भय हमेशा किसी इच्छा के आसपास पनपता है । तुम प्रसिद्ध होना चाहते हो । संसार के सबसे प्रसिद्ध व्यक्ति होना चाहते हो । फिर भय शुरू होता है । अगर ऐसा न हो सका । तो क्या होगा ? भय लगता है । भय उस इच्छा का बाइ प्रोडक्ट है । तुम संसार के सबसे धनवान व्यक्ति बनना चाहते हो । सफलता न मिली । तो क्या होगा ? सो भीतर से तुम कंपने लगते हो । भय शुरू हो जाता है । तुम्हारी किसी स्त्री पर मालकियत है । तुम भयभीत होते हो कि हो सकता है । कल तुम्हारी उस पर मालकियत न रहे । वह किसी और के पास चली जाए । अगर वह जीवित है । तो वह जा सकती है । सिर्फ मुर्दा स्त्रियां कहीं नहीं जातीं । केवल 1 लाश पर ही मालकियत की जा सकती है । उसके साथ कोई भय नहीं है । वह हमेशा तुम्हारे पास रहेगी । ओशो
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बांस के कुंज में बैठो और चाय पियो ।
जैसे चीन के पुराने संत जीते थे वैसे निश्चिन्त जियो ।
देवता की राह हिंसा नहीं, अहिंसा की तरह है ।
वे इन्द्रियों से लड़ते नहीं, पुचकार कर उन्हें पास बुलाते हैं ।
देवता के पास पीपल की छाया होती है ।
वे छांह में इन्द्रियों को प्रेम से सुलाते हैं ।
लेकिन, प्रेत कहता है - जीवन से युद्ध करो ।
मारो, मारो, इन्द्रियों को मारो और अपने को शुद्ध करो ।
मैं कहता हूँ - बांस के कुंज में बैठो और चाय पियो ।
जैसे चीन के पुराने संत जीते थे वैसे निश्चिन्त जियो । ओशो ।
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गुरू हमेशा 1 मित्र होता है । लेकिन उसकी मित्रता में बिलकुल अलग सी सुगंध होती है । इसमें मित्रता कम मित्रत्व अधिक होता है । करुणा इसका आंतरिक हिस्सा होती है । वह तुम्हें प्रेम करता है । क्योंकि और कुछ वह कर नहीं सकता । वह अपने अनुभव तुम्हारे साथ बांटता है । क्योंकि वह देख पाता है कि तुम उसे खोज रहे हो । तुम उसके लिये प्यासे हो । वह अपने शुद्ध जल के झरने तुम्हारे लिये उपलब्ध करवाता है । वह आनंदित होता है । और अनुग्रहीत होता है । यदि तुम उसके प्रेम के । मित्रता के । सत्य के उपहार स्वीकार करते हो । ओशो
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मैँ चाहता हूँ । मेरा संन्यासी पूरा मनुष्य हो । अखंड मनुष्य हो । उसमेँ मरूस्थल जैसी शांति भी हो । सन्नाटा भी हो । विस्तार भी हो । बगिया जैसे फूल भी होँ । झरने भी होँ । कोयल भी बोलेँ । पपीहा भी पुकारे । वह अपने को भी जाने । और विराट को भी । कभी आँख बंद करके जाने । कभी आँख खोलकर जाने । क्योँ कि बाहर भी वही है । भीतर भी वही है । ध्यान से भीतर को जाने । प्रेम से बाहर को जाने ।
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वह सब जो तुम कर रहे हो । यदि उसमें प्रेम नहीं है । तो सब झूठा और बकवास है । लेकिन वह सब जो प्रेममय है । वह सब सत्य है । प्रेम की राह पर तुम जो कुछ करते हो । वह तुम्हारी चेतना को विकसित करता है । तुम्हें अधिक सत्य देता है । और अधिक सत्य बनाता है । हर चीज प्रेम के पीछे छिपी हुई होती है । क्योंकि प्रेम हर चीज की सुरक्षा कर सकता है । प्रेम इतना सुन्दर है कि कुरूप चीज भी इसके भीतर छिप सकती है । और सुन्दर होने का ढोंग कर सकती है ।
ओशो ।
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जैसे जैसे तुम्हारा होश बढ़ेगा । तुम्हें लगेगा । अपना कुछ भी नहीं है । अपने सिवाय अपना कुछ भी नहीं है । और आखिर में तुम पाओगे कि वह जो अपना है । वह भी अपना नहीं है । वह भी परमात्मा का है । तब प्रज्ञा समाधि तक भी तुम्हें अपना थोड़ा बोध रहेगा । सारी चीजों से संबंध छूट जाएगा । लेकिन स्वयं से संबंध बना रहेगा । प्रज्ञा में वह संबंध भी छूट जाता है । इसलिए बुद्ध ने कहा - आत्मा समाधि तक । उसके बाद - अनात्मा । आत्मा समाधि तक - कि तुम हो । फिर 1
ऐसी भी घड़ी आती है । जहां तुम भी नहीं हो । बूंद सागर में गिर गयी । जो भिक्षु अप्रमाद में रत है । वह आग की भांति छोटे मोटे बंधनों को जलाता हुआ बढ़ता है । जो भिक्षु अप्रमाद में रत है । अथवा प्रमाद में भय देखता है । उसका पतन होना संभव नहीं है । वह तो निर्वाण के समीप पहुंचा हुआ है । लेकिन ध्यान रखना - समीप । बुद्ध 1-1 शब्द के संबंध में बहुत बहुत हिसाब से बोलते हैं । अप्रमाद सिर्फ - समीप है । जब अप्रमाद भी छूट जाएगा । तब - निर्वाण । बेहोशी तो जाएगी ही । होश भी चला जाएगा । क्योंकि बेहोशी और होश दोनों 1 ही सिक्के के 2 पहलू हैं । पराया तो छूटेगा ही । स्वयं का होना भी छूट जाएगा । क्योंकि पराया और स्वयं दोनों ही 1 सिक्के के 2 पहलू हैं 1 तू तो मिटेगा ही । मैं भी मिट जाएगा । क्योंकि मैं और तू 1 ही चर्चा के 2 हिस्से हैं । 1 ही संवाद के 2 छोर हैं । लेकिन जो अप्रमाद में रत है । उसका कोई पतन नहीं होता । ऐसे ही जैसे दीया हाथ में हो । तो तुम टकराते नहीं । घर में अंधेरा हो । और तुम अंधेरे में चलो । तो कभी कुर्सी से । कभी मेज से । कभी दीवाल से टकराते हो । हाथ में दीया हो । फिर टकराना कैसा ? फिर तुम्हें राह दिखायी पड़ती है । असली सवाल राह का खोज लेना नहीं है । असली सवाल हाथ में दीए का होना है । इसलिए बुद्ध का आखिरी वचन । जो उन्होंने इस पृथ्वी पर अंतिम शब्द कहे । आनंद ने पूछा । हम क्या करेंगे ? तुम जाते हो । तुम्हारे रहते हम कुछ न कर पाए । दिन और रात हमने बेहोशी में गंवा दिए । तुम्हें सुना । और समझ न पाए । तुमने जगाया । और हम जागे नहीं । अब तुम जाते हो । अब हमारा क्या होगा ? बुद्ध ने कहा । इस बात को सूत्र की तरह याद रखना । क्योंकि मैं तुम्हारे काम नहीं पड़ सकता - अप्प दीपो भव । तुम अपने दीए बनो । क्योंकि वही काम पड़ सकता है । अप्रमाद यानी - अप्प दीपो भव । अपने दीए बनो । जागो । होश पूर्वक जीयो । संसार यही है । जो बेहोशी में जीता है । वह माया में । जो होश में जीता है । वह ब्रह्म में । जीने की शैली बदल जाती है । जीने की जगह थोड़े ही बदलती है । यही है सब । यही वृक्ष । यही पौधे । यही पक्षी । यही झरने । तुम बदल जाओगे । लेकिन जब दृष्टि बदल जाती है । तो सब सृष्टि बदल जाती है ।
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बांस के कुंज में बैठो और चाय पियो ।
जैसे चीन के पुराने संत जीते थे वैसे निश्चिन्त जियो ।
देवता की राह हिंसा नहीं, अहिंसा की तरह है ।
वे इन्द्रियों से लड़ते नहीं, पुचकार कर उन्हें पास बुलाते हैं ।
देवता के पास पीपल की छाया होती है ।
वे छांह में इन्द्रियों को प्रेम से सुलाते हैं ।
लेकिन, प्रेत कहता है - जीवन से युद्ध करो ।
मारो, मारो, इन्द्रियों को मारो और अपने को शुद्ध करो ।
मैं कहता हूँ - बांस के कुंज में बैठो और चाय पियो ।
जैसे चीन के पुराने संत जीते थे वैसे निश्चिन्त जियो । ओशो ।
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गुरू हमेशा 1 मित्र होता है । लेकिन उसकी मित्रता में बिलकुल अलग सी सुगंध होती है । इसमें मित्रता कम मित्रत्व अधिक होता है । करुणा इसका आंतरिक हिस्सा होती है । वह तुम्हें प्रेम करता है । क्योंकि और कुछ वह कर नहीं सकता । वह अपने अनुभव तुम्हारे साथ बांटता है । क्योंकि वह देख पाता है कि तुम उसे खोज रहे हो । तुम उसके लिये प्यासे हो । वह अपने शुद्ध जल के झरने तुम्हारे लिये उपलब्ध करवाता है । वह आनंदित होता है । और अनुग्रहीत होता है । यदि तुम उसके प्रेम के । मित्रता के । सत्य के उपहार स्वीकार करते हो । ओशो
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मैँ चाहता हूँ । मेरा संन्यासी पूरा मनुष्य हो । अखंड मनुष्य हो । उसमेँ मरूस्थल जैसी शांति भी हो । सन्नाटा भी हो । विस्तार भी हो । बगिया जैसे फूल भी होँ । झरने भी होँ । कोयल भी बोलेँ । पपीहा भी पुकारे । वह अपने को भी जाने । और विराट को भी । कभी आँख बंद करके जाने । कभी आँख खोलकर जाने । क्योँ कि बाहर भी वही है । भीतर भी वही है । ध्यान से भीतर को जाने । प्रेम से बाहर को जाने ।
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वह सब जो तुम कर रहे हो । यदि उसमें प्रेम नहीं है । तो सब झूठा और बकवास है । लेकिन वह सब जो प्रेममय है । वह सब सत्य है । प्रेम की राह पर तुम जो कुछ करते हो । वह तुम्हारी चेतना को विकसित करता है । तुम्हें अधिक सत्य देता है । और अधिक सत्य बनाता है । हर चीज प्रेम के पीछे छिपी हुई होती है । क्योंकि प्रेम हर चीज की सुरक्षा कर सकता है । प्रेम इतना सुन्दर है कि कुरूप चीज भी इसके भीतर छिप सकती है । और सुन्दर होने का ढोंग कर सकती है ।
ओशो ।
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जैसे जैसे तुम्हारा होश बढ़ेगा । तुम्हें लगेगा । अपना कुछ भी नहीं है । अपने सिवाय अपना कुछ भी नहीं है । और आखिर में तुम पाओगे कि वह जो अपना है । वह भी अपना नहीं है । वह भी परमात्मा का है । तब प्रज्ञा समाधि तक भी तुम्हें अपना थोड़ा बोध रहेगा । सारी चीजों से संबंध छूट जाएगा । लेकिन स्वयं से संबंध बना रहेगा । प्रज्ञा में वह संबंध भी छूट जाता है । इसलिए बुद्ध ने कहा - आत्मा समाधि तक । उसके बाद - अनात्मा । आत्मा समाधि तक - कि तुम हो । फिर 1
ऐसी भी घड़ी आती है । जहां तुम भी नहीं हो । बूंद सागर में गिर गयी । जो भिक्षु अप्रमाद में रत है । वह आग की भांति छोटे मोटे बंधनों को जलाता हुआ बढ़ता है । जो भिक्षु अप्रमाद में रत है । अथवा प्रमाद में भय देखता है । उसका पतन होना संभव नहीं है । वह तो निर्वाण के समीप पहुंचा हुआ है । लेकिन ध्यान रखना - समीप । बुद्ध 1-1 शब्द के संबंध में बहुत बहुत हिसाब से बोलते हैं । अप्रमाद सिर्फ - समीप है । जब अप्रमाद भी छूट जाएगा । तब - निर्वाण । बेहोशी तो जाएगी ही । होश भी चला जाएगा । क्योंकि बेहोशी और होश दोनों 1 ही सिक्के के 2 पहलू हैं । पराया तो छूटेगा ही । स्वयं का होना भी छूट जाएगा । क्योंकि पराया और स्वयं दोनों ही 1 सिक्के के 2 पहलू हैं 1 तू तो मिटेगा ही । मैं भी मिट जाएगा । क्योंकि मैं और तू 1 ही चर्चा के 2 हिस्से हैं । 1 ही संवाद के 2 छोर हैं । लेकिन जो अप्रमाद में रत है । उसका कोई पतन नहीं होता । ऐसे ही जैसे दीया हाथ में हो । तो तुम टकराते नहीं । घर में अंधेरा हो । और तुम अंधेरे में चलो । तो कभी कुर्सी से । कभी मेज से । कभी दीवाल से टकराते हो । हाथ में दीया हो । फिर टकराना कैसा ? फिर तुम्हें राह दिखायी पड़ती है । असली सवाल राह का खोज लेना नहीं है । असली सवाल हाथ में दीए का होना है । इसलिए बुद्ध का आखिरी वचन । जो उन्होंने इस पृथ्वी पर अंतिम शब्द कहे । आनंद ने पूछा । हम क्या करेंगे ? तुम जाते हो । तुम्हारे रहते हम कुछ न कर पाए । दिन और रात हमने बेहोशी में गंवा दिए । तुम्हें सुना । और समझ न पाए । तुमने जगाया । और हम जागे नहीं । अब तुम जाते हो । अब हमारा क्या होगा ? बुद्ध ने कहा । इस बात को सूत्र की तरह याद रखना । क्योंकि मैं तुम्हारे काम नहीं पड़ सकता - अप्प दीपो भव । तुम अपने दीए बनो । क्योंकि वही काम पड़ सकता है । अप्रमाद यानी - अप्प दीपो भव । अपने दीए बनो । जागो । होश पूर्वक जीयो । संसार यही है । जो बेहोशी में जीता है । वह माया में । जो होश में जीता है । वह ब्रह्म में । जीने की शैली बदल जाती है । जीने की जगह थोड़े ही बदलती है । यही है सब । यही वृक्ष । यही पौधे । यही पक्षी । यही झरने । तुम बदल जाओगे । लेकिन जब दृष्टि बदल जाती है । तो सब सृष्टि बदल जाती है ।