26 अगस्त 2011

बृह्मचर्य का क्या मतलब होता है ? पप्पू सिंह एण्ड नोनू

सर जी ! सत श्री अकाल जी ! मेरा नाम पप्पू सिंह सरदार है । मेरी पत्नी का नाम नोनू है । मैं आपके पाठक और मित्र सुरिन्दर सिह ( आस्ट्रेलिया वाले ) के मामा का बेटा हूँ । मुझे और मेरी पत्नी को आपके ब्लाग के बारे में रुप भाभी ने बताया था । तो मेरी भी अपनी सेवा में हाजरी लगाईये ।
सर जी ! मुझे आप ये खुल के समझा दीजिये कि मन । कर्म और वचन से की गयी भक्ति क्या होती है ? मेरे कहने का मतलब है कि क्या इस तरह से भक्ति 3 प्रमुख भागो में डिवाइड हो गयी । या फ़िर ये मन । कर्म और वचन से की जाने वाली भक्ति असल मे 1 ही रुप के 3 भाग है ।
क्यु कि कहते है कि भक्ति को पूर्ण रुप से समर्पित होना चाहिये । भक्ति मन । कर्म और वचन से करनी चाहिये । इसलिये सर जी ! इस बात के पीछे क्या राज है ? जरा इस महिमा पर से पर्दा उठाईये । 1 बात और बता दीजिये कि - ये वास्तव मे " बृह्मचर्य " का क्या मतलब होता है ? बल्ले बल्ले ।
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सत श्री अकाल ! पप्पू सिंह जी ! सरदार जी एण्ड नोनू जी..सत्यकीखोज पर प्रथम शुभ आगमन पर हम सभी लोग आपका हार्दिक स्वागत करते हैं । आपसे मिलकर बेहद खुशी हुयी ।
सुरिन्दर जी ! बङे कमाल के इंसान हैं । ग्रेट कामेडियन हैं । वे मेरे ब्लाग के लेखों ( श्री विनोद त्रिपाठी जी के ) का हाजमोला की जगह इस्तेमाल करते हैं । पढकर इतना हँसते हैं कि जबरदस्त farting करते हैं । बताईये अभी कल को कोई कहे - राजीव जी ! आपके ब्लाग पढने के बाद मेरा पठाखे चलाने का शौक ही खत्म हो गया । कैसे कैसे लोग हैं भाई । सीता जी से तो मुझे गिन गिनकर बदले लेने हैं ।
आईये आपके साथ बातचीत की शुरूआत करते हैं ।
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सर जी ! मुझे आप ये खुल के समझा दीजिये कि मन । कर्म और वचन से की गयी भक्ति क्या होती है ? मेरे कहने का मतलब है कि क्या इस तरह से भक्ति 3 प्रमुख भागो में डिवाइड हो गयी । या फ़िर ये मन । कर्म और वचन से की जाने वाली भक्ति असल मे 1 ही रुप के 3 भाग है ।
- आपने थोङा घुमाव के साथ इस बात को समझ लिया । जो लगभग विपरीत भाव वाला ही हो गया । भक्ति 3 भागों में विभाजित नहीं हुयी । बल्कि ये जीव के 3 तीन प्रमुख व्यवहार का मिलकर 1 होना है । इसलिये ये तो एक बार को कह सकते हैं कि - 1 ही रुप के 3 भाग है ।  मन । कर्म - सभी कार्य । और वचन - वाणी ( के सभी बोल ) ये सभी भक्तिमय होने चाहिये । यहाँ इसका बहुत ही गलत मतलब अक्सर ही लोग ये लगा लेते हैं कि दुनियाँदारी छोङकर 


बाबा हो जाओ । मगर ऐसा नहीं हैं । शरीर को मन्दिर मानकर ( क्योंकि इसके अन्दर परमात्मा रहता है ) और सभी जीवों में उसी को देखते हुये ( क्योंकि अन्य सब में भी वही है । ) परस्पर जगत व्यवहार करना ही मन वचन कर्म से की गयी भक्ति है । यानी मन में सभी के प्रति अच्छे । भलाई के । और शुभ विचार रखना । मन की भक्ति । यही वात कर्म और वाणी पर भी लागू होती है । बस इतना ही हो जाने पर आप धीरे धीरे परिवर्तन द्वारा खुद भक्त बनने लगोगे ( इसका पूर्ण उत्तर आगे के उत्तर में आ गया है )
क्यूँ कि कहते है कि भक्त को पूर्ण रुप से समर्पित होना चाहिये । भक्ति मन । कर्म और वचन से करनी चाहिये । इसलिये सर जी ! इस बात के पीछे क्या राज है ? जरा इस महिमा पर से पर्दा उठाईये ।
- यहाँ भी दो बातें हैं । वास्तव में इंसान को एक भक्त की तरह अपना जीवन जीना चाहिये । मन - सदाचार युक्त ( यानी सभी के प्रति प्रेमभाव वाला । और सदगुणों वाला ) कर्म - सदकर्म ( इसको सरल रूप से समझने के लिये ये

सबसे बेहतर सिद्धांत है - जो व्यवहार आप अपने लिये दूसरों से चाहते हों । वही सबके साथ करें । यानी आपके सभी काम दूसरों को सुख पहुँचाने वाले हों । न कि दुख पहुँचाने वाले । वचन - यानी वाणी..में भी वही बात है । आपकी वाणी से दूसरों को सुख पहुँचे - ऐसी वाणी बोलिये मन का आपा खोय । औरन को शीतल करे आप हु शीतल होय । असली भक्ति यही है । न कि काल्पनिक रूप से किसी अपरिचित से god की पूजा करना ।
लेकिन ?? अब दूसरा पक्ष देखिये -
सभी इंसान जिस तरह के उपकरण से संचालित हैं । ये सब जिन्दगी में स्वयँ उतार पाना बहुत कठिन बात है । जिस प्रकार एक जंग लगे लोहे को आप रगङ कर या किसी केमिकल आदि की सहायता से भी पूर्णतः अपने स्तर पर शुद्ध नहीं कर सकते । उसे शुद्ध करने हेतु दहकती भट्टी में तपाकर जलाना होगा । और फ़िर उस पर घन से चोट मारनी होगी । तभी वह पूरा शुद्ध होगा ।
इसी प्रकार निर्वाणी नाम की ग्यान रूपी भट्टी में जब सुमरन रूपी चोट बारबार इस कौआ रूप मन को लगती है । तो यह आटोमेटिक शुद्ध हँस रूप को प्राप्त हो जाता है । और जो बातें मैंने ऊपर लिखी हैं । वैसी खुद ही आपके स्वभाव में आ जाती हैं । उनको थोपे गये स्टायल में नहीं करना होता । बल्कि ये आमूल चूल आपका आंतरिक परिवर्तन हो जाता है । सतनाम के सुमरन द्वारा । जिस सुरति शब्द योग कहते हैं ।
1 बात और बता दीजिये कि - ये वास्तव में " बृह्मचर्य " का क्या मतलब होता है ?
- बृह्मचर्य शब्द के दो अर्थ हैं । और बृह्मचर्य ही क्या वास्तव में लौकिक अलौकिक जगत में लगभग प्रत्येक शब्द के ही दो अर्थ हो जाते हैं । जिनमें अलौकिक अर्थ वाला अर्थ सत्य के अधिक करीब होता है । और लौकिक अर्थ स्थूल या प्रतीक रूप में ही होता है । जैसे पण्डित शब्द संसार में एक जाति के लिये प्रयुक्त होता है । परन्तु वास्तव में पण्डित शब्द का मतलब पाण्डित्य पूर्ण यानी ग्यानी होना है । जो ग्यानी है । उसको निसंदेह पण्डित कहा जा 


सकता है । भले ही जाति वर्गीकरण के अनुसार वह अत्यन्त नीच जाति में क्यों न आता हो ।
इसी तरह बृह्मचर्य शब्द का असली अर्थ है । बृह्म + चर्य = बृह्म यानी बृह्म या बृह्माण्डी सत्ता । और चर्य - वहाँ विचरना या पहुँच रखना । यानी जो व्यक्ति मनुष्य जीवन में ही बृह्म सत्ता में आता जाता है । उसको बृ्ह्मचर्य युक्त कहा जाता है । योगीराज कृष्ण इसीलिये अपने को बृह्मचर्य युक्त कहते थे । इसी तरह ब्राह्मण शब्द का भी असली अर्थ यही है - बृह्म + अणि = यानी बृह्म में स्थित पुरुष को ही सही रूप में ब्राह्मण कहा जाता है ।
आम जीवन में बृह्मचर्य - स्त्री में मासिक धर्म के बाद जब कामेच्छा प्रबल होती है । उसी समय सम्भोग करना भी बृह्मचर्य है । यहाँ महत्वपूर्ण ये भी है कि उस समय पुरुष में काम इच्छा हो या न हो । उसे स्त्री की इच्छा पूर्ति हेतु ऐसा करना चाहिये । ये इन्द्र द्वारा स्त्रियों को दिया गया वरदान है । और पुरुषों द्वारा इस समय स्त्री इच्छा की अवहेलना करने पर उनको शाप भी है । ठीक इसी तरह पुरुषों में भी जब वीर्य संचय के बाद काम वेग प्रवल हो । तो स्त्री को चाहे इच्छा हो । या न हो । उसे पुरुष की इच्छा पूर्ति करनी चाहिये ।
लेकिन मेरे अनुमान से जब स्त्री के मासिक धर्म के बाद के 3-4 दिनों में पति पत्नी 2 बार भी सम्भोग कर लेते हैं । तो उतने से ही दोनों की महीने भर की तृप्ति हो जाती है । ये स्वाभाविक काम आवेश है । क्योंकि पुरुष में वीर्य का संचय सिर्फ़ 15 दिन में 1 बार स्खलन हेतु ही प्राकृतिक तौर पर होता है । अतः महीने में 2 बार सम्भोग को बृ्ह्मचर्य के अंतर्गत रखा गया है । नवविवाहितों को कुछ समय तक 1 महीने में 3 बार सम्भोग करना भी बृह्मचर्य के अंतर्गत ही है ।
मीट मदिरा और तेज मसाले युक्त भोजन कामवासना को बङाते हैं । साथ ही साथ आजकल पति पत्नी द्वारा एक साथ लेटने से भी अतिरिक्त कामवासना पैदा होती है । जो निसंदेह हानिकारक है ।
विशेष - भाई ! आप लोग कैसे कैसे प्रश्न पूछते हो । बाबा जी के पास न तो स्त्री है । और न ही इस्तरी । बस रात को खिङकी से चाँद का रूप नजारा करके थोङा शहद चाट लिया । बाबा का यही हनीमून है । मुझे क्या पता - इसके आगे लन्दन में क्या होता है ? और लुधियाने में क्या ? मिथुन जी भी बस इतना कहकर ही गोल हो गये - आगे फ़िर जो लण्डन में हो । वही तो हो लुधियाने में । ओये बल्ले बल्ले..आगे फ़िर जो लण्डन में हो । वही तो हो लुधियाने में ।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326