
कहैं कबीर परमारथी । बिरला कोई कलि माहिं ।
गुरु द्वारा दान नियोजन का अर्थ है । आपने एक स्थायी सुखद सुदृढ़ भविष्य के लिये निवेश किया है । लेकिन रहस्य की बात यह है कि आपका द्वारा किया सभी दान सिर्फ़ खाते में जमा नही होता । बल्कि शुरूआती बहुत सा दृव्य आपके काल ऋण को उतारने में ही व्यय हो जाता है । इस बात को थोङा गहराई से समझें ।
खाय पकाय लुटाय के । करि ले अपना काम ।
चलती बिरिया रे नरा । संग न चले छदाम ।
क्योंकि मैंने स्वयं बहुत से लोगों का आया हुआ दान बरबाद और निष्प्रयोज्य व्यय होते देखा है । अक्सर यह 80% तक भी हो जाता है । एकदम शुद्ध सात्विक प्रकृति और लगभग धर्मात्मा की श्रेणी में आने वाले लोगों का भी 20 से 35% तक यूँ ही नष्ट हो जाते देखा है । यहाँ पर ‘चोरी का माल मोरी में’ और ‘मेहनत की कमाई, सकै ना लुटाई’ वाली कहावत पर ध्यान दें ।
परमारथ पाको रतन । कबहुँ न दीजै पीठ ।
स्वारथ सेमल फूल है । कली अपूठी पीठ ।
ऐसा नही कि आप एक संकल्प कर लें कि ये हो जाने पर या इतना हो जाने पर आप दान धर्म की शुरूआत करेंगे । 99 का खेल ऐसा कभी करने ही नही देता । घोर गरीबी होने पर भी आप किसी अभीष्ट की प्राप्ति हेतु उसे बेहद संकुचित स्थिति में 1-2 पैसा करके जोङते हैं और दैव अनुकूल होने पर अभीष्ट पाते हैं । यही दान धर्म का भी मर्म है ।
 सत ही में सत बाटई । रोटी में ते टूक ।
कहै कबीर ता दास को । कबहुँ न आवै चूक ।
और ये भी नही कि आप एक निश्चित आयु तय कर लें कि 30 या 40 या 50 वर्ष पर या फ़लाना कार्य पूरा हो जाने पर ही कोई धर्मादि कार्य शुरू करेंगे । क्योंकि जीवन का कोई पता नही । जैसे ही जन्म हुआ । काल घात लगाकर बैठ गया ।
सुमिरन करहु राम का । काल गहे है केस ।
ना जाने कब मारि है । क्या घर क्या परदेस ।
और एक बार कूच का बिगुल बज गया । फ़िर 2 स्वांसों की भी मोहलत नही मिलती । याद करें, सिकन्दर ने 1 दिन के जीवन के लिये आधी सम्पत्ति का प्रस्ताव रखा था । लेकिन उसके चिकित्सकों ने कहा - पूरी भी देने पर 5 मिनट भी देना हमारे लिये संभव नही ।
देह खेह होय जागती । कौन कहेगा देह ।
निश्चय कर उपकार ही । जीवन का फल येह ।
अतः जैसा कि किसी भी गैर लाभकारी संस्था के साथ हमेशा ही होता है कि वह धर्मार्थ और सामाजिक हितार्थ दानकर्ताओं के सहयोग से ही चलती है । विश्व के अनेकानेक लोग किसी सच्ची और ईमानदार संस्था को परमार्थ और परोपकार के उद्देश्य से अपना बहुमूल्य धन दान करना चाहते हैं । अतः यदि आप दान करने के इच्छुक हैं । तो पूर्ण विवेक, पूर्ण भावना, निष्काम भाव से स्व इच्छा, स्व विवेक से जहाँ भी आपकी भावना बने । अंतरात्मा की आवाज उठे । वहाँ आगामी समय और आगामी जन्मों हेतु श्रद्धा सामर्थ्य अनुसार कुछ न कुछ दान अवश्य करें ।
सत साहेब !

कबीर साहिब और सत्साहित्य पुस्तकों के लिंक

अक्सर ही मेरे पास कबीर साहिब के अनमोल साहित्य.. बीजक, अखरावती, अनुराग सागर आदि और अन्य आत्मज्ञान के सन्तों की वाणियों की पुस्तकों की प्राप्ति हेतु प्रकाशन के नाम, पता और इंटरनेट पर उपलब्ध pdf पुस्तकों के लिंक की जानकारी के लिये फ़ोन, संदेश आते रहते हैं ।
जिज्ञासुओं और शोधकर्ताओं की इसी मांग को देखते हुये हमने इंटरनेट पर उपलब्ध सत्साहित्य पुस्तकों के विभिन्न लिंकों की यह सूची प्रकाशित की है ।
जिसे संजोया और उपलब्ध कराया है - दीपक अरोरा ने ।  
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स्रोत:

https://www.scribd.com/collections/4532201/SANT-MAT
संत-मत

http://www.scribd.com/doc/256991583/Mool-Bijak-Tika-Sahit
कबीर साहिब का मुख्य ग्रन्थ मूल बीजक टीका सहित - कबीरपंथी महात्मा पूरन साहेब

https://ia800302.us.archive.org/3/items/Bijak.Kabir.Saheb.with.Hindi.Tika/Bijak.Kabir.Saheb.with.Hindi.Tika.pdf
or Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/253960445/Anurag-Sagar-46-Grantho-Dwara-Sansodhit
अनुराग सागर (46) ग्रंथों द्वारा संशोधित

https://ia801508.us.archive.org/27/items/AnuragSagar46GranthoDwaraSansodhit/Anurag %20Sagar%20(46)%20Grantho%20Dwara%20Sansodhit.pdf
or Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/230016087/Kabir-Saheb-Ka-Anurag-Sagar
कबीर साहब का असली अनुराग सागर

http://www.scribd.com/doc/267274829/AnuragSagar
अनुराग सागर

https://ia601500.us.archive.org/2/items/AnuragSagar/AnuragSagar.pdf
Alternative Link

http://webstock.in/001-Epics-PDF/Anurag-Sagr-Hindi/001-Anurag-Sagr- Hindi.pdf
अनुराग सागर Part-1

http://webstock.in/001-Epics-PDF/Anurag-Sagr-Hindi/002-Anurag-Sagr-Hindi.pdf
अनुराग सागर Part-2

http://www.scribd.com/doc/176786624/Hindi-Book-Bijak-kabir-saheb-by- Shri-Vishav-Nath-Singh
बीजक कबीर साहब

http://www.scribd.com/doc/104391128/Hindi-Book-Bijak-kabir-saheb-by- Shri-Khemraj-Shri-Krishandas
बीजक कबीर साहब

http://www.scribd.com/doc/117612557/kabir-bijak
बीजक कबीर साहब

http://www.scribd.com/doc/176792754/Hindi-Book-Kabir-Sahab-Ka- Beejak-by-Belvadiar-Press
कबीर साहेब का बीजक

https://ia801509.us.archive.org/7/items/bijak
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/19290688/Kabir-Sahab-Ka-Beejak-Hindi
कबीर साहेब का बीजक

http://www.scribd.com/doc/227116860/Sarlarth-Kabir-Saheb-Ki- Shabdavliyan-1
कबीर साहेब की शब्दावलियाँ

http://www.scribd.com/doc/230819338/Akharawati
अखरावती (कबीर साहेब का पूरा ग्रन्थ)

http://www.scribd.com/doc/230018170/Kabir-Saheb-Ki-Shabdavali-Part-1
कबीर साहब की शब्दावली भाग -1

http://www.scribd.com/doc/230015224/Kabir-Sahab-Ki-Gyan-Gudadi- Rekhte-Aur-Jhulane
कबीर साहिब की ज्ञान गुदड़ी रेख्ते और झूलने

https://www.scribd.com/doc/306476101/Sadguru-Kabir-Sahab-Ka-Sakhi- Granth
सदगुरु कबीर साहब का साखी ग्रन्थ

https://ia801508.us.archive.org/26/items/SadguruKabirSahabKaSakhiGranth/Sadguru %20Kabir%20Sahab%20Ka%20Sakhi%20Granth.pdf
or Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/230010381/Dharmadas-Ji-Ki-Shabdawali
धनी धर्मदास जी की शब्दावली (जीवन चरित्र सहित)

https://app.box.com/s/f3q393ej1h4ir3wpmc9g1ko0udn1d5am
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/265962979/Mita-Granthawali
मीता ग्रंथावली

https://ia801508.us.archive.org/21/items/MitaGranthawali/Mita%20Granthawali.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/246197828/Ghat-Ramayan
घट रामायण (तुलसी साहिब हाथरस वाले जी)

https://ia601307.us.archive.org/35/items/HindiBookGhatRamayan/Hindi%20Book- Ghat-Ramayan.pdf
or Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/261223158/Ramayan-Ka-Gudh-Rahsya
रामायण का गूढ़ रहस्य

https://ia801507.us.archive.org/6/items/RamayanKaGudhRahsya/Ramayan%20Ka %20Gudh%20Rahsya.pdf
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http://www.scribd.com/doc/261223587/Tulsi-Sahib-Ki-Bani
तुलसी साहिब (हाथरस वाले) की बानी

https://ia601505.us.archive.org/17/items/TulsiSahebJiKiBani/Tulsi%20Saheb%20Ji %20Ki%20Bani.pdf
or Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/230014951/Ratan-Sagar
रत्नसागर तुलसी साहिब (हाथरस वाले) का जीवन चरित्र सहित

https://ia601504.us.archive.org/9/items/RatanSagar/RatanSagar.pdf
or Alternative Link

https://app.box.com/s/10c2vfu683jv805rabl1e88f6uit4noj
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http://www.scribd.com/doc/230014029/Tulsi-Sahib-Hathras-Vale-Ki- Shabdavali-Part-1
तुलसी साहिब हाथरस वाले की शब्दावली भाग - 1

https://ia801507.us.archive.org/23/items/TulsiSahibHathrasValeKiShabdavaliPart1/Tulsi %20Sahib%20Hathras%20vale%20ki%20Shabdavali%20Part%20-%201.pdf
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http://www.scribd.com/doc/230014453/Tulsi-Sahib-Hathras-Vale-Ki- Shabdavali-Part-2
तुलसी साहिब हाथरस वाले की शब्दावली भाग - 2

https://ia801509.us.archive.org/1/items/TulsiSahibHathrasValeKiShabdavaliPart2/Tulsi %20Sahib%20Hathras%20vale%20ki%20Shabdavali%20Part%20-%202.pdf
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http://www.scribd.com/doc/229320164/Pran-Sangli-Part-1-And-2
प्राण संगली भाग -1 और 2 (गुरुनानक जी का दुर्लभ ग्रन्थ)

https://ia601508.us.archive.org/17/items/PranSangliPartIII/Pran%20Sangli%20Part %20-%20I,%20II.pdf
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http://www.scribd.com/doc/260842248/Nanak-Vani
नानक वाणी

http://www.scribd.com/doc/266104810/Nanak-Suryoday-Janamsakhi
नानक सूर्योदय जन्मसाखी

https://www.scribd.com/doc/306476102/Shri-Dasam-Gurugranth-Sahib-Ji
श्री दसम ग्रन्थ साहिब जी

https://ia601502.us.archive.org/24/items/ShriDasamGurugranthSahibJi/Shri %20Dasam%20Gurugranth%20Sahib%20Ji.pdf
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http://www.scribd.com/doc/292797508/Sukhmani-Sahib-Shabdarth-Samet
सुखमनी साहिब (शब्दार्थ समेत)

https://ia801506.us.archive.org/20/items/SukhmaniSahibShabdarthSamet/Sukhmani %20Sahib%20Shabdarth%20Samet.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/131571711/Hindi-Book-Ath-shridadudayalji-ki- bani-by-shri-sukh-dev-ji-pdf
श्री दादूदयाल जी की वाणी

http://www.scribd.com/doc/165184853/Shri-Daduvani
श्री दादू वाणी

https://ia601505.us.archive.org/34/items/ShriDaduvani/Shri%20Daduvani.pdf
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http://www.pdf-archive.com/2013/10/24/shri-daduvani/shri-daduvani.pdf  
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https://www.scribd.com/doc/268359518/Daduvani-दादूवाणी
दादू वाणी

https://ia801509.us.archive.org/1/items/Daduvani/Daduvani- %E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%82%E0%A4%B5%E0%A4%BE %E0%A4%A3%E0%A5%80.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/131574074/Hindi-Book-Dadu-Dayal-Ki-Bani
दादूदयाल की बानी

https://ia601501.us.archive.org/10/items/DaduDayalKiBani/dadu%20dayal%20ki %20bani%20.pdf
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http://www.scribd.com/doc/131575900/Hindi-Book-Shri-Dadu-Dayal-Ki- Bani-by-shri-sudhakar-dwadi-pdf
श्री दादूदयाल की बानी

http://www.scribd.com/doc/131592780/Hindi-Book-Shri-Dadu-Dayal-Ki- Bani-part-1-2-by-Belvadiar-Press-Prayag-pdf
दादूदयाल की वाणी (जीवन चरित्र सहित) भाग-1 और 2

https://ia801003.us.archive.org/32/items/HindiBookShriDaduDayalKiBaniPart12ByBelvadiarP ressPrayag/Hindi%20Book=Shri%20Dadu%20Dayal%20Ki%20Bani%20part %201%20%26%202%20by%20Belvadiar%20Press,%20Prayag.pdf
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http://www.scribd.com/doc/260674572/Sri-Dadudayal-Ji-Ki-Vaani
श्री दादूदयाल जी की वाणी

https://www.scribd.com/doc/268354473/Shree-Harisingh-Granthawali  
श्री हरि सिंह ग्रंथावली

http://www.scribd.com/doc/246198548/Sundar-Bilas
सुन्दर बिलास, सुन्दरदास जी के जीवन चरित्र सहित

https://ia801502.us.archive.org/30/items/SundarBilas/Sundar%20Bilas.pdf
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http://www.scribd.com/doc/230539562/Shri-Sundar-Vilas
श्री सुन्दर विलास

https://app.box.com/s/p0jdr7g8r9okp18zugkt1mjl71wm3otn
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http://www.scribd.com/doc/266105719/Sunder-Sar
सुन्दर सार

http://www.scribd.com/doc/261330990/Sunder-Das
सुन्दरदास

http://www.scribd.com/doc/260760722/Sundar-Granthawali-Part-1
सुन्दर ग्रंथावली (प्रथम खण्ड)

https://ia801500.us.archive.org/20/items/SundarGranthawaliPart1/Sundar %20Granthawali%20Part-1.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/260760721/Sunder-Granthavali-Part-2
सुन्दर ग्रंथावली (द्वितीय खण्ड)

https://ia601508.us.archive.org/6/items/SunderGranthavaliPart2/Sunder %20Granthavali%20Part-2.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/265710194/Kavivar-Sant-Rajjab
कविवर संत रज्जब

http://www.scribd.com/doc/260570321/Sri-Rajjab-Vani
श्री रज्जब बानी

https://ia800203.us.archive.org/12/items/HindiBookRajjabVani/Hindi%20Book%20- Rajjab-Vani.pdf
Alternative Link

https://ia801508.us.archive.org/26/items/RajjabBaani/Rajjab%20Baani.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/265967802/Sant-Patludas-Aur-Patlu-Panth
संत पलटूदास और पलटू पंथ

http://www.scribd.com/doc/265967629/Sant-Paltu
संत पलटू

http://www.scribd.com/doc/230542754/Paltu-Sahib-Ki-Bani-Part-1
पलटू साहिब की बानी Part-1

https://ia801502.us.archive.org/11/items/PaltuSahibKiBaniPart1/Paltu%20Sahib %20Ki%20Bani%20Part-1.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/230543274/Paltu-Sahib-Ki-Bani-Part-2
पलटू साहिब की बानी Part-2

https://ia601501.us.archive.org/17/items/PaltuSahibKiBaniPart2/Paltu%20Sahib %20Ki%20Bani%20Part-2.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/230543825/Paltu-Sahib-Ki-Bani-Part-3
पलटू साहिब की बानी Part-3

https://ia601505.us.archive.org/17/items/PaltuSahibKiBaniPart3/Paltu%20Sahib %20Ki%20Bani%20Part-3.pdf
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http://www.scribd.com/doc/230542077/JagJivan-Sahab-Ki-Bani-Part-2
जगजीवन साहब की बानी Part-1

https://ia601509.us.archive.org/11/items/JagJivanSahabKiBaniPart1/JagJivan %20Sahab%20Ki%20Bani%20Part-1.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/230542077/JagJivan-Sahab-Ki-Bani-Part-2
जगजीवन साहब की बानी Part-2

https://ia801501.us.archive.org/4/items/JagJivanSahabKiBaniPart2/JagJivan %20Sahab%20Ki%20Bani%20Part-2.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/230540599/Gulal-Sahab-Ki-Bani
गुलाल साहेब की बानी (जीवन चरित्र सहित

https://ia601502.us.archive.org/24/items/GulalSahabKiBani/Gulal%20Sahab%20Ki %20Bani.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/230538653/Bheekha-Sahab-Ki-Bani
भीखा साहब की बानी (जीवन चरित्र सहित)

https://ia801509.us.archive.org/24/items/BheekhaSahabKiBani/Bheekha%20Sahab %20Ki%20Bani.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/230538163/Malukdasji-Ki-Bani
मलूकदासजी की बानी (जीवन चरित्र सहित)

https://app.box.com/s/0dv308ae1jj0fvbyk4ekzx9aeu1q52rg
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/265966860/Sant-Kavi-Malukdas
संत कवि मलूकदास

http://www.scribd.com/doc/230537528/Dulandasji-Ki-Bani
दूलनदास जी की बानी (जीवन चरित्र सहित)

https://ia601505.us.archive.org/13/items/DulandasKiBani/Dulandas%20Ki %20Bani.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/230536924/Yari-Sahab-Ki-Ratnavali
यारी साहब की रत्नावली

https://ia601508.us.archive.org/0/items/YariSahabKiRatnavali/Yari%20Sahab%20Ki %20Ratnavali.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/230536721/Keshavdas-Ji-Ki-Amighunt
केशवदास जी की अमीघूँट

https://ia801509.us.archive.org/22/items/KeshavdasJiKiAmighut/Keshavdas%20Ji %20Ki%20Amighut.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/265968090/Sant-Raidas
संत रैदास

http://www.scribd.com/doc/230535772/Raidas-Ji-Ki-Bani
रैदास (रविदास) जी की बानी

https://ia601509.us.archive.org/1/items/RaidasJiKiBani_201604/Raidas%20Ji%20Ki %20Bani.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/230009974/Meera-Bai-Ki-Shabdawali
मीराबाई की शब्दावली

https://ia601502.us.archive.org/20/items/MeeraBaiKiShabdawli/Meera%20Bai%20Ki %20Shabdawli.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/260467803/Meera-Bai-Ki-Padhyali
मीराबाई की पदावली

https://ia801505.us.archive.org/14/items/MeeraBaiKiPadhyali/Meera%20Bai%20Ki %20Padhyali.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/230013629/Gareebdas-Ji-Ki-Bani
गरीबदास जी की बानी जीवन-चरित्र सहित

https://ia601503.us.archive.org/3/items/GareebdasJiKiBaani/Gareebdas%20Ji%20Ki %20Baani.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/230010549/Dharnee-Das-Ji-Ki-Bani
धरनीदास जी की बानी (जीवन-चरित्र सहित)

http://www.scribd.com/doc/264606761/Ath-Shriswami-Charandas-Ka- Granth
अथ श्रीस्वामी चरणदास का ग्रन्थ

http://www.scribd.com/doc/260571368/Bhakti-Sagar
भक्तिसागर - चरणदास

https://ia801504.us.archive.org/5/items/BhaktiSagar/Bhakti%20Sagar.pdf
Alternative Link

https://ia801501.us.archive.org/14/items/BhaktiSagarGranthSwamiCharandas/Bhakti %20sagar%20granth%20-%20Swami%20Charandas.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/260350027/Charandas
संत चरणदास

http://www.scribd.com/doc/230822238/Charandas-Ji-Ki-Bani-Part-1
चरनदास जी की बानी भाग-1

https://ia601508.us.archive.org/16/items/CharandasJiKiBaniPart1/Charandas%20Ji %20Ki%20Bani%20Part-1.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/230824143/Charandas-Ji-Ki-Bani-Part-2
चरनदास जी की बानी भाग-2

https://ia801507.us.archive.org/6/items/CharandasJiKiBaniPart2/Charandas%20Ji %20Ki%20Bani%20Part-2.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/230537196/Dayabai-Ki-Bani
दयाबाई की बानी

https://ia601507.us.archive.org/27/items/DayabaiKiBani/Dayabai%20Ki%20Bani.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/13958504/Sahjo-Bai-Ki-Bani-Hindi
सहजोबाई की बानी

https://ia801504.us.archive.org/7/items/SahjoBaiKiBani/Sahjo%20Bai%20Ki %20Bani.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/230012796/Dariya-Sahab-Marvad-Vale-Ki-Bani
दरिया साहेब मारवाड़ वाले की बानी और जीवन चरित्र

http://www.scribd.com/doc/230011449/Dariya-Saheb-Bihar-Vale-Ke- Chune-Hue-Sabad
दरिया साहेब (बिहार वाले) के चुने हुए शब्द

http://www.scribd.com/doc/230010867/Dariya-Sagar
दरिया  सागर बिहार वाले दरिया साहिब का

http://www.scribd.com/doc/265986062/Santkavi-Dariya-Ek-Anusheelan
संतकवि दरिया-एक अनुशीलन

http://www.scribd.com/doc/259411112/Beejak
बीजक - दरिया साहब बिहार वाले

http://measdot.github.io/dariya/assets/pdf/beejak.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/259411111/KaalCharitra
कालचरित्र - दरिया साहब बिहार वाले

http://measdot.github.io/dariya/assets/pdf/kaalcharitra.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/259411109/Bhakti-Hetu
भक्ति हेतु - दरिया साहब बिहार वाले

http://measdot.github.io/dariya/assets/pdf/bhaktihetu.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/259411108/JangsSaangi
जनसांगी - दरिया साहब बिहार वाले

http://measdot.github.io/dariya/assets/pdf/jagsaangi.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/259411107/GyanDeepak
ज्ञानदीपक - दरिया साहब बिहार वाले

http://measdot.github.io/dariya/assets/pdf/gyandeepak.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/259411106/VivekSagar
विवेकसागर - दरिया साहब बिहार वाले

http://measdot.github.io/dariya/assets/pdf/viveksagar.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/259411105/DaariyaNama
दरियानामा - दरिया साहब बिहार वाले

http://measdot.github.io/dariya/assets/pdf/daariyanama.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/259411103/GyanRatan
ज्ञानरतन  - दरिया साहब बिहार वाले

http://measdot.github.io/dariya/assets/pdf/gyanratan.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/259411101/Prem-Moola
प्रेममूला - दरिया साहब बिहार वाले

http://measdot.github.io/dariya/assets/pdf/premmoola.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/259411099/Sahasrani
सहस्रानी - दरिया साहब बिहार वाले

http://measdot.github.io/dariya/assets/pdf/sahasrani.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/259411098/Dariya-Sagar
दरियासागर - दरिया साहब बिहार वाले

http://measdot.github.io/dariya/assets/pdf/dariyasagar.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/259411097/NirbhayGyan
निर्भयज्ञान - दरिया साहब बिहार वाले

http://measdot.github.io/dariya/assets/pdf/nirbhaygyan.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/259411096/RameshwarGoshthi
रामेश्वर गोष्ठि - दरिया साहब बिहार वाले

http://measdot.github.io/dariya/assets/pdf/rameshwargoshthi.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/259411095/Bramha-Vivek
ब्रह्म विवेक - दरिया साहब बिहार वाले

http://measdot.github.io/dariya/assets/pdf/bramhavivek.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/259411092/AgraGyan
अग्रज्ञान - दरिया साहब बिहार वाले

http://measdot.github.io/dariya/assets/pdf/agragyan.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/259411091/Amar-Saar
अमरसार  - दरिया साहब बिहार वाले

http://measdot.github.io/dariya/assets/pdf/amarsaar.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/259411090/GyanSarvoday
ज्ञान स्वरोदय - दरिया साहब बिहार वाले

http://measdot.github.io/dariya/assets/pdf/gyansarvoday.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/259411089/GaneshGoshthi
ग़णेश गोष्ठी - दरिया साहब बिहार वाले

http://measdot.github.io/dariya/assets/pdf/ganeshgoshthi.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/259411088/GyanMool
ज्ञानमूल - दरिया साहब बिहार वाले

http://measdot.github.io/dariya/assets/pdf/gyanmool.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/256927642/Panch-Nam-Ki-Vyakhya  
पांच नाम की व्याख्या - फ़कीर चन्द

http://www.scribd.com/doc/130223388/NaamDaan-by-Faqir-Chand- Maharaj
नामदान - फ़कीर चन्द

http://www.scribd.com/doc/266102800/Swami-Ramcharan
स्वामी रामचरण

http://www.scribd.com/doc/261219699/Shri-Ramsnehi-Sampraday
श्री रामस्नेही सम्प्रदाय

http://www.scribd.com/doc/260992971/Shri-Ramdasji-Maharaj-Ki-Bani
श्री मदाध रामस्नेहि सम्प्रदायाचार्य श्री 1008 श्री रामदासजी महाराज की वाणी

https://ia801507.us.archive.org/12/items/ShriRamdasjiMaharajKiBani/Shri %20Ramdasji%20Maharaj%20Ki%20Bani.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/264483291/Anand-Shabd-Sar
आनन्द शब्द सार

https://ia801502.us.archive.org/20/items/AnandShabdSar/Anand%20Shabd %20Sar.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/265964649/Niranjani-Sampraday-Aur-Sant- Turasidas-Niranjani
निरंजनी संप्रदाय और संत तुरसीदास निरंजनी

http://www.scribd.com/doc/260673278/Haridas-Ki-Vani
श्री महाराज हरिदासजी की वाणी सटिप्पणी व अपर निरंजनी महात्माओं की रचना के अंशांश

http://www.scribd.com/doc/266106966/Swami-Haridas-Ji
स्वामी हरिदास जी

http://www.scribd.com/doc/260992392/Peerdan-Lalas-Granthawali
पीरदान लालस ग्रंथावली

http://www.scribd.com/doc/265966602/Nimad-Ke-Sant-Kavi-Singaji
निमाड़ के संत कवि सिंगाजी

https://ia601500.us.archive.org/30/items/NimadKeSantKaviSingaji/Nimad%20Ke %20Sant%20Kavi%20Singaji.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/260992686/Sant-Singaji-Ek-Adhayayan
संत सिंगाजी एक अध्ययन

https://ia601507.us.archive.org/24/items/SantSingajiEkAdhayayan/Sant%20Singaji %20Ek%20Adhayayan.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/260467722/Jambhoji-Ki-Vani
जांभोजी की वाणी

https://ia801507.us.archive.org/31/items/JambhojiKiVani/Jambhoji%20Ki%20Vani.pdf
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/260762798/Sant-Sudha-Saar
संत - सुधासार

https://app.box.com/s/t52i48c6e5d6icmup5x5b89tifgvw4qw
Alternative Link

http://www.scribd.com/doc/195655425/Samarth-Ramdas-Swami
समर्थ रामदास स्वामी

http://www.scribd.com/doc/30776134/Amrit-Bani-Guru-Ravidass-Ji
अमृतवाणी गुरु रविदास जी

http://www.scribd.com/doc/266493157/Shri-Haripurushaji-Ki-Bani
श्री हरिपुरुष जी की बानी

https://www.scribd.com/doc/306476100/Muktidwar
मुक्तिद्वार

http://www.scribd.com/doc/18020631/Gorakh-Bani-Hindi
गोरखबानी

http://www.scribd.com/doc/265968657/Sant-Vani
संतवाणी

http://www.scribd.com/doc/254669590/SANTO-KI-BANI-pdf
संतों की बानी

http://www.scribd.com/doc/253965489/Santbani-Sangrehye-Part-1-And-2
संतबानी संग्रह भाग 1 और 2

https://ia801504.us.archive.org/25/items/SantbaniSangrehyePart1And2/Santbani %20Sangrehye%20Part-1%20and%202.pdf

http://www.scribd.com/doc/265968817/Santbani-Sangrah-Part-2
संतबानी संग्रह भाग-2

http://www.scribd.com/doc/261224319/Sant-Sangrah-Part-1
संत संग्रह भाग - 1

http://www.scribd.com/doc/261224318/Sant-Sangrah-Part-2
संत संग्रह भाग - 2

http://www.scribd.com/doc/230536611/Sant-Mhatmao-Ka-Jivan-Charitr- Sangrah
संत महात्माओं का जीवन चरित्र संग्रह

https://ia601504.us.archive.org/15/items/SantMhatmaoKaJivanCharitrSangrah/Sant %20Mhatmao%20Ka%20Jivan%20Charitr%20Sangrah.pdf
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http://www.scribd.com/doc/264606944/Hamare-Sant
हमारे संत

http://www.scribd.com/doc/264608472/Bharat-Ke-Sant-Mahatma
भारत के संत महात्मा

http://www.scribd.com/doc/266103306/Uttari-Bharat-Ki-Sant-Parampara
उत्तरी भारत की संत-परम्परा

http://www.scribd.com/doc/265705082/Hariyana-Ka-Sant-Sahitya
हरियाणा का सन्त-साहित्य

http://www.scribd.com/doc/265706795/Hindi-Ko-Marathi-Santo-Ki-Den
हिन्दी को मराठी संतो की देन

http://www.scribd.com/doc/265967389/Sant-Kavya-Dhara
संत काव्यधारा

https://ia601503.us.archive.org/5/items/SantKavyaDhara/Sant%20Kavya %20Dhara.pdf
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http://www.scribd.com/doc/265707465/Hindi-Sant-Kabhya-Sangrha
हिन्दी संतकाव्य-संग्रह

https://ia801509.us.archive.org/29/items/HindiSantKavyaSangrha/Hindi%20Sant %20Kavya%20Sangrha.pdf
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http://www.scribd.com/doc/265706103/Hindi-Ke-Janpad-Sant
हिन्दी के जनपद संत

http://www.scribd.com/doc/264609323/Sant-Sahitya
संत साहित्य

https://ia801506.us.archive.org/34/items/SantSahitya/Sant%20Sahitya.pdf
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मेरे बारे में

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326