हिन्दी अनुवाद - आपके द्वारा सराहनीय लेख, मैं ये जानना चाहता हूँ कि - सोऽहं, सोहंग और हंसो में से कौन सा मन्त्र ठीक है, उचित है । बहुत से गुरु कहते हैं कि - सोऽहं शब्द प्राकृतिक और आध्यात्मिक है । जबकि आप और रविदास जी के शिष्य या अनुयायी कहते हैं कि - सोहंग ही ठीक, सच्चा और प्राकृतिक है । कृपया विस्तार से बताएं ।
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सोहम या सोहंग या हँसो - वास्तव में सही शब्द (या भाव या क्रिया या धुन) सोऽहंग ही है लेकिन मजे की बात यह है कि यह बहुत ही रहस्यपूर्ण है और अदभुत भी है । एक तरह से पूरा खेल ही इसी से हो रहा है । सोऽहंग वृति से ही मन का निर्माण हुआ है । आत्मा में जब विचार स्थिति बनती है । और ‘अहम’ स्वरूप का आकार बनता है । तब वह कहता है - सोऽहंग । जिसको सरलता से समझाने के लिये शास्त्रों में कहा गया है - सोऽहम । वही मैं हूँ । या स्वयँ ।
यहाँ विचार करने योग्य बात है कि - जब वही है और वह है ही । तब ये कहने की कोई आवश्यकता ही नहीं कि - वही मैं हूँ । सोऽहंग । इसलिये जब यह आत्मा शान्त मौन निर्विचार स्थिति में होता है । तब यह पूर्ण मुक्त और (जिसे कहते हैं) परमात्मा ही है लेकिन जैसे ही यह कोई मनः सृष्टि करता है । ये सोहं वृति हो जाता है । सोऽहंग ॐ (ओऽहंग) से बङी स्थिति है और बहुत ऊँची स्थिति भी है । भले ही यह काल के दायरे में आती है ।
ओऽहंग से काया बनी । सोऽहंग से मन होय ।
ओऽहम सोऽहम से परे । बूझे बिरला कोय ।
आत्मा ने पहले मन (अंतःकरण) का निर्माण किया । ये ही सूक्ष्म शरीर है । इसका स्थूल आवरण ॐ बाह्य स्थूल शरीर है । सोऽहंग से बना ये मन सोऽहंग (के निर्वाणी जाप) से ही खत्म हो जाता है । तब मन माया से परे का सच दिखता है ।
इसलिये कहा है -
सोऽहंग सोऽहंग जपना छोङ । मनुआ सुरत शब्द से जोङ ।
अब क्योंकि सोऽहं सोऽहम या सोऽहंग शब्द प्रचलन में आ गये हैं । इसलिये इनको एक तरह से मान्यता सी मिल गयी है । जैसा तमाम अन्य शब्दों के साथ होता है । जिनका कोई भाषाई वजूद नहीं होता । पर वे धङल्ले से बोलचाल की अशुद्धता या स्पष्टता या स्थानीय लहजे से प्रचलित हो जाते हैं । वही मूल सोऽहंग के साथ हुआ है ।
लेकिन ये बङा सरल है कि कुछ ही देर में इसका स्वतः सरल परीक्षण हो सकता है । विश्व का कोई भी किसी जाति धर्म का व्यक्ति गहरी सांस लेता हुआ प्रति 4 सेकेंड में प्रथम 2 सोऽऽ और अगले 2 सेकेंड हंऽऽग सुनता हुआ आराम से परीक्षण कर सकता है । जो सांस या दमा के रोगी होते हैं । उनकी तेज स्वांस में तो ये साफ़ साफ़ बहुत तेज और स्पष्ट सुनायी देता है ।
लेकिन ध्यान रहे । ये निर्वाणी है और मुँह से कभी - सोंऽहग सोऽहंग नहीं जपा जाता । जैसा कि मैंने एक धार्मिक TV कार्यकृम में (शायद जैन प्रचारक साध्वी द्वारा) इतनी जोर से कहते सुना । जैसे साइकिल में पम्प से हवा डाली जा रही हो ।
इसको अजपा कहा जाता है । जिसका मतलब ही यह है कि ये स्वयं हो रहा है । इसको जपना नहीं है । सिर्फ़ इस पर ध्यान देना है । लेकिन बिना सच्ची दीक्षा प्राप्त व्यक्ति को इसके ध्यान से कोई फ़ायदा नहीं होगा । क्योंकि इसको जागृत किया जाता है । वह समय के सच्चे (गुरु या) सदगुरु द्वारा ही संभव है ।
लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है । आप अभिमानी किस्म के हैं । गुरु का आपकी नजर में कोई महत्व नहीं है और आप निगुरा ही ध्यान करते हैं । तब यही (यदि क्रोधित हो जाये) हठयोग कहलाता है । जिसके दो ही परिणाम मैंने अब तक देखें है - गम्भीर किस्म का पागलपन और फ़िर मौत ।
संयोग की बात है । मैं स्वयं कट्टर हठयोगी रहा और इन दोनों परिणामों से (6 महीने तक) गुजरा हूँ ।
स्वांस में होता ये धुनात्मक नाम ही हमारा असली नाम है और सिर्फ़ इसी से हम वापस अपने उस घर (सचखण्ड या सतलोक) तक पहुँच सकते हैं । जहाँ से जन्म जन्म से बिछु्ङे हुये हैं । एक तरह से जिस तरह पहले राजा और अन्य लोग अपने छोटे बच्चे के गले में नाम पता परिचय का लाकेट पहनाते थे । ये परमात्मा ने सभी मनुष्यों के गले में डाला हुआ है ।
आज meditation जिसको लोग पढे लिखों की भाषा में breathing कहते हैं । उससे जो शान्ति सकून सा महसूस करते हैं । उसका मुख्य कारण यही है कि आप तब अपने में क्षणिक रूप से स्थित हो जाते हैं और ये हर कोई जानता है । आप लंदन पेरिस कहीं भी घूम आओ । असली शान्ति सुख अपने घर आकर ही मिलता है । पशु पक्षी भी आखिर शाम को अपने घरोंदे में लौटते हैं ।
और भी कई उदाहरण सोऽहंग को सिद्ध करते हैं । बुद्ध को जब बहुत दिन तक ज्ञान नहीं हुआ और वे चिल्ला ही उठे - अब क्या करूँ..ज्ञान के लिये मर जाऊँ क्या ?
तब आकाशवाणी (वास्तव में अंतरवाणी) हुयी - हे साधक ! अपने शरीर के माध्यम पर ध्यान कर । बुद्ध सोचने लगे कि शरीर का माध्यम क्या है ?
क्योंकि बुद्ध बुद्धिमान थे । अतः बहुत जल्द समझ गये । शरीर का माध्यम सिर्फ़ स्वांस ही है । क्योंकि इसके होने से ही शरीर की सत्ता कायम है । फ़िर वे भी meditation करने लगे । आप स्वयं देखो - नाम, काम, दाम, राम, चाम आदि आदि कोई भी क्रिया (जिससे भी आप उस समय जुङे हों) हो । स्वांस में ही लयात्मक बदलाव होगा । बहुत आसान प्रयोग है ।
- पर ये हंऽसो क्या है ?
ये 5 तत्वों से बना 5 फ़ुट 5 इंच का शरीर बङा कमाल का है । सोऽहंग यानी मन ऐसी हार्ड डिस्क है । जो दोनों तल (surface) पर काम करता है । यही बात शरीर की भी है । सोऽहंग यानी जीव अवस्था । जो किसी भी सामान्य मनुष्य की है ही । उसमें कुछ भी जोङना घटाना नहीं है । वह तो पहले से ही है । इसमें मन रूपी ये सपाट प्लेट नीचे की तरफ़ (सिर से पैरों की तरफ़) क्रियाशील होती है और शरीर के चक्रों में स्थित सभी कमल भी नीचे की तरफ़ (सिर से पैरों की तरफ़) और बन्द अवस्था में होते हैं । कुण्डलिनी भी जो सर्पिणी आकार की है और कूल्हे रीढ के जोङ के पास सुप्त अवस्था में नीचे को मुँह घुसाये बैठी है । मुख्य स्थितियों के साथ ये जीव और सोऽहंग स्थिति है ।
अब क्योंकि मन रूपी प्लेट पर 8 खाने बने हुये हैं । जिनके भाव और कार्य इस प्रकार के हैं - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद (घमण्ड) मत्सर (जलन या ईर्ष्या) ज्ञान, वैराग ।
इनमें पूर्व के 6 से आप परिचित हैं हीं । ज्ञान वैराग का खुलासा मैं कर देता हूँ । इन पूर्व 6 भावों से ऊब कर जब कोई शान्ति चाहता है । उसे वैराग स्थिति कहते हैं । तब यह ज्ञान की तलाश में भागता है और अपनी स्थिति भाव अनुसार ज्ञान यात्रा करता है । क्योंकि चक्रों के कमल बन्द हैं । इसलिये दिव्यता का कोई अनुभव नहीं होता । क्योंकि कुण्डलिनी सोई है । इसलिये अल्प (जीव) शक्ति ही खुद में पाते हैं ।
लेकिन जैसे ही कोई सच्चा (गुरु या) सदगुरु आपके स्वांस में गूँजते इस नाम को जागृत कर देता है । प्रकाशित कर देता है । तब ये तीनों ही बदल कर क्रियाशील हो उठते हैं । सोऽहंग मन पलट कर हँऽसो हो जाता है । जन्म जन्म से सोई सर्पिणी कुण्डलिनी जाग उठती है । शरीर चक्रों के कमल सीधे होकर ऊपर की तरफ़ (पैरों से सिर की तरफ़) मुँह करके खिल जाते हैं ।
अब पहले मन की बात करें । इसके सभी 8 भाव विपरीत होकर दया, क्षमा, प्रेम, भक्ति, आदि आदि काम, क्रोध से विपरीत होकर सदगुणों में खुद बदल जाते हैं । कुण्डलिनी दिव्य शक्ति का संचार करती है और चक्र कमल खुलने से वहाँ की दिव्यता प्रकाश और अन्य दिव्य लाभ साधक को होने लगते हैं ।
इसलिये सामान्य अवस्था (बिना हँसदीक्षा) में इस सोऽहंग जीव को काग वृति (कौआ स्वभाव) कहा गया है । यह मलिन वासनाओं में सुख पाता है । हँऽसों की तुलना में विष्ठा इसका भोजन है । लेकिन हँसदीक्षा होने पर यह सत्य को जानने लगता है और अमीरस (अमृत) इसका भोजन है । तब यह सार सार को गहता हुआ सुख पाता हुआ कृमशः (साधक की स्थिति अनुसार) पारबृह्म की ओर उङता है और अपनी मेहनत लगन भक्ति अनुसार सचखण्ड पहुँचकर भक्ति अनुसार स्थान प्राप्त करता है । यही हँऽसो स्थिति है । साहेब ।
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- मैंने अपने अनुसार अधिकाधिक बताने की कोशिश की । फ़िर भी किसी बिन्दु पर अस्पष्टता लगने पर फ़िर से पूछ सकते हैं ।
18 टिप्पणियां:
मेरे गुरु नही है गुरु नाम लेना चाहता हूं कृपया कर बताये क्या जप करू
आपका बहुत आभार, आपकी मदद के लिए।
मेरे गुरु नही है गुरु नाम लेना चाहता हूं कृपया कर बताये क्या जप करू
sohum ki sacchi paddhati bataie
ki kis tarah ye jaap kis samay karna chahiye ?
आप ने कहा देह धारी सतगुरु एक समय में एक ही होता है इसे कुछ समझने का कष्ट करे
संत रामपाल जी से नाम दीक्षा ले लो पुरे विश्व में सबसे श्रेष्ठ गुरु एक वहीं हैं।।
https://youtu.be/PUu2Bd5Z84M
https://youtu.be/PUu2Bd5Z84M
Rampal logo ko aadha ahura gyan dekar logo ko brimit karta hai
Ram naam
Shri Anandpur dham mp me hai
अद्भुत ज्ञान की जानकारी दी आपने
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सोहम या सोहग कोंन से शब्द से अजपा जप किया जाता है।
सोहंग या सोहम जपे बताए
Aap da sakta hain naam diksha swans mein sa soham sohang jap jaga sakta hain toa diksha dijiya apka abhar hoga .
मेरे गुरु में अपने दादा जी को मानता हूं वही मेरे गुरु है वो अब इस दुनिया में नहीं है तों अब मैं क्या करूं और कोई मुझे उनके जैसा आज तक नहीं मिला किसी और को में गुरु नहीं मान सकता जो ज्ञान मुझे उन से मिला है वो और नहीं दे सकता आगे मुझे क्या करना चाहिए मुझे बताये
Rampal ji se
सोहगं
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