राजीव जी ! वैसे तो मैं टीवी फ़ेमस बाबाओं को सुनता नहीं हूँ । और न इनमें मेरी कोई दिलचस्पी है । लेकिन श्री कृपालु जी महाराज को मैने कई बार सुना है । वो कहते हैं कि - परमात्मा या गुरू । ये दोनों 1 ही तत्व के 2 रूप हैं ।और जिसका गुरू या परमात्मा में पूर्ण श्रद्धा भाव और प्रेम होता है । वही सर्वोच्च भक्ति है । ज्ञान मार्ग से भगवत्त प्राप्ति नहीं हो सकती ? बङे बङे ज्ञानी जब आत्म ज्ञान कर लेते हैं । फिर बाद में वो परमात्मा की ही शरणागति करते हैं । उनके अनुसार - जो ध्यान में समाधि का सुख मिलता है । वो भी मायिक है । परमानन्द तो भगवत प्राप्ति से मिलता है । और भगवत प्राप्ति भगवान से प्रेम करने होती है । न कि ज्ञान मार्ग से । ज्ञान मार्ग से माया नि्वृति भी नहीं हो सकती ? कुछ बताना चाहें । तो बतायें । धन्यवाद । इस संसार का सबसे - पापी । दुष्ट । नीच । कुकर्मी - सोहन गोदारा ।
♥♥♥♥
बेङा गर्क हो ( गा ) इसका । कैसी झूठी झूठी बातें बनाकर गुरु बनता है । बेङा गर्क हो भी गया । उन
सबका । जिन्होंने किताब को ही गुरु ( गृन्थ ) बना दिया । उनका भी । जिन्होंने कहा - इस आदमी के बाद कोई ज्ञानी या परमेश्वर पुत्र आयेगा ही नहीं । उनका भी । जिन्होंने कहा - किताब में लिखी आतें ( बातें ) ही आँख मूँद कर सत्य मान लो । और सामने घटती तमाम हकीकत से आँखें ही मूँद लो । लेकिन इनका खुद का बेङा गर्क हुआ । सो हुआ । इन्होंने तमाम आगे की पीङियों का भी बेङा गर्क कर दिया ।
कृपालु सिर्फ़ अच्छा ( बल्कि बहुत अच्छा भी ) विद्वान है । पर कोई ( जरा भी ) आंतरिक ज्ञानी नहीं । इस बात पर मैं 100% हूँ । और ( इससे जुङे ) हर चैलेंज के लिये तैयार भी । क्योंकि हर बात के सत्य ( का )उदघाटित होने का समय आ गया ।
अब आईये । कृपालु पर कुछ बात करते हैं । 1984 ..का समय था । जब मैंने कृपालु के बारें में कुछ जाना । हमारे
घर में एक सरकारी शिक्षिका आती थीं । जो उन दिनों कृपालु के नये नये सम्पर्क में आयी थीं । उनके आने के 2 कारण थे । 1 - अपने नये परिवेश की वार्ता और ( उनके गुरु ) कृपालु की चर्चा करना । 2 - मेरे पास टेप रिकार्डर का होना । जिसमें वो कृपालु प्रवचन के आडियो टेप सुनती थीं । क्योंकि ( तब ) टेप रिकार्डर उनके पास नहीं था ।
ये हर अवकाश में मथुरा वृंदावन स्थित कृपालु आश्रम जाती थीं । और वहाँ से नयी नयी जानकारियाँ हमारे घर आकर ( हमें ) UPDATE करती थीं । ध्यान रहे । मेरी माँ भी इनके साथ ही सरकारी शिक्षिका थीं । जाहिर है । हमारा घर कृपालु मय होना ही था । पर मेरा हिसाब ही दूसरा था - एक तो करेला । दूसरे नीम भी चढा । इसलिये कोई रंग चढता ही न था ।
लगभग 1987 ...वे एक चन्दा रसीद बुक लेकर आयी थीं । जो उन्हें आश्रम से मिली थी । उनके अनुसार - आश्रम में कोई निर्माण कार्य हो रहा था । जिसके लिये प्रत्येक ( खास बनने वाले ) शिष्य को उसके महत्व के अनुसार 10 000 और 50 000 का लक्ष्य दिया था । मतलब उतना करना ही था । आप समझ सकते हैं । 1987 का समय था । और लोग 10-20 रुपये चन्दा मुश्किल से देते थे । क्योंकि उन दिनों आम आदमी के लिये 10-20 रुपये काफ़ी होते थे । जाहिर है । लक्ष्य तगङा था । तमाम भागदौङ के बाद मुश्किल से 1 000 से भी कम रुपये एकत्र
हो पाये । तब उन्होंने शेष राशि अपने पास से दी । सोचिये । 50 000 लक्ष्य वाले का क्या हुआ होगा ?
विशेष - चन्दा माँगते समय ये लोग आश्रम से मिली एक चिकने रंगीन पेजों की चित्रमय पुस्तिका साथ रखते थे । और उसमें गोलोक और श्रीकृष्ण की प्रमुख सखियों की ( काल्पनिक ) फ़ोटो दिखाते थे कि - कैसे उन सबको ये सुन्दर गति मिली । और उनको ( चन्दा माँगने वालों को ) भी मिली समझो । और चन्दा दे दो । तो देने वाले को भी मिली समझो । इनकी बातों में ये भाव ( टोन ) भी होता था कि - कृपालु श्रीकृष्ण का प्रेमावतार है ।
वर्ष याद नहीं । पर कुछ और सालों बाद । इन्होंने अपना सरकारी फ़ंड बीमा आदि का पैसा निकाल कर आश्रम को दान कर दिया । कुछ और सालों के बाद । नौकरी के अतिरिक्त समय में गुरु के लिये धन जुटाना । और अपने लिये गुजारे लायक छोङ कर सभी आश्रम में दे देना । इसी बीच इन्होंने एक टीम बना ली । वो भी इसी काम में लग गयी ।
2008 इन्हें छोटे मोटे गुरु और प्रचारक की उपाधि मिल गयी । इनका मेरे लिये बहुत आग्रह था कि - मैं भी कृपालु का शिष्य बन जाऊँ । मैंने मन में सोचा - क्यों बेचारे की दुकान बन्द कराना चाहती हो । खैर..एक बार ये मेरे घर आयीं । और जैसे ठान कर आयीं कि - आज मुझे हरा कर ही छोङेंगी । बात शुरू हुयी । और मैंने कहा -
मैडम ! आप जो भी बोलती हैं । ये आत्म ज्ञान नहीं है । और आत्म ज्ञान ही सर्वोच्च है । आपके सुप्रीमो श्रीकृष्ण जैसे आत्म ज्ञान विभाग में पानी भरते हैं । और अजर अमर भी नहीं हैं । दरअसल जीवात्मा ( मनुष्य ) का लक्ष्य आत्म ज्ञान है । न कि आपके - ये श्रीकृष्ण ।
उनके अहम को बेहद चोट लगी । और उन्होंने आत्म ज्ञान का मतलब ( सिर्फ़ ) निराकार भक्ति से निकाला । और यों बोली - ऐसी भक्ति से क्या लाभ । जिसमें अपने आराध्य की सुन्दर मनोहर छवि का दर्शन भी न हो । क्योंकि वह तो निराकार ही है । उसका कोई आकार ही नहीं । तब हमारी प्रीति कैसे हो ? मैंने कहा - उसी निराकार से करोङों श्रीकृष्ण उत्पन्न होते हैं ।
खैर..10 मिनट बाद ही शास्त्रार्थ समाप्त हो गया । और वो भुनभुनाती हुयी बुरा सा मुँह बना कर चलीं गयीं । 1984 से 2008 यानी 24 साल । निम्न श्रेणी के प्रचारक की उपाधि । और साकार निराकार जैसे महत्वपूर्ण सूत्रों का भी अभी दूर दूर तक पता नहीं । खुद श्रीकृष्ण भी जिसकी बात करते हैं । इसी को कहते हैं - बेङा गर्क होना । क्या फ़ायदा हुआ ? इस समय बरबादी का ।
ये उदाहरण इसलिये कि - आप समझ सको । पढे लिखे ( बल्कि दूसरों को पढाने वाले भी ) धर्म क्षेत्र में किस तरह बेवकूफ़ बनते हैं ? और ध्यान रहे । ये सिर्फ़ 1 इंसान की सच्ची कहानी है ।
♥♥♥♥
अब आईये । सोहन द्वारा उठाये गये बिन्दुओं पर वाया कृपालु बात करते हैं ।
परमात्मा या गुरू । ये दोनों 1 ही तत्व के 2 रूप हैं - ये बात एक भाव में सही है । पर सही ज्ञान के अभाव में । सही शब्दों का चयन न होने से । तमाम भ्रांतियों को पैदा कर देती है । और इसीलिये ( नकली गुरुओं की ) ये भेङ चाल पैदा हो जाती है । परमात्मा का मतलब ही है - अंतिम सत्य । यानी उसके आगे ( पूर्व ) कुछ रहा ही नहीं । क्योंकि कुछ था ही नहीं । आदि सृष्टि से भी पहले की आत्मा या सार तत्व की मूल स्थिति । आज सृष्टि होने के बाद ( सिर्फ़ समझाने हेतु ) स्थिति शब्द का प्रयोग करना पङता है । वरना वह कोई स्थिति नहीं है
। क्योंकि स्थिति में बना बिगङी होती है । जबकि वह तो - है । है । और " है " कोई स्थिति नहीं कही जायेगी । क्योंकि वो जो है । वो अपरिवर्तनीय है । तब इस शाश्वत " है " को जानने वाले को ( शरीरधारी ) सदगुरु कहा जाता है । ये ( समय का ) सदगुरु सिर्फ़ 1 होता है । ध्यान रहे । इसमें और परमात्मा में कोई भेद नहीं होता । इसलिये 2 या अधिक सदगुरु होने पर फ़िर परमात्मा भी 2 या अधिक हो जायेंगे । अंतर ज्ञान के खोजियों द्वारा अपने लिखित अनुभवों में भी इस बात को स्पष्ट किया गया है कि - कोई भी ( जीव ) आत्मा वहाँ तक पहुँच कर वही हो जाता है । भेद मिट जाता है । क्योंकि वहाँ द्वैत है ही नहीं । 2 का सवाल ही नहीं ।
इस बात को जीवन व्यवहार के सरल उदाहरण से समझें । किसी भी शिष्य को पढाते पढाते शिक्षक ( या गुरु ) अपना पूरा ज्ञान दे देता है । और अन्त में जब ज्ञान समाप्त हो जाता है । तब दोनों के बीच भेद ( रहस्य ) मिट गया । सारे प्रश्न खत्म हो गये । अब कुछ बताने को न रहा । और अब कुछ पूछने को भी न रहा । गौर से समझें । दोनों समान हो गये । 1 ही हो गये । अब अगर पूर्व के गुरु से कोई कुछ प्रश्न करे । तो वह कह सकता है - उससे पूछ लो । मैं और वह 1 ही बात है । अतः सार शब्द या
निःअक्षर ज्ञान के ( सद ) गुरु के लिये ही ऐसा कहा जा सकता है । लेकिन आजकल की भेङ चाल में सभी सदगुरु बने बैठे हैं । पर इन शेर की खाल ओङे सियारों की कलई उसी समय खुल जाती है । जब ये हुआ हुआ की आवाज निकालते हैं । अर्थात उपदेश ( उपदेश शब्द भी इनके लिये कहना ठीक नहीं । क्योंकि उपदेश का मतलब ही उप देश की बात करना होता है ) देते हैं । क्योंकि ये बनाबटी उपदेश होते हैं । अतः इनके अनुयाईयों को सुख शांति कुछ नसीब नहीं होता । हाँ गीत संगीत ढोल मजीरा से कुछ मनोरंजन हो जाता है । जिससे मानसिक ? आनन्द महसूस होता है । सोचने वाली बात है कि - जब तमाम साधु परमात्म ज्ञान की बात करते हैं । तब इन बीच की द्वैत उपाधियों स्थितियों के जिक्र का भी क्या मतलब ? आप गौर करें । तो ज्यादातर इन्हीं की चमचागीरी कर रहे हैं । मेरे किसी भी भाव में कभी इनका समर्थन देखा है ? अतः कृपालु क्या कहते हैं । क्या नहीं कहते ? एकदम महत्वहीन है । क्योंकि श्रीकृष्ण आधारित उनकी भक्ति खुद श्रीकृष्ण से
ही मेल नहीं खाती । ध्यान रहे । श्रीकृष्ण योगेश्वर थे । और राम और श्रीकृष्ण दोनों नियमित योग करते थे । इनके आध्यात्म गुरु दुर्वासा ( श्रीकृष्ण ) और वशिष्ठ ( राम ) पूर्णतः योग और तपः शक्तियों के लिये प्रसिद्ध हैं ।
जिसका गुरू या परमात्मा में पूर्ण श्रद्धा भाव और प्रेम होता है । वही सर्वोच्च भक्ति है - आपको 1 बन्द गाङी दे दी जाये । जिसका गेट भी आप खोल न सको । उस कार का कोई किसी तरह का लाभ भी न हो । और आपसे कहा जाये - इससे आराम से सफ़र कर सकते हैं । ये मीलों का रास्ता कुछ ही समय में तय करा देती है । अतः इससे पूर्ण श्रद्धा और प्रेम भाव रखो । बोलो रख पाओगे ? एक हवाई जहाज आसमान में उङता हुआ आप देखते हो । लाखों करोङों लोग देखते हैं । लेकिन वैश्विक % आधार पर बैठते सिर्फ़ हजारों ही हैं । आपको मालूम भी है । इसमें ( समर्थ धनी ) इंसान ही बैठे होंगे । आप भी कभी बैठ सको । ये ( खोखली ) इच्छा भी होती होगी । पर साथ ही आपको अपनी स्थिति ? भी पता है । अब सोचिये । आप जानते हैं
कि - वायुयान अन्य वाहनों के तुलनात्मक श्रेष्ठ वाहन है । महँगा और उच्च स्थिति वाला है । अतः कोई कहे - इस साइकिल और बाइक का झंझट छोङो । वायुयान से प्रेम करो । बोलो कर पाओगे ? मतलब । पूर्ण श्रद्धा और प्रेम भाव । ज्ञान और भक्ति ( जुङाव ) से प्राप्त हुयी स्थिति । और आंतरिक परिवर्तन से स्वतः ही हो जाता है । बाकी अज्ञान या अंध भक्ति में ( सिर्फ़ मानने से ) वह नकली और बनाबटी प्रेम ही होगा । जो कभी भी टूट जायेगा । हाँ खुद के अज्ञान के बा्बजूद । हम पूर्व ( ज्ञानियों के ) सिद्ध अनुभव से उस " एकमात्र मनुष्य जीवन के लक्ष्य " से उसी प्रकार पूर्ण श्रद्धा भाव और प्रेम रख सकते हैं । जैसे - पढाई । व्यापार । कलाओं आदि से शुरूआत में रखते हैं । जबकि तब हमें पता नहीं होता कि - हम सफ़ल होंगे भी या नहीं । लेकिन इन बङे लक्ष्यों
से ( जुङने से ) फ़ायदा ये होता है कि - हम अपनी सामर्थ्य अनुसार जो भी ( ज्ञान ) स्तर % प्राप्त कर लेते हैं । वह निरे अज्ञान और मूढता की तुलना में बहुत श्रेष्ठ ही होता है ।
ज्ञान मार्ग से भगवत्त प्राप्ति नहीं हो सकती - फ़िर कृपालु ! जो आप प्रवचन करते हो । वह क्या है ? उसकी फ़िर आवश्यकता ही क्या है ? आपको जो जगदगुरु की उपाधि दी है । वह क्या मजीरे बजाने के लिये मिली है ? या राधे राधे करने के लिये मिली । ये अनेक चेले चेली वर्षों से राधे राधे कर रहे हैं । इनको भी दिलवा दो ।आपके अनुसार श्रीकृष्ण ही सर्वोच्च हैं । ( ज्ञान के बिना ) ये क्या सपना आया था ? और सपना भी आया । तो वो भी ज्ञान रूप ही हो गया । आपकी इंटरनेट पर साइट है । TV पर चैनल हैं । किताबें हैं । आडियो वीडियो हैं । बिना ज्ञान के इंसान कैसे इसको समझेगा । कैसे उपयोग करेगा ? उदाहरण के लिये कोई भी अहिन्दी भाषी आपको ( प्रवचन करते । गाते ) देखकर सिर्फ़ यही सोचेगा - गेरुआ वस्त्र पहने ये ओल्ड मैन पता नहीं क्या एंजाय सा कर रहा है । क्यों ? क्योंकि उसे ज्ञान नहीं । आप क्या बोल रहे हो ? उसका अर्थ भाव विषय आदि क्या है । क्योंकि वह आपकी बोली नहीं समझता ।
जो ध्यान में समाधि का सुख मिलता है । वो भी मायिक है । परमानन्द तो भगवत प्राप्ति से मिलता है - जिसने ध्यान की ABCD भी न जानी हो । वह बेचारा इसके अलावा कह भी क्या सकता है ? फ़िर भगवान ध्यान स्थिति के बिना मिलेगा भी कैसे । मान लो कोई राम लीला छाप भगवान । उसी तरह की वेशभूषा में अचानक मनुष्य रूप प्रकट होकर कहे -
मैं भगवान हूँ । मान लोगे ? बेचारे भगवान को खुद को भगवान सिद्ध करने में पसीना आ जायेगा । आप बोलोगे - जाओ भाई ! जाकर रामलीला में एक्टिंग करो । हम ही पागल बनाने को रह गये थे । फ़िर ये भगवत प्राप्ति क्या है ? और किस तरह से होगी ?
इच्छा काया इच्छा माया इच्छा जगत बनाया । इच्छा पार जो विचरत उनका पार न पाया । ध्यान रहे । ये सृष्टि माया परदे पर निर्मित है । गोलोक भी माया में है । श्रीकृष्ण का साकार रूप भी निर्मित ही है । भगवान भी माया के दायरे में ( योग ) माया का पुतला भर है । असली और निर्माण रहित सिर्फ़ सार तत्व या आत्मा ही है । अतः श्रीकृष्ण को देख जान भी लिया । तो ( एक दृष्टि से ) वह भी माया है । और निर्विकल्प समाधि में माया है ही नहीं । कोई राम श्रीकृष्ण भी नहीं । वहाँ चेतन और उसकी चेतना से होता खेल है । फ़िर चाहे । उसमें कोई श्रीकृष्ण राम बना खेल रहा हो । या फ़िर रावण या कंस । अतः ध्यान = ध्या - न । भागना बन्द । ठहराव । खुद में ठहर जाना । और खुद में ठहरने का मतलब । आत्मा में स्थित हो जाना । फ़िर हमें क्या आवश्यकता । किसी श्रीकृष्ण की तरफ़ भागें । भागें मतलब ध्या । दौङना ।
और भगवत प्राप्ति भगवान से प्रेम करने होती है । न कि ज्ञान मार्ग से - मेरी तो आज तक यही समझ में नहीं आया कि - भगवान आखिर ( आप लोग ) कहते किससे हो ? द्वैत या अद्वैत के हँस ज्ञान ( पूर्ण कर चुके ) स्तर
वाले ही अपनी योग्यता अनुसार भगवान बनते हैं । भगवान के समतुल्य होते हैं । बहुत से इस पोस्ट को नहीं भी लेते । और दूसरे अन्य विकल्पों में से चुनते हैं । तो जब वो खुद ही ये क ख ग घ पढकर भगवान बने । ( आपके इन ) भगवान को प्राप्त हुये ? तो आप केवल ( झूठा ) प्रेम करने से कैसे प्राप्त हो जाओगे ? सोनिया मनमोहन सिंह से खूब प्रेम करो । रोज उनकी फ़ोटो को धूपबत्ती प्रसाद आदि दो । देखें । तुम प्रधानमंत्री बन जाओ । चलो गैस सिलेंडर ही सस्ता ( पूर्व कीमत में ) करा लो । डीजल आदि के दाम कम करा लो । भइय़ा ! आजकल भगवान बाजी में भी बङे बङे घोटाले हो रहे हैं ।
ज्ञान मार्ग से माया नि्वृति भी नहीं हो सकती - इसका इसी ब्लाग पर एक जीता जागता प्रत्यक्ष प्रमाण देता हूँ । मेरे द्वारा बताने पर " अनुराग सागर " पढकर कल्लू पठान और अष्टांगी
माया भाभी की मायावी पोल कितनों के ही सामने खुल गयी । अभी तक आप लोग इन्हें क्या क्या नहीं जानते थे ? अब ये 2 मियाँ बीबी और इनके 3 बच्चे । इनकी असलियत खुल गयी कि नहीं ? तो ये माया निवृति कैसे हुयी ? सिर्फ़ ज्ञान से ना ? जब एक किताब के शब्दों से ही माया की माया का सच सामने आ गया । तो फ़िर ज्ञान के प्रयोगात्मक पहलू कितने विचित्र विलक्षण अनुपम अवर्णनीय होंगे । इसकी कल्पना मुश्किल है । ये सिर्फ़ ज्ञान युक्त व्यवहार से ही जाना जा सकता है । अनुभूत किया जा सकता है ।
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बेङा गर्क हो ( गा ) इसका । कैसी झूठी झूठी बातें बनाकर गुरु बनता है । बेङा गर्क हो भी गया । उन
सबका । जिन्होंने किताब को ही गुरु ( गृन्थ ) बना दिया । उनका भी । जिन्होंने कहा - इस आदमी के बाद कोई ज्ञानी या परमेश्वर पुत्र आयेगा ही नहीं । उनका भी । जिन्होंने कहा - किताब में लिखी आतें ( बातें ) ही आँख मूँद कर सत्य मान लो । और सामने घटती तमाम हकीकत से आँखें ही मूँद लो । लेकिन इनका खुद का बेङा गर्क हुआ । सो हुआ । इन्होंने तमाम आगे की पीङियों का भी बेङा गर्क कर दिया ।
कृपालु सिर्फ़ अच्छा ( बल्कि बहुत अच्छा भी ) विद्वान है । पर कोई ( जरा भी ) आंतरिक ज्ञानी नहीं । इस बात पर मैं 100% हूँ । और ( इससे जुङे ) हर चैलेंज के लिये तैयार भी । क्योंकि हर बात के सत्य ( का )उदघाटित होने का समय आ गया ।
अब आईये । कृपालु पर कुछ बात करते हैं । 1984 ..का समय था । जब मैंने कृपालु के बारें में कुछ जाना । हमारे
घर में एक सरकारी शिक्षिका आती थीं । जो उन दिनों कृपालु के नये नये सम्पर्क में आयी थीं । उनके आने के 2 कारण थे । 1 - अपने नये परिवेश की वार्ता और ( उनके गुरु ) कृपालु की चर्चा करना । 2 - मेरे पास टेप रिकार्डर का होना । जिसमें वो कृपालु प्रवचन के आडियो टेप सुनती थीं । क्योंकि ( तब ) टेप रिकार्डर उनके पास नहीं था ।
ये हर अवकाश में मथुरा वृंदावन स्थित कृपालु आश्रम जाती थीं । और वहाँ से नयी नयी जानकारियाँ हमारे घर आकर ( हमें ) UPDATE करती थीं । ध्यान रहे । मेरी माँ भी इनके साथ ही सरकारी शिक्षिका थीं । जाहिर है । हमारा घर कृपालु मय होना ही था । पर मेरा हिसाब ही दूसरा था - एक तो करेला । दूसरे नीम भी चढा । इसलिये कोई रंग चढता ही न था ।
लगभग 1987 ...वे एक चन्दा रसीद बुक लेकर आयी थीं । जो उन्हें आश्रम से मिली थी । उनके अनुसार - आश्रम में कोई निर्माण कार्य हो रहा था । जिसके लिये प्रत्येक ( खास बनने वाले ) शिष्य को उसके महत्व के अनुसार 10 000 और 50 000 का लक्ष्य दिया था । मतलब उतना करना ही था । आप समझ सकते हैं । 1987 का समय था । और लोग 10-20 रुपये चन्दा मुश्किल से देते थे । क्योंकि उन दिनों आम आदमी के लिये 10-20 रुपये काफ़ी होते थे । जाहिर है । लक्ष्य तगङा था । तमाम भागदौङ के बाद मुश्किल से 1 000 से भी कम रुपये एकत्र
हो पाये । तब उन्होंने शेष राशि अपने पास से दी । सोचिये । 50 000 लक्ष्य वाले का क्या हुआ होगा ?
विशेष - चन्दा माँगते समय ये लोग आश्रम से मिली एक चिकने रंगीन पेजों की चित्रमय पुस्तिका साथ रखते थे । और उसमें गोलोक और श्रीकृष्ण की प्रमुख सखियों की ( काल्पनिक ) फ़ोटो दिखाते थे कि - कैसे उन सबको ये सुन्दर गति मिली । और उनको ( चन्दा माँगने वालों को ) भी मिली समझो । और चन्दा दे दो । तो देने वाले को भी मिली समझो । इनकी बातों में ये भाव ( टोन ) भी होता था कि - कृपालु श्रीकृष्ण का प्रेमावतार है ।
वर्ष याद नहीं । पर कुछ और सालों बाद । इन्होंने अपना सरकारी फ़ंड बीमा आदि का पैसा निकाल कर आश्रम को दान कर दिया । कुछ और सालों के बाद । नौकरी के अतिरिक्त समय में गुरु के लिये धन जुटाना । और अपने लिये गुजारे लायक छोङ कर सभी आश्रम में दे देना । इसी बीच इन्होंने एक टीम बना ली । वो भी इसी काम में लग गयी ।
2008 इन्हें छोटे मोटे गुरु और प्रचारक की उपाधि मिल गयी । इनका मेरे लिये बहुत आग्रह था कि - मैं भी कृपालु का शिष्य बन जाऊँ । मैंने मन में सोचा - क्यों बेचारे की दुकान बन्द कराना चाहती हो । खैर..एक बार ये मेरे घर आयीं । और जैसे ठान कर आयीं कि - आज मुझे हरा कर ही छोङेंगी । बात शुरू हुयी । और मैंने कहा -
मैडम ! आप जो भी बोलती हैं । ये आत्म ज्ञान नहीं है । और आत्म ज्ञान ही सर्वोच्च है । आपके सुप्रीमो श्रीकृष्ण जैसे आत्म ज्ञान विभाग में पानी भरते हैं । और अजर अमर भी नहीं हैं । दरअसल जीवात्मा ( मनुष्य ) का लक्ष्य आत्म ज्ञान है । न कि आपके - ये श्रीकृष्ण ।
उनके अहम को बेहद चोट लगी । और उन्होंने आत्म ज्ञान का मतलब ( सिर्फ़ ) निराकार भक्ति से निकाला । और यों बोली - ऐसी भक्ति से क्या लाभ । जिसमें अपने आराध्य की सुन्दर मनोहर छवि का दर्शन भी न हो । क्योंकि वह तो निराकार ही है । उसका कोई आकार ही नहीं । तब हमारी प्रीति कैसे हो ? मैंने कहा - उसी निराकार से करोङों श्रीकृष्ण उत्पन्न होते हैं ।
खैर..10 मिनट बाद ही शास्त्रार्थ समाप्त हो गया । और वो भुनभुनाती हुयी बुरा सा मुँह बना कर चलीं गयीं । 1984 से 2008 यानी 24 साल । निम्न श्रेणी के प्रचारक की उपाधि । और साकार निराकार जैसे महत्वपूर्ण सूत्रों का भी अभी दूर दूर तक पता नहीं । खुद श्रीकृष्ण भी जिसकी बात करते हैं । इसी को कहते हैं - बेङा गर्क होना । क्या फ़ायदा हुआ ? इस समय बरबादी का ।
ये उदाहरण इसलिये कि - आप समझ सको । पढे लिखे ( बल्कि दूसरों को पढाने वाले भी ) धर्म क्षेत्र में किस तरह बेवकूफ़ बनते हैं ? और ध्यान रहे । ये सिर्फ़ 1 इंसान की सच्ची कहानी है ।
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अब आईये । सोहन द्वारा उठाये गये बिन्दुओं पर वाया कृपालु बात करते हैं ।
परमात्मा या गुरू । ये दोनों 1 ही तत्व के 2 रूप हैं - ये बात एक भाव में सही है । पर सही ज्ञान के अभाव में । सही शब्दों का चयन न होने से । तमाम भ्रांतियों को पैदा कर देती है । और इसीलिये ( नकली गुरुओं की ) ये भेङ चाल पैदा हो जाती है । परमात्मा का मतलब ही है - अंतिम सत्य । यानी उसके आगे ( पूर्व ) कुछ रहा ही नहीं । क्योंकि कुछ था ही नहीं । आदि सृष्टि से भी पहले की आत्मा या सार तत्व की मूल स्थिति । आज सृष्टि होने के बाद ( सिर्फ़ समझाने हेतु ) स्थिति शब्द का प्रयोग करना पङता है । वरना वह कोई स्थिति नहीं है
। क्योंकि स्थिति में बना बिगङी होती है । जबकि वह तो - है । है । और " है " कोई स्थिति नहीं कही जायेगी । क्योंकि वो जो है । वो अपरिवर्तनीय है । तब इस शाश्वत " है " को जानने वाले को ( शरीरधारी ) सदगुरु कहा जाता है । ये ( समय का ) सदगुरु सिर्फ़ 1 होता है । ध्यान रहे । इसमें और परमात्मा में कोई भेद नहीं होता । इसलिये 2 या अधिक सदगुरु होने पर फ़िर परमात्मा भी 2 या अधिक हो जायेंगे । अंतर ज्ञान के खोजियों द्वारा अपने लिखित अनुभवों में भी इस बात को स्पष्ट किया गया है कि - कोई भी ( जीव ) आत्मा वहाँ तक पहुँच कर वही हो जाता है । भेद मिट जाता है । क्योंकि वहाँ द्वैत है ही नहीं । 2 का सवाल ही नहीं ।
इस बात को जीवन व्यवहार के सरल उदाहरण से समझें । किसी भी शिष्य को पढाते पढाते शिक्षक ( या गुरु ) अपना पूरा ज्ञान दे देता है । और अन्त में जब ज्ञान समाप्त हो जाता है । तब दोनों के बीच भेद ( रहस्य ) मिट गया । सारे प्रश्न खत्म हो गये । अब कुछ बताने को न रहा । और अब कुछ पूछने को भी न रहा । गौर से समझें । दोनों समान हो गये । 1 ही हो गये । अब अगर पूर्व के गुरु से कोई कुछ प्रश्न करे । तो वह कह सकता है - उससे पूछ लो । मैं और वह 1 ही बात है । अतः सार शब्द या
निःअक्षर ज्ञान के ( सद ) गुरु के लिये ही ऐसा कहा जा सकता है । लेकिन आजकल की भेङ चाल में सभी सदगुरु बने बैठे हैं । पर इन शेर की खाल ओङे सियारों की कलई उसी समय खुल जाती है । जब ये हुआ हुआ की आवाज निकालते हैं । अर्थात उपदेश ( उपदेश शब्द भी इनके लिये कहना ठीक नहीं । क्योंकि उपदेश का मतलब ही उप देश की बात करना होता है ) देते हैं । क्योंकि ये बनाबटी उपदेश होते हैं । अतः इनके अनुयाईयों को सुख शांति कुछ नसीब नहीं होता । हाँ गीत संगीत ढोल मजीरा से कुछ मनोरंजन हो जाता है । जिससे मानसिक ? आनन्द महसूस होता है । सोचने वाली बात है कि - जब तमाम साधु परमात्म ज्ञान की बात करते हैं । तब इन बीच की द्वैत उपाधियों स्थितियों के जिक्र का भी क्या मतलब ? आप गौर करें । तो ज्यादातर इन्हीं की चमचागीरी कर रहे हैं । मेरे किसी भी भाव में कभी इनका समर्थन देखा है ? अतः कृपालु क्या कहते हैं । क्या नहीं कहते ? एकदम महत्वहीन है । क्योंकि श्रीकृष्ण आधारित उनकी भक्ति खुद श्रीकृष्ण से
ही मेल नहीं खाती । ध्यान रहे । श्रीकृष्ण योगेश्वर थे । और राम और श्रीकृष्ण दोनों नियमित योग करते थे । इनके आध्यात्म गुरु दुर्वासा ( श्रीकृष्ण ) और वशिष्ठ ( राम ) पूर्णतः योग और तपः शक्तियों के लिये प्रसिद्ध हैं ।
जिसका गुरू या परमात्मा में पूर्ण श्रद्धा भाव और प्रेम होता है । वही सर्वोच्च भक्ति है - आपको 1 बन्द गाङी दे दी जाये । जिसका गेट भी आप खोल न सको । उस कार का कोई किसी तरह का लाभ भी न हो । और आपसे कहा जाये - इससे आराम से सफ़र कर सकते हैं । ये मीलों का रास्ता कुछ ही समय में तय करा देती है । अतः इससे पूर्ण श्रद्धा और प्रेम भाव रखो । बोलो रख पाओगे ? एक हवाई जहाज आसमान में उङता हुआ आप देखते हो । लाखों करोङों लोग देखते हैं । लेकिन वैश्विक % आधार पर बैठते सिर्फ़ हजारों ही हैं । आपको मालूम भी है । इसमें ( समर्थ धनी ) इंसान ही बैठे होंगे । आप भी कभी बैठ सको । ये ( खोखली ) इच्छा भी होती होगी । पर साथ ही आपको अपनी स्थिति ? भी पता है । अब सोचिये । आप जानते हैं
कि - वायुयान अन्य वाहनों के तुलनात्मक श्रेष्ठ वाहन है । महँगा और उच्च स्थिति वाला है । अतः कोई कहे - इस साइकिल और बाइक का झंझट छोङो । वायुयान से प्रेम करो । बोलो कर पाओगे ? मतलब । पूर्ण श्रद्धा और प्रेम भाव । ज्ञान और भक्ति ( जुङाव ) से प्राप्त हुयी स्थिति । और आंतरिक परिवर्तन से स्वतः ही हो जाता है । बाकी अज्ञान या अंध भक्ति में ( सिर्फ़ मानने से ) वह नकली और बनाबटी प्रेम ही होगा । जो कभी भी टूट जायेगा । हाँ खुद के अज्ञान के बा्बजूद । हम पूर्व ( ज्ञानियों के ) सिद्ध अनुभव से उस " एकमात्र मनुष्य जीवन के लक्ष्य " से उसी प्रकार पूर्ण श्रद्धा भाव और प्रेम रख सकते हैं । जैसे - पढाई । व्यापार । कलाओं आदि से शुरूआत में रखते हैं । जबकि तब हमें पता नहीं होता कि - हम सफ़ल होंगे भी या नहीं । लेकिन इन बङे लक्ष्यों
से ( जुङने से ) फ़ायदा ये होता है कि - हम अपनी सामर्थ्य अनुसार जो भी ( ज्ञान ) स्तर % प्राप्त कर लेते हैं । वह निरे अज्ञान और मूढता की तुलना में बहुत श्रेष्ठ ही होता है ।
ज्ञान मार्ग से भगवत्त प्राप्ति नहीं हो सकती - फ़िर कृपालु ! जो आप प्रवचन करते हो । वह क्या है ? उसकी फ़िर आवश्यकता ही क्या है ? आपको जो जगदगुरु की उपाधि दी है । वह क्या मजीरे बजाने के लिये मिली है ? या राधे राधे करने के लिये मिली । ये अनेक चेले चेली वर्षों से राधे राधे कर रहे हैं । इनको भी दिलवा दो ।आपके अनुसार श्रीकृष्ण ही सर्वोच्च हैं । ( ज्ञान के बिना ) ये क्या सपना आया था ? और सपना भी आया । तो वो भी ज्ञान रूप ही हो गया । आपकी इंटरनेट पर साइट है । TV पर चैनल हैं । किताबें हैं । आडियो वीडियो हैं । बिना ज्ञान के इंसान कैसे इसको समझेगा । कैसे उपयोग करेगा ? उदाहरण के लिये कोई भी अहिन्दी भाषी आपको ( प्रवचन करते । गाते ) देखकर सिर्फ़ यही सोचेगा - गेरुआ वस्त्र पहने ये ओल्ड मैन पता नहीं क्या एंजाय सा कर रहा है । क्यों ? क्योंकि उसे ज्ञान नहीं । आप क्या बोल रहे हो ? उसका अर्थ भाव विषय आदि क्या है । क्योंकि वह आपकी बोली नहीं समझता ।
जो ध्यान में समाधि का सुख मिलता है । वो भी मायिक है । परमानन्द तो भगवत प्राप्ति से मिलता है - जिसने ध्यान की ABCD भी न जानी हो । वह बेचारा इसके अलावा कह भी क्या सकता है ? फ़िर भगवान ध्यान स्थिति के बिना मिलेगा भी कैसे । मान लो कोई राम लीला छाप भगवान । उसी तरह की वेशभूषा में अचानक मनुष्य रूप प्रकट होकर कहे -
मैं भगवान हूँ । मान लोगे ? बेचारे भगवान को खुद को भगवान सिद्ध करने में पसीना आ जायेगा । आप बोलोगे - जाओ भाई ! जाकर रामलीला में एक्टिंग करो । हम ही पागल बनाने को रह गये थे । फ़िर ये भगवत प्राप्ति क्या है ? और किस तरह से होगी ?
इच्छा काया इच्छा माया इच्छा जगत बनाया । इच्छा पार जो विचरत उनका पार न पाया । ध्यान रहे । ये सृष्टि माया परदे पर निर्मित है । गोलोक भी माया में है । श्रीकृष्ण का साकार रूप भी निर्मित ही है । भगवान भी माया के दायरे में ( योग ) माया का पुतला भर है । असली और निर्माण रहित सिर्फ़ सार तत्व या आत्मा ही है । अतः श्रीकृष्ण को देख जान भी लिया । तो ( एक दृष्टि से ) वह भी माया है । और निर्विकल्प समाधि में माया है ही नहीं । कोई राम श्रीकृष्ण भी नहीं । वहाँ चेतन और उसकी चेतना से होता खेल है । फ़िर चाहे । उसमें कोई श्रीकृष्ण राम बना खेल रहा हो । या फ़िर रावण या कंस । अतः ध्यान = ध्या - न । भागना बन्द । ठहराव । खुद में ठहर जाना । और खुद में ठहरने का मतलब । आत्मा में स्थित हो जाना । फ़िर हमें क्या आवश्यकता । किसी श्रीकृष्ण की तरफ़ भागें । भागें मतलब ध्या । दौङना ।
और भगवत प्राप्ति भगवान से प्रेम करने होती है । न कि ज्ञान मार्ग से - मेरी तो आज तक यही समझ में नहीं आया कि - भगवान आखिर ( आप लोग ) कहते किससे हो ? द्वैत या अद्वैत के हँस ज्ञान ( पूर्ण कर चुके ) स्तर
वाले ही अपनी योग्यता अनुसार भगवान बनते हैं । भगवान के समतुल्य होते हैं । बहुत से इस पोस्ट को नहीं भी लेते । और दूसरे अन्य विकल्पों में से चुनते हैं । तो जब वो खुद ही ये क ख ग घ पढकर भगवान बने । ( आपके इन ) भगवान को प्राप्त हुये ? तो आप केवल ( झूठा ) प्रेम करने से कैसे प्राप्त हो जाओगे ? सोनिया मनमोहन सिंह से खूब प्रेम करो । रोज उनकी फ़ोटो को धूपबत्ती प्रसाद आदि दो । देखें । तुम प्रधानमंत्री बन जाओ । चलो गैस सिलेंडर ही सस्ता ( पूर्व कीमत में ) करा लो । डीजल आदि के दाम कम करा लो । भइय़ा ! आजकल भगवान बाजी में भी बङे बङे घोटाले हो रहे हैं ।
ज्ञान मार्ग से माया नि्वृति भी नहीं हो सकती - इसका इसी ब्लाग पर एक जीता जागता प्रत्यक्ष प्रमाण देता हूँ । मेरे द्वारा बताने पर " अनुराग सागर " पढकर कल्लू पठान और अष्टांगी
माया भाभी की मायावी पोल कितनों के ही सामने खुल गयी । अभी तक आप लोग इन्हें क्या क्या नहीं जानते थे ? अब ये 2 मियाँ बीबी और इनके 3 बच्चे । इनकी असलियत खुल गयी कि नहीं ? तो ये माया निवृति कैसे हुयी ? सिर्फ़ ज्ञान से ना ? जब एक किताब के शब्दों से ही माया की माया का सच सामने आ गया । तो फ़िर ज्ञान के प्रयोगात्मक पहलू कितने विचित्र विलक्षण अनुपम अवर्णनीय होंगे । इसकी कल्पना मुश्किल है । ये सिर्फ़ ज्ञान युक्त व्यवहार से ही जाना जा सकता है । अनुभूत किया जा सकता है ।
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