1 वशिष्ठ - दशरथ के कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ को कौन नहीं जानता । ये दशरथ के चारों पुत्रों के गुरु थे । वशिष्ठ के कहने पर दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था । कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था । वशिष्ठ ने राज सत्ता पर अंकुश का विचार दिया । तो उन्हीं के कुल के मैत्रावरूण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे 100 सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया ।
2 विश्वामित्र - ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे । और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था । लेकिन वे हार गए । इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया । विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा जगत प्रसिद्ध है । विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था । लेकिन स्वर्ग में उन्हें जगह नहीं मिली । तो विश्वामित्र ने 1 नए स्वर्ग की रचना कर डाली थी । इस तरह ऋषि विश्वामित्र के असंख्य किस्से हैं । माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहां शांतिकुंज हैं । उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुष्ट होकर 1 अलग ही स्वर्ग लोक की रचना कर दी थी । विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी । और गायत्री मन्त्र की रचना की । जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है ।
3.कण्व - माना जाता है । इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया । कण्व वैदिक काल के ऋषि थे । इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन पोषण हुआ था । 103 सूक्त वाले ऋग्वेद के आठवें मण्डल के अधिकांश मन्त्र महर्षि कण्व तथा उनके वंशजों तथा गोत्रजों द्वारा दृष्ट हैं । कुछ सूक्तों के अन्य भी द्रष्ट ऋषि हैं । किंतु 'प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति' के अनुसार महर्षि कण्व अष्टम मण्डल के द्रष्टा ऋषि कहे गए हैं । इनमें लौकिक ज्ञान विज्ञान तथा अनिष्ट निवारण सम्बन्धी उपयोगी मन्त्र हैं । सोनभद्र में जिला मुख्यालय से 8 किमी की दूरी पर कैमूर श्रृंखला के शीर्ष स्थल पर
स्थित कण्व ऋषि की तपस्थली है । जो कंडाकोट नाम से जानी जाती है ।
4 भारद्वाज - वैदिक ऋषियों में भारद्वाज ऋषि का उच्च स्थान है । भारद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं । भारद्वाज ऋषि राम के पूर्व हुए थे । लेकिन 1 उल्लेख अनुसार उनकी लंबी आयु का पता चलता है कि वनवास के समय श्रीराम इनके आश्रम में गए थे । जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता द्वापर का सन्धिकाल था । माना जाता है कि भरद्वाजों में से 1 भारद्वाज विदथ ने दुष्यन्त पुत्र भरत का उत्तराधिकारी बन राजकाज करते हुए मन्त्र रचना जारी रखी । ऋषि भारद्वाज के पुत्रों में 10 ऋषि ऋग्वेद के मन्त्रदृष्टा हैं । और 1 पुत्री जिसका नाम 'रात्रि' था । वह भी रात्रि सूक्त की मन्त्रदृष्टा मानी गई हैं । ॠग्वेद के छठे मण्डल के द्रष्टा भारद्वाज ऋषि हैं । इस मण्डल में भारद्वाज के 765 मन्त्र हैं । अथर्ववेद में भी भारद्वाज के 23 मन्त्र मिलते हैं । भारद्वाज स्मृति एवं भारद्वाज संहिता' के रचनाकार भी ऋषि भारद्वाज ही थे । ऋषि भारद्वाज ने 'यन्त्र सर्वस्व' नामक बृहद ग्रन्थ की रचना की थी । इस ग्रन्थ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्ममुनि ने 'विमान शास्त्र' के नाम से प्रकाशित कराया है । इस ग्रन्थ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन मिलता है ।
5 अत्रि - ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे । अत्रि जब बाहर गए थे । तब त्रिदेव अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा माँगने लगे । और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी । तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे । तब अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी । अनुसूया ने सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था । अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह योगदान दिया था । अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस ( आज का ईरान ) चले गए थे । जहाँ उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया । अत्रियों के कारण ही अग्नि पूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ । अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था । मान्यता है कि अत्रि दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे । ऋषि अत्रि पर अश्विनी कुमारों की भी कृपा थी ।
6 वामदेव - वामदेव ने इस देश को सामगान ( अर्थात संगीत ) दिया । वामदेव ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के सूत्तद्रष्टा, गौतम ऋषि के पुत्र तथा जन्मत्रयी के तत्व वेत्ता माने जाते हैं । भरत मुनि द्वारा रचित भरत नाटय शास्त्र सामवेद से ही प्रेरित है । हजारों वर्ष पूर्व लिखे गए सामवेद में संगीत और वाद्य यंत्रों की संपूर्ण जानकारी मिलती है । वामदेव जब मां के गर्भ में थे । तभी से उन्हें अपने पूर्व जन्म आदि का ज्ञान हो गया था । उन्होंने सोचा - मां की योनि से तो सभी जन्म लेते हैं । और यह कष्टकर है । अत: मां का पेट फाड़कर बाहर निकलना चाहिए । वामदेव की मां को इसका आभास हो गया । अत: उसने अपने जीवन को संकट में पड़ा जानकर देवी अदिति से रक्षा की कामना की । तब वामदेव ने इंद्र को अपने समस्त ज्ञान का परिचय देकर योग से श्येन पक्षी का रूप धारण किया । तथा अपनी माता के उदर से बिना कष्ट दिए बाहर निकल आए ।
7 शौनक - शौनक ने 10 000 विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया । और किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया । वैदिक आचार्य और ऋषि जो शुनक ऋषि के पुत्र थे । फिर से बताएं । तो वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भरद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक । ये हैं वे 7 ऋषि । जिन्होंने इस देश को इतना कुछ दे डाला कि कृतज्ञ देश ने इन्हें आकाश के तारामंडल में बिठाकर एक ऐसा अमरत्व दे दिया कि सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारी कल्पना आकाश के तारामंडलों पर टिक जाती है ।
इसके अलावा मान्यता हैं कि अगस्त्य, कष्यप, अष्टावक्र, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, ऐतरेय, कपिल, जेमिनी, गौतम आदि सभी ऋषि उक्त 7 ऋषियों के कुल के होने के कारण इन्हें भी वही दर्जा प्राप्त है । वेदों का अध्ययन करने पर जिन 7 ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है । वे नाम क्रमश: इस प्रकार है - 1 वशिष्ठ 2.विश्वामित्र, 3.कण्व, 4.भारद्वाज, 5.अत्रि, 6.वामदेव, 7 शौनक ।
पुराणों में सप्त ऋषि के नाम पर भिन्न भिन्न नामावली मिलती है । विष्णु पुराण अनुसार इस मन्वन्तर के सप्त ऋषि इस प्रकार है -
वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत ।
विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन ।
अर्थात सातवें मन्वन्तर में सप्त ऋषि इस प्रकार हैं - वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज ।
इसके अलावा पुराणों की अन्य नामावली इस प्रकार है - ये क्रमशः केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ट, मारीचि है ।
महाभारत में सप्तर्षियों की 2 नामावलियां मिलती हैं । एक नामावली में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ के नाम आते हैं । तो दूसरी नामावली में 5 नाम बदल जाते हैं । कश्यप और वशिष्ठ वहीं रहते हैं । पर बाकी के बदले मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु नाम आ जाते हैं । कुछ पुराणों में कश्यप और मरीचि को 1 माना गया है । तो कहीं कश्यप और कण्व को पर्यायवाची माना गया है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें