आज मैंने आपके ब्लॉग पर लिखे लेख पढ़े । बहुत ही सरलता से आपने सारे लोगों के प्रश्नों के उत्तर दिए हैं । इसलिए आपको प्रणाम और धन्यवाद किये बिना रहा न गया तो ये मेल कर दिया । आपका प्रेम इंगले ।
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thank u so much sir for add me अगर real में कोई इंसान प्रसून जैसा बन सकता है तो आप मुझे बता सकते हैं कि क्या करना होता है please - अभि ।
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महाराज जी ! आप एक तरफ तो कबीर साहब को परमात्मा बता रहे हैं और दूसरी तरफ उसे खोज भी रहे हैं ।
परमात्मा ने अपनी वाणी में कहा है -
वस्तु कहाँ ढ़ूढ़ें कहाँ, किस विधि लागे हाथ ।
एक पलक में पाइओ, भेदी ले ले साथ ।
सत्यप्रकाश विश्वकर्मा ।
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सत्यप्रकाश विश्वकर्मा का ये मेल पढ़कर मेरी समझ में नहीं आया कि - उनका असली आशय क्या है ? इसी मेल के साथ सत्यप्रकाश ने एक PDF फ़ाइल में 284 पेज, ज्ञान गंगा नामक पुस्तक 6.03 mb साइज भी अटैच्ड की है जो किन्ही सन्त रामपाल के सतसंगों का संग्रह है ।
पुस्तक को मैंने जिज्ञासावश देखा, कुछ कुछ पढ़ा भी ।
कहीं की ईंट कहीं का रोङा, भानमती ने कुनबा जोङा ।
तर्ज पर ये पुस्तक - वेद, गीता, देवी भागवत, कबीरवाणी, कुरआन, बाइबल, ग्रन्थसाहब कुछ पुराण आदि से उनके अंशों की मनमानी और अवैज्ञानिक तरीके से व्याख्या करके बनायी गयी है । कैसे, आईये निम्नलिखित पुस्तकीय अंशों के साथ विचार करते हैं । हालांकि पूरी पुस्तक में भ्रामक और अनर्गल बातों की भरमार है और सभी पर बात करने का कोई औचित्य ही नहीं है । इसलिये कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर चर्चा करते हैं ।
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ज्ञानगंगा - पूर्ण परमात्मा (पूर्ण बृह्म) अर्थात सतपुरुष (पूर्व में लिखे शब्द पुस्तक की ही एक लाइन हैं । पुस्तक में जगह जगह परमात्मा के आगे ‘पूर्ण’ शब्द लगाया गया है और शास्त्र विधि से भक्ति करने पर जोर भी दिया है)
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मामूली शास्त्र का अध्ययन करने वाले भी जानते हैं कि - शास्त्रों में परमात्मा को असीम अनन्त ही कहा गया है न कि पूर्ण । पूर्ण शब्द से एक निश्चित आकार सीमा रेखा की ध्वनि होती है । साथ ही उसे न सत न असत न स्त्री न पुरुष (सतपुरुष) कहा गया है लेकिन सृष्टि हो जाने के बाद द्वैत स्थिति में वहाँ पहुँचे भक्तों ने (ध्यान से उतरने पर) अपनी भावना से उसे सतपुरुष भी कहा है ।
यह कुछ हद तक ठीक है पर विशेष ध्यान दें । जब बात परमात्मा (वास्तव में आत्मा) की है तो आत्मज्ञान की अन्तिम स्थिति (और भी साफ़ शब्दों में सभी स्थितियों का अन्त) में वहाँ कहने सुनने वाला कोई नहीं होता । द्वैत समाप्त होकर, वह उसी में लीन होकर 1 अद्वैत ही रह जाता है । उसी को शास्त्रों ने ‘सारतत्व’ या आत्मा कहा है ।
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ज्ञानगंगा - जबकि बाइबल में उत्पत्ति विषय के सृष्टि की उत्पत्ति नामक अध्याय में लिखा है कि - प्रभु ने मनुष्य को ‘अपने स्वरूप’ के अनुसार उत्पन्न किया तथा 6 दिन में सृष्टि रचना करके 7वें दिन विश्राम किया ।
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बाइबिल में क्या लिखा है, मुझे नहीं मालूम पर जब यह आत्मा सारतत्व (है - शाश्वत स्थिति) यानी आदिसृष्टि से भी पूर्व आत्मस्वरूप था । तब पहले इसने (शास्त्र में भी यही वर्णन है) 84 आदि योनियों को बनाया पर सन्तुष्ट नहीं हुआ । तब सबसे अन्त में मनुष्य शरीर बनाया और फ़िर सन्तुष्ट होकर उसी में प्रविष्ट हुआ । जाहिर है पूर्व में वह कोई मनुष्य स्वरूप में नहीं था ।
वैसे इस स्थिति को पूर्णतया समझाना बेहद जटिल है पर वास्तव में यह बात विराट माडल के लिये है । एकदम वास्तविक स्थिति में तो परमात्मा विराट से भी परे है । क्योंकि विराट वगैरह जो कुछ भी है । सब उसी में है और निर्मित है । मूल में उसके अतिरिक्त कुछ है ही नहीं ।
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ज्ञानगंगा - जबकि नानक साहब ने सतपुरुष के आकार रूप में दर्शन करने के बाद अपनी अमृतवाणी महला पहला श्री गुरुग्रन्थ साहब में पूर्ण बृह्म का आकार होने का प्रमाण दिया है ।
लिखा है - धाणक रूप रहा करतार । पृष्ठ 24 ।
हक्का कबीर करीम तू बेएब परवर दिगार । पृष्ठ 721 ।
तथा प्रभु के मिलने से पहले हिन्दू धर्म में जन्म होने के कारण श्री बृजलाल पाण्डे से गीता को पढ़कर नानक साहब बृह्म को निराकार कहा करते थे ।
वह कविर्देव परिभूः अर्थात सर्वप्रथम प्रकट हुआ । जो सर्व प्राणियों की सर्व मनोकामना पूर्ण करता है । वह कविर्देव स्वयंभूः अर्थात स्वयं प्रकट होता है । उसका शरीर किसी माता पिता के संयोग से (शुक्रम अकायम) वीर्य से बनी काया नहीं है । उसका शरीर (अस्नाविरम) नाड़ी रहित है अर्थात 5 तत्व का नहीं है । केवल तेज पुंज से 1 तत्व का है ।
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उपरोक्त वर्णन में इस बात पर जोर है कि ये आत्मा सदैव से ही किसी आकार (मनुष्य रूप) में था । अब आईये, एक प्रयोग करते हैं ।
एक हवाई जहाज (एक आकार) लीजिये । अब इसके चार टुकङे (दूसरा आकार) कर लीजिये । अब इसके सभी पार्ट (तीसरा आकार) अलग अलग कर लीजिये । अब सभी पार्ट का चूरा (चूर्ण आकार, चौथा) कर लीजिये । इस चूरे को उङा (कण कण में) दीजिये ।
अब बताईये इनमें से कौन सा आकार सत्य था ?
इसी matter से फ़िर हवाई जहाज किसी नये रूप, रंग (विचार और इच्छा शक्ति) में बन सकता है । मिट्टी से विभिन्न रंग रूप के खिलौने बनाते हैं । अलग अलग नाम देते हैं पर मूल मिट्टी ही है और उसका कोई निश्चित आकार नहीं है ।
शास्त्रों ने स्पष्ट कहा है कि - वह निराकार और साकार (सृष्टि होने के बाद) दोनों ही हैं । क्योंकि उसके अलावा दूसरा कोई है ही नहीं । सब कुछ उसी से है । और भी ध्यान दें परमात्मा को अवर्णनीय कहा है । आकार होने पर उसका वर्णन काफ़ी हद तक संभव था ।
वाणियों में जो - अलख पुरुष, अगम पुरुष आदि का वर्णन है । वह वास्तव में आत्मा की प्रकाशमय स्थिति है । अकह (परम लक्ष्य) को प्राप्त होने वाला । सबसे परे, निज आत्मस्वरूप को ही देखता है । और ये आदिसृष्टि से पूर्व वाली स्थिति ही है । फ़िर बताईये यहाँ एक अलग परमात्मा कहाँ से आया ? अकह का अर्थ ही यह है कि अब कहने सुनने वाला कोई है ही नहीं । फ़िर किससे और क्या कहा जाये ।
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ज्ञानगंगा - परन्तु वेदों में ‘ॐ’ नाम जो केवल बृह्म की साधना का मंत्र है । उसी को वेद पढ़ने वाले विद्वानों ने अपने आप ही विचार विमर्श करके पूर्णबृह्म का मंत्र जानकर वर्षों तक साधना करते रहे । प्रभु प्राप्ति हुई नहीं अन्य सिद्धियाँ प्राप्त हो गई ।
क्योंकि गीता अध्याय 4 श्लोक 34 तथा यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 10 में वर्णित तत्वदर्शी संत नहीं मिला । जो पूर्ण बृह्म की साधना 3 मंत्र से बताता है । इसलिए ज्ञानी भी बृह्म (काल) साधना करके जन्म मृत्यु के चक्र में ही रह गये ।
ज्ञानगंगा - परन्तु पूर्ण परमात्मा की 3 मंत्र की वास्तविक साधना बताने वाला तत्वदर्शी सन्त न मिलने के कारण ये सब मेरी ही (अनुत्तमाम) अति अश्रेष्ठ मुक्ति (गति) की आस में ही आश्रित रहे । अर्थात मेरी साधना भी अश्रेष्ठ है ।
ज्ञानगंगा - गीता अध्याय 9 के श्लोक 20, 21 में कहा है कि - जो मनोकामना (सकाम) सिद्धि के लिए मेरी पूजा तीनों वेदों में वर्णित साधना शास्त्र अनुकूल करते हैं । वे अपने कर्मों के आधार पर महा स्वर्ग में आनन्द मना कर फिर जन्म मरण में आ जाते हैं ।
अर्थात यज्ञ चाहे शास्त्रानुकूल भी हो । उनका एक मात्र लाभ सांसारिक भोग, स्वर्ग और फिर नरक व 84 चौरासी लाख योनियाँ ही हैं । जब तक तीनों मंत्र (ओ3म ॐ तथा तत, सत सांकेतिक) पूर्ण संत से प्राप्त नहीं होते ।
ज्ञानगंगा - सामवेद के श्लोक न 822 में बताया गया है कि जीव की मुक्ति 3 नामों से होगी । प्रथम - ॐ दूसरा सतनाम - तत और तीसरा सारनाम - सत । यही गीता भी प्रमाण देती है कि ॐ तत सत और श्री गुरुग्रन्थ साहब भी यही नाम जपने का इशारा कर रहा है । जो 1 सच्चा नाम है । इसी तरह यह सारनाम भी अकेला ॐ मन्त्र किसी काम का नहीं है ।
ये तीनों नाम व नाम देने की आज्ञा मुझे गुरुदेव स्वामी रामदेवानन्द जी महाराज द्वारा बख्शीश है । जो कबीर साहब से पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है ।
कबीर मानुष जन्म पाय कर, नहीं रटे हरि नाम ।
जैसे कुँआ जल बिन, खुदवाया किस काम ।
कबीर हरि के नाम बिना, राजा गदर्भ होय ।
माटी ढोवे कुम्हार की, घास न डारे कोय ।
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उपरोक्त सन्त कबीर साहब की बात कहते हैं ।
देखिये खुद कबीर साहब क्या कह रहे हैं -
वेद हमारा भेद है, मैं वेदों में नाहीं ।
जिस वेद से मैं मिलूं, वेद जानते नाहीं ।
और भी देखिये -
जहाँ तक मुख वाणी कहीं, तहाँ तक काल का ग्रास ।
वाणी परे जो शब्द है, सो सतगुरु के पास ।
और भी देखिये -
हम बैरागी बृह्म पद, सन्यासी महादेव ।
सोहं मंत्र दिया शंकर कूं, करत हमारी सेव ।
और देखें -
रागु गउड़ी पूरबी बावन अखरी कबीर जीउ की ।
सतिनामु करता पुरखु गुर प्रसादि ।
बावन अछर लोक त्रै । सभु कछु इन ही माहि ।
ए अखर खिरि जाहिगे । ओइ अखर ? इन महि नाहि ।
जहाँ बोल तह अछर आवा । जह अबोल तह मनु न रहावा ।
बोल अबोल मधि ? है सोई । जस ओहु है तस लखै न कोई ।
जब लग ध्यान विदेह न आवे । तब लग जिव भव भटका खावे ।
ध्यान विदेह और नाम विदेहा ? दोउ लखि पावे मिटे संदेहा ।
अनुराग सागर से देखिये - मनुष्य का 5 तत्वों से बना यह शरीर जङ परिवर्तनशील तथा नाशवान है । यह अनित्य है । इस शरीर का एक नाम रूप होता है परन्तु वह स्थायी नहीं रहता ।
राम, कृष्ण, ईसा, लक्ष्मी, दुर्गा, शंकर आदि जितने भी नाम इस संसार में बोले जाते हैं । ये सब शरीरी नाम हैं । वाणी के नाम हैं । लेकिन इसके विपरीत इस जङ और नाशवान देह से परे उस अविनाशी चैतन्य शाश्वत और निज आत्मस्वरूप परमात्मा का वास्तविक नाम विदेह ? है और ध्वनि रूप है ? वही सत्य है वही सर्वोपरि है ।
और भी देखिये -
काया नाम सबै गोहरावे । नाम विदेह ? विरला कोई पावे ।
जो युग चार रहे कोई कासी । सार शब्द बिन यमपुर वासी ।
सार शब्द विदेह स्वरूपा । निःअक्षर ? वह रूप अनूपा ।
तत्व प्रकृति भाव सब देहा । सार शब्द निःतत्व विदेहा ।
बिनु रसना के ? जाप समाई । तासों काल रहे मुरझाई ।
नहिं वह शब्द ? न सुमरन ? जापा । पूरन वस्तु काल दिखदापा ।
आदि सुरति पुरुष को आही । जीव सोहंगम ? बोलिये ताही ।
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अब - ॐ तत सत का रहस्य देखते हैं । वास्तव में यह मन्त्र ‘हरि ॐ तत सत’ इस तरह है ।
हरि यानी चेतनधारा यानी स्वांस, ॐ यानी शरीर, सत यानी सत्य या सार, तत शब्द का अर्थ संस्कृत शब्दकोश में कई अन्य अर्थों के साथ - वायु और सीमा भी है ।
एक और नजरिये से तत्काल और तत्क्षण में जुङा शब्द ‘तत’ यही या इसी भाव का बोध कराता है । तत काल - इसी समय, तत क्षण - इसी क्षण ।
अब फ़िर से सूत्र को हल करते हैं - हरि ॐ तत सत, यानी इस - शरीर (ॐ) में (छुपा) सत्य (सत) इसी वायु (तत) में स्वांस (हरि) में है ।
लेकिन केवल - ॐ तत सत का अर्थ तो यही शरीर सत्य है । सिर्फ़ इतना बनता है और फ़िर सबसे बङी बात यह वाणी का शब्द है । जबकि कबीर साहब का नाम निर्वाणी है ।
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- आप एक तरफ तो कबीर साहब को परमात्मा बता रहे है और दूसरी तरफ उसे खोज भी रहे है ।
- कृपया बतायें । आपको मेरी किस बात से लगा कि मैं परमात्मा को खोज रहा हूँ ?