01 सितंबर 2012

चार्वाक उर्फ़ बकबास


राजीव जी को नमस्कार । आशा है । इस लेख के मद्दे नजर सत्यकीखोज में मार्गदर्शन करेंगे । कृष्णमुरारी शर्मा । राजस्थान । मेरे फ़ेसबुक पेज पर । निम्न लिंक सहित ।
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भारतीय दर्शन – चार्वाक या लोकायत दर्शन ? मार्क्सवाद के मूलभूत सिद्धांत के तहत लिखी जा रही लेखमाला की चौथी किस्त के रूप में यह आलेख जो युवा संवाद पत्रिका के ताजा अंक में छपा है ।
- भारतीय दर्शन के आरंभिक स्रोतों - वेदों और उपनिषदों में भौतिकवादी प्रवृतियों की छानबीन करते हुए पाया था कि वेदों और उपनिषदों के काल में भी यज्ञ और दान के पाखण्ड पर ही नहीं अपितु ईश्वर और बृह्म की अवधारणा पर भी सवाल उठते दिखाई देते हैं । साफ़ तौर पर भारतीय दर्शन की 2 धारायें हमें दिखाई देती हैं । जिनमें जो इस सिद्धांत की अनुयायी थीं कि - पदार्थ को प्राथमिकता प्राप्त है । भौतिकवादी कहलाईं । और जो इस सिद्धांत को मानती थीं कि - प्राथमिकता तो आत्मा को प्राप्त है । और प्रत्येक वस्तु का उदभव चेतना अथवा किसी ज्ञान सिद्धांत से हुआ है । आदर्शवादी कहलाईं ।  ईसा पूर्व आठवीं और छठी शताब्दियों के बीच भारत में अनेक भौतिकवादी विचारधारायें थीं । इनमें सर्वप्रमुख विचारधारा " चार्वाक दर्शन " थी । प्रचलित धारणा यही है कि - चार्वाक शब्द की उत्पति चारु + वाक ( मीठी बोली बोलने वाले ) से हुई है । ज़ाहिर है कि यह नामकरण इस सिद्धांत के उन विरोधियों द्वारा किया गया है कि जिनका मानना था कि यह लोग मीठी मीठी बातों से भोले भाले लोगों को बहकाते थे । चार्वाक सिद्धांतों के लिए 

बौद्ध पिटकों तक में " लोकायत " शब्द का प्रयोग किया जाता है । जिसका मतलब - दर्शन की वह प्रणाली है । जो इस लोक में विश्वास करती है । और स्वर्ग नरक अथवा मुक्ति की अवधारणा में विश्वास नहीं रखती ।
चार्वाक का नाम सुनते ही आपको - यदा जीवेत । सुखं जीवेत । ऋण कृत्वा । घृतं पीवेत ( जब तक जियो । सुख से जियो । उधार लो । और घी पियो ) की याद आएगी । चार्वाक नाम को ही घृणास्पद गाली की तरह बदल दिया गया है । मानों इस सिद्धांत को मानने वाले सिर्फ कर्ज खोर भोगवादी और पतित लोग थे । हिरियन्ना ने अपनी किताब में इस बात पर अफ़सोस व्यक्त किया है कि - इस दर्शन के बारे में जानने के लिए जो भी स्रोत हैं । वे सब इसके दुश्मनों द्वारा की गयी आलोचनाओं के ही हैं । उन्होंने इसकी तुलना प्राचीन ग्रीस के " सोफीवाद " दर्शन से की है । जो रसिया और काफिर होने का पर्यायवाची

बन गया था । चार्वाक या लोकायत दर्शन का ज़िक्र तो महाभारत में भी मिलता है । लेकिन इसका कोई भी मूल ग्रन्थ उपलब्ध नहीं । ज़ाहिर है कि - चूंकि यह अपने समय की सत्ताधारी ताकतों के खिलाफ बात करता था । तो इसके ग्रंथों को नष्ट कर दिया गया । और प्रचलित कथाओं में चार्वाकों को खलनायकों की तरह पेश किया गया । इसकी तुलना हम उस स्थिति से कर सकते हैं । जब आज मार्क्सवाद के बारे में आम जन के पास अधिकतर जानकारी उन अखबारों या पूंजीवादी माध्यमों से पहुंचती है । जो मार्क्सवाद के शत्रु हैं । या अमेरीकी सिनेमा से । जो एक तय रणनीति के अनुसार शीतकाल के दौर में रूस तथा वामपंथ विरोधी अभियान चला रहा था । ज़ाहिर है कि लोकायतों का विरोध इसलिए था कि ये वैदिक प्राधिकार और ब्राह्मणों के खिलाफ था । लेकिन जैन और बौद्ध धर्म भी इनके खिलाफ थे । परन्तु जो व्यवहार । जो घृणा चार्वाकों के प्रति

थी । वह उनके लिए नहीं । आखिर क्यूं ? इसके लिए आईये लोकायत दर्शन के बारे में थोड़ा विस्तार से देखते हैं ।
इन सभी स्रोतों में भी । जिनमें लोकायत दर्शन की खिल्ली उड़ाने की ही कोशिश की गयी है । लोकायत के उन विभिन्न पहलुओं की जानकारी मिलती है । जिसके सहारे हम अपने सबसे पुराने भौतिकवादी दार्शनिकों के बारे में जान पाते हैं । जैसे शंकर के अनुयायी श्री हर्ष की किताब " खंडन खंड खाद्य " ( खंडन रुपी खांड की मिठाई ) में समस्त प्रमाण और प्रमेयों का खंडन किया । और शंकर ने कहा - प्रमाण प्रमेय सम्बन्धी सभी व्यवहार अविद्या मूलक ( यानि इस तरह से पाया गया ज्ञान सही ज्ञान नहीं है ) है । ज़ाहिर है । लोकायतिक अपने ज्ञान तक पहुँचने के लिए " प्रमाण और प्रमेय " का सहारा लेते हैं । यह प्रमाण और प्रमेय क्या है ? प्रमाण का अर्थ - किसी सही पुष्ट ज्ञान ( प्रमा ) तक पहुँचने के आवश्यक माध्यम हैं । और प्रमेय वह ज्ञात प्रयोजन है । तथा जानने वाला - प्रमाता । प्रमाण 3 तरह के होते हैं । पहला – प्रत्यक्ष । दूसरा - अनुमान । और तीसरा - शब्द । लोकायतिक दार्शनिकों के सिद्धांत का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है कि वे सिर्फ प्रत्यक्ष प्रमाण पर विश्वास करते हैं । न तो वे अनुमान को विश्वसनीय प्रमाण मानते हैं । और न ही पहले से किसी दैवीय पुस्तक ( वेद । उपनिषद ) में कहे गए शब्दों को । चार्वाकों के सिद्धांतों को राहुल सांस्कृत्यायन ने 4 मूल सिद्धांतों में बाँट कर देखा है । 1 – चार्वाक चेतना को भौतिक उपज मानते हैं । वे पृथ्वी । हवा । आग । जल को 4 भूत मानते हैं । और उनका मानना है । इन्हीं से चेतना की उत्पति होती है । 2 -

वे अनीश्वरवादी हैं । उनके अनुसार दुनिया को बनाने में ईश्वर का कोई योगदान नहीं ? 3 - वे आत्मा जैसी किसी चीज के होने से इनकार करते हैं । सर्वदर्शन संग्रह में उद्धत एक श्लोक में कहा गया है कि - न स्वर्ग है । न नरक । न परलोक में जाने वाली कोई आत्मा । वर्ण और आश्रम की बातें बकवास हैं । जो बुद्धि और बल से हीं हैं । वही यज्ञ हवन आदि में विश्वास करते हैं । यदि यज्ञ में बलि दिया गया पशु स्वर्ग जाता है । तो लोग अपने पिता की बलि क्यूं नहीं चढाते ?  और 4 - नैराश्य वैराग्य का खंडन । यानि वे इस बात से इंकार करते हैं कि - चूंकि सुखों के साथ दुःख जुड़े होते हैं । इसलिए हमें सुखों का त्याग करना चाहिए । इसके लिए वे तर्क 

देते हैं कि - हम अच्छे धान को इसीलिए फेंक नहीं देते कि वह भूसी से लिपटा होता है । इस तरह सन्यास जैसी चीजों को वे मूर्खता कहते हैं । जीवन का चरम उद्देश्य सुखवाद है । लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वे इस सुख को हासिल करने के लिए किसी अनैतिक या भृष्ट आचरण की वकालत करते हैं । उनका मानना है कि - सामूहिक सुख वैयक्तिक सुखों में ही प्रतिबिंबित होते हैं । और ऐसा कोई सार्वजनिक सामाजिक हित नहीं हो सकता । जिसमे समाज के लोग दुखी हों । अगर अपने समय को हम देखें । तो सरकारें एक तरफ विकास दरों की बढ़ोत्तरी की दुहाई देती हैं । और दूसरी तरफ - बेरोजगारी । मंहगाई । गरीबी बढ़ती ही जाती है । किसान आत्महत्या करने पर मजबूर होते हैं । ऐसे में यह सवाल बनता ही है । वह कौन सा

सार्वजनिक विकास है । जिसकी नींव आम आदमी के दुखों पर बनती है ?
पहली ईसा सदी के राजनीतिक । आर्थिक । अंतर्जातिक और सांस्कृतिक उथल पुथल के दौर में जब गणतंत्रों की व्यवस्था को समाप्त कर गुप्त राजवंश भारत के बड़े हिस्से पर कब्जा जमा चुका था । तो जो वर्ग यहाँ थे । उनमें सबसे ऊपर थे - देशीय । या फिर देशीय बन गए - राजा । दरबारी और सामंत । जो जनता के बड़े हिस्से के श्रम पर ऐश करते थे । और उसके बाद धर्माचार्यों की जमात थी । जो आत्मा । परमात्मा और मोक्ष का प्रपंच फैलाकर यज्ञ । हवन । बलि जैसे ढकोसलों के सहारे अपना धंधा चलाती थी । और सामंतों तथा राजाओं के इस अनैतिक शासन और 

लूटपाट को जायज़ ठहराती थी । इन्हीं के साथ आम जन को दुखों से मुक्ति के साधन के रूप में सन्यास की शिक्षा देते थे । संसार झूठा है । मृत्यु के बाद स्वर्ग है । धनी गरीब सब ईश्वर के बनाये हैं । संसार माया है । जैसी निराशावादी शिक्षा तथा लोक परलोक की बातों से जनता को भरमाये रखते थे । इसके अलावा व्यापारी वर्ग था । जो सस्ती मजदूरी पर कारीगरों का शोषण करते थे । और और सूदखोरी करते थे । इनके अलावा एक बड़ा वर्ग था । आम जनता का । जो दिन रात श्रम करता था । युद्धों में गाजर मूली की तरह काट दिया जाता था । दास दासियों की तरह बाज़ार में बिकता था । और चातुर्वर्ण्य व्यवस्था की निचली पायदानों पर रहकर ब्राह्मणों द्वारा निर्धारित समस्त छुआछूतों और अत्याचारों को झेलता था । जब हमारे दार्शनिक गूढ़ और आम जनता के लिए पूरी तरह से अबूझ हवाई बातें बना रहे थे । तो लोकायतों ने इस पाखण्ड

के खिलाफ आवाज बुलंद की । इसीलिए जहाँ लोक में उनकी प्रतिष्ठा हुई । वहीँ सत्ता प्रतिष्ठान उनके प्रति क्रूर रहा ।
सत्ताशाली 3 समुदायों ( सामंत । ब्राह्मण । वैश्य ) में से किसी को भी लोकायत फूटी आँख नहीं सुहाते थे । क्योंकि उनका दर्शन उन सभी पाखंडों को तार तार कर देता था । जिन पर उनके शोषण का तंत्र टिका था । कर्म सिद्धांत ( गीता में प्रतिपादित सिद्धांत कि - कर्म करो । फल की चिंता न करो । और यह कि इस जन्म के अच्छे कर्मों के फल के रूप में स्वर्ग में स्थान । और अगले जन्म में बेहतर जीवन की बात ) के अस्वीकार करते ही कामगार वर्ग इस लोक में और इस जन्म में उठाये जा रहे दुखों को चुपचाप झेलने से मना कर देता । और पूरी व्यवस्था का ताना बाना बिखर जाता । आगे हम देखेंगे कि - लोकायतों के अलावा जो भी दुसरे दर्शन थे । उन्होंने वैदिक दर्शनों पर सवाल ज़रूर

खड़े किये । लेकिन इस तरह सीधे सीधे उसकी मूल प्रस्थापनाओं पर सवाल नहीं खड़ा करते । लेकिन हमारे ये प्राचीनतम भौतिकवादी यह साफ़ साफ़ कहने की हिम्मत रखते थे कि - परलोक नहीं है । प्राणियों का जन्म माता पिता के अलावा और किसी कारण से नहीं होता । न भले कर्म का कोई फल मिलता है । न बुरे कर्म का । कोई पुनर्जन्म नहीं होता ( पायासि सुत्तंत )यह भारतीय भौतिकवादी दर्शनों में सबसे " समझौता विरोधी " दर्शन है ।
इसके अलावा लोकायत प्रणाली ने ब्राह्मणवाद और पुरोहितवाद ? की तीवृ निंदा से ही संतोष नहीं कर लिया । बल्कि - इस बृह्माण्ड के मूल कारण । और ढाँचे को बौद्धिक रूप से समझने । तथा स्वयं जीवन की प्रकृति को समझने का भरपूर प्रयास किया । भारतीय वैज्ञानिकों में से अधिकाँश 

भौतिकवाद के मानने वाले ही थे । आयुर्वेद के महान आचार्य चरक के अनुसार - इस जगत के तमाम पदार्थ । चाहे वे जड़ हों । या चेतन । 5 तत्वों की उपज हैं । लोकायत दर्शन यह भी नहीं मानता था कि - सभी घटनाओं और व्यापारों के लिए बस एक ही प्राथमिक कारण ( ईश्वर ) नहीं है । बल्कि हर पदार्थ 5 मूल भूतों ( तत्व ) से बना है ।
इन्हीं कारणों से लोकायत एक समय सामाजिक जीवन में जबरदस्त ताक़त बन गये थे । आधुनिक नजरिये से देखने पर सीधे साधे और त्रुटि पूर्ण लगने वाले इस दर्शन ने अपने युग में रूढ़िवादी विचार धाराओं के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद की । और अंधविश्वासों । कर्मकांडों । तथा रोज ब रोज की जिंदगी में देवताओं के हस्तक्षेप व पुनर्जन्म जैसी चीजों का पुरज़ोर विरोध किया । और इस रूप में जनता को सिखाया कि अपनी बेड़ियाँ तोड़ने के लिए उसे खुद ही कोशिश करनी होगी । अ शार्ट 

हिस्ट्री आफ इन्डियन मैटिरियलिज्म में दक्षिण रंजन शास्त्री ने सही ही लिखा है कि - लोकायत दर्शन के अनुयायियों ने जब सुसभ्य तथा सामान्य लोगों के दिलों में घर बना लिया । तो इन सबने मिलकर अपनी तात्कालिक खुशहाली के लिए इस जगत में ही प्रयास करना शुरू किया । इस आन्दोलन के फलस्वरूप ही विविध कलाओं और विज्ञानों को भरपूर प्रोत्साहन मिला । 
http://jantakapaksh.blogspot.in/2012/09/blog-post.html ( इस लेख के स्रोत के लिये क्लिक करें )
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