यह पूरा लेख सिर्फ़ ‘जानें बिनु न होइ परतीती’ चौपाई का महत्व दर्शाने हेतु है । हमारी कोई भी आराधना/उपासना तब तक सार्थक नहीं । जब तक अंतःदर्शन आदि भक्ति प्रमाण प्रत्यक्ष न हों । अतः रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड का यह अंश किसी सार सिद्धांत या विज्ञान सार की भांति है । केवल इतने मात्र को पूर्णरूपेण समझ लेने पर ‘स्वयं को जानने’ की ठोस भूमि तैयार हो जाती है ।
जानें बिनु न होइ परतीती । बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ।
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई । जिमि खगपति जल कै चिकनाई ।
बिना (अंतःदर्शन आदि) जाने प्रतीत (महसूस, अनुभव) नहीं होती एवं बिना प्रतीत के प्रीत (लगाव, निष्ठा) नहीं होती । बिना प्रीति के दृढ़ता से भगति (जुङाव) नहीं होती । जैसे जल और चिकनाई परस्पर मिले हुये भी प्रथक ही रहते हैं ।
बिनु गुर होइ कि ग्यान, ग्यान कि होइ बिराग बिनु ।
गावहिं बेद पुरान सुख, कि लहिअ हरि भगति बिनु ।
बिना गुरु के ज्ञान और बिना ज्ञान के वैराग नहीं होगा और ज्ञान के बिना सुख संभव नहीं है ।
कोउ बिश्राम कि पाव, तात सहज संतोष बिनु ।
चलै कि जल बिनु नाव, कोटि जतन पचि पचि मरिअ ।
सहजता और संतोष के बिना विश्राम नहीं होगा । जैसे पानी के बिना नाव चल नहीं सकती ।
बिनु संतोष न काम नसाहीं । काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं ।
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा । थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा ।
बिना संतोष के इच्छाओं की समाप्ति नहीं होगी और इच्छाओं के रहते सुख संभव नहीं ।
बिनु बिग्यान कि समता आवइ । कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ ।
श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई । बिनु महि गंध कि पावइ कोई ।
रहस्य को जाने बिना समता नहीं होगी । जैसे आकाश के बिना स्थान तथा बिना श्रद्धा के धर्म नहीं होगा जैसे की प्रथ्वी के गुण बिना गंध नही हो सकती ।
बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा । जल बिनु रस कि होइ संसारा ।
सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई । जिमि बिनु तेज न रूप गोसाई ।
बिना तप के प्रकाशित होना संभव नही जैसे कि जल के बगैर रस । सेवा भाव के बिना शील संभव नहीं और तेज के बिना रूप ।
निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा । परस कि होइ बिहीन समीरा ।
कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा । बिनु हरि भजन न भव भय नासा ।
स्वयं सुखी हुये बिना मन स्थिर नही होगा जैसे के वायु के बिना स्पर्श । विश्वास के बिना सिद्धि नहीं और बिना ‘हरि भजन’ के ‘भवभय’ का नाश नहीं होगा ।
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु ।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु ।
अतः बिना विश्वास के भक्ति नहीं और भक्ति के बिना राम प्रसन्न नहीं होगें और राम के प्रसन्न हुये बिना सपने में भी विश्राम नहीं होगा ।
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तब ते मोहि न ब्यापी माया । जब ते रघुनायक अपनाया ।
जब से मैं राम को जान गया (एक हो गया) तब से माया का प्रभाव समाप्त हो गया ।
निज अनुभव अब कहउँ खगेसा । बिनु हरि भजन न जाहि कलेसा ।
अतः हे गरुण ! मेरा अनुभव है कि ‘हरि भजन’ बिना कलेश नहीं जाता ।
जानें बिनु न होइ परतीती । बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ।
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई । जिमि खगपति जल कै चिकनाई ।
बिना (अंतःदर्शन आदि) जाने प्रतीत (महसूस, अनुभव) नहीं होती एवं बिना प्रतीत के प्रीत (लगाव, निष्ठा) नहीं होती । बिना प्रीति के दृढ़ता से भगति (जुङाव) नहीं होती । जैसे जल और चिकनाई परस्पर मिले हुये भी प्रथक ही रहते हैं ।
बिनु गुर होइ कि ग्यान, ग्यान कि होइ बिराग बिनु ।
गावहिं बेद पुरान सुख, कि लहिअ हरि भगति बिनु ।
बिना गुरु के ज्ञान और बिना ज्ञान के वैराग नहीं होगा और ज्ञान के बिना सुख संभव नहीं है ।
कोउ बिश्राम कि पाव, तात सहज संतोष बिनु ।
चलै कि जल बिनु नाव, कोटि जतन पचि पचि मरिअ ।
सहजता और संतोष के बिना विश्राम नहीं होगा । जैसे पानी के बिना नाव चल नहीं सकती ।
बिनु संतोष न काम नसाहीं । काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं ।
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा । थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा ।
बिना संतोष के इच्छाओं की समाप्ति नहीं होगी और इच्छाओं के रहते सुख संभव नहीं ।
बिनु बिग्यान कि समता आवइ । कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ ।
श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई । बिनु महि गंध कि पावइ कोई ।
रहस्य को जाने बिना समता नहीं होगी । जैसे आकाश के बिना स्थान तथा बिना श्रद्धा के धर्म नहीं होगा जैसे की प्रथ्वी के गुण बिना गंध नही हो सकती ।
बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा । जल बिनु रस कि होइ संसारा ।
सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई । जिमि बिनु तेज न रूप गोसाई ।
बिना तप के प्रकाशित होना संभव नही जैसे कि जल के बगैर रस । सेवा भाव के बिना शील संभव नहीं और तेज के बिना रूप ।
निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा । परस कि होइ बिहीन समीरा ।
कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा । बिनु हरि भजन न भव भय नासा ।
स्वयं सुखी हुये बिना मन स्थिर नही होगा जैसे के वायु के बिना स्पर्श । विश्वास के बिना सिद्धि नहीं और बिना ‘हरि भजन’ के ‘भवभय’ का नाश नहीं होगा ।
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु ।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु ।
अतः बिना विश्वास के भक्ति नहीं और भक्ति के बिना राम प्रसन्न नहीं होगें और राम के प्रसन्न हुये बिना सपने में भी विश्राम नहीं होगा ।
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तब ते मोहि न ब्यापी माया । जब ते रघुनायक अपनाया ।
जब से मैं राम को जान गया (एक हो गया) तब से माया का प्रभाव समाप्त हो गया ।
निज अनुभव अब कहउँ खगेसा । बिनु हरि भजन न जाहि कलेसा ।
अतः हे गरुण ! मेरा अनुभव है कि ‘हरि भजन’ बिना कलेश नहीं जाता ।