ब्लागिंग शुरू करते समय ऐसा ही एक और किन्हीं संजय ग्रोबर का - नास्तिकों का ब्लाग.. नाम से ब्लाग मेरे सामने आया था । वह भी चार्वाक और लोकायत दर्शन की माला जपता था । जिस पर किसी भले आदमी ने टिप्पणी की थी - ये ब्लाग ज्यादा दिन जीवित नहीं रहेगा । और उसकी भविष्यवाणी सही साबित हुयी । कई महीनों बाद मैं अचानक इस ब्लाग पर गया । तो ये मुर्दा जैसा पङा था । और इस पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं । हैरानी ये थी कि - संजय ग्रोवर जैसे घोर अज्ञानी लोग विद्धता की क्रांति का दम भरते हैं । और निरंकार और निराकार को एक ही समझते हैं ? जबकि इनमें जमीन आसमान का फ़र्क है । खैर..इसके बाद चार्वाक का ये " मजदूर खानदानी " दूसरा ब्लाग है । आईये इनको देखें । ये टूटे झोंपङों में रहने वाले आखिर हम महलों वालों से क्यों जलते हैं ?
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भारतीय दर्शन के आरंभिक स्रोतों - वेदों और उपनिषदों में भौतिकवादी प्रवृतियों की छानबीन करते हुए पाया था कि वेदों और उपनिषदों के काल में भी यज्ञ और दान के पाखण्ड पर ही नहीं अपितु ईश्वर और बृह्म की अवधारणा पर भी सवाल उठते दिखाई देते हैं ।
- अगर आप गौर से देखें । तो इस मूर्ख वक्तव्य में ही सिर्फ़ इतनी मामूली सरल बात है । जिसको समझ लेते । तो ये पूरा चार्वाक पोथन्ना लिखने की जरूरत ही नहीं होती । ईश्वर और बृह्म की अवधारणा पर भी सवाल - सोचिये । भौतिक नियम अनुसार जैसे - आग जलाती है । गहरे समुद्र में बिना तैरना जाने गये । तो डूब जाओगे । हवाई जहाज को बिना विधिवत उङाना जाने उङाया । तो हवाई जहाज ( तुम्हारा शरीर ) और तुम ( जीवात्मा की वर्तमान स्थिति ) दोनों मारे जाओगे । जैसे ये बुद्धि स्तर पर सिद्ध बातें हैं । और तुम ऐसा नहीं करते । क्योंकि परिणाम जानते हो । वैसे ही यदि ईश्वर और बृह्म सामान्य बुद्धि ? स्तर पर आमतौर पर सिद्ध होता । तो फ़िर - अज्ञान । अधर्म । पाप । असुरता आदि कहीं होती । सृष्टि सामान्य तरीके से चलती ? क्योंकि लोगों की फ़िर इनमें कोई रुचि ही नहीं होती । आग से जलते हैं । ऐसा जानने के बाद मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति आग को नहीं पकङेगा । और ईश्वर को जानने का असली मतलब क्या है ? स्वयं ईश्वर हो जाना । जेहि जाने जाहि देयु जनाई । जानत तुमहिं तुमहि हुय जाई । ईश्वर एक पढाई की तरह है । जिसने भी यह पढाई पूरी तरह से पढ ली । वही ईश्वर हो गया । एक ही बाप के कई बेटों में एक राजा बना बैठा होता है । और दूसरा मजदूरी कर रहा होता है । हैं दोनों एक ही बाप के । और शरीर भी एक जैसा ? अतः गौर से सोचिये । ईश्वर भौतिक बिज्ञान की तरह आसानी से ? सिद्ध होता । तो सृष्टि में यह बहुरूपता कैसे होती ? और ये जन्म जन्म से अज्ञान से ज्ञान की ओर । अंधकार से प्रकाश की ओर यात्रा चल रही है । ये फ़िर कहाँ चल रही होती । भूखा नंगा गरीब होना कोई मूर्ख भी नहीं चाहता । इसलिये ईश्वर और बृह्म की अवधारणा पर ( मायाकृत ) सवाल आदि सृष्टि से ही था । और हमेशा रहेगा । ये सवाल खुद सृष्टि के प्रमुख संचालक त्रिदेवों - बृह्मा विष्णु शंकर के सामने ( उनके स्तर पर ) भी रहता है । इस सवाल के खत्म होने का मतलब ही है - सृष्टि का खत्म हो जाना । क्योंकि सृष्टि माया के परदे पर निर्मित है । और ईश्वर का मतलब अमाया या ज्ञानयुक्त होना है । अतः प्रश्न और उत्तर का नाम ( विचार ) ही सृष्टि है । who am i से चली यह खोज - जो तुम हो । वही मैं हूँ । = 1 । बीच में मिथ्या अहम रूप माया का परदा था । जो बृह्म ज्ञान या आत्म ज्ञान से हट गया । सबसे ऊपर से ( वासना की इच्छा से ) कृमशः सबसे नीचे तक उतर आना । और फ़िर सबसे नीचे से सबसे ऊपर ( वासनाओं से ऊब कर और कर्मजाल के संकटों से घबरा कर ) तक की सीङी दर सीङी यात्रा का नाम ही सृष्टि है । जो जीवात्माओं के अनगिनत स्तरों स्थितियों पर घटित होती रहती है । यज्ञ और दान बिन्दु पर अगले उत्तरों में देखिये ।
भारतीय दर्शन की 2 धारायें हमें दिखाई देती हैं । जिनमें जो इस सिद्धांत की अनुयायी थीं कि - पदार्थ को प्राथमिकता प्राप्त है । भौतिकवादी कहलाईं । और जो इस सिद्धांत को मानती थीं कि - प्राथमिकता तो आत्मा को प्राप्त है । और प्रत्येक वस्तु का उदभव चेतना अथवा किसी ज्ञान सिद्धांत से हुआ है । आदर्शवादी कहलाईं ।
- ये 2 धारायें सृष्टि रहस्य के अध्ययन की सुविधा के लिये ठीक भी हैं । मगर ज्ञान दृष्टि से इनमें कोई विरोध नहीं है । आत्म ज्ञान शाखा वाले तो स्पष्ट कहते हैं । अगर तुम्हें हठ ही है । तो फ़िर उसे आत्मा की जगह सार पदार्थ ( सार पद अर्थ ) सार तत्व । आत्मा । परमात्मा कुछ भी कह लो । लेकिन एक बात निश्चय माननी होगी । वह उत्पन्न नहीं हुआ । बल्कि ( हमेशा ) था । है । और उसके जो भी नाम हैं । सिर्फ़ व्यवहार हेतु ( स्थिति आधार पर । आदि सृष्टि के बाद ) रखे गयें हैं । वास्तव में किसी नाम ( किसी वर्ण आदि ) से उसका कोई लेना देना ही नहीं । क्योंकि ऐसा होता । तो फ़िर वो नाम ( रखने वाला ) । वो वर्ण आदि दूसरी अन्य चीजों का अस्तित्व भी निश्चित हो जाता है । वो जो है । सो है । और ये सब कुछ उसी से है । इसलिये तुम्हें आत्मा शब्द बुरा लगता है । तो पदार्थ कह लो । रबङी मलाई कह लो । रसगुल्ला कह लो । सलमान खान कैटरीना कैफ़ कह लो । उसकी सेहत पर कोई फ़र्क नहीं आने वाला । लेकिन जब ( कभी ? ) वहाँ पहुँचोगे । तब वह तुम्हारी नाक जोर से दबाकर कहेगा - क्यों रे पंडित ! बहुत नाम रखे तूने । अब देख है मेरा कोई नाम ? मैं अनामी हूँ । इसीलिये मैं बारबार कहता हूँ । सबसे उपर्युक्त शब्द " आत्मा " भी ज्ञान व्यवहार हेतु ही है । वास्तव में वह किसी शब्द ( वर्ण ) में नहीं है । क्योंके वह शब्दातीत है । वर्णातीत है । कालातीत है । वह सबसे परे है । और जो है । सो है । और वही है सबका - साहेब ।
जैसे शंकर के अनुयायी श्री हर्ष की किताब " खंडन खंड खाद्य " ( खंडन रुपी खांड की मिठाई ) में समस्त प्रमाण और प्रमेयों का खंडन किया । और शंकर ने कहा - प्रमाण प्रमेय सम्बन्धी सभी व्यवहार अविद्या मूलक ( यानि इस तरह से पाया गया ज्ञान सही ज्ञान नहीं है ) है । ज़ाहिर है । लोकायतिक अपने ज्ञान तक पहुँचने के लिए " प्रमाण और प्रमेय " का सहारा लेते हैं । यह प्रमाण और प्रमेय क्या है ? प्रमाण का अर्थ - किसी सही पुष्ट ज्ञान ( प्रमा ) तक पहुँचने के आवश्यक माध्यम हैं । और प्रमेय वह ज्ञात प्रयोजन है । तथा जानने वाला - प्रमाता । प्रमाण 3 तरह के होते हैं । पहला – प्रत्यक्ष । दूसरा - अनुमान । और तीसरा - शब्द ।
- अब ये शंकर कौन है ? जो इस तरह की फ़ालतू बात करता है । अरे अक्ल बन्दरों ! जरा सोचो । बिना प्रमाण के तुम मम्मी से मम्मी नहीं कहते । और पापा से पापा ? धूप बत्ती तुम्हें मालूम है । खुशबू देती है । तभी जलाते हो । लैंङ बत्ती क्यों नहीं जलाते ? तुम पैदाइशी ही बहुत चालू हो । तुम्हें क पढाने के लिये कबूतर पकङना पङा । आ पढाने के लिये आम ( चूसने ) का लालच देना पङा । पढ ले बेटा । तभी आम खायेगा । नहीं फ़िर पेङ ही गिनेगा । औ तुमने तभी पढा । जब कहा । तुम्हें भी औरत मिलेगी । प्रमाण और प्रमेय के तो तुम पैदायशी खिलाङी रहे हो । भूख लगी । रो दिये । प्रमाणित था । माँ स्तन पान करायेगी । छी छी सू सू करके फ़िर रो दिये । जानते थे । माँ स्वच्छ करके सूखे वस्त्र पहनायेगी । जब तुम अपने बल से एक करबट भी नहीं ले सकते थे । तब भी प्रमाण प्रमेय के एक्सपर्ट थे । तो ये कैसे संभव है कि - बाद में तुम कोई कार्य आँख मूँद कर करते रहते । जाहिर है । वह बात ( आत्म ज्ञान आदि ) न सिर्फ़ तुम्हें समझ में आ रही थी । बल्कि ज्यों ज्यों तुम अध्ययनशील हो रहे थे । खुद बदलाव प्रत्यक्ष महसूस कर रहे थे । अब जो पढेंगे ही नहीं । उन्हीं के लिये कहावत है - काला अक्षर भैंस बराबर । ये चार्वाक ऐसे ही थे । अनपढ । मूर्ख । गंवार । फ़िर से दोहराता हूँ । कुण्डलिनी या आत्म ज्ञान कोई अंधविश्वास । कोई कल्पना नहीं । बल्कि ऐसा समृद्ध प्रमाण प्रमेय युक्त पूर्ण बिज्ञान है । जिसमें एक तिनका नुक्स नहीं निकाला जा सकता ।
लोकायतिक दार्शनिक सिद्धांत का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष - वे सिर्फ प्रत्यक्ष प्रमाण पर विश्वास करते हैं । न तो वे अनुमान को विश्वसनीय प्रमाण मानते हैं । और न ही पहले से किसी दैवीय पुस्तक ( वेद । उपनिषद ) में कहे गए शब्दों को ।
- इन अक्ल बन्दरों से ये पूछो कि दैवीय पुस्तक वेद उपनिषद अनुमान की नहीं प्रत्यक्ष प्रमाण की ही बात करते हैं । वेद उपनिषद कोई कथा वात्रा की किताब नहीं हैं । वरन दृश्य जीवन और जीवन के पार के सम्पूर्ण ज्ञान बिज्ञान की पोथी है । उनमें चेतना मूलक बिज्ञान है । चेतन की चेतना को जङ पदार्थ से संयुक्त कर कैसे असंख्य भौतिक और अभौतिक वस्तुओं का निर्माण किया जाता है । इन चार्वाकों की किस्मत अच्छी थी । जो मुझ जैसे सनकी से नहीं टकराये । वरना हवा में निराधार बिना रस्सी के ही उलटा लट्का देता । और कहता - अब प्रमाण दो । तुम किससे बंधे हो ? और जिससे बंधे हो । वो कहाँ बंधा हैं ? लटका देने का मतलब ये नहीं कि लटकाता । लटकाता हूँ । लटका चुका हूँ । और ऐसा सिर्फ़ मैं ही नहीं । एकान्त अगम्य क्षेत्रों के असली ? गुप्त साधकों से जाकर पंगा लो । वे तुम्हें दिखायेंगे - बिना लकङी के भी बन्दर कैसे नाचता है ?
चार्वाकों के सिद्धांतों को राहुल सांस्कृत्यायन ने 4 मूल सिद्धांतों में बाँट कर देखा है । 1 – चार्वाक चेतना को भौतिक उपज मानते हैं । वे पृथ्वी । हवा । आग । जल को 4 भूत मानते हैं । और उनका मानना है । इन्हीं से चेतना की उत्पति होती है ।
- अब सवाल ये है कि ( इन्हीं के अनुसार ) एक मुर्दा शरीर में भी ये 4 ( मरने के बाद भी ) फ़िर भी रहे । यदि इन्हीं से चेतना उपजेगी । तो मुर्दे का अंतिम संस्कार क्यों किया जाये ? वह ( इन तत्वों द्वारा ) फ़िर चेतन हो उठेगा । और पहले तो मरा ही क्यों । क्योंकि ये 4 भूत निरंतर चेतना उत्पन्न करते रहने चाहिये । दरअसल ये ठीक उल्टी बात कह रहे हैं । ये सभी जङ तत्व हैं । इनमें चेतना आवेशित होती है । वो भी मि. चेतन द्वारा ।
2 - वे अनीश्वरवादी हैं । उनके अनुसार दुनिया को बनाने में ईश्वर का कोई योगदान नहीं ?
- वे कोई वादी नहीं । सिर्फ़ चूतियावादी हैं । नाच न जाने आँगन टेङा । इन्हीं के लिये आविष्कार किया गया है । एक पढे लिखे ( दृश्य ) समाज में ( इस स्थिति तक पहुँचाने में ) शिक्षक का क्या योगदान है ? क्या बाद में किसी शिक्षित पर शिक्षक का tag लगा होता है । अगर उसके कुशल निर्माण का रहस्य जानना है । तब उस निर्माण की तहों में जाना होगा । और इसके लिये सत्यकीखोज करनी होगी । और चार्वाक ऐसे ढोल हैं । जो पढने से बहुत घबराते हैं । वे सिर्फ़ व्यवस्था में दोष निकालते हुये गाल बजाना भर जानते हैं ।
सत्ताशाली 3 समुदायों ( सामंत । ब्राह्मण । वैश्य ) में से किसी को भी लोकायत फूटी आँख नहीं सुहाते थे । क्योंकि उनका दर्शन उन सभी पाखंडों को तार तार कर देता था । जिन पर उनके शोषण का तंत्र टिका था ।
- देखिये ऐसा नहीं है कि - बात पुरानी होने से आप असमंजस में रहें कि पता नहीं तब शायद ऐसा ही हो ? आज भी ( और हमेशा ) यही स्थिति है । इन शब्दों पर गौर करें । सत्ताशाली 3 समुदाय - सामंत ( राजा या आज प्रधानमंत्री ) ब्राह्मण ( विभिन्न स्तरों के ज्ञानी और शिक्षक ) वैश्य ( विभिन्न स्तरों के उधोगपति व्यापारी ) इनमें और गरीबों में ऊँच नीच का भेदभाव हमेशा रहा । क्योंकि स्तर % में ही बहुत अन्तर आ जाता है । राजा ( तमाम संपत्ति । अधिकार । सम्मान ) ब्राह्मण ( अच्छी संपत्ति । पूज्यता । बेहद सम्मान आदि प्राप्तियाँ ) वैश्य ( मेहनत अनुसार अर्जित संपत्ति और तदनुसार शक्ति आदि ) ..अब लोकायत इन्हें फ़ूटी आँखों नहीं सुहाते । ये लोकायतों की खामख्याली थी । है । आपने वो कहावत सुनी हैं । कुत्ते भौंकते रहते हैं । और हाथी चुपचाप चले जाते हैं । क्योंकि उन्हें मालूम है । ये फ़ालतू में परेशान है । जबकि इनका मुझसे कोई लेना देना ही नहीं । बात वही है । तुम भी तो - सामंत । ब्राह्मण । वैश्य बन सकते हो । तुम्हें किसने रोका है ? और गरीबों का भी कोई दर्शन होता है ? ये मैंने आज पहली बार ही सुना । हाँ उनके फ़टे पेंट से चूतङ दर्शन अवश्य होता है । और ये दर्शन ही बताता है कि ये व्यक्ति इतना हरामी और गाल बजाऊ है कि खुद अपने चूतङ ढांकने का इंतजाम नहीं कर पाता । इसलिये इन 3 को लोकायत फ़ूटी आँख नहीं सुहाते थे । ये भी उन्होंने खुद को महत्व देने के लिये खुद ही सोच रखा था । निश्चय ही वे इन कीङों मकोङों को कोई महत्व देना उचित नहीं समझते होंगे । क्योंकि कुतर्की बकबादी को समझाना भैंस के आगे बीन बजाना ही है । ध्यान रहे - राजा । ब्राह्मण और वैश्य बनने ( मिर्माण ) का भी प्रत्यक्ष भौतिक बिज्ञान ही ( भी ) होता है । जिसकी ये मुफ़लिस वकालत करते हैं ।
कर्म सिद्धांत ( गीता में प्रतिपादित सिद्धांत कि - कर्म करो । फल की चिंता न करो । और यह कि इस जन्म के अच्छे कर्मों के फल के रूप में स्वर्ग में स्थान । और अगले जन्म में बेहतर जीवन की बात ) के अस्वीकार करते ही कामगार वर्ग इस लोक में और इस जन्म में उठाये जा रहे दुखों को चुपचाप झेलने से मना कर देता । और पूरी व्यवस्था का ताना बाना बिखर जाता ।
- चलो सीता गीता को गोली मारो । वह पुराने जमाने की ( और अनपढ गंवारों की ? ) बात हुयी । वर्तमान की बात करो । पिछले 30 साल से ( ही ले लो ) जातिवाद खत्म करने । समानता । सभी को शिक्षा । जीवन स्तर को ऊँचा उठाना । अमीर गरीब ऊँच नीच का भेद खत्म करना आदि आदि बेसुरे राग अलापे जा रहे हैं । वैश्विक स्तर पर अभियान भी चल रहे हैं । क्या हुआ ? पिछले 30 साल शिक्षा और सभी क्षेत्रों में विकास की दृष्टि से ऐसे वर्ष थे । जिन पर कोई उंगली नहीं उठा सकता ।
अब ? क्या आज कोई कामगार मजदूर नहीं रहा ? सभी बाबू साहब हो गये । सभी शिक्षित हो गये । ऊँच नीच अमीरी गरीबी खत्म हो गयी । दिल्ली मुम्बई में झोपङ पट्टियाँ खत्म हो गयीं ? अपराध मुक्त समाज का निर्माण हो गया । बताईये ? मैं मान लेता हूँ । ब्राह्मण वाद । पुरोहित वाद । सामंतवाद दूषित और पक्षपात युक्त व्यवस्था थी । जो निम्न वर्ग को उठने नहीं देती थी । पर आज किसने रोका है ? गरीब मजदूरों के बच्चों को स्कूल भेजने के सरकारी प्रोत्साहन अभियानों में जब शिक्षिकायें घर घर motivate करने जाती हैं । तब पता है । ये साले गरीब क्या कहते हैं - वजीफ़ा दिलाओ । तो भेंजे । खाली फ़ोकट क्या फ़ायदा ? हमारा बच्चा 50 रुपया पैदा करेगा । पोलियो ड्राप्स पिलाने गयी टीम पर ये साले गरीब ऐसे अकङते हैं । जैसे वे इनके बाप के नौकर हों । ये मैंने सुना नहीं । आँखों देखा है ।
आप बताईये । गरीब धीरू भाई अम्बानी को किसने motivate किया कि पेट्रोल पम्प पर पेट्रोल डालना छोङकर खुद का पेट्रोप पम्प लगाये । अब्राहम लिंकन को किसने motivate किया कि जलती अंगीठी की रोशनी में पढे । बिल गेटस । अमिताभ बच्चन । मुलायम सिंह । सुबृतो राय सहारा आदि आदि सफ़ल लोग कङे संघर्ष के बाद आज इस मुकाम पर पहुँचे हैं । ये चार्वाक और मार्क्सवाद ऐसे ही लोगों से जलते हैं । जबकि ये बेचारे ? भी कभी गरीब ही थे । दरअसल ये चाहते हैं कि अमीर अपनी कमाई इन्हें लुटा दें । और ये हरामी मौज करें । सो ले लो सोई ठेंगा । इसलिये तुम मानों । या न मानों । आज कर्मफ़ल के रूप में जो तुम्हें प्राप्त है । वह आज का नहीं है । बल्कि पहले और बहुत पहले का है । और वर्तमान भौतिक बिज्ञान के सिद्धांत अनुसार भी नहीं हो सकता । आज कोई पेङ लगाओगे । तो दस साल बाद फ़ल देगा । कोई मकान बनाते हो । तो - धन संचय । जमीन । बनाने का प्रबंध । देख रेख । यानी बीसियों साल का कर्मयोग । तब 1 जी हाँ तब सिर्फ़ 1 मकान का सुख । तो इस सबको जादू से तुरन्त क्यों नहीं कर लेते । किसने रोका है तुम्हें ? मुझे बताओ । तुम्हें धीरू अम्बानी । अमिताभ बच्चन । बिल गेटस बनने से कोई रोकता है । अगर रोकता हो । कसम खुदा की । मैं उसे फ़ौरन गोली मार दूँगा । फ़िर तुम क्यों नहीं बन जाते । इसलिये बात चाहे इस जन्म की हो या अगले जन्म की । सब तुम्हारे ही हाथ में है । पर तुम्हें कुत्ते की तरह फ़ेंके गये ( सरकारी भी ) टुकङों पर पलने की आदत सी हो गयी है ।
लेकिन हमारे ये प्राचीनतम भौतिकवादी यह साफ़ साफ़ कहने की हिम्मत रखते थे कि - परलोक नहीं है । प्राणियों का जन्म माता पिता के अलावा और किसी कारण से नहीं होता । न भले कर्म का कोई फल मिलता है । न बुरे कर्म का । कोई पुनर्जन्म नहीं होता ( पायासि सुत्तंत ) यह भारतीय भौतिकवादी दर्शनों में सबसे " समझौता विरोधी " दर्शन है ।
- इन प्राचीनतम भौतिकवादी उर्फ़ चार्वाक उर्फ़ उल्लू छाप अगरबत्तियों से ये पूछो कि बहुत से माता पिता बारबार कोशिश में लगे रहते हैं । फ़िर भी उनके यहाँ कुछ भी ? पैदा नहीं होता । किसी को लङका । किसी को लङकी । किसी को मिश्रित 2 in 1 । किसी को - गोरा । काला । पतला । मोटा । स्वस्थ । रोगी । भाग्यवान । भाग्यहीन । फ़िर कैसे पैदा होते हैं ? यदि बाप की टुँई टुँई और माँ की उई उई से ही बच्चा ( किसी फ़ैक्टरी प्रोडक्ट की तरह ) पैदा होता है । तो फ़िर उत्पादन भी इच्छानुसार होना चाहिये ना । ना ? तो कर्मफ़ल तो जन्म के साथ ( बल्कि ज्ञान स्थिति में तो जन्म के बहुत पहले से ही ) ही शुरू हो जाता है । और यदि कर्मफ़ल सिद्ध है । तो ( इससे पहले का ) पूर्वजन्म और ( इसके बाद ) पुनर्जन्म तो स्वतः सिद्ध हो जाता है ।
" समझौता विरोधी " का मतलब क्या है ? किसी का पङोसी अपनी मेहनत से चुपङी रोटी खा रहा है । और दूसरे की लार टपक रही है । तो समझौता विरोधी यही हुआ ना कि उसकी छीन कर खा लो । हमें क्यों नहीं मिलीं ? तब चुपङी रोटी तो नहीं । वो घी खाने वाला ? पेट भर कर लात घूँसे अवश्य खिला देगा । हाँ एक उपाय है । उसी टपकती लार को घी समझ कर चुपङ कर खा जाओ । कबीर ने ऐसों के लिये ही ये दोहा लिखा है - रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पीव । देख परायी चूपङी मत ललचाओ जीव । और जीभ लपक रही है । तो फ़िर हाथ पैर हिलाओ ।
भारतीय वैज्ञानिकों में से अधिकांश भौतिकवाद के मानने वाले ही थे । आयुर्वेद के महान आचार्य चरक के अनुसार - इस जगत के तमाम पदार्थ । चाहे वे जड़ हों । या चेतन । 5 तत्वों की उपज हैं । लोकायत दर्शन यह भी नहीं मानता था कि - सभी घटनाओं और व्यापारों के लिए बस एक ही प्राथमिक कारण ( ईश्वर ) नहीं है । बल्कि हर पदार्थ 5 मूल भूतों ( तत्व ) से बना है ।
- ये चार्वाकी शायद स्कूल के पीछे पढे थे । या कमबख्त स्कूल बंक मारते थे । या फ़िर इतने दम्भी थे । जैसे सावन का अंधा होता है । आयुर्वेद कहाँ से निकला हैं - वेद से । इस सृष्टि की पहली पुस्तक वेद ही है । जो निरंजन स्वांस से उत्पन्न हुयी । यह सिर्फ़ 1 ही थी । बाद में इसी के विभाग ( जन सुविधा हेतु ) कर दिये गये । यहाँ एक बात विशेष है । यह न समझें कि ( मूल ) वेद तभी उत्पन्न हुआ । आगे नहीं हुआ । या और आगे नहीं होगा । यह ( आत्म ज्ञान की ) निरंजन स्थिति में पहुँचने पर आज भी ( शुद्ध रूप में ) उत्पन्न होता है । जिसको मूल वेद का भेद ( अनुभव । क्रियात्मक ) जानना हो । मेरे स्कूल में दाखिला ले ले । निरंजन से तो मेरी नित्य की हाय हैल्लो होती है । मैं उसके वोट जो काटता हूँ ।
ऊपर 1 जगह लिखा है कि - वे पृथ्वी । हवा । आग । जल को 4 भूत मानते हैं । यहाँ तक आते आते 5 को मानने लगे ।
http://jantakapaksh.blogspot.in/2012/09/blog-post.html ( इस लेख के स्रोत के लिये क्लिक करें )
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इस लेख के शेष कई बिन्दुओं पर लेख अगले भाग में ।
मार्क्सवाद उर्फ़ चूतियावाद - पर जानकारी युक्त लेख शीघ्र आ रहा है ।
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