29 अगस्त 2011

मेरा मन रामहि राम रटै रे

मैंने राम रतन धन पायो । 
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु । करि करिपा अपनायो । 
जनम जनम की पूंजी पाई । जग में समय खोवायो । 
खरचै नहिं कोई चोर न लेवै । दिन दिन बढत सवायो । 
सत की नाव खेवटिया सतगुरु । भवसागर तरि आयो । 
मीरा के प्रभु गिरधर नागर । हरखि हरखि जस गायो । 
मेरा मन रामहि राम रटै रे ।
राम नाम जप लीजै प्रानी । कोटिक पाप कटै रे ।
जनम जनम के खत जु पुराने । नामहि लेत फटै रे ।
कनक कटोरे इम्रत भरियौ । पीवत कौन नटै रे ।
मीरा कहै प्रभु हरि अविनासी । तन मन ताहि पटै रे ।
मीरा कहती है - मैंने परम धन पा लिया । परम संपदा पा ली । जिसको पा लेने के बाद । फिर कुछ और पाने को नहीं बचता । ऐसा राम रतन पा लिया । पाया कैसे ? सब खोया । तब पाया । कुछ भी नहीं बचाया अपने भीतर । शून्य हुई । तो पूर्ण उतरा । मिटी । तो परमात्मा का आगमन हुआ । प्रेम की आग में जलोगे । मिट जाओगे । राख हो जाओगे । तभी उसका आगमन होता है । तुम्हारी राख में ही तुम्हारे भीतर उसका अंकुरण होता है । तुम जब तक हो । तब तक बाधा है । मुझसे लोग पूछते हैं कि - हम क्या करें ? कौन सी बाधाएं हैं ? जिन्हें हम अलग करें । ताकि परमात्मा मिल जाए ? मैं उनसे कहता हूं - तुम्हारे अतिरिक्त कोई और बाधा नहीं है । तुम हट जाओ बीच से । तुम अपने और परमात्मा के बीच मत खड़े होओ । तुम अपने को विदा दे दो । तुम अपने को नमस्कार कर लो सदा के लिए । और तुम पाओगे । कोई भी बाधा नहीं है । मैंने राम रतन धन पायो । धन तो वही है । जो कभी खोए न । जिसको हम धन कहते हैं । वह धन का धोखा है । वह केवल मान्यता है । धन तो वही है । जो कभी न खोए । धन तो वही है । जिसे मौत भी न छीन सके । ज्ञानियों ने संपत्ति की परिभाषा यही की है । जिसे मौत न छीन सके । जिसे मौत छीन ले । वह वस्तुतः विपत्ति है । तुमने उसको संपत्ति समझा है । वह तुम्हारी मान्यता है । मान्यता टूटेगी । और तुम बड़े विषाद में गिरोगे । संपत्ति, संपदा उसी तरह के शब्द हैं । जैसे - सम्यकत्व, समाधि, संबोधि । वह जो " सम " प्रत्यय लगा है । बड़ा बहुमूल्य है । वही समाधि में है । वही संबोधि में है । वही सम्यकत्व में है । वही संबुद्धत्व में है । सम - जो सदा एक सा रहे । जिसमें कभी लहर न उठे । कोई कंपन न हो । जो शाश्वत हो । जिसे कोई चीज तरंगित न कर सके । जिस पर बाहर का कोई प्रभाव न हो । तूफान आएं । और जाएं । और तुम्हारे भीतर " समता " बनी रहे । समता भी उसी धारा का एक शब्द है । तुम्हारे भीतर समता बनी रहे । दुख आए । सुख आए । सफलता, विफलता । तुम्हारे भीतर जो जीवन ज्योति है । वह कंपे भी नहीं । तूफान, आंधियां, हवाएं, अंधड़ । तुम्हारी ज्योति वैसी ही जलती रहे - अकंप ! समाधि ! संबोधि ! और वैसी ही दशा का नाम है - संपदा, संपत्ति । संपत्ति तुम्हारे भीतर है । और तुम उसे बाहर खोज रहे हो । इसलिए विपत्ति में उलझे हो । जो भीतर है । उसे बाहर खोजोगे । तो दुख पाओगे ही । क्योंकि उसे तो कभी पा ही न सकोगे । जिसे खोज रहे हो । कुछ का कुछ मिलता रहेगा । खोजोगे कुछ । पाओगे कुछ । दौड़ोगे किसी और चीज को पाने को । हाथ में आएगी कोई और चीज । और हर बार विषाद आएगा । और हर बार फिर..  लेकिन समझ नहीं आती कि बाहर तो जन्मों जन्मों से दौड़कर देख लिया । धन मिला नहीं । अब थोड़ा भीतर भी तलाश कर लें । यह भीतर का जगत भी अनखोजा क्यों रह जाए ? और जिसने भी भीतर झांक कर देखा । वह हंसे बिना नहीं रहा है । हंसे बिना नहीं रहा । क्योंकि बड़ा अजीब मामला है । जिसे हम खोज रहे हैं । वह हमारे भीतर मौजूद ही था । हम नाहक परेशान हो रहे थे । हम व्यर्थ ही दौड़ धाप कर रहे थे । राम रतन धन पायो । वस्तु अमोलक दी मेरे सदगुरु, करि करिपा अपनायो । मैंने राम रतन धन पायो । वस्तु अमोलक ! यह ऐसा कुछ है भीतर । यह राम रतन कि इसका कोई मूल्य भी हम चुकाएं । इसकी संभावना नहीं है । क्योंकि हमारे पास है ही क्या देने को ? कूड़ा  कर्कट लिए बैठे हैं । अमोलक है । मूल्य इसका चुकाया नहीं जा सकता । यह मूल्य में आंका नहीं जा सकता । कूता नहीं जा सकता । किसी तराजू पर तौला नहीं जा सकता । कोई कसौटी पर कसा नहीं जा सकता । यह परम मूल्य है । बाकी सब मूल्य छोटे पड़ जाते हैं ।
अब राम रतन की कितनी कीमत आंकोगे ? करोड़ कि दस करोड़ कि अरब कि दस अरब, कि शंख कि महा शंख ? कोई भी आंकड़ा काम नहीं पड़ेगा । सब आंकड़े छोटे पड़ जाएंगे । यह राम रतन आत्यंतिक मूल्य है । इसलिए हमारे कोई मूल्य इसके काम नहीं आ सकते । फिर भी हम राम रतन नहीं खोजते । हम बड़े डरे हैं कि कहीं राम रतन के खोजने में हमारे पास जो संपदा हम सोचते हैं, है । खोना न पड़े । कहीं खो न जाए । क्षुद्र बातों पर लोग अटके हुए हैं । बड़ी क्षुद्र बातें हैं । विचार करोगे । तो हंसी आएगी । किसी का मोह मकान से है । किसी का मोह दुकान से है । किसी का पति से । किसी का पत्नी से । किसी का बेटे से । किसी का मां से है । सब छिन जाने हैं । यह मकान तुम्हारा कितनी देर तक रहेगा ? यह सराय है । आज नहीं कल खाली करनी होगी । तुम नहीं थे । तब भी यह मकान था । तुम नहीं होओगे । तब भी यह मकान होगा । कोई और इसके वासी थे । फिर कोई और इसके वासी हो जाएंगे । तुम दो दिन के मेहमान हो । बस रैन बसेरा है । मगर मोह पकड़ लेता है । हम दावेदार हो जाते हैं । जो आदमी दावा करता है । इस संसार में कि यह मेरा है । वही आदमी अज्ञानी है । इस संसार में हमारा कोई दावा सच नहीं है । अगर दावा ही हो सकता है । तो एक ही दावा है कि - राम मेरा है कि राम रतन मेरा है । उस दावे को छोड़कर हम सब दावे करते हैं । क्यों ? क्योंकि और सब दावों में हम बच सकते हैं । यह जो राम रतन का दावा है । इसमें हम खो जाते हैं । मेरा अपना निरीक्षण ऐसा है कि अगर अहंकार बचता हो । तो लोग दुखी रहने को भी तैयार हैं । और अगर सुख भी मिलता हो अहंकार खोने पर । तो तैयार नहीं हैं ।
कुछ दिन पहले एक मित्र ने आकर कहा कि बड़ा आनंद आता है । जब यहां आ जाता हूं । नाच लेता हूं । तो जैसे जनम जनम की नाचने की आकांक्षा तृप्त हो जाती है । मगर घर जाकर नहीं नाच पाता । घर तो मैं पता ही नहीं चलने देता किसी को कि पूना में जाकर मैं नाचता हूं । क्योंकि गांव में लोगों को पता चल जाए । तो लोग समझेंगे - पागल है । तो मैंने उनसे पूछा कि लोगों का यह समझना कि तुम पागल नहीं हो । यह ज्यादा मूल्यवान है कि ध्यान के नृत्य में जो आनंद मिलता है । वह ज्यादा मूल्यवान है ? उन्होंने कहा - इसमें क्या मामला है कहने का । मूल्यवान तो वही है । जो ध्यान के नृत्य में मिलता है । तो फिर मैंने कहा - मूल्यवान को छोड़ना । और मूल्यहीन को पकड़ना । इसमें कौन सी बुद्धिमानी है ? और लोग अगर पागल समझेंगे । तो हर्ज क्या है ? अहंकार को हर्ज है । उन्होंने कहा कि - यह तो बहुत मुश्किल बात है । मैं सरकारी अधिकारी हूं । प्रतिष्ठा है । लोग सम्मान करते हैं । सब प्रतिष्ठा उखड़ जाएगी । आप भी कैसी बात कह रहे हैं ? प्रतिष्ठा का मतलब क्या होता है ? एक अहंकार है । गांव के लोग मानते हैं कि बड़े बुद्धिमान हो । यही लोग मानने लगेंगे कि यह आदमी काम से गया । इस आदमी की बुद्धि गई । अब यह हुआ निर्बुद्धि । अहंकार ही खोएगा न । दूसरे क्या मानते हैं । यही तो हमारा अहंकार है । तुम अक्सर अपने जानने के विपरीत भी लोगों के मानने को पकड़े रहते हो । मैंने कहा - तुम्हें न मिलता होता आनंद ध्यान में । न मिलता होता आनंद नृत्य में । तब एक बात थी । तुम कहते हो मिलता है । और भागा आ जाता हूं । दो त्तीन महीने के बाद आना ही पड़ता है । नहीं आता हूं । तो बड़ी कमी लगने लगती है । दस पांच दिन रह कर डूब लेता हूं । तो तीन चार महीने तक ताजगी बनी रहती है । मगर गांव में जाकर मैं पता भी नहीं बताता । सच तो यह है । उन्होंने कहा - आपसे क्या छिपाना, कि मैं यह अभी तक किसी को बताया नहीं कि पूना जाता हूं । पूना की ऐसी बदनामी । छुपा छुपा आता हूं । छुपा छुपा चला जाता हूं । पूना में भी सरकारी आफिसर हैं । वे कहते हैं - मुझे जानते हैं । उनको भी पता नहीं चलने देता कि मैं यहां आया । ऐसे क्षुद्र से कारण होते हैं । और क्षुद्र के लिए विराट खोता चला जाता है ।
मीरा ने राम रतन पाया । क्योंकि मीरा ने बड़ी हिम्मत की । राजघर से थी । स्त्री थी । प्रतिष्ठित थी । नाचने लगी गांव गांव । खो दी सब लोकलाज । मान मर्यादा । मस्त हो उठी । और जब मस्त हुई । तो फिर जरा संकोच न लिया । फिर क्षुद्र में न पड़ी । विराट से जो गठबंधन बांधा । तो पूरा बांधा । ऐसी मिटी कि कुछ बचाया नहीं । तब राम रतन पाया । तुम भी पा सकते हो । मिटने की तैयारी दिखानी पड़ेगी । उतनी कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी । तुमने कहानी समझी न । सम्राट को प्रेम करना पड़ा एक साधारण स्त्री से तो साधारण हो जाना पड़ा । सारा राज्य छोड़ देना पड़ा । और तुम तो परमात्मा से प्रेम करने चले हो । फिर भी कुछ छोड़ने की इच्छा नहीं है । सम्राट ने एक साधारण स्त्री से प्रेम किया । तो साधारण स्त्री जैसा होना पड़ा । क्योंकि प्रेम तभी संभव है । तुम अगर परमात्मा से प्रेम करने चले हो । तो परमात्मा जैसा होना पड़ेगा । तो ही प्रेम संभव है । परमात्मा जैसा होने का अर्थ यह होता है कि न कोई चिंता । न कोई फिकर । न कल आने वाला । न कल जो बीत गया । परमात्मा तो अभी और यहां है । न उसका कोई अतीत है । न उसका कोई भविष्य है । परमात्मा शांत, चैतन्य की, आनंद की एक दशा है - सच्चिदानंद है । तुम्हें भी इस क्षण में सब भूल जाना पड़ेगा । और एक बार तुम्हारे हाथ में सूत्र आ जाए सब भूल जाने का । तो तुम्हारे हाथ में कुंजी है । तुम जब चाहो । तब उसका द्वार खोल लो । तुम जब चाहो तब । जहां चाहो वहां । उसके मंदिर में प्रविष्ट हो जाओ । यह राम रतन तुम्हारा ही है ।
तुम जब तक अटके हो क्षुद्र बातों में । अटके रहो । तुम जिस दिन तय करोगे । उस दिन कोई रोक नहीं सकता । तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हें किसी ने नहीं रोका है । और तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हें कोई रोक भी नहीं सकता । अगर बाधा हो । तो तुम हो । लेकिन लोग अक्सर ऐसा समझते हैं कि क्या करें । दूसरे लोग रोक रहे हैं । बात झूठी है । मीरा को नहीं रोक सके । तो तुम्हें क्या रोकेंगे । किसी को कभी नहीं रोक सके । तो तुम्हें क्यों रोकेंगे । लेकिन ये बहाने हैं । तुम बहाने खोज लेते हो । और बहाने ऐसे खोज लेते हो कि बड़े सुंदर मालूम होते हैं । मगर फिर वस्तु अमोलक कभी भी न पा सकोगे । वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु... भक्ति कि मार्ग में सदगुरु और परमात्मा में कोई भेद नहीं है । सतगुरु और परमप्रिय में कोई भेद नहीं है । सतगुरु उसी प्यारे का प्रतीक है । जैसे सूरज की एक किरण आती है तुम्हारे अंधेरे घर में । सूरज तो पूरा आना भी चाहे । तो नहीं आ सकता । और आ भी जाए अचानक । तो मुश्किल खड़ी हो जाएगी । तुम झेल न पाओगे । तुम्हारी आंखें अंधी हो जाएंगी । सूरज तुम्हें जलाकर भस्म कर देगा । सूरज को तुम न झेल सकोगे । सूरज की तरफ तो टकटकी लगा कर भी देखना मुश्किल है । आंख अंधी हो जाएगी । और सूरज बहुत दूर है । आठ मिनट लगते हैं सूरज से रोशनी के आने में जमीन तक । आठ मिनट हमें छोटा समय मालूम पड़ता है । किरण के लिए छोटा नहीं है । क्योंकि किरण की गति बड़ी तीव्र है । एक लाख छयासी हजार मील प्रति सेकेंड । तो आठ मिनट में किरण बड़ी यात्रा करती है । प्रति सेकेंड एक लाख छयासी हजार मील । तो साठ का गुणा करना इसमें । फिर आठ का गुणा करना उसमें । बड़ी लंबी संख्या बनेगी । उतने मील दूर है सूरज । फिर भी सूरज की तरफ आंख करो । तो जलने लगेगी । घबड़ा जाओगे । अंधेरा छाने लगेगा । तुम्हारे घर में सूरज आ जाए । तो तुम बचोगे कहां ? जलकर खाक हो जाओगे । किरण आती है । मगर किरण काफी है । किरण को पकड़ लिया । किरण को आत्मसात कर लिया । तो तुम्हारी क्षमता बढ़ती जाएगी । फिर किरण के सहारे ही किसी दिन सूरज में भी पहुंच जाओगे । सतगुरु यानी किरण । वह परमात्मा की खबर है । परमात्मा तो चुप है । सतगुरु बोलता है । वह परमात्मा की तरफ से बोलता है । वह परमात्मा का प्रतिनिधि है ।
इसलिए मुसलमानों ने ठीक शब्द चुना है - पैगंबर । उसका मतलब होता है - पैगाम लाने वाला, संदेशवाहक । वह अवतार से भी प्यारा शब्द है । वह तीर्थंकर से भी प्यारा शब्द है - संदेशवाहक । खबर ला रहा है । सतगुरु को पकड़ना होगा । वहां से यात्रा शुरू होती है । सतगुरु को पचाते  पचाते एक दिन तुम पाओगे । कब गुरु ब्रह्मा हो गया । पता नहीं चला । गुरुर्ब्रह्मा ! कब हो जाता है गुरु ब्रह्मा ? पता नहीं चलता भक्त को । एक दिन अचानक पाता है कि जिसको मनुष्य की तरह देखा था । उसमें परमात्मा अवतरित हुआ । जिसको मनुष्य की तरह हाथ में हाथ जिसके दिया था । वह अब मनुष्य नहीं है । प्रेम धीरे धीरे प्रवेश करता है । और उसके अति मानवीय रूप को देखना शुरू कर देता है । वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, करि करिपा अपनायो । और मीरा कहती है कि - मेरी तो कोई पात्रता न थी । फिर भी तुमने अपना लिया । अपना बना लिया । मुझ अपात्र को भी । भक्त की यह भाव दशा सदा बनी रहती है कि मैं अपात्र हूं । यह उसकी अनिवार्य लक्षणा है । ज्ञानी को तो कभी  कभी भ्रम पैदा होते हैं कि मैं पात्र हूं । त्यागी को भ्रम पैदा होते हैं कि मैं पात्र हूं । तपस्वी को भ्रम पैदा होते हैं कि मैं पात्र हूं । मैंने इतना किया । इतना किया । वह खाते बही रखता है । हिसाब बनाकर तैयार रखता है कि दावादार । कभी अगर मौका मिला अदालत में तो दावा करेगा । लेकिन भक्त को यह बात सदा बनी रहती है कि मैं अपात्र हूं । जितना मिलता है भक्त को । उतना ही भक्त को यह लगने लगता है कि मैं अपात्र हूं । मगर जितना तुम्हें यह पता चलता है कि मैं अपात्र हूं । उतने ही तुम पात्र हो जाते । क्योंकि अपात्र होने का अर्थ है । अहंकार जा रहा । अहंकार गया । पात्रता का दावा तो अहंकार का दावा है - ओशो ।

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